वन्दना शुक्ल के कहानी संग्रह ‘उड़ानों के सारांश’ और कैलाश वानखेड़े के संग्रह ‘सत्यापन’ पर भालचन्द्र जोशी की समीक्षा।
इधर दो युवा
कहानीकारों के महत्वपूर्ण कहानी संग्रह आये हैं। पहला संग्रह है वन्दना शुक्ल का ‘उड़ानों
के सारांश’ जबकि दूसरा संग्रह है ‘सत्यापन’ जिसके कहानीकार हैं कैलाश वानखेड़े। यह
संयोग मात्र नहीं कि ये दोनों कहानीकार हमारे समाज के उन वर्गों का प्रतिनिधित्व
करते हैं जो सदियों से दमन और उत्पीडन का
सामना करते आये हैं। स्वाभाविक रूप से ये अभिव्यक्तियाँ इन कहानीकारों की रचनाओं
में बेबाकी और एक लेखकीय गरिमा के साथ आयीं हैं। दोनों कहानी संग्रहों में बातें
या घटनाक्रम सहज रूप में आये हैं। इन दोनों संग्रहों की एक समीक्षा लिखी है हमारे
प्रिय कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने। तो आईये जानते हैं इन संग्रहों के बारे में।
आश्वस्ति की उड़ान
और रचनात्मक धैर्य का सत्यापन
भालचन्द्र जोशी
हिन्दी कहानी में
नवलेखन खासकर नई सदी की पीढ़ी के कहानीकारों की इधर खासी चर्चा है। सूचना और संचार
माध्यमों के फैलते संजाल ने इस चर्चा को गति दी है। लेकिन यह भी हुआ है कि इस गति
में प्रायः रचना छूट जाती है और रचनाकार को केन्द्र में रखने की कोशिश होती है।
प्रायः तो लेखक भी यही चाहता और करता है। इन कहानीकारों के साथ दुखद स्थिति यह है
कि इस आभासी संसार ने एक ऐसा घटाटोप तैयार कर दिया है जिसमें यह सोच पुख्ता हो रहा
है कि रचना को रचना कौशल से नहीं प्रचार से महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है। ऐसी रचना
लेकिन दूर तक और देर तक साथ नहीं देती है। ऐसे समय में जब हिन्दी कहानी में एक
समृद्ध कथा -परम्परा मौजूद है तब ऐसे आग्रह और धारणा को बल मिलना दुखद है।
एक और बात जो
प्रमुख रूप से नजर आती है वह शिल्प के प्रति जिद की हद तक आग्रह और रुझान!
भूमण्डलीकरण के इस दौर मे जिस तेजी से स्थितियाँ बदल रही हैं। उसमें शिल्प के
प्रति अतिशय आग्रही होना, संकेत और
प्रतीकों के प्रति रुझान के अर्थ को समझा जा सकता है। लेकिन यह आग्रह कहानी के
फॉर्म में बदलाव को प्रयोगशीलता की जिद में प्रस्तुत करें तो इसका क्या अर्थ है?
यह अचरज तब और बढ़
जाता है। जब इस प्रयोगशीलता को लेखक के साथ आलोचक और समीक्षकों की सहमति भी मिल
जाती है। इन सब धतकरम में रचना और यहाँ तक कि कहानी की संभावित हानि की अनदेखी हो
रही है।
इन सब उत्साह और
उपक्रमों के बावजूद कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो चुपचाप धैर्य से रचना कर्म में जुटे
हैं। जिनके लिए रचना ही अभीष्ट है। ये इस भीड़ का हिस्सा हैं लेकिन इसलिए भी भीड़ से
अलग हैं कि इनके पास रचनात्मकता के लिए जरूरी धैर्य शेष है। अनेक ऐसे नए लेखक हैं
जो इस बाजार समय में अधिक तटस्थता और लेखकीय ईमानदारी के साथ अपनी रचनात्मकता के
प्रति निष्ठावान हैं।
कई बार अनायास ऐसी
रचनाएँ भी सम्मुख आ जाती हैं जो इसी लेखकीय धैर्य का परिचय देती हैं। इन रचनाओं
में परम्परा से अलगाव की उदग्रता नहीं समान्तर सहमति की राह होती है। पिछले दिनों
कैलाश वानखेड़े का कहानी संग्रह ‘सत्यापन‘ और वंदना शुक्ल का कहानी संग्रह ‘उड़ानों के सारांश‘ पढ़ कर लगा कि नई पीढ़ी के भीड़ भरे माहौल में आश्वस्ति देने
वाले नाम शेष हैं। इन दोनों संग्रह का उल्लेख करने का कारण है। कैलाश वानखेड़े के
संग्रह की अधिकांश कहानियाँ दलित उत्पीड़न की कहानियाँ हैं बावजूद इसके इन कहानियों
में उस तरह की आक्रामकता नहीं है जिसने दलित लेखन से सम्बद्ध अनेक नवोदित
कहानीकारों का अहित किया है।
(चित्र : वन्दना शुक्ल)
वंदना शुक्ल के
संग्रह में स्त्री स्वतन्त्रता को लेकर प्रचलित ओर कुख्यात तलवारें नहीं खींची गई
हैं। साथ ही स्त्री लेखन के चिर-परिचित घर-परिवार के परम्परागत कथानक नहीं हैं
जिसमें स्त्री शोषण या स्त्री के त्याग की कथित करूण और महान कथाएँ होती हैं।
प्रसंगवश याद आ रहा है कि कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका ने कहीं लिखा था कि एक
युवा लेखिका ने उनसे जिज्ञासा प्रकट की थी कि ‘क्या सेक्स का तड़का लगाने से रचना लोकप्रिय हो जाती है?‘
यह बाजार इच्छा इधर की अधिकांश लेखिकाओं की
रचनाओं में नजर आती है।
वंदना शुक्ल की
कहानियाँ यह तसल्ली देती हैं कि इन कहानियों में प्रेम दृश्यों की जरूरत में गहरे
रसवाद में डूबे गैर जरूरी वर्णन नहीं हैं।
वंदना शुक्ल के
कहानी संग्रह की एक कहानी ‘शहर में अजनबी‘
एक ओर शिक्षा पद्धति और भाषा के दखल की कहानी
है लेकिन इसी के समान्तर पीढ़ियों के सोच और उस सोच के हस्तान्तरण की कहानी भी है।
वर्तमान में जिस तरह बच्चों पर माता-पिता की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का दबाव
है उसकी अनुगूँज भी इसमें मौजूद है लेकिन उस इच्छा के विस्तार में जहाँ उस दबाव का
दुष्परिणाम है तो दूसरी ओर साधनहीन लेकिन मेधावी बच्चों तक ज्ञान की पहुँच बनाने
की इच्छा के परिणाम का संकेत भी है।
हालाँकि इसी
कथानक के आसपास वंदना शुक्ल की एक कहानी ‘युग‘ (कथादेश - अक्टूबर 2012)
भी है जो इस संग्रह में तो नहीं है लेकिन ‘शहर में अजनबी‘ के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से थोड़ा आगे जाकर इस परम्परागत
यथार्थ की छवि को किंचित ध्वस्त करती है। ‘शहर में अजनबी‘ का आदर्श के
प्रति आस्थावान पिता ‘युग‘ तक आते-आते गरीबी और अभाव से परास्त हो जाता
है। लेकिन उनके परास्त होने में जो हड़बड़ी है वह थोड़ी असहज लगती है। हालाँकि लेखिका
ने उसके लिए पृष्ठभूमि पर्याप्त तैयार भी की थी लेकिन निर्णय एक छलाँग लगाने की
भाँति है। जहाँ पिता अपने पुराने संस्कारों को तिलांजलि देकर बेटी को मेले-ठेले और
चुनावों में गायकी के लिए भेजने को तैयार हो जाता है। यह मूल्यों की गिरावट है जो ‘शहर में अजनबी‘ के पिता से चलकर ‘युग‘ के पिता तक आते-आते
स्पष्ट होती है। इसी तरह यह वंदना शुक्ल के लेखन के यथार्थ की यात्रा भी है। ‘शहर में अजनबी‘ के सामाजिक सन्दर्भ और एक किस्म का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद ‘युग‘ में दाखिल होकर बौद्धिक आत्म सजगता की पैरवी के बहाने अपने समय के सच की तस्वीर
बनाने लगता है।
‘शहर में अजनबी‘
का पिता ‘श्री माधव सच्चिदानंद जोशी एम.ए. बी.एड. की पारिवारिक
परम्परा एक आदर्शवादी धरोहर रही ...... अपने दोनों पुत्रों को गाँधी उच्चतर
माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाया था जहाँ बिल्कुल हिन्दी माध्यम में शिक्षा दी
जाती थी। .....खास बात यह थी कि यहाँ नैतिक शिक्षा का एक अलग पीरियड का प्रावधान
था (शहर में अजनबी - पेज 75) नैतिक शिक्षा का
प्रबल पक्षधर यह पिता ‘युग‘ में हिन्दी का शिक्षक है और बेटी के अंग्रेजी
स्कूल में दाखिले से ग्लानि से भर जाते हैं क्योंकि ‘मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के कीटाणुओं की प्रवाहशीलता
उनकी प्रतिष्ठा का प्रमाण पत्र थी और गर्व की वजह भी।‘ युग के मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के ‘कीटाणु‘ हैं यानी बदलाव की भूमिका लेखिका की निजी सहमति से तैयार हो
रही है। ‘शहर में अजनबी‘ का यथार्थवाद ‘युग‘ के यथार्थवाद में
निषेध की ध्वनि रखता है और हम अगली कहानी ‘जल कुम्भियाँ‘ पढ़ते हैं तो वह
ध्वनि एक बड़ा आकार ग्रहण करती है। लगभग एक से पात्रों के साथ कथानक में भिन्न
धरातल दोनों कहानियों में मौजूद हैं।
‘जलकुम्भियाँ‘
में लेखिका के पास स्थितियाँ ज्यादा स्पष्ट हैं
बल्कि ऐसा मन बना लिया। माँ-बाप द्वारा बेटे की मर्जी के खिलाफ एक अपढ़ लड़की से
विवाह का दबाव और बेटे की प्रेमिका का विद्रोह के लिए दबाव। यह अन्तर्द्वन्द्व
दूसरी दिशा में जा सकता था लेकिन नायक की प्रेमिका स्वाति के चरित्र की प्रस्तुति
में ऐसी कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई कि पाठक की सहानुभूति स्वाति के जरिये नायक
के अन्तर्द्वन्द्व तक पहुँचे। स्वाति को जिस तरह चतुर, चालाक और स्वार्थी बताया गया है वहाँ से नायक के भीतर उस
तरह के अन्तर्द्वन्द्व की जगह नहीं बन पाती है। लेकिन यह जगह बहुत खूबसूरती से
दूसरी जगह तैयार होती है। मूरिया जिससे नायक की शादी जबरन की जाती है, उसके अपढ़ होने से और उसकी असहाय उपस्थिति से वह
अन्तर्द्वन्द्व तैयार होता है। यह एक कठिन काम था जिसमें एक दुनियादार नायक जो
शहरी चमक-दमक से प्रभावित और उसी चमक में रहने का आकांक्षी है। उसी नायक की शादी
एक अपढ़ लड़की से, वह भी जबरन,
अपहरण करके कर दी जाती है। ऐसी परिस्थितियों
में अपढ़ और गँवार पत्नी के प्रति घृणा, पहले करूणा में फिर प्रेम में तब्दील होती है। यह एक क्रमिक परिवर्तन था
जिसमें लेखकीय धैर्य के साथ भाषा के उस कौशल की दरकार थी जो नायक में जरूरी
अन्तर्द्वन्द्व के बगैर अधूरा रह जाता।
इसी संग्रह में ‘आवाजें‘ कहानी बहुत ही खूबसूरत बुनावट की कहानी है। स्मृतियों के
भीतर ठहर गए छुट्टन मियाँ ऐसे उलाहनों से वक्ती तौर पर सिर्फ हड़बड़ा जाते हैं,
मुक्त नहीं होते, ‘अब इस कदर दीवाने ना होइए अब्बू कि धूप छाँव का मतलब ही भूल
जाइएगा।‘ (आवाजें - पेज 73) लेकिन छुट्टन मियाँ भूलते नहीं। स्मृतियों में
दुःख के कारण भी छिपे हैं लेकिन वह छुट्टन मियाँ भूलने के विरूद्ध हैं। स्मृतियों
की धुँध में तैरती आवाजें उन आवाजों से उपजती बेबसी अकेलापन और इस अकेलेपन में यह
अफसोस कि ‘धीर-धीरे सब चले गए
बुजुर्ग, रस्मों-रिवाज, मिरासिनें, महफिलें, रौनक, ठाठ-बाट, इज्जत, मेहमाननवाजी,
किस्से, बतौले, गम्मतें।‘
(आवाजें - पेज 68) दरअसल यह कहानी इस धारणा को पुख्ता करती है कि जो कलाकार
जीवन भर कला में जीता है उसी में मरना चाहता है। संगीतकार के लिए संगीत से बड़ा कोई
साथी नहीं। संगीत की कोरी रूमानियत से बाहर आकर एक मानवीय मार्मिकता में कहानी तब
दाखिल होती है जब भाषा की बुनावट और बनावट स्मृतियों की उन्हीं गलियों में साथ
निकल पड़ती हैं जहाँ कलात्मक लय एक उदात्त मानवीयता से संलग्न होती है।
यह कम अचरज नहीं
है कि गहरी पीड़ा, अकेलेपन का बोझ
और बेबसी से भरी इस कहानी को पढ़ कर मन हल्का हो जाता है। कहानी हमें एक ऐसा
अकेलापन सौंप देती है जिसके साथ कुछ देर रहना भला लगता है।
दरअसल वंदना की
ये कहानियाँ महिला लेखन में अन्तर्वस्तु के विस्तार का खूबसूरत उदाहरण है। बारीक
बुनावट और करूणा के मानवीय पक्ष को एक नैतिक दार्शनिकता में बदलने के लिए कहानियों
में परम्परागत यथार्थ के निषेध का आग्रह गैर जरूरी नहीं लगता है।
कैलाश वानखेड़े की
कहानियों में भी यही ‘लौटना‘ है। इसी वापसी में अन्तर्वस्तु प्रकट होती है।
कई बार तो यह मोह इतना अधिक है कि कुछ कहानियों को साथ जोड़ दें तो थोड़े कथानक
विस्तार में उपन्यास हो सकता है। वंदना के पास कथा की भिन्नता है लेकिन कैलाश के
पास कथ्य को लेकर एक सामाजिक पीड़ा जिसे एक किस्म का दायित्व-बोझ भी कह सकते हैं,
उसका दबाव है। प्रश्न यह हो सकता है क्या इस
तरह रचना संसार व्यापक और सम्पन्न बन पाएगा? कैलाश वानखेड़े को अपने जीवनानुभवों को कथा-यथार्थ में
रूपान्तरण के लिए जिस रचना-कौशल की जरूरत है उसके संकेत कहानियों में नजर आते हैं।
(चित्र : कैलाश वानखेड़े)
‘सत्यापित‘
कहानी में नायक को महज अपना प्रमाण पत्र अपना
फोटो परिचय सत्यापित कराना है। यह एक बेहद मामूली काम है लेकिन एक दलित युवक के
लिए यह अपने अस्तित्व के पहचान का प्रश्न हो जाता है। निरन्तर अस्वीकार का अपमान
उस वर्ग बोध से जुड़ता है। जहाँ दलित अपनी पहचान और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत् है।
उस संघर्ष का अहम हिस्सा यही है कि ‘जो हमें नहीं जानता, नहीं पहचानता,
वही हमें सत्यापित करता है।‘ (सत्यापित - पृष्ठ 17) यहीं से विचार और अनुभव के द्वन्द्व का दृश्य बनता है। यही
संघर्ष ‘तुम लोग‘, ‘घण्टी‘, ‘स्कॉलरशिप‘, कितने बुष कित्ते
मनु‘ और ‘खापा‘ में भी मौजूद है। ‘खापा‘ कहानी में नायक की पीड़ा और संघर्ष का एक मूक
साझीदार वह आम बेचने वाला बूढ़ा भी है। यह साझा पीड़ा कहानी का ऐसा धरातल तैयार करती
है जिसमें निज का संघर्ष बहुलता की ओर विस्तार लेने के उपक्रम दर्शाता है। ‘नानक दुनिया सब संसार‘ कहावत इसी कहानी का अदृश्य हिस्सा है। जिसे नायक समझता है।
पीड़ा, अपमान और संघर्ष के
अकेलेपन में उसे अपना दिलासा बनाता है। ‘कितने बुष कित्ते मनु‘ का नायक भी अपने
आक्रोश की दिशा खोज रहा है लेकिन तसल्ली की बात है कि वह अबूझ आक्रोश के हिस्से
में जाने से पहले उसके कारक तत्व तलाशने इतिहास में दाखिल होना चाहता है। वह अपमान
की अंधी सुरंग में भटक नहीं रहा है। वह अपमान की आवाज को उसके मूल अर्थों में
खोजना चाहता है। ‘लेकिन जबान कहीं
खो गई है। किसी पुराने सड़ते हुए ग्रंथों के किसी श्लोक में। दब गई किसी मंदिर के
गर्भगृह में।‘ (कितने बुष कित्ते
मनु - पेज 97)
कैलाश वानखेड़े
दलित लेखन की धारा में इसलिए थोड़े अलग हटकर उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं कि उनके पास
दिशाहीन और अकारण आक्रोश नहीं है। प्रायः दलित पक्षधरता की कहानियों में आक्रोश वर्ग
के लिए नहीं, व्यक्ति के लिए
है। कैलाश के पास एक संयत आक्रोश है जो अनुभव और विचार के द्वन्द्व में जड़ों को
टटोलकर चीजों और स्थितियों को विश्लेषित कर रहे हैं। इन कहानियों में पीड़ा के साथ
एक ऐसी लेखकीय आत्मीयता संलग्न है जो पूरी सामाजिक संरचना के प्रति आक्रोश रखती है
जहाँ दलित के अस्तित्व को अर्थहीन बनाए जाने का षड़यंत्र है। लेखक का जोर प्रतिशोध
की अपेक्षा अस्तित्व और प्रतिष्ठा की स्थापना के संघर्ष पर है। इसलिए यह एक भावुक
आक्रोश की अपेक्षा संयत बौद्धिक और संवेदन प्रतिकार है।
थोड़े बदलाव के
साथ एक प्रमाण पत्र की उम्मीद ‘घण्टी‘ में भी है। यह जाति के लिए नहीं, श्रम, निष्ठा और समर्पण की निरन्तरता के लिए प्रमाण पत्र चाहिए। वही सबसे कठिन काम
है। लेकिन बेगारी की तरह किए जा रहे काम को जो ‘धरम‘ की तरह स्वीकार
कर चुका था वहीं वृद्ध चपरासी अपने बेटे की प्रतिष्ठा के लिए अफसर को तमाचा मार
देता है। यह तमाचा एक निजी अपमान का प्रतिकार भर नहीं बल्कि यह वर्ग की प्रतिष्ठा
की रक्षा में संचित क्रोध का उद्घाटन है।
इसी संग्रह की
कहानी ‘अन्तरदेशीय पत्र‘ अपने गठन और ट्रीटमेंट में पठनीय है। यह कहानी
स्मृतियों में सेंध लगाती है। अन्तर्देशीय पत्र जो आज सूचना एवं संचार माध्यमों के
सैलाब में एक अचरज की भाँति लगता है। वह कहानी के साथ-साथ हमारी स्मृतियों को भी
टटोलकर उसके नए रूप प्रकट करता है। यह कहानी बेहद कोमल और प्रभावी है।
कैलाश वानखेड़े की
रचनात्मकता में लोकतंत्र के लिए एक ऐसा उदार स्पेस है जहाँ न्याय, समता और मानवीयता को साँस लेने में सुविधा है।
यह ऐसी दलित पक्षधरता है जिसमें एक किस्म की उत्तेजना तो है लेकिन प्रतिशोध की
उदग्रता नहीं है। दलित चेतना और संवेदना के युग्म में कहानियाँ उस मानवीय
मार्मिकता की खोज करती है जेा यथार्थ से नाता नहीं तोड़ती है। सामाजिक संरचना की
विसंगतियों से बेहद अमानवीय परिणाम सामने आए हैं उस पीड़ा की अभिव्यक्ति के बेहद
कारूणिक दृश्य इन कहानियों में हैं। कैलाश वानखेड़े की सफलता यही है कि उनका
दृष्टिकोण समाज सापेक्ष है लेकिन वो ‘निज‘ की अवहेलना भी नहीं करते
हैं। वे दलित चेतना को पूरी पक्षधरता और रक्षा संकल्प के साथ यथार्थ से सम्बद्ध
करते हैं। यथार्थ जीवन के परिवेश से असंतृप्त होने के खतरे वे जानते हैं। यही कारण
है कि पक्षधरता, सम्बद्धता और
नैतिक उत्तरदायित्व के द्वन्द्व का वे एक रचना दृष्टि में विलय करते हैं। जाहिर है
कि रचना अंततः एक क्रिएटिव-विजन का ही परिणाम है। जरूरी है कि कैलाश इस विजन के
लिए धैर्य बनाए रखे। इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे धीरे-धीरे एक असरदार भाषा
विकसित कर रहे हैं। किंचित अचरज जरूर होता है कि इन कहानियों में राजनीतिक चेतना
की उपस्थिति नहीं है जो दलित उत्पीड़न का एक बड़ा कारण रही है। फिर भी कैलाश वानखेड़े
अपने पहले संग्रह से अपनी रचनात्मकता में आश्वस्ति को सत्यापित करते हैं।
कैलाश वानखेड़े की
अधिकांश कहानियों में दो कहानियाँ समानान्तर चलती हैं। संभवतः यह हर पात्र के साथ
न्याय रखने की इच्छा भी है और विचारों के समस्त आवेग को एक ही कहानी में रखने का
मोह भी।
समीक्ष्य संग्रह-
उड़ानों के सारांश
- लेखक: वंदना शुक्ल
प्रकाशक - अंतिका
प्रकाशन, गाजियाबाद
मूल्य - रु. 250/-
वर्ष - 2013
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सत्यापन (कहानी
संग्रह)- लेखक: कैलाश वानखेड़े
प्रकाशक - आधार
प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
मूल्य- रु 80/-
वर्ष – 2013
समीक्षक-
भालचन्द्र जोशी
13, एच.आय.जी. ओल्ड
हाउसिंग बोर्ड
कॉलोनी, जैतापुर खरगोन 451001 (म.प्र.)
मोबाइल नम्बर - 08989432087
(कथादेश के दिसंबर 2013 अंक से साभार)
धैर्यपूर्वक किये गये रचना कर्म का उपहार है हम सबको।
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा .. वंदना बाजपेयी
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