लोकधर्मी कवि रेफाएल आल्बेर्ती







विगत जनवरी से हमने 'लोकधर्मी कवियों की परम्परा' नामक एक श्रृंखला आरम्भ किया था। इस श्रृंखला में आपने विश्व के ख्यात लोकधर्मी कवियों के बारे में हर महीने सिलसिलेवार पढ़ा। इस श्रृंखला को आप पाठकों का अपार प्यार प्यार प्राप्त हुआ। यह कड़ी समापन कड़ी है जो स्पेन के महान लोकधर्मी कवि रेफाएल अल्बेर्ती पर केंद्रित है। 


हमारे लिए यह पोस्ट इस मामले में भी अहम् है कि यह 'पहली बार' ब्लॉग पर प्रस्तुत की जाने वाली तीन सौंवी पोस्ट है। आप रचनाकारों के अमूल्य सहयोग और पाठकों के स्नेह के चलते ही हम इस मुकाम तक पहुँच पाये हैं। आप सबके साथ खुशी के इस क्षण को जीते हुए हमें अपार खुशी हो रही है। इस विशिष्ट अवसर पर आइये पढ़ते हैं विजेंद्र जी का यह आलेख  'लोकधर्मी कवि रेफाएल आल्बेर्ती'।  


लोकाधर्मी कवि रेफाएल अल्बेर्ती 


 

विजेंद्र


रेफाएल अल्बेर्ती  स्पेनी भाषा के एक महान कवि थे। वह पाब्लो नेरुदा और लोर्का के बहुत ही आत्मीय मित्र भी थे। आल्बेर्ती जन्मे 16 दिसम्बर 1902 में। मृत्यु हुई 1999 में। ‘1927 की कवि पीढ़ी’ के नाम से विख्यात स्पेनी कवियों में वह अग्रगण्य हैं। उन्हें ‘स्पेनी रजत युग’ का सबसे बड़ा कवि भी माना गया है। उन्होंने 96 वर्ष का सुदीर्घ जीवन जिया। उन्हें अनेक सम्मानों तथा विभूषणों से अलंकृत भी किया गया था। स्पेनी गृह युद्ध के बाद से उन्हें अपने देश से ब्रेख्त, नेरुदा, नाजिम हिकमत तथा महमूद दरवेश आदि कवियों की तरह 40 वर्षों तक निर्वासित होना पड़ा था। यह त्रासदी उन्हें मार्क्सवादी दर्शन को अपनाने की वजह से सहनी पड़ी थी। फ्रांको की मृत्यु के बाद 1927 में वह स्पेन लौट सके। उनकी कविता लोक विरोधी व्यवस्था के प्रतिरोध की कविता है। जैसे लोर्का, नेरुदा , नाजिम,  वोले शयिंका आदि की। हमारे यहाँ जैसे नागार्जुन,  केदार बाबू,  मुक्तिबोध, त्रिलोचन,  कुमारेंद्र, कुमाल विकल,  मानबहादुर सिंह आदि की। पर आल्बेर्ती लोर्का की अपेक्षा अधिक बौद्धिक हैं। उनके ऊपर भी वे ही साहित्यिक प्रभाव लक्षित हैं जो लोर्का की कविता पर देखे जाते हैं। दोनों में गहरा परम्परा बोध भी है। राजनीतिक सहानुभूति भी। आल्बेर्ती की कविता में लोर्का की कविता जैसा तीखा प्रतिरोध नहीं है। स्पेन में बहुत पहले से बड़े बड़े भूस्वामियों तथा रुढ़िवादियों के विरुद्ध प्रतिरोध की परम्परा रही है। जिस तरह लोर्का को अपने देश में ग्राण्डा जनपद प्रिय है, उसी तरह आल्बेर्ती को आन्दालूसिया। स्पेन की कवियों में आल्बेर्ती बहुत ही बौद्धिक तथा चिंतनशील कवियों में से एक निराले ही कवि हैं। लेकिन यह कवि भी लार्का की तरह लोक-प्रगीत परम्परा की कविता लिखने में बहुत सक्षम रहे हैं। वे बहुत सहज हैं। उनकी कविता पर कोई बाहरी चीज़ थोपी हुई नहीं लगती। इस कवि की कविता में प्रमुखतः दो प्रकार के कथ्य देखे जा सकते है। एक तो समुद्र किनारे के बचपन की यादें। दूसरे, उनके स्वरचित मिथक। जैसे 1927 में उनकी एक काव्य पुस्तक आई ‘फरिश्तों के बारे में’। यह कहना कठिन है कि यह फरिश्ते किस प्रतीक या रूपक के लिये चुने गये हैं। पर इतना तो तय है कि ये फरिश्ते किसी धार्मिक भावना को व्यक्त नहीं करते। जैसे रिल्के के यहाँ इनका सम्बंध धार्मिक भावों से होता है। फिर भी इनके प्रयोग से कविता में दृश्य को अदृश्य बनाने की प्रवृत्ति बनी रहती है। अगर देखा जाये तो उनमें कोई जीवन के प्रेरणास्रोत दिखाई नहीं देते। बल्कि वे हमारे मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक मनःस्थितियों का संकेत देते हैं। कवि शुरु में अपने आत्मविश्वास तथा उल्लास के बारे में कुछ कहना चाहता है –


स्वर्ग का कौन सा रास्ता है
छाया-प्रतीति
जो तुम कभी अस्तित्व में थी
प्रश्न के बाद खामोशी बनी रही
शहर निरुत्तर रहे
नदियाँ अवाक्
समुद्र निःशब्द
कोई नहीं जानता
मनुष्य गतिहीन खड़ा है
समाधियों के किनारों पर
वह मुझे भी नहीं जानता।







इससे लगता है कि उस कवि को स्वर्ग खत्म हो चुका है जो छायाप्रतीतियों में फँस चुका है। यहाँ हमें आल्बेर्ती की त्रासदी का जैसे कुछ सुराग सा मिलता दिखता है। उसे वे रूपकीय भाषा में कहते हैं। ऐसी अस्पष्टता लोर्का में भी है। नेरुदां में भी। कारण है उस समय के अतियथार्थवादी आन्दोलन का प्रभाव। यह आन्दोलन इतना प्रभावी थी कि नेरुदा जैसे मार्क्सवादी भी इसके प्रभाव से नहीं बच सके। साहित्य में ही नहीं इस का प्रभाव चित्रकला पर भी बहुत अधिक था। जैसे आल्बेर्ती की एक लघु आकार की कविता है, ‘अनिष्ट क्षण’


‘जब गेंहूँ मेरे लिये नक्षत्रों की रहने की जगह था
और देवता तथा तुषार चिंकारा के जमे आँसू
किसी ने मेरे हृदय तथा छाया पर पलस्तर किया था
मुझे धोखा देने के लिये।


इस कवि के प्रतीकों में बच्चों जैसी अबोधता है। कुछ आलोचकों का कहना है कि उनकी कल्पना रूसी कवि पास्तरनक से अधिक मिलती जुलती है।







आल्बेर्ती का जन्म हुआ एक व्यापारी के परिवार में। पिता अंगूरों की शराब का व्यापार करते थे। वह एक व्यापारी होने के नाते ज्यादातर बाहर ही रहते थे। इसीलिये आल्बेर्ती को अपना परिवार एक पतित होता बुर्जुआ परिवार लगने लगा था। उनकी परिपक्व कविता में इस कथ्य के संकेत मिलते हैं। दस साल की उम्र में कवि एक आदर्श विद्यार्थी पहचान लिये गये थे। उन्होंने अपने स्कूल में छात्रों के बीच भेदभाव होते देखा। गरीब बच्चों के प्रति एक अवमानना का भाव था। उनकी उपेक्षा की जाती थी। जबकि सम्पन्न बच्चों के प्रति एकदम दूसरा व्यवहार था। यह उन्हे बहुत बुरा लगता था। उनके मन में इसके प्रति विद्रोह जनमने लगा। अपने जीवनवृत्त में उन्होंने इस वर्ग द्वंद्व के बारे में लिखा भी है। तभी से उन्होंने पढ़ाई से भी जी चुराना शुरू किया। साथ ही स्कूल के अधिकारियों की बातों की भी अवज्ञा करने लगे। फलस्वरूप 1917 में उन्हें अंग्रेजी कवि शैले की तरह स्कूल से निकाल दिया गया। शैले की बगावत ईश्वर और धर्म को ले कर थी। आलबेर्ती ने सामाजिक अन्याय के प्रति बगावत की थी। 1917 में ही उनके पविार को मैड्रिड जाना पड़ा। यही वह समय है जब कवि को चित्र कला में गहरी रुचि जाग्रत हुई। यहाँ भी कवि ने पढ़ाई-लिखाई में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। अपना ज्यादा वक्त श्रेष्ठ कलाकृतियों की प्रतिलिपियाँ तैयार करने में लगाया। साथ में मूर्तिकला में भी उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। 1920 में उनके पिता की मृत्यु ने उन्हें गहरा आघात दिया। वह कविता सृजन के लिये प्रेरित हुये। मैड्रिड में उन्हें क्षयरोग हुआ। अब उन्होंने बड़ी निष्ठा और समर्पण के साथ कविता सृजन शुरू किया। उनकी कवितायें उस समय की प्रमुख पत्रिकाओं में छपने लगी। एक कवि के रूप में उनकी ख्याति भी बढ़ने लगी। 1924 में उन्हें कविता के लिये पुरस्कृत किया गया। अभी तक वह अपनी आजीविका के लिये अपने परिवार पर ही आश्रित थे।



उनके जीवनवृत्त से ज्ञात होता है कि उनकी पत्नी मेरिया तेरेसा ने उनके रचना कर्म में बहुत सहयोग दिया। 1930 में उनके जीवन में बहुत बड़ा वैचारिक परिवर्तन आया। अपनी केन्द्रीय विचारधारा के रूप में उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन को अपना लिया। 1931 में द्वितीय स्पेनी लोकतंत्र में गहरी आस्था व्यक्त करने के हेतु भी उन्होंने मार्क्सवाद को अपनाया। न केवल इतना उन्होंने स्पेन की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता भी ग्रहण की बल्कि अब मार्क्सवादी विचारधारा ही कवि के लिये एक प्रकार से उनका धर्म बन गया था। उनके मित्र उनसे कतराने लगे। पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में अब उन्हें आजीविका के लिये परिवार पर निर्भरता से मुक्ति मिली। उन्होंने उत्तरी योरुप की कई यात्रायें भी की। 1933 में स्पेन में सत्ता परिवर्तन हुआ। कवि ने ‘अक्टूबर’ नामक पत्रिका के माध्यम से सत्ता पर प्रहार किये। अतः उन्हें देश से निर्वासित होना पड़ा। कहा जाता है कि स्पेन के गृहयुद्ध के समय आल्बेर्ती स्पेन में चरम वाम की प्रमुख आवाज़ बन गये थे। जब लोकतंत्र पराजित हो गया तो कवि को अपनी पत्नी के साथ देश छोड़ने को विवश होना पड़ा। स्पेन से कवि पेरिस चले गये। वहाँ दोनों पाब्लो नेरुदा के साथ रहने लगे। यहाँ वे 1940 तक रहे। उन्होंने यहाँ अनुवाद कार्य किया। रेडियो प्रसारण भी। इस तरह अपनी आजीविका चलाते रहे। वहाँ से वे रोम को चले गये। 27 अप्रैलं 1977 को वे स्पेन लौट आये। उसके तत्काल बाद उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का टिकट दिया गया। वह चुने भी गये। 13 दिसम्बर, 1988 को उनकी पत्नी का निधन हो गया। उनकी  कविताओं में अपने बचपन की स्मृतियाँ अधिक हैं। गृहविरह (Nostalgia) के भी चित्र आते हैं। प्रकृति के भूदृश्य मुखर हैं। जैसे- उनकी एक कविता है, ‘भोर’।


हल्के सुर्ख प्रहारों से
मैं तुम्हें देता था नाम
एक भ्रामक स्वप्न
अदेह फरिश्ता
वृक्षों के बीच हुई
वर्षा की भ्रांति
मेरी आत्मा के किनारे
जो दिलातें हैं याद नदियों की
संशय, झिझक और अचलता
जैसे कोई टूटता तारा
रोती हुई भौचक रोशनी
दर्पन अवाक्
नहीं
वर्फ का जल में उपजा भ्रम
यही है तुम्हारा नाम।








वैसे यहाँ तक पहुँते पहुँते उन्होंने अपना मुहावरा खोज लिया था। जब उन्होंने स्पेन के गाँवों और पहाड़ी इलाकों का भ्रमण किया तो उन्हें नये अनुभव हुये। इस समय तक कवि की भेंट स्पेन के दूसरे बड़े कवि लोर्का से हो चुकी थी। लगता है जैसे आल्बेर्ती लोर्का की कविता से होड़ कर रहे हैं। लेकिन लोर्का में जो कुछ त्रासद, अक्रामक, तथा मृत्यु-गर्भित है वैसी गहरी अनुभूतियाँ आल्बेर्ती में शायद नहीं हैं। कई बार उनकी अनुभूति बहुत ही कृत्रिम लगने लगती है। कई बार अतिनाटकीय तथा भावुकता पूर्ण। उनकी कविता में यह स्खलन क्या उनकी राजनीतिक व्यस्तता की वजह से आया होगा। लगता है अब कविता उनको प्राथमिक नहीं रह गई है! कविता जीवन का सम्पूर्ण समर्पण चाहती है। हो सकता है आल्बेर्ती में लोर्का तथा नेरुदा जेसी काव्य प्रतिभा का अभाव रहा हो? कवि का एक और काव्य संग्रह ‘क्ले कैन्टो’ ( 1926-27 ) में छपा। यहाँ उनकी कविता में काफी परिवर्तन दिखाई देता है। अब लगता है वह लोक साहित्य के प्रभाव को छोड़ रहे हैं जो उनकी पहली कविताओं पर खूब दिखाई पड़ता है। उनका ध्यान अलंकरण की ओर अधिक है। कहीं-वे उच्श्रृंखल भी। उन्होंने बहुत ही अनुशासित काव्य रूप सॅानेट भी लिखे हैं। और त्रिक भी। साथ गाथा गीत (Ballads) भी लिखे। जैसे उनका एक प्रसिद्ध गाथा गीत है , ‘हवा का गाथा गीत’।



अनन्तता एक नदी हो सकती है
एक विस्मृत घोड़ा
एक खोई हुई पिण्डुक का कूजन
आदमी अपने को
अलगाता है आदमियों से
हवा उसे अब बताती है
दूसरी चीज़ों के बारे में
उसके कानों और आँखों को
खोलती है
दूसरी चीज़ों के बारे में
आज -
मैं ने अपने को अलगाया है
आदमियों से
और मैं अकेला हूँ
इस मोरी में
मैं ने नदी की तरफ
निहारना शुरू किया
और देखा एक अकेला घोड़ा
अकेला ही सुनता रहा
उस खोई हुई
पिण्डुक का कूजन
हवा और करीब आई
जैसे पास से गुजरता
कोई पथिक मुझ से कहे
अनन्तता एक नदी हो सकती है
एक विस्मृत घोड़ा हो सकती है
एक खोई हुई पिण्डुक का कूजन।


यहाँ कवि में एक बेचैनी तो है। दूसरे, समाज से जुड़े रहने का एहसास भी। अकेला मनुष्य ‘किसी मोरी में कैद’ प्राणी जैसा होता है। दूसरे, अनन्तता की अमूर्त बातें हमें सामाजिक सरोकारों से दूर ले जाती हैं। यही वजह है कवि अनन्तता जैसे अमूर्त प्रत्यय को दृश्य वस्तुओं से व्यक्त करता है। ऐसी वस्तुये जो हमारे लिये बहुत ही परिचित हैं। उपयोगी तथा आनंददायक भी। उपर्युक्त कविता में घोड़ा प्रतीक हैं मानवीय ऊर्जा का। शक्ति का। आवेगपूर्ण गति का। जैसे विश्वविख्यात चित्रकार हुसैन के यहाँ भी घोड़े मानवीय ऊर्जा तथा शक्ति के प्रतीक बन कर आते हैं। कविता में परम्परित मूल्यों का स्वीकार है। मिथकों तथा धार्मिक ध्वनियों की अनुगूँज भी। पुरानी अवधारणायें भी व्यक्त होती हैं –



स्वर्ग को कौन सा रास्ता है
परछाई, जो तुम कभी
अस्तित्व में थी
प्रश्न के बाद खामोश बनी रही
शहर निरुत्तर रहे
नदियाँ अवाक्
चोटियाँ बे-अनुगूँज
समुद्र निःशब्द
कोई नहीं जानता
मनुष्य खड़ा है गतिहीन
समाधियों के छोरों पर
मुझे भी कोई नहीं जानता


$$$


यह आदमी मृत है
पर वह यह जानता नहीं
वह किनारों पर
तूफान खड़ा करना चाहता है
बादलों को चुराना
सुनहरे पुच्छल तारों को हड़पना
जो सबसे विरल है - आकाश
उसे खरीदना
यह आदमी मृत है। 








कवि में  चित्रोपम बिंब देने की अद्भुत क्षमता है। उसकी विश्वदृष्टि यद्यपि बहुत संश्लिष्ट नहीं है। फिर भी वे अपनी निजी दुनिया से सामाजिक दुनिया में प्रवेश करते हैं। फरिश्तों के बिंब बहुधा कवि की कविता में आते हैं। यह कवि की मनोरचना तथा उसकी मनोदशा का संकेत हैं। लेकिन उनके सामाजिक प्रसंग भी बराबर बने रहते हैं। सामाजिक भाव साहचर्य पाठक के मन में एक के बाद एक सृजित होते दिखते हैं। उनकी एक कविता है, ‘ लालची फरिश्ता’। उसमें राजनीतिक ध्वनियाँ साफ लक्षित हैं। लगता है कवि स्वयं गहरे अवसाद से गुज़र रहे हैं। यहाँ फरिश्ता पूँजीकेद्रित व्यवस्था का भी प्रतीक बनता है। वह चेतना की दृष्टि से मृत है। पर उसमें चीजों को खरीदने की पिपासा बेहद है। वह समझता है कि धन से सब कुछ खरीदा जा सकता है यहाँ तक कि प्राकृतिक शक्तियाँ भी। उसके लिये हर चीज़ एक पण्य वस्तु है। इसी मनोरचना के कारण मनुष्य संवेदनाहीन बनता है। वह भाव शून्य होकर निष्करुण हो जाता है। इसी समय कवि को किसी बड़े संकट का आभास होता है। एक दुर्निवार संकट। कदाचित् यह गहराया हुआ संकट ही उनके अवसाद का कारक बना हो। लेकिन कवि उस संकट से पलायन नहीं करते। उसकी चुनौती को स्वीकारते हैं। हाँ उन्हें कभी कभी यह आभास जरूर होंता है कि उनके बचपन के प्रेरणा स्रोत सूख रहे हैं। यह भी कि संकट इतना गहरा है कि सारी दुनिया ही विनष्ट हो सकती है। इतना सब होते हुये भी कवि को विश्वास है कि इसके लिये कोई न कोई समाधान -कोई विकल्प - खोजना ही होगा। चंद्रमा और सितारे शत्रुवत प्रतिकूल हो सकते हैं। फिर भी एक मनुष्य होने के नाते इन अमूर्त दैविक विश्वासों को झटक कर तोड़ना ही होगा। तभी सामाजिक प्रसंगों में ही समाधान सामने आयेगा। यह उनकी प्रसिद्ध कविता, ‘विरुद्ध चंद्रमा’ की पंक्तियों से सांकेतिक रूप में ध्वनित हैं -



मुझे निहारिकाओं के
आदिम विश्वासों से बचाओ
उन दर्पणों से
जो अब अपने अर्थ खो चुके हैं
उन हाथों से
जो मुझे यादों की जमुहाइयों में
घसीटते हैं
बचो
ये सब हमें विरुद्ध होती हवा में
दफना रहे हैं
क्योंकि मेरी आत्मा
मानवीय नियमों को
भूल चूकी है


इससे यह भी लक्षित है कि कवि समय की तल्ख भयावहता से सबक सीख चुका है। वर्तमान का ज्वलन्त रूप अतीत के धुँधलके से अधिक महत्वपूर्ण है। कवि में नकार के चिन्ह अब आस्था तथा आशा में बदलने लगे हैं -


लेकिन मैं तुम से कहता हूँ
एक गुलाब
ज्यादा गुलाब है
जब वह कीड़ों का घर हो
बनिस्बत उन दशकों पुरानी 
चन्द्रमा की धुँधलाती वर्फ से 






लगता है कवि ने आत्मंथन तथा जीवनसंघर्ष के बल पर अपने को इस भयावह संकट से उबारा है। मैड्रिड की घेराबंदी के समय कवि ने तात्कालिक घटनाओं पर भी कवितायें लिखी थी। यहाँ कविता में सहजता है। सीधापन है। मुहावरे की सादगी है। अपनी काव्य परम्परा की अनुगूँजें यहाँ सुनी जा सकती हैं। स्पेन की वैध सरकार के पक्ष में किसानों की सेना का गठन किया गया था। उसकी अभिव्यक्ति कविता में देखी जा सकती है।



तुम उन्हें
अभियान पर जाते देखो
चकमक पत्थर की तरह
उनके सिर काले हैं
उनके स्वप्नों में आँच है
जैसे फल के भीतर निहित गूदा
उनकी शानदार टोपियों में
भीगे मैंमनों की गंध है


कवि को बराबर लगता रहा कि किसान अपने लक्ष्य के बारे में अनजान हैं। फिर भी उनमें व्यवस्था परिवर्तन के लिये उत्साह है। वे ‘जीवन पाने के लिये, मृत्यु को मार सकते हैं’। कवि को लगता है कि स्पेन में मानवीय विनाश होने के लक्षण दिख रहे हैं। देशवासियों की देहें देश की खाद बन सकती हैं। उसी से नये जीवन का अंकुरण होगा। पर स्पेन में लोकतंत्र पराजित हुआ। अपेक्षित नये जीवन का अंकुरण नहीं हो पाया। बल्कि कवि को ही अपने देश से निर्वासित होना पड़ा।






आल्बेर्ती अपनी बाद की कविता में अपने निर्वासन के बोध की ही कवितायें अधिक रचते रहे। इस कविता का अधिकांश अर्जेन्टीना में लिखा गया। कवि की गहरी त्रासद वेदना है कि वह उसे अपना देश कभी नही मान पाये। जैसे महमूद दरवेश इस्रायल को कभी नहीं भूल पाते। ठीक वैसे ही आल्बेर्ती अपने स्पेन को विस्मृत नहीं कर पाये। बार बार उनका ध्यान अपने युवा काल के स्पेन पर जाता है। अपने प्रिय जनपद आन्दालूसिया की याद उन्हें अंदर ही अंदर उन्मथित करती रहती है। जैसे लोर्का को ग्रेनाडा। लगता है कवि की कोई अति प्रिय चीज़ खो गई हो। यह भाव बहुत गहरा और बेचैन करने वाला है। इससे उनके हृदय में गहरी रिक्तता का भी बोध पैदा हुआ है। यहाँ तक कि आत्म दया जैसी अनुभूति भी। पर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध होने के कारण उनके मन के एक कौने में आस्था तथा दृढ़ता भी बराबर है। अर्जेन्टीना के प्रमुख महानगर को वह एक उजडे़ नगर की तरह देखते हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से एकदम रिक्त और खोखला –


यह अजाना एकांत आकाश
पहाड़ों और वृक्षों से घिरा
यहाँ के घास के मैदान
और जनता
इन्हे पहले कभी नहीं देखा, जाना
जैसे क्रांति की प्रक्रिया
किसी ने उलट दी हो


यह दौर कवि के लिये एकदम भिन्न दौर था। उनका चित्रकला के प्रति अनुराग और गहरा हुआ। यहाँ तक कि अनेक चित्रकारों पर उन्हों कवितायें रचीं। अब जैसे कविता में निजी आत्म विश्वास लौट रहा हो । 1953 में ‘सागर तट’ नामक उनका काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। यह उनका इकलौता कविता संग्रह है जिसे स्पेन में बेचे जाने की छूट मिली थी। इस संग्रह की कविताओं में ऐतिहासिक प्रक्रिया की अनुगूँजें सुनी जा सकती है। यहाँ उनकी कम्युनिस्ट आस्था के चित्र भी व्यक्त हुए हैं। उनमें पुनः जैसे मानवीय आस्था का अंकुरण हो रहा हो। बाद में आल्बेर्ती ने अंग्रेजी के प्रख्यात कवि राबर्ट ब्राउनिंग के नाटकीय एकालापों की तर्ज पर भी कवितायें रची हैं। यहाँ कवि पुनः इतिहास की द्वंद्वमय चेतना को व्यक्त कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने अपनी निजता का रंग सूखने नहीं दिया।  लगता है कवि स्वयं में कोई स्थाई अस्मिता की खोज में लगे हुये हैं। अपनी पूरी स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कवि की सजगता वरेण्य है। इससे लगता है कि कवि को उनकी मार्क्सवादी विचारधारा इधर उधर भटकने से रोक रही है। यह बोध भी कवि को है कि अब वह अपनी अंतिम यात्रा की ओर अग्रसर है। फिर भी जीवन के प्रति उनकी निष्ठा बदस्तूर बनी हुई है। उनकी कविता में सकार की अनुगूँजें भी सुनाई पड़ती है –


ओह यह रात ...
अब इसे आगे धकेलने की क्षमता
क्षीण बल है
ये सारे वर्ष भय से भरे रहे हैं
आखिर उन्हें भेद कर ही
निषिद्ध प्रकाश को पकड़ता हूँ
मुझे बोध है
उसका अस्तित्व अभी बचा है
तुम भी जानते हो
इसका अस्तित्व है
इसी लिए हम सब अग्रसर हैं
भले ही हम सब
मृत्यु के गान गा रहे हैं






यह प्रकाश आखिर क्या है? यह है राजनीतिक स्वायत्तता। मनुष्य की उत्पीड़न से मुक्ति। कवि को भरोसा है कि स्पेन की जनता एक दिन जरूर तानाशाही का तख्ता पलट देगी। वहाँ लोकतंत्र स्थापित होगा। लोककल्याणकारी व्यवस्था आयेगी। सांकेतिक ध्वनि यह भी है कि मूलविहीनता और अनिश्चय के बीच ही कवि का पुनर्जन्म होगा। एक ऐसे देश में जो रूहानी तथा जिस्मानी तौर पर निरा अजनबी तथा अपरिचित सा लगने लगा है। जहाँ जैसे निसर्ग के नियमों में भी व्यतिक्रम पैदा हो गया है। अर्जेन्टीना से इटली लौट आने के बावजूद वह एक निर्वासित कवि ही हैं। अपने राजनीतिक विचारों में अति विनम्र। अपनी आकस्मिक कविता में भी बहुत ही सहज सरल।


1930 के आसपास आल्बेर्ती के बारे में एक विवाद उठ खड़ा हुआ था। इस विवाद का प्रमुख कथ्य था कि आल्बेर्ती अब कवि रह भी पायेंगे या नहीं? खासतौर पर उनके अत्यंत प्रिय कवि मित्र लोर्का ने ही यह प्रश्न उठाया था कि आल्बेर्ती अब सारगर्भित तथा उत्कृष्ट कविता नहीं लिख पायेंगे। आखिर क्यों? क्योंकि राजनीतिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता बहुत बढ़ चुकी है! पर यह कथन बहुत ही अतिरंजित साबित हुआ। आल्बेर्ती बराबर अर्थवान कवितायें लिखते रहे। राजनीति में तो पाब्लो नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत तथा मायकोवस्की आदि भी बहुत डूबे थे। कोई भी जागरूक तथा बड़ा कवि राजनीति से निरपेक्ष तथा कटा नहीं रह सकता। उसे इतिहास में सजग परिवर्तनकारी शक्तियों के पक्ष में खड़ा होना पड़ सकता है। अपने देश की संघर्षशील जनता के साथ होना किसी भी बड़े कवि की नियति है। दरअसल आल्बेर्ती की राजनीतिक कविता के दो स्तर है। एक तो वे राजनीतिक कवितायें जिनमें अपेक्षाकृत भावबोध की संष्लिष्टता कम है पर शिल्पसौष्ठव में कमी नहीं आई है। दूसरी वे कवितायें जहाँ जीवन के विविध अनुभवों की अत्यंत संश्लिष्ट अभिव्यक्ति हुई है। उनकी श्रेष्ठ कविता के प्रेरणा स्रोत उनकी बचपन की घनीभूत स्मृतियाँ हैं। जीवन के विविध अनुभव हैं। इनमें प्रतिक्रियावादी शक्तियों पर तीखे प्रहार भी हैं। कवि ने नाटक भी लिखे हैं। इसके साथ ही कई जिल्दों में अपना जीवनवृत्त भी। अब यह कृति स्पेन में एक क्लैसिक का रूप ले चुकी है। इस कवि की महानता को विश्व ने स्वीकारा है। एक कवि जो जीवन भर अपनी लोकधर्मिता के लिये उत्पीड़न, त्रास तथा निर्वासन झेलता रहा! इस बात से हमें सीखना चाहिये कि बड़ी कविता और महान काव्य व्यक्तित्व को जीवन में कितनी बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है! कविता हमारे सम्पूर्ण  जीवन का समर्पण और त्याग चाहती है। उसे भूषण-विभूषण-पुरस्कार बड़ा नहीं बनाते। उसे बड़ा बनाते हैं उसमें व्यक्त अपने देश, समाज तथा जीवन संघर्ष को अटूट व्यक्त करने की कलापरक क्षमता। हमारे यहाँ जाने कितने कवि ऐसे हैं जो पुरस्कार बटोरने की तिकड़मों में लिप्त होकर अपने कवि व्यक्तित्व तथा आदमियत को गिरवी धरते हैं। पर कविता अकाल पीड़ित डाँगर की तरह दम तोड़ती रहती है। वही कविता जीवित रहती है जिसमे अपने देश की लड़ती हुई जनता की तात्कालिक सामाजिक जीवन की जीवन्त तथा कलापरक छवियाँ सृजित हो सकें। हर समय में ऐसे कवि विरल होते है। पेशेवर कवियों के बीच साधक कवि! राफाएल आलाबेर्ती एक ऐसे ही साधक कवि हैं। वह अन्त तक अपने देश की जनता से जुड़े रहे। उसके संघर्ष में शरीक भी। उसकी मुक्ति के उन्होंने स्वप्न देखे। इसीलिये वह हमें आज अति प्रासंगिक हैं।


इस महान कवि की एक श्रेष्ठ कविता है , ‘पाब्लो नेरुदा हृदय में’ । यह कवित पाब्लो की मृत्यु पर रची गई महान कविता है। यानि एक महान कवि को एक दूसरे महान कवि की दिल दहलाने वाली श्रद्धांजलि। कहते हैं यह कविता हवाना (क्यूबा) से छपने वाली प्रख्यात स्पेनी पत्रिका, ‘कासा दे लास आमेरिकास’ के आठवें अंक मार्च- अप्रैल 1947 में छपी थी। इस कविता से आल्बेर्ती की क्रांतिकारी चेतना का आभास हमें हो सकता है। उक्त कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं -







सबसे पहले यही घोषणा हुई (मैं ने सुबह सुबह सुनी)
पाब्लो नेरुदा की हत्या हो गई
बहुत दूर से भेजता था खत मुझे
मदद की पुकार, एकाकीपन और व्यथा-पीड़ा
समंदर पार से
ऐसा है कि अपनी जुबान को भूल रहा हूँ
क्षमा करो मेरी भूलों को
मुझे एक शब्द कोश भेज दो
एक दिन एक पाण्डुलिपि, जाड़े की एक शाम
पतझड़ के भटकते अंतिम पत्तों की तरह
मेरे हाथों में आई
नाम था ‘ज़मीन पर घर’
जैसे राख, जैसे भरे-पूरे समंदर
सुस्ती में डूबे, खबरों में


या जैसे सुनाई पड़ती है लम्बे रास्तों से
आड़ी तिरछी टनटनाती घंटियाँ


वह एक प्राणघाती चोट थी
दूर कही धड़कता हूआ दिल
एक चीख, धरती से भी कहीं दूर
आग की गहरी धँसी जड़ों से
फिर अँकुराने के लिये पेड़ की पीड़ा से
झुलसा वह पत्थर बिजली गिरने से
पाब्लो नेरुदा चल बसा
( दूसरी सुबह भी सुना)
कुछ सुधार था, लेकिन बात थी वही
आँसुओं की झड़ी में लौटती हैं यादें
कैसे भूलूँ अपनी छत की वह सुबह


$$$


तुमने तब दिया था हमें सब कुछ
अपने बन्धुत्व का माधुर्य
अपने अनवरत क्षुब्ध गीत
और बदले में हमने दी थी तुम्हें खुशी
और उसके साथ वह हाथ
जिसका इन्तज़ार तुम्हे जाने कब से था
और तुम्हारा असीम एकाकीपन
गहराता चला गया
$$$
स्पेन की समूची गाती -गुनगुनाती आवाज़ चली गई
$$$
एक दिन स्पेन का चेहरा
लेकिन खून से नहाया हुआ
उसके बूढ़े दिल के पार उतर गया एक खंजर
अँधेरे में उठा एक बवन्डर
और न वहाँ समन्दर था, न था द्वार, न प्राचीरें
जो रोक पाती धूप छाँह के थपेडे़


तुम पूछोगे कि उसकी कविता
क्यों नही बताती हमें स्वप्न और पत्तों के बारे में
उसकी जन्म भूमि के ज्वालामुखियों के बारे में


आओ देखो सड़कों पर बहते लहू को
यही कहा था तुमने
अब, जैसे कि कई बार तुमने स्वीकारा भी
कह सकता हूँ कि बदल गई हैं तुम्हारी पुतलियाँ
क्यों कि तुम्हारे दिल में समा गया था स्पेन
और उसी के लिये
उसके छनित प्रकाश के भाववेश में
निकल पड़े तुम फिर से दुनिया में
सड़कों पर बहते लहू में सने
अपने गीतों के साथ
साल - दर - साल गुज़र गये
$$$
 इस बीच , तुम , पाब्लो, अमन के सहोदर
जनता के शुभेच्छु
जंजीरों से मुक्त शब्दों के सहोदर
समन्दर और पर्वतों के पार से
महान नदियों और कमसिन पंखुडियों का पाब्लो
अंतहीन दक्षिणी आसमानों का
उन्मुक्त आवेश और जायज़ सज़ा का हिमायती
उम्मीदों की जुबान सब से ज्यादा जब तुम थे
तुम फहरा रहे थे प्रकाश जब चोटियों पर
अपने देश के लिये
( सुना मैं ने सुबह सुबह)
तुम प्राण छोड़ रहे थे
दर्द में, हत्यारों से घिरे
आओ, देखो अब उसका वह ध्वस्त घर
उसके दरवाज़ों और किरचे किरचे हुये शीशों को
आओ, देखो वहाँ पड़ी उसकी लाश
औधा पड़ा उसका विशाल दिल वहाँ
उसके चकनाचूर मलवे पर
और गली कूँचों में बह रहा लहू।   

(अनु. - प्रभाती नौटियाल)

                 




(विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि और कृति ओर' पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं।)
संपर्क-
मोबाईल- 
09928242515

(इस पोस्ट में प्रयुक्त कवि रेफाएल आल्बेर्ती की समस्त तस्वीरें गूगल से साभार ली गयी हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. एक बेहद उपयोगी आलेख . एक और महत्वपूर्ण लोकधर्मी कवि को समझने का अवसर मिला . यह हम सबके लिए सुखद है कि आदरणीय विजेंद्र जी ऐसे कवियों के बारे में हम सबको सार्थक एवं दुर्लभ जानकारी दे रहें हैं . हम उनके प्रति कृतज्ञ हैं .
    -नित्यानन्द गायेन

    जवाब देंहटाएं
  2. लोकधर्मी कवि रेफाल पर केंद्रित विजेंद्र जी का आलेख बहुत मह्त्वपूर्ण है वह स्पेन के कवियों में बौद्धिक और चिंतनशील कवियो में से है ! विजेंद जी आलेख में विस्तार से दुर्लभ जानकारी देते हैं एक उत्कृष्टकृति है.… आभार और हार्दिक धन्यवाद। …शाहनाज़ इमरानी

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  3. lok dharmi kavi per yh alekh behad gyan pradan karta he. dhanybad. Manisha jain

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  4. स्पेनी कवि राफाएल अल्बेर्ती के कलाकार और इंसानी व्यक्तित्व को उद्घाटित करने वाला एक सुचिंतित आलेख , जिसमें आज की कविता को समझने और लिखने की कुंजी भी मौजूद है । कवि का बड़ा जीवन संघर्ष ही कवि को बड़ा बनाता है और कवि-प्रतिभा भी । जहां कमजोरी है उसको भी यहाँ बेबाकी से दर्शाया गया है । कवि ने कहीं अपनी जमीन को नहीं छोड़ा है -- यह समझने -सोचने की बात है । मेरी जानकारी बढ़ी है और समझ भी । यूरप में तानाशाही और लोकतांत्रिकता के द्वन्द्व को हम अपने देश की ताकतों के सन्दर्भ में यहाँ पढ़-जान सकते हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  5. पहली बार ब्लॉगों में अहम् स्थान रखता है . यह आलेख भी पहले के लोकधर्मी कवियों पर आधारित आलेखों सा बहुत महत्वपूर्ण है . विजेंद्र जी को हार्दिक धन्यवाद . आभार भाई संतोष चतुर्वेदी जी ...

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  6. महत्वपूर्ण आलेख। विजेंद्र जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
    इस तरह के आलेखों के पुस्तक रूप में आने की अपेक्षा भी है।

    जवाब देंहटाएं

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