मिलजुल मन : किरदारों का आत्मीय अंतरंग



 (चित्र में मृदुला गर्ग और अचला बंसल के साथ राकेश बिहारी)

तमाम किन्तु-परन्तु के बावजूद पुरस्कारों के क्षेत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की अपनी अलग महत्ता है. हर किसी को यह जानने की उत्सुकता रहती है कि इस वर्ष का पुरस्कार किसे दिया जा रहा है.'मिलजुल मन' उपन्यास पर मृदुला गर्ग को इस वर्ष का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया है. मृदुला जी के इस उपन्यास का चयन श्रेष्ठ हिन्दी कृति के लिए किया गया है. इस उपन्यास पर एक आलेख हमारे लिए लिखा है  आलोचक मित्र राकेश बिहारी ने. मृदुला जी को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं राकेश बिहारी का आलेख 'मिलजुल मन :  किरदारों का आत्मीय अंतरंग'

राकेश बिहारी

किसी घोषित वाद के खांचे से बाहर रह कर अपने लेखन में मानवीय संबंधों की बारीक बुनाई के लिये जानी जाने वाली और ‘कठगुलाब’ तथा ‘अनित्य’ जैसे बहुचर्चित और बहुपठित उपन्यास की लेखिका मृदुला गर्ग का उपन्यास ‘मिलजुल मन’ जीवनी के रूप में उपन्यास और उपन्यास के रूप में जीवनी का एक जीवंत कथा संसार रचता है. उल्लेखनीय है कि ‘अनित्य’ के कथा विन्यास में जहां स्वतन्त्रता आंदोलन के समय के राजनैतिक द्वन्द्वों को प्रमुखता हासिल थी वहीं मिलजुल मन पारिवारिक सरगर्मियों या यूं कहें कि परिवार की पृष्ठभूमि में संबंधों के विकास की कहानी है. आज़ादी के तुरन्त बाद का समय यहां भी है लेकिन उसकी भूमिका अनुषांगिक है बहुत हद तक किसी गायक के साथ हौले-हौले बजते तानपुरे की-सी जिसकी उपस्थिति भर से पूरी प्रस्तुति को एक नई अर्थवत्ता मिल जाती है. उपन्यास के केन्द्र में खुद मृदुला गर्ग और उनकी बड़ी बहन व सुपरिचित लेखिका मंजुल भगत के साझे जीवन की सोंधी और आत्मीय दास्तान है, अपने समय और समाज के बारीक तंतुओं से बना और बुना हुआ. खुद के जीवन को औपन्यासिक जामा पहनाने में लेखिका ने जिस तन्मय तटस्थता का परिचय दिया है वह उलेखनीय है. एक ऐसी तटस्थता जो जीवन को कहानी में बदल दे और एक ऐसी तन्मयता जो कहानी को जीवन में रूपायित कर दे. यानी पाठक पात्रों को पहचान पाये या नहीं इससे उपन्यास के पाठ की सहजता कहीं से प्रभावित नहीं होती.

पाठकों को सहज ही समझ आने वाली किसी कहानी के पीछे की कहानी जिसे हम उसकी रचना यात्रा भी कह सकते हैं कितनी बारीक, दिलचस्प और कठिन होती है उसे भला लेखक से बेहतर कौन बता सकता है. इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुये ‘अन्यथा’ के उपन्यास विशेषांक में खुद लेखिका कहती हैं - " दरअसल उपन्यास लिखना निजी ज़िंदगी को हलाक करके नई ज़िंदगी शुरु करने जैसा है. वह भी पुनर्जन्म जैसी नई ज़िंदगी नहीं, जो दुबारा मिलने पर हो पूरी तरह अपनी. यह नई ज़िंदगी औरों से उधार ली हुइ होती है. बतौर पेश्बीनी उइदाहरण खुद को बनाओ चाहे अन्य-अन्यों को खास फर्क नहीं पड़ता. हर हाल परकाया प्रवेश करना होता है. आत्मकथ्य होते हुये भी उपन्यास आपबीती नहीं होता; उससे कहीं जटिल काया निषेध की मांग करता है. बार-बार काया में जिओ; उसे पहचानने-समझने की कोशिश करो. हर बार तब तलक जिये, समझे, पहचाने से ऊपर उठो. यानी अपने जिये, देखे-सुने, पढ़े-गुने की बिना पर ही खुद को नकारो और अन्यों की ज़िंदगी में दाखिल हो. फिर उसे ऐसा लिखो, जैसे खुद ही जी रहे हो. जो तुम लिखो, हो वह किस्सा, पर पाठक को लगे यह उसकी आपबीती है."

सिवाय अपने अन्तर्मन के जिसे कि शुद्ध सात्विक भाषा में अन्तरात्मा कह सकते हैं आखिर इतना करीब कौन हो सकता है जो ज़िंदगी जीते व्यक्तित्वों के बिल्कुल समानान्तर चलता-देखता ही नहीं उसे लगातार समझता भी चले. इस उपन्यास की दोनों मुख्य चरित्र गुल और मोगरा तो भोगती देखती और जीती ही हैं समय और जीवन को, वह तीसरा जिसके हाथ ने कथा सूत्र पकड़ रखा है, भी देखता चलता है सब कुछ अपनी निरपेक्ष दृष्टि से. तीनों तीन भिन्न दृष्टियां जो दूसरे के देखे-सुने-समझे में न सिर्फ हस्तक्षेप करती हैं बल्कि अपना दृष्टिकोण या कि मत भी साथ-साथ पैबस्त करती चलती हैं. उपन्यास का तीसरा चरित्र ‘मैं’ यानी सूत्रधार या फिर लेखिका के शब्द उधार लें तो प्रवक्ता दोहरी भूमिका में है खुद को पात्र के साथ जीना और फिर जरूरत पड़ने पर खुद को उससे बिल्कुल अलग कर लेना... कथा कहने का एक बिल्कुल अलग तरीका चुना है लेखिका ने यहां. मैं और मोगरा आपस में इतने जुड़े हैं कि कई बार पाठक उन्हें पहचानने और अलगाने के खेल का भी लुत्फ़ उठाने लगें लेकिन इस शिल्प ने लेखिका के लिये संबंधों का अंतरंग खोलना आसान सा कर दिया है.

सूत्रधार के रूप में लेखक का उपस्थित होना यहां इसलिये भी जरूरी हो जाता है क्योंकि कहानी जिसकी है वह बहुत अपना है, बहुत करीबी. यदि उपन्यासकार के शब्दों को ही उधार लें तो बहुत ही नाजुक और नजदीकी रिश्ता. उस रिश्ते के साथ कोई अन्याय हो जाये या कि उसके साथ न्याय करते-करते कहीं अपने साथ ही अन्याय न हो जाये. यह द्वन्द्व किसी भी लेखक के साथ होता है. अपनी या अपनों की कहने में सबसे बड़ी परेशानी यही होती है. होशोहबास दुरुस्त रखने के चक्कर में इतने बदहबास कि किसी न किसी से बेइंसाफी हो ही जाती है. अपनी कहने चले तो खुद को जरूरत से ज्यादा नकारा साबित कर दिया या कि जरूरत से ज्यादा आला. बेइंसाफी तो हर हाल में हुई पर मिलजुल मन अपने शिल्पगत वैशिष्ट्य के कारण इस ऊहापोह से ऊपर है. जहां मुंहचोर मोगरा चुप हो जाये वहां  मुंहजोर गुल बोले बिना न रह सके और जिस मुद्दे पर गुल चुप्पी ठान ले वहां मोगरा की चुप्पी बिना बोले भी कहानी में एक नया रंग जोड़ जाये. और इन सबसे इतर लेकिन दोनों के  साथ-साथ चलता एक लेखक.

"मासूमियत बड़ी खुशगवार चीज होती है. जाती है तो हज़ार खूबसूरत खुशफहमियों का कत्ल करके... मासूमियत का जाना चाहे जितना दुखदायी हो जेहनियत की मांग है... यूं इस में शक नहीं कि जेहनी होना भी खासा दुखदायी है." उपन्यास की ये पंक्तियां अपने समय, पात्रों , परिस्थितियों और सम्पूर्ण कथानक की खूबसूरत उदासियों और उदास खूबसूरती को एक ही साथ  रूपायित करती है.

मृदुला गर्ग खुद को स्त्रीवादी लेखिका नहीं मानतीं लेकिन अपनी अन्य रचनाओं  की तरह यहां भी उन्होंने गुल और मोगरा दो बहनों के प्रगाढ़ अन्तर्संबंधों के बहाने स्त्री की दुनिया को स्त्री की आंखों से देखने की कोशिश की है. अब हम इसे किसी वाद के खांचे में रखे न रखे उससे क्या फर्क पड़ता है. हमेशा की तरह अपने समकालीन पुरुष लेखकों की तुलना में मृदुला गर्ग इस उपन्यास में भी स्त्री पक्ष को अधिक संवेदनशीलता से उठाते हुये पितृसत्ता की बारीक चालों पर टिप्पणी करती चलती हैं..." हर खुद्दार कद्दावर मर्द को. अपनी खुदी से बेइंतहा लगाव होता है. तभी वारिस पैदा करके, अपना नाम कायम रखना चाहता है. औरत ज्यादातर बिचौलिया होती है. पितृत्व को मातृत्व में समा, उसे जनाना बनाना, मेरे खयाल से पितृसत्ता की सबसे अचूक चाल रही है." पितृसत्ता पर ऐसी कई और अचूक टिप्पणियां पूरे उपन्यास में मौजूद हैं. उल्लेखनीय है कि मृदुला गर्ग के यहां पितृसता की यह समीक्षा किसी वाद या आंदोलन के रास्ते नहीं एक स्त्री के तजुर्बे के सहारे उतरती है. स्त्री तजुर्बे का एक ऐसा निष्कर्ष जो कई आंदोलनों के लिये दिशा सूचक का काम कर स्कता है. स्त्री संवेदना के साथ सहज जुड़ाव हो कर भी लेखिका की दृष्टि पूर्वाग्रही या एकांगी नहीं है. वे मर्दाना चालों और जनाना कमजोरियों दोनों पर समानान्तर नजर रखती हैं और यही मृदुला गर्ग के लेखन की खासियत है..." हां पुरानी रिवायतों से छुटकारा मुश्किल से मिलता है. हम ज़िंदगी में जो पा लें, कुछ हसरते बची रहती हैं; मन के कोने में. काश हम सुघड़ गृहस्थन होतीं; आदर्श मां की तरह जानी जातीं; बलाकी खूबसूरत होतीं, फिल्म तारिकाओं-सी सेक्सी. औरत के जो रूप, अदब और फन में मानक रहे हैं, उनसे निजात पाना, मर्द के लिये हीनहीं, औरत के लिये भी मुश्किल है." लेकिन प्रश्न यहां यह उठता है कि औरतों की इस ग्रंथि के पीछे भी पितृसत्ता का हाथ ही तो नहीं है... कंडीशनिंग का प्रभाव...?

मिलजुल मन भले मुख्य रूप से गुल और मोगरा की कहानी हो, लेकिन समय और समाज से अलग कोई कहानी क्या कहानी होगी. कहानी के साथ समय, समाज, परिवेश और उसके लिये जिम्मेवार परिस्थितियों पर मारक और अचूक टिप्पणियां उपन्यास में भरी पड़ी हैं. सुखद है कि ये टिप्पणियां मखमल में टाट के पैबन्द सी नहीं आतीं बल्कि कथा रस में नमक डली सा घुलमिल कर मिलजुल का एक बेहतर और अर्थपूर्ण संसार रचती है जिसमें सिर्फ हरियालियां हीं नहीं अपने समय की बीहड़ और रेतीली उदासियां भी शामिल हैं. उपन्यास के अन्य पात्र चाहे वो पिता बैजनाथ जैन हों या डॉ. कर्ण सिंह, मामाजी हों या जुग्गी चाचा या फिर बाबा, दादी या कनकलता सब के सब उपन्यास के कथानक को समय और समाज से जोड़ने वाले संयोजक ही तो है जिनकी उपस्थिति ने मिल कर इस कथानक की समाजिकता का ईंट-ईंट जोड़ा है. उपन्यास के आखिर में  औद्योगिक कस्बा डालमियानगर, जहां गुल अपने पति पवन के साथ एक लम्बे समय तक रहती है, भी एक चरित्र के रूप में ही आता है जिसका समकालीन विस्तार हम रणेन्द्र के उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ में देख सकते हैं.

अपनी ज़िंदगी से चुने किरदारों का औपन्यासीकरण करते हुये पात्रों की पहचान को ले कर लेखक के मन में हमेशा एक ऊहापोह रहता है. प्रस्तुत उपन्यास में भी यह लेखकीय चौकन्नापन देखा जा सकता है. शायद यही कारण है कि गुल और मोगरा के वास्तविक चरित्रों के नाम या उसके परिचय के जगजाहिर अंशों पर लेखिका  गल्प का एक झीना सा परदा डालती चलती हैं. पर उपन्यास के उत्तरार्ध में चरित्रों को ले कर की जाने वाली यह पर्देदारी जाती रहती है. इसे आप चाहें तो अपनी पहचान खुद प्रकट करते चरित्रों का स्वाभाविक विकास भी कह सकते हैं या फिर लेखकीय तटस्थता का अतिक्रमण भी. हां, एक बात और, गो कि उपन्यास की भाषा  सहज और सरस है लेकिन कहीं-कहीं प्रयुक्त हुये उर्दू के कुछ शब्द, जिसका प्रयोग लेखिका ने शायद भाषा में समय की छाया दिखाने के लिये की है, उन पाठकों को खटक सकते हैं जिन्हें उर्दू नहीं या कम आती है.

यूं तो गुल, मोगरा और मैं तीन अलग-अलग किरदार हैं लेकिन एक दूसरे से इस तरह आबद्ध कि कब कौन किसकी कहानी सुनाने लग जाये आपको पता ही नहीं चले. कुल मिला कर मिलजुल मन स्वतंत्र किरदारों और उनके आत्मीय अंतरंग का एक ऐसा मेलजोल है जिसमें लगातार विकसित होते बहनापे की साझी खूशबू के साथ दो लेखकों की निर्मितियों की कहानियां भी शामिल हैं.


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