शेखर सिंह की कविताएँ

 

शेखर सिंह

 

 

बढ़ना मनुष्य की नियति है। इस आगे बढ़ने ने ही मनुष्य को आज ब्रह्माण्ड के सबसे बुद्धिमान प्राणी के रूप में तब्दील कर दिया है। लेकिन यह बढ़ना अगर किसी को पीछे कर आगे बढ़ना हो तो इसपर एक सवालिया निशान तो लगता ही है। युवा कवि शेखर एक इंसान की संजीदगी से इस बढ़ने को देखते हैं। वे लिखते हैं : मैं बढ़ा/ क्योंकि मुझे बढ़ना था/ मगर फिर आखिर आखिरकार/ हुआ वही जो होना था/ मैं बढ़ा/ बढ़ता गया/ बढ़ता चला गया/ एक बार भी पलट कर/ देखा नहीं क्या हुआ।' जबकि जरूरी यह है कि हम सजग सचेत हो कर सब देखते हुए आगे बढ़ें। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं युवा कवि शेखर सिंह की कविताएँ।

 

 शेखर सिंह की कविताएँ

 

1. जिसने अब तलक

 

 

किसी चिड़िया का एक पल को

शाख़ पर बैठा दिख जाना

और उड़ जाना अगले ही पल

यूँ तो एक सहज दृश्य जान पड़ता है

मगर कुछ दिनों से जाने क्यूँ

हर बार ऐसे में

एक ज़ल्दबाज़ी सी जन्म ले रही है

और कहीं उड़ जा रही

 

 

जैसे ज़ल्दबाज़ियाँ

जन्म ही लिया करती हों

उड़ जाने के लिए

जैसे पक्षियों के वो तमाम 

रंग बिरंगे नज़ारे उड़ चले

 

 

जैसे आकाश में उमड़ता

शोख़ियों का सैलाब उड़ चला

जैसे उड़ चली इशारे में उठी

किसी बुज़ुर्ग की उँगलियों से

अरसे पुरानी क़ूवत,

किसी नौनिहाल के चेहरे से

एक अप्रत्याशित चहक पर मचलती

मुस्कराहट उड़ चली

 

 

वो चिड़िया

जिसको मेरी दिनचर्या से 

कोई रस्मो राह थी

जिससे मेरा कुछ रिश्ता था 

कुछ हो सकता था

 

 

कितना अच्छा होता

गर इन्सान के पृथ्वी पर मौजूद

सभी नस्लों से ज़्यादा अक़्लमंद होने

और इन्सानी सभ्यता के

वो तमाम बौद्धिक तर्क

इतने अरसे बाद

यूँ असहाय पड़ते;

 

 

कि मैं एक उम्र गुजारूं

फिर भी उसको

ये जता सकूँ,

मेरी यादों की कड़वाहट से ढँकी

वो उसके चहकने की 

धुँधली गूँज ही तो थी

जिसने अब तलक मुझको

विक्षिप्त होने दिया

 

 

{2017}

 

 

2.  मकड़ियाँ मेरी दोस्त नहीं बनना चाहतीं

 

मैंने केचुए से ज़मीनों की उपज बढ़ाई

चींटियों से अनुशासन का सलीका जाना

रेशम के कीड़ों को कारोबार में हिस्सेदार किया

मख़मली रेशम के बदले अक्सर,

उन्हें ज़िन्दा छोड़ दिया

 

 

मैंने कुत्तों को वफ़ादार किया

घोड़े पर सवार हुए

गाय को माँ कर दिया मुक़र्रर

बंदोबस्त से लदे हाथी को

बड़ी ही शान से

जाने किस जंग में रवाना कर दिया

 

आवारा शेरों को सलाख़ों के बंगलों में

मैंने शहंशाह किया

भटकते बाघों को मुल्क़ की रौनक

मेरी सरपरस्ती में फ़राहम हुई

यूँ तमाम आलम जलवागर हुआ लेकिन,

 

मकड़ियाँ मेरी दोस्त नहीं बनना चाहतीं

 

 

घर के कई कोने अब तन्हा छोड़ देता हूँ

धागे से आशियानों को छूता नहीं हूँ

उलझना चाहता हूँ

कि शायद कायम हो रिश्ता कोई

या रिश्ते जैसी कोई चीज़

 

 

कभी तो निश्छल सरल

बेवजह के झमेलों से दूर

छू लूँ किसी ऐसे चेहरे को

जिसे अपना कह सकूँ

 

 

इक चहलक़दमी सी अजीब

दिल की दीवारें खुरचती है

मैं गुदगुदाते घावों की दोस्ताना

चुभन में मुस्कराना चाहता हूँ

 

 

मकड़ियाँ, मेरी दोस्त नहीं बनना चाहतीं .

 

 

{2020}

 

 


 

 

3. कुछ क़रीब जाने पर

 

 

 

जब बुरे सपने में लोग 

चींख रहे थे चिल्ला रहे थे

उस वक़्त दहक रही थी

बची खुची संवेदना उनमें

 

 

जाने अनजाने उस वक़्त 

भरे पेट से डकार आने की

जद्दोजहद भरे इन्तज़ार में

करवटें बदल रहा हो

                         उनका शरीर

 

 

ऐसे में मैंने देखा 

एक आवारा कुत्ता

सड़क किनारे सो रहा था

एक गहरी नींद

 

 

कहीं ज़्यादा निश्चिंत

कहीं ज़्यादा बेख़ौफ़

 

 

कुछ क़रीब जाने पर

ख़ुद मक्खियों की ज़बानी

मैंने जाना वो कल शाम से सोता रहा है,

उनकी भिनभिनाहट में पहली बार

मैंने अपने लोगों की आवाज़ सुनी

 

 

उसको जगाने की बेहिसाब कोशिशों में

थोड़ी सी देर हो चली थी.

 

 

{2015}

 

 

4. आख़िरकार

 

 

ये जानते हुए भी

गर उसकी बग़ल से गुज़रूँगा

तो वो जो शाख़ पर बैठी हुई है

कहीं उड़ जाएगी

 

 

मैं बढ़ा

क्योंकि मुझे बढ़ना था

मगर फिर आख़िरकार 

हुआ वही जो होना था

 

 

मैं बढ़ा

बढ़ता गया

बढ़ता चला गया

 

 

एक बार भी पलट कर

देखा नहीं क्या हुआ .

 

{2017}

 

 


 

5. तालों को रास नहीं आती

 

 

घर की निगहबानी में 

ताले लटकते हैं

जो एक हद तक पहचानते थे

अपनी अपनी चाबियाँ

राज़ी हैं अब वो

टूट जाने को

 

शिद्दत से एहसास है उन्हें

बरक़रार रहने की चाहत का

झर जाने की इच्छा में तब्दील होना

इसलिए भी उनमें

लगनी थी ज़ंग

 

 

तालों को रास नहीं आती

उनकी अटकी हुई कठोरता

फ़ंसा हुआ तनाव

उनको चाहिए घर में

किसी की सुकून भरी झपकी

 

 

उनको चाहिए रात में

किसी के रौशन सपने

जब दुलार करने की

हर मुमकिन कोशिश

कर रहा हो चंदा मामा .

 

{2015}

 

 

6. मगर

 

 

वो छोटी सी पुलिस कार

जो घर के चप्पे चप्पे में गश्त किया करती थी

रात दिन सुबहो शाम,

अब कहीं चैन से खड़ी होगी

और नौकरी के दिनों को

याद करती होगी

 

धूल की चादर ओढ़े गुड्डा भी

अब तक मुस्कराता होगा ये सोच कर 

कि जाने कब

वो मायूस आँखें मुझे ढूँढ़ निकालें

 

मगर उन जवान हाथों में

वज़न उठाता रहा है

और बरसों उठाएगा

एक ज़ंग खाया हुआ, तराजू .

 

{2014}

 

 

7. तुमसे मिलने की संभावना

 

 

तुम्हारी मेज़ पर पड़े कागज़ को

मुमकिन है कोई झोंका उड़ा ले गया हो

या फिर वो अब भी वहीं हो

 

 

कागज़ पर जाने

वो कौन सी पंक्ति थी

जो उतरते वक़्त टूट गई 

जाने वो कैसी कलम थी

जो तुम्हारे हाथों से छूट गई

 

 

या दरअसल ये वाक़या

तुमसे कलम का नहीं

कलम और कागज़ के 

रिश्ते का टूटना था

 

 

तुम मेरे पास नहीं थे

पर थे यहीं कहीं

 

 

मेरे पास थी तो सिर्फ़

तुमसे मिलने की संभावना

जो कल्पना में भी

तुमसे ज़्यादा मेरे क़रीब थी

 

 

और तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी का

क़त्ल कर रही थी .

 

{2015}

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)

 

 

सम्पर्क
32/32 187-ए शेखर विला 
साकेत नगर, वाराणसी।

फ़ोन : 8765000678

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