कोरे यथार्थ से नहीं बनती कहानी

                                 

बहुत दिनों बाद आज एक बार फिर ठेठ जनवादी तरीके से जलेस की गोष्ठी का आयोजन एक दिसंबर २०१३ को इलाहाबाद के नया कटरा के समया माई पार्क में किया गया। आयोजन में युवा कहानीकार शिवानन्द मिश्र ने अपनी कहानी 'लौट आओ भईया' का पाठ किया। इसके पश्चात् शहर के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने इस कहानी पर अपनी बातें रखीं।

गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात आलोचक प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार ने कहा कि प्रो.  राजेंद्र कुमार ने कहा कि कैसे मान लिया जाए कि कहानी का काम संदेश देना है। कहानी का काम तो इशारा भर करना है कि उधर निगाह चली जाए। रही बात यथार्थ कीए तो कोरे यथार्थ से कहानी नहीं बनती इसके लिए उसमें कल्पना भी होनी चाहिए। वस्तुतः कहानी को एक ऐसे द्वार की तरह होना चाहिए जिससे होकर स्थिति विशेष का अनुभवपाठक तक पहुँचे। शिवानन्द की कहानी का अंत एक द्वंद ले कर आती है। कहानी का शीर्षक रूमानी बोध वाला है और अंत यथार्थपरक। कहानी उस विसंगति की ओर इशारा करती है कि तमाम विकास के बाद भी समाज अभी भी उसी जातिगत जकडन में ठहरा हुआ है जहाँ हम पहले थे।'लौट आओ भइया' इसी ठहराव को शिद्दत से रेखांकित करती है। यह कहानी गाँव.समाज के उन प्रश्नों पर भी ध्यान आकृष्ट कराती है जिन्हें आज तक हल हो जाना चाहिए था। गाँव.समाज के ऐसे प्रश्न जिन्हें अब तक हल हो जाना चाहिए था, वे दुर्भाग्यवश आज भी हमारे बीच बने हुए हैं। शिवानन्द की कहानी इसी जकड़न की तरफ इशारा कराती है। कहानी का काम न तो कोई समाधान ढूँढना है न ही कोई सन्देश देना, अपितु वह आज के विडंबनाओं की तरफ इशारा कर दे तो यही उसकी सफलता है।

अपनी बात रखते हुए विचारक रामप्यारे राय ने कहा कि यह कहानी जाति व्यवस्था एवं सामंती व्यवस्था पर प्रहार तो करती ही हैए श्रमिक जीवन की पीड़ा और शोषण को भी करीने से व्यक्त करती है। जहां तक नक्सलवाद की बात है इसे समस्या की तरह देखा ही क्यों जाता है। शिवानंद की यह पहली कहानी होने के बावजूद एक पुष्ट एवं सफल कहानी है। 





चर्चित कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि इस कथाकार ने छोटे.छोटे प्रसंगों पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाली है। लेकिन इस कहानी के शीर्षक 'लौट आओ भइया' पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि किसी भी रचना का शीर्षक बहुत महत्वपूर्ण होता है और यह अपने आप में बहुत कुछ बयां कर देता है। इस कहानीकार की सोच और कथन में एक फांक नजर आती है। कहानी में जब पात्र बोलते है तो अवधी और भोजपुरी बोलियों का घालमेल देखने को मिलता है जिससे स्थानीयता को ले कर भ्रम की स्थिति बनती है। कथाकार को इसके प्रति सजग होना होगा। फिर भी इस कथाकार कि सफलता इस बात में है कि उस ने छोटे-छोटे प्रसंगों को भी बखूबी समेटा है।

युवा कवि और अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक अरुण आदित्य के अनुसार यह कहानी 'लौट आओ भइया' निम्न.मध्यम वर्ग के सुख.दुख का कोलाज है। यह वैचारिक आग्रहों को तुष्ट करती है। कहानी की भाषा आकर्षक है और इसमें कविता जैसी लय है। इस कहानी में विचार एवं भावनाएं तो हैं लेकिन विषय का बिखराव अधिक है। यह कहानी कुछ नया नहीं कह पाती न ही इसमें शिल्प में ही कोई नयापन दिखायी पड़ता है। नक्सलवादी बन गए पात्र के बारे में भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किन कारणों कि वजह से इस तरफ मुड़ा है। उसका जिक्र आखिर के दो पृष्ठों में आता है और समाप्त हो जाता है। यही नहीं कहानी का शीर्षक भी भ्रामक है। इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किसके लौट आने का आह्वान किया गया है।  शिवानन्द को इस सब पहलुओं की तरफ ध्यान देना होगा।




शहर की वरिष्ठ कथाकार उर्मिला जैन ने अपने विचार रखते हुए कहा कि ग्रामीण वर्ग की जद्दोजहद का इस कहानी में बेहतर चित्रण किया गया है। कहानी में पात्रों का चरित्र.चित्रण बखूबी किया गया है और इसमें प्रयुक्त देशज शब्दों का इस्तेमाल अनूठा है। शिवानन्द की कहानी में एक चित्रात्मकता भी देखने को मिलती है जो उनकी सफलता मानी जायेगी।

कथाकार नीलम शंकर ने कहा कि यह कहानी आज के विकास योजनाओं की हकीकत और अधूरेपन को व्यक्त करती है। इसके साथ साथ मुझे लगता है कि यह मूलतः विस्थापन की कहानी है। किस तरह गाँव वीरान होते जा रहे हैं और शहर आबाद होते जा रहे हैं यह इस कहानी में स्पष्टतया महसूस किया जा सकता है। कहानी में जगरदेव की चुप्पी मन के बीमार होने को प्रदर्शित करती है ना कि उस की शारीरिक अस्वस्थता को। कहानी लघु व कुटीर उद्योग के क्षरण और विकास योजनाओं के अधूरेपन को भी रेखांकित करती है। खुथ्थी का डर और दर्द का प्रयोग पहली बार देखने को मिलता है।

जन नाट्य मंच के के. के. पाण्डेय ने कहा कि जिस तरह से कहानीकार ने नक्सलवादियों की मीटिंग में बाहरी लोगों के आने का जिक्र करता है वह भ्रामक है। लगता है कि कहानीकार इस तरह की गतिविधियों के बारे में सुनी-सुनाई बातों को अपनी कहानी का आधार बनाया है। वस्तुतः ग्रामीण परिवेश वाली मीटिंग्स में सभी एक दूसरे से परिचित होते हैं। शायद ही कोई इक्का .दुक्का अपरिचित इन मीटिंग्स में शामिल होता हो।

गोष्ठी के प्रारम्भ में कवि नन्दल हितैषी ने कहा कि कहानी की बुनावट और मंजरकशी अच्छी लगी। कहानी में कुछ आरोपित या प्रत्यारोपित जैसा नहीं लगता।  कहीं.कहीं कुछ वर्णन अधिक होना चाहिए था। फिर भी कहा जा सकता है कि इस  कहानी की खूबी इसकी सहजता और बोधगम्यता है।



महेंद्र राजा जैन ने  कहानी में आई कुछ कुछ भाषागत त्रुटियों की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि ये त्रुटियाँ कहानी को पढ़ते समय अवरोध पैदा करती हैं  हैं जिन्हे दूर कर लिया जाना चाहिए। इससे रचना में एक मजबूती आ जाएगी। प्रगतिशील लेखक संघ के सुरेन्द्र राही ने कहानी के वैचारिक पक्ष पर जोर डालते हुए कहा कि वैचारिकता ही किसी रचना को समृद्ध करती है और यह सुखद है कि शिवानन्द की कहानी में दिखाई पड़ती है।  कहानीकार चंद्रप्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मेरे समझ से इस कहानी का शीर्षक 'खुत्थी' ही होनी चाहिए क्योंकि समाज की समस्या खुत्थी ही है जो जब.तब विसंगतियों के रूप में चुभती रहती है। नवोदित रचनाकार  गायत्री सिंह ने कहा कि  कहानी में गाँव का चित्रण बहुत ही अच्छे ढंग से किया गया है। साथ ही इसमें बाल मनोविज्ञान का चित्रण सहज रूप में किया गया है। कवि दीपेन्द्र सिवाच ने कहा कि कहानी में बच्चियों के साथ बनिये के मोल-भाव को गन्ना किसानों की दशा के साथ जोड़ कर देखे जाने की आवश्यकता है। साथ ही इस कहानी में यथार्थ और व्यवहार का द्वंद भी दिखायी पड़ता है। कवि हीरा लाल ने कहा कि लय को साधने में यह शिवानन्द जी की यह पहली कहानी पूरी तरह से सफल है। कहानी में अनावश्यक कम है और सार्थक बहुत है। युवा आलोचक रमाकान्त राय ने वैचारिक सत्र की शुरुआत करते हुए कहा कि कहानी में खुत्थी का इतना बेहतर प्रयोग मैंने पहली बार देखा है। यह खुत्थी शुरू में लड़कियों को चुभता है और अंत में यही खुत्थी उनकी माँ को चुभता है। यह चुभना स्त्रियों के साथ होता है। यह स्त्री जीवन की विडम्बना को प्रदर्शित करता है ।    

गोष्ठी में शामिल प्रमुख लोगों में अनिल सिद्धार्थ, अरिंदम घोष, संगम लाल और राजन तथा कई अन्य नये रचनाकार भी शामिल थे।

इस गोष्ठी का संचालन एवं संयोजन जनवादी लेखक संघ के सचिव संतोष कुमार चतुर्वेदी ने किया।


टिप्पणियाँ

  1. mujhe yakeen ho chalaa hai ki aap jangal me bhi mangal kar sakte hain. ek chhote se park me itni achhi goshthi karne ke liye badhai..saath hi mujhe yah bhi kahanaa hai ki logo ki tippadiyo'n aur vichaaro'n ke saath agar kahani bhi blog par de diye hote to ham jaise log jo goshthi me nahi aa paye wo bhi kahani ka aanand le paate..

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