विजय गौड़ की कहानी 'मासिक प्रीमियम'

 

विजय गौड़ 


कवि, कहानीकार और उपन्यासकार विजय गौड़ नहीं रहे।आजकल वे देहरादून में रह रहे थे। विजय जीवट से भरे हुए एक खूबसूरत इंसान थे। थियेटर जैसे उनकी रगों में बहता था। यारबाश थे लेकिन अपने घर परिवार पर भी पर्याप्त ध्यान देते थे। बीते 18 अक्टूबर 2024 को उन्होंने बिटिया पवि के हाथ पीले किए थे। दिल के गम्भीर दौरे के बाद पिछले पांच दिनों से वे दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल में भर्ती थे। कल उनका निधन हो गया। उनके अचानक जाने की खबर सुन कर हम सब हतप्रभ हैं। जिस उम्र में उन्होंने दुनिया छोड़ी, आमतौर पर वह जाने की उम्र नहीं होती। पहली बार के लिए जब भी उनसे रचना मांगी, उन्होंने हमें त्वरित गति से सहज ही उपलब्ध कराया। उनका ब्लॉग 'लिखो यहां वहां' हिन्दी का चर्चित ब्लॉग था। उनको  विनम्र  श्रद्धांजलि अर्पित करते  हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी 'मासिक प्रीमियम'।



'मासिक प्रीमियम'


विजय गौड़


पति-पत्नी दोनों बेहद खुश थे। मौका भी खुशी का ही था। वैसे खुश रहने के लिए मदान फैमिली को मौकों की जरूरत नहीं थी। पिछले कुछ सालों से तो जैसे खुशी की नदी ही उनके जीवन में सतत प्रवाहमान थी। यह कहना ठीक नहीं कि यदा-कदा के समय अंतरालों में हो जाने वाले बाजारू उतार पर नदी सूख जाती थी। बहुत तथ्‍यात्‍मक और घटनाक्रम के ऐतिहासिक हवाले के साथ बात करने वालों को तो निशा मदान मुँहतोड़ जवाब देना जानती है, ''जब इस धरती का भूगोल सरस्वती को विलुप्त कर इतिहास के गर्त में हमेशा के लिए दफना सकता है तो हमारे जीवन की नदी का भी, जो कि वैसे तो ख्‍याली पुलाव ही है, विलुप्त हो ही जाना कौन से अचम्भे की बात है।" 


बाजार के उतार- चढ़ाव का संबंध तो मानो समुद्र में आने वाले ज्‍वार -भाटा से हो। निशा मदान का कहना वाजिब था कि मदान फैमिली के जीवन की नदी के विलुप्त हो जाने का सवाल, ईर्ष्‍यालू लोगों के मन के ख्‍याली पुलाव हैं। निशा मदान की माने तो उनके जीवन की नदी के बहाव पर उठाए जाने वाले ऐसे सवाल बेमानी ही है। कम से कम ऐसे समय में तो बेमानी ही है जब आंधी के आम बटोरने की आपाधापी चारों ओर मची हो। फिर भी यदि, कभी आपको भी ऐसा लगे, नदी तो सूखी हुई है, तो तय जानिये वह कोई क्षणिक अंतराल ही होगा। पाओगे कि दूसरे ही क्षण तेज बहता हुए प्रवाह आपको खुद ही उलझन में डाल दे रहा है। आप एक तरह के भ्रम के शिकार भी हो सकते हैं उस वक्‍त। इधर सूखी हुई नदी और उधर ऐन उसी वक्‍त दिखायी देता तेज प्रवाह आपको अचम्‍भे में डाल सकता है। हाँ, यह तो हो सकता है कि बह कर आते गाद के प्रवाह में नदी आपको नाला दिखायी दे। लेकिन ऐसा भी तब तक, जब तक कि आप एक दूरी बनाये खड़े हों, निशा मदान का हाथ पकड़ कर उसमें उतर जायेंगे तो निश्चित ही निर्मल जलधारा में छपाछप तैरते हुए होंगे। ऐसे अनुभवों को प्राप्‍त न भी हो पायें तो भी आप यह तो दावे के साथ कभी नहीं पायेंगे कि नदी तो पूरी तरह सूखी हुई है । नदियों के करीब रहने वाले किसी अनुभवी से पूछेंगे तो आपकी जिज्ञासायें खुद शांत हो जायेंगी- पाट पर बिखरा हुआ रेतीलापन, निंद्रा में लेटी हुई नदी का जल होता है, उद्गम से बह कर आया हुआ पत्‍थरीला द्रव।   


नदी अपने उद्गम का पता देती ही कहाँ है। मानने वाले बेशक गंगा का उद्गम गोमुख मानते रहे और गंगा मइया के दर्शन के लिए तीर्थयात्रा तक करने लगें, पर गंगोत्री से होते हुए ही अनेक ग्लेश्यिरों के पार तक की यात्रा करने वाला कोई उद्दंड कह ही सकता है कि गोमुख तो मुहाना है, उद्गम का पता ढूँढना हो तो अरवा ग्लेशियर तक चले जाओ। 


जानते हैं अरवा ग्लेशियर कहाँ है? छोड़िये, आपका भूगोल गड़बड़ाने लगेगा। सड़क़ मार्ग की सीमित जानकारी भर से उसे नहीं जाना जा सकता। आप परेशान हो उठेंगे- वैसे भी बद्रीनाथ और गंगोत्री दो भिन्‍न सड़क मार्गों के रास्‍ते पहुँचने वाली जगह हैं। सड़क मार्ग से माणा गाँव तक तो बद्रीनाथ जाने के बाद ही पहुँचा जा सकता है। अरवा ग्लेशियर तो माणा के भी पार है फिर। 


पार! लेकिन कितना पार! 


पहाड़ों के रास्‍ते तो आर-पार के ही सँयोग है जी। ऐसे भूगोल से निपटने के लिए ही उतरती हुई ढलान को खोजती नदी पहाड़ों के गिर्द चक्‍कर लगा -लगा कर अपना मार्ग तय करती जाती है। 

      

मदान फैमिली की खुशियाँ छुपे-छुपाये कार्य व्‍यापार का मसला नहीं थी। लम्बे समय से संतान की आस लगाये रहने पर भी निरबंसिया होने की ओर बढ़ता जा रहा छोटा भाई पिता होने की अवस्था को प्राप्त होने जा रहा था, मिस्टर मदान उत्साह से भरे थे। पहली पत्नी के बांझपन के बावजूद अब कोई भी उसे निपूता नहीं कह पायेगा, यह विचार ही मिस्टर मदान को गर्व से भर देने वाला था। संतान के वास्ते ही ब्याह कर लायी गयी नयी बहू जल्‍द ही उम्‍मीद को प्राप्‍त हो चुकी थी। महीनों को पार कर चुका प्रसव गिनती के दिनों की आस होता जा रहा था। मिस्‍टर मदान पत्नी निशा को कितनी ही बार कह चुके थे, ''देखना लड़का ही होगा। ...वैसे तो चाहे कुछ भी हो, भई हमारी तरफ से सौगात तो बनेगी ही जनार्दन के लिए। हाँ, लड़का हुआ तो पाँच लाख, नहीं तो लड़की के होने पर भी तीन लाख के बीमे की पहली प्रीमियम तो दी ही जा सकती है। सारे कागज पत्तर तैयार किये बैठा हूँ मैं तो...बस डिलीवरी की तारीख की दरकार है।"


''तुम्हारा तो दिमाग ही फिर गया। अपने से ही फरफराये रहते हो। छोटा भाई चाहे घास भी ना डाले, पर उसकी नाद में सिर घुसाने को हमेशा तैयार रहोगे। यह कोई अकलमंदी नहीं है कि तोहफा पहली किस्‍त की झूट वाला हो, वो भी बीमे की रकम भी लाखों वाली। ...अरे जब वो खुद होकर कोई रकम बोले तब तब तो आप चाहे एक किस्‍त छोड़ों और चाहे पाँच,... महत्व तो तभी है न। अगला तो कुछ बोलेगा नहीं मुँह से और तुम हो कि...


‘’...फिर पाँच लाख या तीन लाख वाली पालिसी का प्रीमियम अमाउंट कोई मामूली रकम तो नहीं न!"


    यह निशा मदान थी।


''तू तो खामंखा का हुज्जत करती है पगली, वो भी सारी बातें जानते समझते हुए। अरे पहली किस्‍त का ऑफर तो मैं किसी को भी देता ही हूँ, उसे बेसिक इंवेस्टमेंट मानते हुए ...भविष्य भर की कमीशन का स्रोत तो वह पहली किस्त ही होती है न! ...पालिसी धारक को ग्राहक बनाने का यह फण्डा नुकसान का तो कतई नहीं यार, तुम भी जानती ही हो। अगले कइयों सालों की रैकरिंग कमीशन के आगे एक किस्‍त का कोई मायने होता ही कहाँ। फिर उस पहली किस्‍त की भी कमीशन तो तुम्हारे खाते में  जायेगी ही न।"


''वो सब ठीक है... पर घर वालों के मामले में भी लोभ-लुभावने वाले अँदाज... पहली प्रीमियम की छूट वाला मामला तो बाहरी ग्राहकों के साथ होना चाहिए न। यदि ऐसे ही चलना है तो काहे का भाई और काहे की बहन। ऊपर से शो ऐसा करेंगे सारे के सारे, मानो हमें मदद कर रहे हो पालिसी देकर। मौसा जी की नातिन नीतू को ही याद करो... वैसे तो करेगी मामा-मामा, लेकिन मालूम है पिछली बार जब आयी हुई थी, क्या कह रही रही थी ? मुझे सुनाने लगी कि मामी जी मुम्बई वाले हमारे अपार्टमेंट में थर्ड फ्लोर पर एक दम्पति रहते हैं, होने को तो नार्थ-इण्डियन ही हैं, लेकिन हिसाब-किताब में पूरे यूरोपियन। शुद्ध व्यवसायिक ढंग से एजेंसी चलाते हैं। आप उनके सम्पर्क में पहली बार हों या हमेशा के ग्राहक--- शुरू की तीन किस्तें मिस्टर नागर ही भरेंगे। खैर, उनकी और मामा जी की क्या तुलना करनी--- वो ठैरे बड़े लोग। उनके सम्‍पर्क भी हम तुम जैसे ऐरों गैरों से नहीं। साल का टारगेट पूरा करना उनके लिए कोई ऐसा मामला नहीं जैसा मामा जी बता रहे थे पिछली बार... नीतू इस साल के टारगेट के लिए अभी पाँच पालिसी कम हैं। जब एक-एक पॉलिसी जुटाना मेरे लिए ही भारी पड़ रहा तो तेरी मामी ही क्या कर लेगी। फिर भी मेरी कोशिश तो यही है कि जैसे-तैसे साल का टारगेट पूरा हो जाये और एजेंसी बची रहे निशा की। मुझे तो उसी वक्‍त यह मालूम हुआ कि ऐजंसी आपके नाम पर है और मामा जी तो आपकी मदद में जुटे रहते हैं।"





''...तू भी कैसी कैसी बातों का बोझ लिए होती है निशा। नीतू चाहे जो माने और चाहे उसकी महतारी बिल्लो जो कहे--- हमारा धंधा तो चोखा चल रहा न इन सबों की बदौलत। इतने दिनों के साथ के बाद भी तुम अभी इस बात को ठीक से समझ नहीं पा रही हो कि दूसरे की गांठ से रूपया निकलवाना टेढ़ी लकड़ी को सीधा करने से कम मुश्किल काम नहीं है। ...मासिक न सही पर छमाई किस्‍त वाला बीमा तो करना ही चाहिए यार हमें जनार्दन के बच्‍चे का, यह कहते हुए कि ले भाई हमारी ओर से ये बच्चे के जीवन को खुशहाल बनाने की भेंट।"


''...छमाई-वमाई कुछ नहीं... ज्यादा ही समझो तो तिमाई किस्‍त का मामला बांधना। क्या मालूम तुम्हारे नासुकरे भाई का, आगे प्रीमियम दे या न दे। अर जो आगे की प्रीमियम रुक गयीं तो पहली किस्‍त का चूना तो पूरा का पूरा जीभ को ही फाड़ देगा। पान की पीक के दाग अलग से कपड़ों पर हमेशा-हमेशा के निशान बन जायेंगे।" 

     

पति-पत्नी के बीच सुबह-सुबह शुरू हो गयी इस नोंकझोंक के मायने ये कतई नहीं कि खुशी के क्षण बदमजा हो जायें। दुख और मलाल के छींटें तो दोनों ने ही अपने जेहन से निकाले हुए थे। हकीकत के साक्ष्‍य जुटाने हों तो पहले उन्‍हें मैडम सम्‍बोधित कीजिये। जी हाँ, खुद को मैडम पुकारा जाना उन्‍हें गर्व से भर देता है। निशा मैडम के चेहरे और शरीर के बहुत से दूसरे अंगों पर फैले सफेद दाग को देखकर यह भी न सोचने लग जाइये कि और कुछ नही तो अपने सौन्दर्य की चिन्ता का ही दुख उन्हें सताये हो सकता है और उनकी खुशियों की चमक को त्वचा पर चमकते सफेद दागों की चमक के अनुपात में धुंधला कर सकता है। ऐसे दुखों से तो अब वे कोसों दूर जा चुकी हैं। रोग से मुक्ति के लिए अब वे रोज-रोज के बताये जाने वाले नुस्‍खों की बजाय किसी ठोस इलाज की तलाश में ही रहती हैं। आप उन्हें अनाप-सनाप नुस्खे बताने लगें, वे मानेगी ही नहीं। आपके सामने बेशक चेहरे पर मुस्कराहट बिखेर कर सलाह के लिए आपका धन्यवाद ज्ञापित करती रहें, पर करेगी अपने मन का ही। जमाने की फितरत को वे आप और हमारी तुलना में ज्यादा अच्छे से जानती है। कहती हैं, ''क्या खूब है जमाना भी जब रोग भी कम्बख्त इलाज बन जाये।''  


रोग भी ऐसा कि दुनिया की घोषित पैथियाँ मुँह ताकें। दबाये न दबे। छिपाये न छिपे। उघाड़ दे खुद को ऐसा कि भूलना चाहें तो भूलने न दे दुनिया। मुफ्त की सलाह बांटने की प्रवृत्ति में आकंठ डूबे समाज का कोई व्यक्ति खुद को अनजान क्यों रहने दे भला। अब निशा मैडम को इस बात से तकलीफ कतई नहीं होती कि  एक अनजान के उन्‍हीं सवालों का जवाब उन्‍हें फिर- फिर देना पड़ रहा होता है जिनको देते हुए वे कितनी ही बार भीतर ही भीतर झल्‍ला उठी हैं।  ऐसे कितने ही मौकों से जुटाये गये ग्राहकों की यादें निशा मैडम को हर वक्‍त गुदगुदाये रहती हैं। न जाने कितनी ही बार वे खुद के प्रति सहानुभूति रखने वाली की जिन्दगी के गड़बड़ाते अर्थशास्त्र को दुरुस्त करने वाली डॉक्टर की तरह पेश आती रहीं हैं। सहानुभूति दिखाने के रोग के से ग्रस्‍त शख्‍स को उस वक्त यह कहाँ समझ में आ रहा होता है कि वह खुद उस गिरफ्त में फंसने की परिस्थितियाँ खड़ी कर चुका है जो लम्बे समय वाली कोई पॉलिसी नहीं तो साल-दो साल वाली योजना के किसी तात्कालिक इंवेस्टमेंट के बाद ही मुक्‍ती की राह होंगी। न हो जयादा, सिंगल प्रीमियम प्लान ही सही। निशा मैडम हँस-हँस कर बताती हैं कि अपने पास तो ग्राहक राह चलते आता है, ‘‘दूसरे की तरह उसे खोजने के लिए दर-दर नहीं भटकना पड़ता अपने को।‘’ कितने ही वाकये उनकी जेहन में उछलते रहते हैं। यकीन नहीं तो आप जब चाहे उनसे सुन सकते हैं,


''मैड्म यदि बुरा न मानें तो एक बात पूछ सकता हूँ ।''


दूसरे के दुख को खुद का दुख मानना चाहिए, ऐसे विचार के प्रभाव में डूबा कोई अपरिचित स्‍वर राह चलते सुनायी दे जाना बहुत आम बात है।  पूछे गये प्रश्न के जवाब में न समझने के भावों को कितना तो चेहरे पर लाएं, जबकि दिख रहा हो कि अब कोई न कोई नया नुस्खा, कोई दवा, किसी बहुत दूर दराज में बैठे वैद्य, नीम-हकीम का यशोगान या फिर किसी उम्दा डॉक्टर का ही नाम सामने वाले की जुबान पर हो। किसी ओझा, पीर-फकीर का भी पता हो तो आश्चर्य की बात नहीं। व्यक्ति कभी किसी मुलाकात को याद करता पूर्व परिचित हो तो टोने-टोटके और जादुई-तिलिस्म से भी रोग मुक्त हो जाने का उपाय सुनना ही हो सकता है। अनजान राहगीर भी, बल्कि अनजान ही अकसर, इस तरह से टकराते रहते हैं। जान पहचान वालों की आँखें तो यूं भी अभ्यस्त हो चुकी होती हैं एक ही सूरत को बार-बार देखते हुए। उनका चौंकना अचानक का चौंकना तो तब भी नहीं हुआ होता है जब रोग भी रोग की शक्ल वाला नहीं बल्कि त्वचा पर कुछ बदरँग दागों के रूप में उभरा हो।


''जी...कहिए।''


चेहरे पर आत्मविश्वास की दँत-मुखरित मुस्कान के साथ खिली-खिली आँखों से बयान करना ही ठीक लगे कि जिस विषय में आप जानने को उत्सुक हैं श्रीमान उसे इतना तवज्जों अपन ने देनी छोड़ दी है अब, आप नाहक परेशान हैं। फिर भी कुछ पूछना चाहते हो तो पूछ ही लो। 

''जी यह कब से है आपको।'' 


वही प्रश्न जिसका उत्तर कायदे से दिया जाये तो सलाहों की झड़ी लग जाए। बेकायदे से दें तो जाने क्या समझ बैठे सहानुभूति दिखाने वाला। फिर स्त्री होने की शालीनता को ओढे़ रखने की माँग करने वाले समाज से इतना बगावत करने की ताकत भी कैसे जुटायें। 


''बीस-पच्चीस साल से ऊपर हो गये।" 


समय की शिनाख्त की करवाई तो वे जब चाहें अच्छे से कर सकती हैं। उनकी स्मृतियों में आज भी सिर पर लाल गुम्मड़ वाले व्यक्ति की छवि टंकित है जिसे उन्होंने जब पहली बार टीवी पर देखा था, तो ठहर कर ही उसे देखने लगी थीं। 


जारी खबरों में उसे किसी देश का प्रधानमंत्री, जाने राष्ट्रपति, बताया जा रहा था। मिचमिची आँखों वाला अर्थशास्त्र का कोई प्रोफेसर उस वक्त भारतीय सँसद में महत्वपूर्ण पद पर था, लेकिन टी वी पर जिसकी शक्ल भर होती थी, आवाज नहीं। आवाज तो उसकी कभी सुनी हो ऐसा याद नहीं, बल्कि कई बार तो सवाल उठता मन में कि अपने छात्रों से मुखातिब होते हुए भी क्या यह ऐसे ही मौन रहता होगा कक्षा में ? उसके पढ़ाये छात्रों को खोजा जाए तो वे ही ज्यादा सटीक तरह से बता सकते हैं। लेकिन मुखातिब व्यक्ति को तो किसी सटीक समय से कुछ लेना देना भी नहीं होता। वह तो चेहरे को बदरँग, या कहो, रँगहीन करते दागों से वाबस्ता होकर, चेहरे की रँगत को धूमिल करते रोग से निजात दिलवाना चाहता है। 


कम्‍बख्‍त कहाँ जान रहा होता है कि वही, जिसे वह इतना मासूम समझ रहा है, उतनी ही नफासत के साथ है जितनी एक नाई उस्तरा छुआता हुए रखे होता है। रोग को रोग न मानने वाली हँसी की खिलखिलाहट में मैडम उसे ही उसकी चिन्ताओं में उलझा देने में माहिर हो चुकी है, जहाँ मृत्यु एक सत्‍य की तरह होती हुई भी भय का निर्माण करने वाली होती है। लेकिन सिर्फ भय का ही वातावरण व्‍याप्‍त रहे, ऐसा उनका उद्देश्‍य कभी नहीं रहा। वेद प्रकाश जुबली के संग-साथ में कितना कुछ सीखा था मैडम निशा मदान ने। वेद प्रकाश जुबली भी उसी समय में टकराया था जब संचार माध्यमों में सिर पर लाला गुम्मड़ वाले को बहुत प्रधानता दी जा रही थी और जब-तब उसके चेहरे के साथ जारी खबरों में उसके देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था का जिक्र होता रहता था। आपकी यादाश्‍त भी यदि दुरुस्त हो तो खुद याद कर सकते हैं कि आर्थिक संकट से निपटने के रास्‍ता सुझाते शिक्षाविदों का बोलबाला अपने यहाँ उस वक्‍त बहुत जोर पर था और नयी से नयी नीतियों के पिटारे खोलता अर्थशास्‍त्र का प्रोफसर बिना मुँह खोले भी बहुत वाचाल हो रहा था।  

    

वेद प्रकाश जुबली को वे जानती नहीं थीं। तंग गली वाला वह एक पुराना मोहल्‍ला था, आधुनिकता जहाँ से नाक पर रूमाल रखकर गुजरती थी। घरों के दरवाजे सीधे सड़कों पर खुलते थे। दोमंजिला मकानों के बाहर को फैले छज्‍जे दिन में भी गली को अँधेरे से ढके होते थे। एक रोज लोहे की गोल-तंग सीढ़ियों को चढ़ने के बाद मैडम निशा मदान बँद पड़े किवाड़ों के सामने थी। पक्‍का यकीन था कि बतायी गयी जगह, जहाँ पहुँचने को कहा गया था, यही है। बँद पड़े किवाड़ को खोलकर वह सीधे भीतर चली गयी थीं। कमरे में बहुत से लोग दरवाजे की ओर पीठ करके बैठे थे। भीतर प्रवेश करने वाले किसी भी व्यक्ति का सीधा सामना उनसे नहीं हो सकता था। बल्कि भीतर प्रवेश करने वाले का साबका सामने खड़े शख्स से ही हो सकता था, जो कक्षा में खड़े अध्यापक की तरह दिख रहा था। लेकिन पहनावे और हाव-भाव से वह किसी कारपोरेट सेक्टर का व्यक्ति नजर आता था। गहरे नीले रँग का कोट और उसी रँग की पेंट के साथ लम्बी धारियों वाली कमीज के ऊपर लाल-काले रँग की चित्तियों वाली टाई में उसकी छरहरी देह, उसे जरूरत से ज्यादा सभ्य, सुशील और आकर्षक दिखा रही थी। दीवार पर टंगे ब्लैकबोर्ड पर एक गोला सा खिंचा हुआ था। गोले के गिर्द एक लम्बी लकीर खींचते हुए वह सामने बैठे लोगों से मुखातिब था। दरवाजे के खुलने का अहसास होते ही खींची जा रही लकीर को वहीं पर रोक कर उसने गर्दन पीछे घुमायी थी। दरवाजे की ओर की पीठें भी पीछे को मुड़ गई थीं। ब्लैकबोर्ड के साथ खड़े मिस्टर जुबली वेद प्रकाश की निगाह में गहरी आत्मीयता के भाव उभरे थे और बहुत ही शालीन अँदाज में आगन्तुक का स्वागत-सा करती आवाज के साथ उसने पुकारा, 

''कम इन...कम इन प्लीज।"


किसी भी नयी जगह में जहाँ अपरिचितों की भीड़ हो, भीतर प्रविष्ट होने की जो पहली झिझक होती है, वह टूट चुकी थी लेकिन संकोच की गाढ़ी चादर अब भी पूरी तरह से उतरी नहीं थी। 


''आइ एम जुबली वेद प्रकाश... प्लीज हैव ए सीट।"


मिस्टर जुबली वेद प्रकाश! जी हाँ यही नाम था उस आकर्षक आवाज का, जिसकी अनुगूंज में एक सम्मोहन था और उस सम्मोहन में मैडम निशा मदान खाली पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गयीं।।अनजानी सकुचाहट और नाम के साथ टंकी उपाधि ''जुबली" के मोहपाश में धीरे-धीरे बंधती ही चली गयीं। अपने परिचय को दोहराते हुए मिस्टर वेद प्रकाश बता रहे थे, 


''आई एम ओनली जुबली मेम्बर इन दिस रीजन। इफ, आल यू गाइज विल रन विद मी, वी आल मे बी जुबली एन जुबली।" 


परिचय देने के अपने अँदाज पर मिस्टर वेद प्रकाश खुद ही खिलखिलाकर हँसने लगे थे। उनके शिष्यों के स्वर 'हुर्रे' के से भाव में थे। जमाने को धता बताती उनकी हंसी में आत्मगौरव की वह खनक थी, जिसका बखान आगे की बातचीत में हुआ,

    

''सफल व्यक्ति वह नहीं कि जो नया काम करते हों, बल्कि नये तरह से किसी भी काम को अंजाम देने वाले ही सफल कहलाते हैं।"           


उस दिन जीवन का पहला मँत्र सीखा था मैडम निशा ने- 'कीप क्वाइट'। 





''बस मौन बने रहें आप। कुछ भी न बोलें। ललचायें अपने अंदाजों से अपने किसी प्रिय को और जब वह एकान्त के किसी कोने में हो कर आपसे खुद पूछे राज तो चले आएं लेकर उसे यहाँ तक, बाकी का हम संभाल लेंगे। न भी पूछे, तो एकान्त में घेर कर आप ही सुनाये उसे अपनी 'शौर्य गाथा' और न्यौता दें उसे किसी दिन यहाँ तक आने का, जैसे आप सब आए हैं इस वक्त। जान ही रहे होंगे दुनिया में सफल होने का नुस्खा चौराहे पर खड़ा होकर बेचे जाने की चीज नहीं। यह तो एकदम अपनो को, अपनी तरह से ही दिया जा सकता है।'' 


यही बताया था उस रोज तो मिस्टर जुबली वेद प्रकाश ने जिसे निशा मदान ने किसी भी द्विविधा में पड़े बिना ज्‍यों का त्‍यों ग्रहण कर लिया था। न सिर्फ जुबली वेद प्रकाश के उस कहे को ग्रहण और स्‍वीकार किया, बल्कि आगे के कार्यव्‍यापार में भी वे जुबलीपन के उस फलसफे के साथ चलती रहीं, जो वक्‍त के तकाजों के साथ बदलते तो रहते थे, लेकिन अपनी फितरत में कमीशन की गाद पर ही तैरते रहते थे। 


''देखिये मैडम सफलता का एक ओर नियम भी है कि जब आप बोलें तो सिर्फ आप ही बोलें और दूसरे सुनते रहें जब तक कि उनके भीतर के सारे पिछले अनुभव धुल-पुंछ न जायें।''     


दो तीन सालों के उस साथ में कितनी ही नयी से नयी कम्पनियों की 'लायल' कस्टमर वाली बाजारू प्रणाली को अंजाम देते वेदप्रकाश के साथ-साथ वे भी कई बार जुबली कहलायीं, लेकिन बाजार के चलन से जल्दी ही बाहर हो जाने की स्थितियों वाली उन कम्पनियों की बजाय जीवनबीमा एजेंसी उन्हें ज्यादा टिकाऊ नजर आने लगीं एक रोज । प्रोडक्ट की बिकवाली चाहे खुद के द्वारा हो और चाहे डाउन लाइन में, किसी भी तरह से बढ़ने वाले बिजनेस वॉल्यूम के लाभांश के बावजूद रकम को गँवा चुके कितने ही करीबियों तक फिर से पहुँचने में मिस्टर मदान का सुझाव उन्हें ज्यादा सही जंचा था। मिस्टर मदान ने सिर्फ कहने भर को नहीं कहा था, ''निशा एलआईसी ऐसा मामला है कि मैं खुद होकर भी तुम्हारा मद्दगार बन सकता हूँ।"  बल्कि, एक जिम्मेदार साथी की तरह साथ भी दिया। सिर्फ पारिवारिक करीबियों तक ही नहीं, बल्कि मिस्‍टर मदान ने अपने दफ्तर के साथियों तक भी मैडम मदान की पहुँच को बढ़ा दिया था। सच तो यह था कि एजेंसी धारक के रूप में नाम भर निशा मदान था और किसी भी तरह की गतिविधि को अंजाम देने का जिम्मा मिस्टर मदान का ही था। 


जीवन बीमा का कारोबार निशा मदान को बहुत भाने लगा था। पॉलिसी को बेचने की जद्दोजहद बेशक उसमें भी कम न थी, पर ग्राहक को तलाशने की कोशिश में मल्टी लेवल मार्केटिंग वाली संदेहास्पद स्थिति तो खड़ी नहीं ही होती थी। रकम के डूब जाने पर डाऊन लाइन में डाले गये कितने ही परिचितों ने संबंधों के पहले वाले ताप को बुझा दिया था जिसे वे फिर से उसी त्‍वरा में जिलाये रखने की पहलकदमी में पीछे नहीं हट सकती थीं। घर-घर जाकर जीवनबीमा के महत्‍व और पॉलिसियों की भिन्‍नताओं के पाठ पढ़ा कर उन गिले, शिकवों को दूर कर देना चाहतीं थी जिसकी जद में गृह स्‍वामी या गृह स्‍वामिनी ऐठें पड़े होते।

    

''...जीजू अब तुम से कुछ छुपा है क्‍या इस जमाने का मामला, अपाला दीदी की बात और है, उनका नाराज होना तो समझ आता है कि सिर्फ एक लाइजोल, एक शैम्पू चार बट्टी नहाने और चार बट्टी कपड़े धोने के साबून भर का दाम पैतालिस सौ रूपये नहीं हो सकता, पर आप तो जानते थे न कि जमा की जा रही रकम को गिफ्ट के रूप में दिये जा रहे इन आइटमों से कोई लेना देना नहीं था... बल्कि ये तो कम्‍पनी द्वारा अपने लॉयल कस्‍टमर को फ्री गिफ्ट थे। रही रजिस्‍ट्रेशन चार्ज के पैंतालिस सौ रूपये तो आप ही सोचिये कि डाऊद लाइन यदि एक्‍सपैण्‍ड नहीं होगी तो बिजनिस वॉल्‍यूम कैसे बढ़ता। सच बात तो ये है जीजू वो सारा कारोबार आप हम जैसे सीधे-सादे लोगों के लिए नहीं है, जिन्‍हें किसी से कुछ भी कहते हुए संकोच होता रहे। अच्‍छा छोडो यह रूठा-रूठी। अरे पहले के उस नुकसान की भरपाई हो सके, इसलिए तो मैंने यह एलआईसी की ऐजन्सी ली है। पैंतालीस सौ का रोना छोड़ो यह लो पहली किस्‍त पच्‍चपन सौ की छोड़ दे रही। अब तो खुश हो न जीज्‍जी। अरे, आपकी छोटी बहन कोई नुकसान थोड़ी होने देगी अपने जीजू का। पैतालीस का ब्‍याज भी पच्‍चपन तो क्‍या ही होता।''


  अपने सुझाव पर मैडम को आगे बढ.कर काम करते देख मिस्‍टर मदान का दिल बाग- बाग हुआ जा रहा था। पत्‍नी को वे भी अब मैडम ही पुकारने लगे थे । महीने भर के अन्‍तराल पर ही मैडम ने जिस तरह से न सिर्फ पिछले समय में गुस्‍सा-गुस्‍सी हो गये संबंधों को पुनर्जीवित कर दिया था, बल्कि बहुत से दूसरे सामान्‍य परिचयों तक भी अपनी पहुँच बढ़ा ली थी, मिस्‍टर मदान को उनकी तारीफ करने से रोक नहीं पा रहा था । खूबसूरत अँदाज में मिस्‍टर मदान मैडम की उन सहेलियों को आमंत्रित करते हुए एक पार्टी थ्रो करना चाहते थे जिनके पते ठिकानों को न जाने कहाँ-कहाँ से ढूंढ़ निकालकर मैडम ने एक नया ही सँसार रच दिया था। सहेलियों के शौहरों को इकलौती और अनोखी साली मनवाकर मैडम ने अपने लिए बहुत से घरों के दरवाजे आवाजाही की किसी भी रुकावट के बिना, हमेशा हमेशा के लिए खुलवा लिए थे।   




 

खुद को सामने वाले के साथ जोड़ने में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता था। पिछली कम्‍पनी के मकड़जाल में रकम गंवा चुकों के बीच खो चुकी सामाजिक प्रतिष्‍ठा वे फिर से अर्जित करने लगी। इस तरह पुन: विश्‍वास अर्जित कर लेने की क्षीण सी रोशनी में ही वे जीवनबीमा की किताब के पन्‍ने परिचय के दायरे में पढ़ने लगीं।  लेकिन पहले से ही मौजूद अन्य एजेंटों ने ग्राहकों को लुभाने के जो फंडे अख्तियार किये हुए थे, उनसे निपटना आसान नहीं था। पॉलिसियों पर मिलने वाली कमीशन का गणित शुरूआती लाभांश के हिस्से को ग्राहकी छूट दे कर पॉलिसी बेचने वाला था। दिखावे के तौर पर मिस्टर मदान बेशक कितना ही कुछ कहें पर इतिहास गवाह है कि मल्टीलेवल मार्केटिंग के मामले रहे हों, चाहे कुछ और, पत्नी के कदम से कदम मिलाकर वे हमेशा साथ साथ चले। बल्कि करीबियों से और करीबी एवं परिचितों से अंतरँगता बढ़ाकर वे पत्नी के काम को आसान करते रहे। आप यह न मानने लगें कि मिस्टर मदान के लिए आपसी संबंधों के मायने बढ़ गये थे। हाँ, क्षणिक परिचित से भी करीबी बढ़ाना उनकी भी प्राथमिकता में जरूर होता गया और करीबीपन को अंजाम तक पहुँचा देने पर या, यह जान लेने पर कि जारी करीबी का करीबपन किसी निर्णायक स्थिति तक पहुँचाया नहीं जा सकता, वे खुद ही किसी दूसरे की ओर लपक लेने को उद्धत रहने लगे। उन लोगों के कहे पर इस वक्त कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं जो अकसर कह देते थे कि मिस्टर मदान ऐसा शख्स है जो अपने करीबियों की स्किन पर निगाह रखता है, उसमें भी अपना मुनाफा तलाशता रहता है। जाने यह मुहावरा उनके पास कहाँ से आया। हो न हो वे भी निशा मैडम की बचपन की सहेली चम्पा की उस मौसी को जानते हो जो त्वचा के सफेद-दागिया रोग का शर्तिया नुस्खा जानती थी। 


निशा मदान जब पिछले दिनों मायके गयी थीं तो पड़ोस की चम्पा के घर आयी उसकी मौसी ने अपने खर-खराहट वाले गले से बहुत धीमी आवाज में, कान में फुसफुसाते हुए, जो कुछ बताया था वह अनोखा ही नुस्खा था। नुस्खेबाजों के बताये नुस्खों को अपना-अपना कर और बाद में उनसे पीछा छुड़ाने के लिए सिर्फ 'हाँ', 'हूँ' करते हुए सुन-सुन कर तंग आ चुकी निशा मदान, मौसी के नुस्खे को हवा नहीं कर सकती थी। उसे मौसी के नुस्खे में दम नजर आया था। ऐसे नुस्‍खे से वह पहली-पहली बार ही परिचित हो रही थी। मौसी उसे नुस्‍खा नहीं, टोटका कह रही थी। बड़े भेदिया अँदाज में मौसी ने बताया था, ''निशु मैं तुझे जो टोटका बता रही उसे ध्यान से सुन। एकदम अचूक है। यदि तू अपना सकी तो देखना अगले ही रोज कैसे कायाकल्प होती है तेरी। वैसे तो इसका संबंध खून के रिश्ते से है, लेकिन वैसा सँयोग न भी हो तो बहुत करीबी रिश्तों में भी वैसा ही असरकारी हो जाता है। ...कभी परिवार में कोई नया मेहमान आने को हो तो तुझे सजग रहने की जरूरत होगी। करना यह है कि धरती में आँख खोलते उस नवजात के शरीर से गर्भ की परत जब उतरने लगे... अरे पगली जानती नहीं क्या कि नवजात शिशु की पहली खाल पपड़ी बनकर झड़ती है... बस उसी झड़ती हुई पपड़ी को बासी थूक से अपने शरीर के उन हिस्सों पर चिपकाती रहना जहाँ-जहाँ चमड़ी का रँग बदला हुआ है । देखना अगले ही रोज सारा रोग चौपट और चेहरा दमकता हुआ दिखने लगेगा। वक्‍त बासी थूक का न हो तो ऐसा नहीं कि त्‍वचा की उस डस्‍ट की पोटली बांधने लग जाये, बाद में कुछ हाथ नहीं आयेगा, उसे उसी वक्‍त ही चिपकाना होता है। उस वक्‍त थूक से भी चिपका सकती है... बॉसी थूक की स्थिति हो जाये तो बल्‍ले-बल्‍ले है। वरना भी डस्‍ट को गंवा देने से तो अच्‍छा है तुरन्‍त चिपका दिया जाये। रोग किसी ओपरे की वजह से हो तो भी टोटका असरकारी हो ही जाता है। मुझे तो तेरा मामला ओपरे का ही दिखता है। हो न हो किसी निपूति रांड का ओपरा हो, जिसने तेरे गर्भ की डाह में तेरे पर फेंका। वो तो तेरी ग्रह चाल की ताकत रही कि तेरे गर्भ पर उसका असर नहीं हुआ। लेकिन डाह का ओपरा तो अपना असर दिखाता ही न। पर तू चिन्‍ता न कर। मैं जो कह रही, उसे अपना, देखना वर्षों का ओपरा भी कैसे तेरे जिस्‍म की पकड़ से बाहर निकलता है।''   

      

दाम्पत्य में खुशहाली का जलजला कैसे-कैसे तो आकार ले लेता है। खुशी के मानदण्ड और आधार, व्यक्ति-व्यक्ति के लिए अलग अलग होते हुए भी, कई बार एक से ही दिखायी देते हैं। मैडम निशा की खुशी मिस्टर मदान की खुशियों से कमतर नहीं आँकी जा सकती थी। लेकिन मिस्टर मदान की तरह वे उसे ज़ाहिर नहीं कर सकती थीं।   


दस दिनों की अपवित्रता को मँत्रों के जोर से शुद्ध करते पंडित जी की आवाज और धुँए का जोर पूरे घर में व्‍याप्‍त था। पारिवारिक आत्मीयता की मेहमान नवाजी से कमरा ठसाठस था। जच्चा और बच्चा के साथ हवन कुंड में आहुति देता जनार्दन का परिवार ही नहीं बल्कि कुल मदान परिवार, पंडित जी की बदौलत, साथ-साथ शुद्धिकरण को प्राप्त होता हुआ था। हवन कुंड में समिधा देते दम्पतियों से भरे कमरे में मिस्टर मदान और निशा मदान के भीतर और भी न जाने क्या-क्या चल रहा था। मिस्टर मदान तो पिछले ही रोज सारे कागजों को तैयार कर लाये थे। यहाँ तक कि म्यूनिस्पल कारपोरेशन से जन्म प्रमाणपत्र भी उन्होंने जारी करवा लिया था। इस बात पर सोचे बिना कि कल छोटा भाई क्या पता किसी झूठी तिथि का जन्म प्रमाणपत्र करवाये तो क्या होगा पॉलिसी का। पाँच लाख की रकम वाली पॉलिसी का सर्टिफिकेट उनके भीतर कुलबुला रहा था। खुशी के ऐसे मौके पर अपशकुनी माने जाने वाली उस सामंती अवधारणा का मुँहतोड़ जवाब वे पहले ही सोचे बैठे थे कि यदि किसी ने ऐसा वैसा कुछ कहा भी तो उसे अच्छे से समझा देंगे, ‘भविष्य को ध्यान में रख कर बनायी जाने वाली योजना को अपशकुन कहने की बजाय, अपने भीतर के अपशकुनों से पार पाओ मिस्टर- दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है और तुम सगुन और अपसगुन ही छाँटते रहना।‘ 


निशा मदान देवरानी की गोद से टुकुर-टुकुर झाँकती नन्ही जान को निहार रही थीं। हवन के धुँए के कारण धुँधलाये से वातावरण के बीच भी उनकी निगाहों की ज्योति नवजात के बदन की खाल के रेशों को साफ-साफ ताक पा रही थीं। झड़ने वाली पपड़ी के चिह्नि नजर नहीं आ रहे थे। लेकिन निशा मदान को यकीन था कि पपड़ी तो झड़ने ही लगी होगी। प्यार की पुचकारों के साथ नवजात को अपनी गोद में ले लिया। स्पर्श के बदलाव पर शुरू हो गयी किलकिलाहट को शांत करने के लिए वे प्यार की पुचकारों वाली गोद को संभालती कमरे से बाहर निकल आयीं। बाहर के उजाले में त्वचा के रोओं से पपड़ी के झड़ने की सी स्थितियाँ स्पष्ट दिख रही थी। उँगली के पोर के हल्के दबाव पर उखड़ आयी पपड़ी को उन्होंने मुश्किल से उँगली के पोर पर थाम लिया था और थूक की लार के साथ आँखों के नीचे के उस हिस्से पर चिपकाना चाहा जिस पर उनकी अपनी निगाह भी हर उस वक्त सबसे पहले जाती थी, जब आईने के सामने खड़ी होतीं। लॉबी में लगे वॉश बेसिन के ऊपर,दीवार पर टंगे शीशे में उन्होंने चुपके से खुद को निहारा। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। बहुत मामूली से फर्क के साथ दिखायी देती त्वचा ने उन्हें उत्साह से भर दिया। अब वे उंगलियों के पोरों के दबाव से शिशु के बदन को छूने लगीं। हवा में उड़ जाने को आतुर पपड़ी को वे बरबाद नहीं कर सकती थी। एक-एक कतरे की कीमत उनके लिए अनमोल थी। उस भीड़ भड़ाके से हटकर वे अपने कमरे के एकांत में निकल गयीं। पपड़ी के एक-एक कतरे को बड़ी सहजता से उंगलियों के पोर से उठातीं और तय जगहों पर चिपकाती जाती। हर नयी चिपक के बाद वे एक बार से खुद को निहारती और अपने बदलते हुए रँग पर इतराने लगती। पपड़ी का झड़ना कम होने लगा तो वे उंगलियों के पौरों के दबाव बढ़ाने लगीं। नाखून तक पूरा धंस जा रहा था। छिलके की तरह निकल आती कोमल त्वचा का कतरा उन्हें उत्साहित करता रहा। नवजात त्‍वचा के छिलकों को नोंचने में उभर आ रही ललायी के कोई मायने नहीं रह गये थे। वे खुशी से इतनी पागल होती जा रही थी कि उस वक्त उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि मिस्टर मदान के पास जाकर पूछ लें कि पाँच लाख वाली पॉलिसी का जो सर्टिफिकेट तुम भीड़ के बीच भाई के हाथ में थमाने को आकुल हो रहे हो, उसमें प्रीमियम को मासिक रखा या नहीं।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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