आंचलिक लोकगीत: एक विश्लेषण
अगर किसी भी जगह की खुशबू महसूस करनी हो तो वहाँ के लोकगीतों को जानने की कोशिश करिए। इसमें आपको एक साथ वहाँ की तमाम खुशबू मिल जायेगी। आज के समय में टेलीविजन, वीडियो और मोबाईल संस्कृति ने हमारे लोकगीतों को काफी क्षति पहुँचायी है। ऐसे में लोकगीतों को सुरक्षित-संरक्षित करने के यत्न जोर-शोर से किए जा रहे हैं। नीलिमा पाण्डेय और नलिन रंजन सिंह के सम्पादन में अभी-अभी लोकगीतों से सम्बंधित अत्यंत महत्वपूर्ण किताब आई है। इस किताब की हमारे लिए एक समीक्षा लिखी है इलाहाबाद के मशहूर युवा फोटोग्राफर कमल किशोर 'कमल' ने। तो आईये पढ़ते हैं यह समीक्षा।
कमल
किशोर ‘कमल’
लोकगीत हमारे रोज़मर्रा के संदर्भों से जुड़ते
हुए जन्म से लेकर मृत्यु तक के मौकों पर गाए जाते हैं। इनका भाषा शास्त्रीय महत्व
है। आज परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व में बोलियों के संदर्भ में अगर हम भारत के
हिन्दी प्रदेशों की बात करें तो एक विशाल हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र सामने आता है।
बाज़ार के दबाव और
विशाल जनसंख्या वाले क्षेत्र में अपनी पैठ बनाने के लिए आंचलिक भाषाओं के उत्थान
का नारा देकर तमाम दृश्य-श्रव्य माध्यम इन क्षेत्रों में उतर चुके हैं, किन्तु लोक में रची-बसी खुशबू से वे कोसों दूर
हैं। लोकगीत भावों के उद्गार होते हैं, वे मनोरंजन के लिए लोक परम्परा के खाद-पानी पर फलते-फूलते हैं, उन्हें किसी तड़क-भड़क या दिखावे की आवश्यकता
नहीं होती है। कृत्रिमता उन्हें नष्ट करती है। वैसे भी आंचलिक शब्दों का अपना
भरा-पूरा वजूद है; प्रतिस्थानी शब्द
उनके वजन को भरने में नाकाम हैं, परन्तु नई पीढ़ी
उन्हीं से काम चला रही है। उसके लिए बिरहा, कजरी, फगुआ, सोहर, झूमर, चैता-सब के सब अजूबे हैं।
वक्त की इस आपाधापी में रातभर के बिरहा, दंगल, कजरी के मुकाबले और फगुवा की तान अब खोते जा रहे हैं और हम, धीरे-धीरे अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। गाँवों का कस्बों में बदलना और लोकप्रिय संस्कृति एवं लोक संस्कृति का टकराना जारी है। ऐसे में ग्रामीण जन में बचे हुए संस्कार के अवसर ही लोकगीतों को बचाए हुए हैं। इनमें भी सर्वाधिक गीत विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले हैं। कजरी, बिरहा और फगुआ का व्यवसायीकरण हुआ है, हालाँकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसने इन गीतों की रक्षा भी की है। लेकिन व्यवसायिक सम्पन्नता बढ़ी तो व्रत-त्योहार भी घटे, साथ ही इन अवसरों पर गाये जाने वाले गीत भी।
यही हाल श्रम गीतों का हुआ है। जँतसार का जमाना बीत चुका है और रोपनी-सोहनी भी खुशी के इजहार कम, एक काम को निपटाने के भाव से ज्यादा होने लगी है। फिर गीत कहाँ? यही स्थिति ऋतु गीतों की है। हिन्दी के बारहो महीनों और छः ऋतुओं के नाम, नई पीढ़ी के लिए कठिन प्रश्न है। नक्षत्रों की तो बात ही छोड़िए। स्वाभाविक है, बारहमासा को समझना अब सूक्ष्म काम है। हुड़ुक जोड़ी, कठघोड़वा गायब हैं; फिर कहरवा की तान कहाँ?
वक्त की इस आपाधापी में रातभर के बिरहा, दंगल, कजरी के मुकाबले और फगुवा की तान अब खोते जा रहे हैं और हम, धीरे-धीरे अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। गाँवों का कस्बों में बदलना और लोकप्रिय संस्कृति एवं लोक संस्कृति का टकराना जारी है। ऐसे में ग्रामीण जन में बचे हुए संस्कार के अवसर ही लोकगीतों को बचाए हुए हैं। इनमें भी सर्वाधिक गीत विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले हैं। कजरी, बिरहा और फगुआ का व्यवसायीकरण हुआ है, हालाँकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसने इन गीतों की रक्षा भी की है। लेकिन व्यवसायिक सम्पन्नता बढ़ी तो व्रत-त्योहार भी घटे, साथ ही इन अवसरों पर गाये जाने वाले गीत भी।
यही हाल श्रम गीतों का हुआ है। जँतसार का जमाना बीत चुका है और रोपनी-सोहनी भी खुशी के इजहार कम, एक काम को निपटाने के भाव से ज्यादा होने लगी है। फिर गीत कहाँ? यही स्थिति ऋतु गीतों की है। हिन्दी के बारहो महीनों और छः ऋतुओं के नाम, नई पीढ़ी के लिए कठिन प्रश्न है। नक्षत्रों की तो बात ही छोड़िए। स्वाभाविक है, बारहमासा को समझना अब सूक्ष्म काम है। हुड़ुक जोड़ी, कठघोड़वा गायब हैं; फिर कहरवा की तान कहाँ?
गाँधी जी ने एक
बार कहा था- ‘हम चाहते हैं कि
सारी दुनिया की संस्कृतियाँ हमारे आँगन से गुजरें लेकिन उनमें से किसी के आगे
लड़खड़ा जाना या कमजोर पड़ जाना हमें मंजूर नहीं है’।
अब लोकशक्ति की
मशाल की जरूरत आन पड़ी है। इक्कीसवीं सदी का हिन्दी साहित्याकाश उसी से आलोकित
होगा। एक ऐसी रोशनी जिसमें सब कुछ साफ-साफ दिख सके, जिसमें आँखें चौधियायें नहीं, जिसमें हमारे मन से भावोद्गार स्वतः फूट उठें और हम कोई
ग्राम-गीत गुनगुना उठें, अपने अंचल की
मिट्टी की सोंधी सुगन्ध से झूम सकें। विभिन्न अंचलों के लोकगीतों का यह गुलदस्ता
भी वैसा ही है। असमिया, मैथिली, मगही, भोजपुरी, अवधी, ब्रज, गढ़वाली, छत्तीसगढ़ी,
मालवी, बुन्देली और सिन्धी लोकगीतों को एक साथ ‘आंचलिक लोकगीत: एक विश्लेषण’ पुस्तक में विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। नीलिमा
पाण्डेय और नलिन रंजन सिंह ने अपने सम्पादन के माध्यम से यह सफल प्रयास किया है।
पुस्तक का प्रकाशन सीरीयल्स पब्लिकेशन्स नई दिल्ली के द्वारा किया गया है।
इसमें सावन के
गीत हैं, बारहमासा है, संस्कार गीत हैं, विवाह गीत हैं, विस्थापन गीत है, कोहबर गीत है,
देवी गीत है, फाग गीत है, गारी है या यूँ
कहें कि लगभग हर अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों का विश्लेषण है। विश्लेषण से
लोकगीतों में तमाम मिथकों, प्रतीकों,
प्रतिरोधों, प्रस्थितियों, समसामयिक चेतना, विरह आदि का पता
चलता है। रामकथा और गाँधी जी से होते हुए स्त्री और दलित आदिवासी संदर्भ इसमें
शामिल हैं। अभिजात और लोक का अंतरसम्बन्ध भी यहाँ स्पष्ट होता है।
समीक्ष्य पुस्तक-
'आंचलिक लोकगीत : एक विश्लेषण'
सम्पादक- नीलिमा पाण्डेय एवं नलिन रंजन सिंह
पृष्ठ- 292, मूल्य- रु. 595.00
सीरियल्स पब्लिकेशन,
4830/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली, 110002
प्रकाशन वर्ष- 2013
सम्पर्क-
कमल किशोर 'कमल'
मोबाईल- 09335155277
नलिन रंजन सिंह
मोबाईल- 09415576163
समीक्ष्य पुस्तक-
'आंचलिक लोकगीत : एक विश्लेषण'
सम्पादक- नीलिमा पाण्डेय एवं नलिन रंजन सिंह
पृष्ठ- 292, मूल्य- रु. 595.00
सीरियल्स पब्लिकेशन,
4830/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली, 110002
प्रकाशन वर्ष- 2013
सम्पर्क-
कमल किशोर 'कमल'
मोबाईल- 09335155277
नलिन रंजन सिंह
मोबाईल- 09415576163
Thanks...For giving space to our book on your Blog Pahleebar.
जवाब देंहटाएं- Neelima
But the publication year is January 2014....perhaps by mistake it has been typed 2013.Kindly make the correction. Thanks.. .
जवाब देंहटाएंNeelima
धन्यवाद संतोष भाई |
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