पंकज मोहन का आलेख 'समाज मे हाशिए पर जी रहे बेबस लोगों के दुःख दर्द की कथा'



हान कांग


जिन संकल्पनाओं का मनुष्य को आधुनिक बनाने का श्रेय है उनमें मानवाधिकार का स्थान अग्रणी है। बेहतर साहित्यकार वही होता है जो मानवाधिकारों का  पक्षधर होता है। वैसे मानवाधिकारों की राह आसान नहीं होती, बल्कि कांटों से भरी होती है। ऐसे साहित्यकार अपने देश की सरकारों के रडार पर रहते हैं। उन्हें अक्सर प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है। लेकिन सच्चा साहित्यकार निडर होता है और अपनी राह चलता रहता है। वर्ष 2024 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार दक्षिण कोरिया की लेखिका हान कांग को दिया गया है। हान कांग यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली एशियाई महिला हैं। पंकज मोहन ने उनकी किताब "लड़का आ रहा है" (अंग्रेजी अनुवाद "The Human Acts") पर विचार करते हुए इस लेखिका के बारे में लिखा है - 'हान कांग ने ग्वांगजू के नागरिकों की गहरी पीडा और आधुनिक कोरियाई इतिहास के दर्द, जिसे कोरियाई भाषा में 'हान' कहा जाता है, की आधारशिला पर अद्भुत साहित्यिक कृति की रचना की है, जिसकी कलात्मक प्रभा से कोरिया ही नहीं बल्कि लोकतंत्रिक मूल्यों और मानव अधिकार के लिये संघर्ष कर रहे  "ग्लोबल साउथ" का मस्तक उन्नत हुआ है।' पंकज मोहन कोरियाई भाषा के अधिकृत विद्वान और प्रख्यात इतिहासकार हैं। पंकज जी एकेडमी ऑफ कोरियन स्टडीज में बतौर प्रोफेसर अपनी सेवाएं दे चुके हैं। हमारे अनुरोध पर उन्होंने हान कांग की किताब "लड़का आ रहा है" पर अपने महत्त्वपूर्ण विचार भेजे हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पंकज मोहन का आलेख 'समाज मे हाशिए पर जी रहे बेबस लोगों के दुःख दर्द की कथा'।



'समाज मे हाशिए पर जी रहे बेबस लोगों के दुःख दर्द की कथा'

(नोबेल पुरस्कृत कोरियाई लेखिका हान कांग के उपन्यास "लडका आ रहा है" पर कुछ विचार)



पंकज मोहन


मई 1986 में, मैंने क्वांगजू नगर में 18 मई 1980 को फौजी  तानाशाही से छिड़े लोकतांत्रिक संघर्ष में प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों के मजारों पर विषाद के फूल चढ़ाए। क्वांगजू के मांगवल दोंग कब्रिस्तान में मुझे मई 1980 में निरंकुश सत्ता द्वारा मौत के घाट उतारे गये दस-ग्यारह साल के छोटे बच्चों के कब्र भी दिखे। जब मैं उन कब्रों के सामने घास की हरी दरी पर बैठा, मेरे गाल पर आंसू की बूंदें टप-टप गिरने लगीं। अगले वर्ष वसन्त में सिर्फ छात्र, किसान और श्रमिक ही नहीं, मध्य वर्ग के युवक-युवतियां भी सड़क पर उतर आये, उनकी तनी हुई मुट्ठियां आकाश में लहराने लगी और उनके गीत "सै नाल ओल तै काजी ह्नदल्लीजी मारा" (अडिग रहो जब तक न उगे नया सूरज इस देश में) हर कोने में गूंजने लगे। मैं खुद इस राष्ट्रव्यापी जनतांत्रिक आन्दोलन का हिस्सा था और कोरियाई युवा के संकल्प से परिचित था, इसलिए मेरे मन मे यह अटूट विश्वास था कि कोरिया में कवि-ॠषि के रूप मे विख्यात गुरुदेव टैगोर की 1929 की भविष्यवाणी सच होगी, कोरिया में शीघ्र ही लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था स्थापित होगी और यह छोटा-सा देश पुनः 'प्राची का आलोकस्तम्भ" बनेगा। 1929 में  टैगोर ने कोरियाई जनता के नाम अपने संदेश में लिखा था कि, "जिस दिन प्राच्य गौरव का यह दीप फिर से जल उठेगा, उसके प्रकाश से सारा एशिया ज्योतिमय होगा। आज Samsung, Hyundai, LG जैसी कोरियाई कम्पनियों का जाल दुनिया के सभी देशों में फैला हुआ है और कोरिया के गीत और टेलीविजन ड्रामा (K-Pop, K-drama) पर प्रायः हर देश का युवा वर्ग लुब्ध है। वर्ष 2024 के  साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेत्री के रूप में 53-वर्षीय कोरिया लेखिका हान कांग का चयन भी यह दर्शाता है कि विश्वकवि टैगोर कोरियाई जनता की अन्तर्निहित ऊर्जा और उष्मा को कितनी गहराई से समझते थे।


कोरिया दुनिया का पहला देश है जिसने मात्र आधी सदी की संक्षिप्त अवधि में अर्थव्यवस्था ही नहीं, राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में भी नूतन कीर्तिमान स्थापित किये। टैगोर कोरिया की छिपी हुई शक्ति के सन्दर्भ में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सक्षम हुए, क्योंकि अपनी तीन जापान यात्राओं के दौरान उन्होंने देखा था कि कोरिया ने चीन की उन्नत सभ्यता के तत्वों को सिर्फ आत्मसात ही नहीं किया, प्राचीन जापान को उसकी शिक्षा-दीक्षा दी जिसके कारण जापान में केन्द्रीकृत राजतंत्रीय शासन स्थापित हुआ। कोरिया के कारीगरों और मूर्तिकारों ने जापान में भव्य बौद्ध मंदिरों और भगवान बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया जिन्हें हम आज भी देख सकते हैं।


जापान-प्रवास के दौरान वे जापानी विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर रहे अनके छात्रों से मिले थे और 1929 में उन्होंने तोंग-आ इल्बो के जापानी संवाददाता सल अई-सिक से लम्बी बातचीत की थी। सल अई-शिक ने "सिन छनजी" (नूतन जगत) नामक पत्रिका में "कवि-ॠषि टैगोर के साथ साक्षात्कार" नामक आलेख भेजा था, लेकिन जापानी साम्राज्यवाद के दमनचक्र ने कारण उस आलेख को पत्रिका में जगह न मिल सकी। 1929 में अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान भी टैगोर कोरिया के प्रखर बुद्धिजीवी और स्वतंत्रता-सेनानी चो सो-आंग के साथ बैठ कर लम्बी वार्ता की थी। भारतीय साहित्यकार टैगोर 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले एशियाई थे और एक सौ बीस साल बाद हान कांग इस पुरस्कार को पाने वाली पहली एशियाई महिला बनी थी, यह भी एक रोचक संयोग है।


 



हान कांग का उपन्यास "लड़का आ रहा है" (अंग्रेजी अनुवाद "The Human Acts")  की पृष्ठभूमि है - मई 1980 में क्वांगजू में जनतांत्रिक अधिकारों के लिये लड़ रहे सैंकडों निहत्थे प्रदर्शनकारियों की नृशंस हत्या। इस पुस्तक में मौत का तांडव नृत्य करने वाले नर पिशाच ही नहीं, जख्मियों की सेवा में जी-जान से जुटने वाले फरिश्तों के भी दास्तान हैं। इस उपन्यास में लेखिका ने जीवित और मृत लोगों के मुंह इस तरह मिला दिए हैं, जैसे लगता है उसने इतिहास की शव-साधना की हो। पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पुरानी तांत्रिक पोथियों का हवाला देते हुए लिखा है कि साधक शव की पीठ पर बैठ कर मन्त्र जपता है। शव का मुंह नीचे की ओर होता है, लेकिन सिद्धि प्राप्त होने की अवस्था में शव में प्राण-संचार होता है, उसका मुंह उलट जाता है और तब शव और साधक के मुंह एक दूसरे के आमने-सामने हो जाते हैं। इतिहास की पीड़ादायक सामूहिक स्मृति का सफल चित्रण वह नहीं कर सकता जो साम्प्रतिक काल पर अतीत की छाया से अपरिचित है, जिसमे वर्तमान को समझने की अन्तर्दृष्टि का अभाव है। हान कांग ने अनेक वर्षों तक क्वांगजू नरसंहार का गहन अध्ययन किया, पीड़ितों के परिवार से मिल कर उनके दर्द को समझा और क्वांगजू के वर्तमान का सम्यक बोध प्राप्त किया। इस उपन्यास को लिखते समय लगता है इतिहास के शव में स्पन्दन हुआ और उसका मुंह पलटा और लेखिका ने ऐसी कहानी कही जिसमें दानवीय हिंसा ही नहीं, मानव गरिमा भी है, शूल के साथ सांस्कृतिक फूल भी है। आज एशिया के दूसरे देशों में इस तरह के उपन्यास का लिखा जाना अगर असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य है।


आज तक दो चीनी लेखकों को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ है। प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता काओ शिंगचियेन ने  अपनी मातृभूमि से दूर, फ्रांस में रहते हुए अपने उपन्यास और नाटक लिखे। दूसरे नोबेल-पुरस्कृत लेखक मो येन मानते हैं कि साहित्य का उद्देश्य है सच्चाई की मशाल जला कर समाज ही नहीं, मानव हृदय के अंधेरे को उजागर करना, लेकिन इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि उनके प्रतिनिधि उपन्यास 1980 के दशक में थियैनआनमन नरमेध से पहले प्रकाशित हुए थे। वह संक्रमण काल था - माओ के देहान्त के बाद तंग शियाओ फिंग के नेतृत्व में जिस राजनैतिक शक्ति का उदय हुआ, जनतांत्रिक ताकतों के प्रति उसका रुख अभी तक अपेक्षतया नरम था।  आज चीन का कोई भी लेखक थियैनआनमन के नरसंहार की पृष्ठभूमि पर आधृत उपन्यास लिखने का साहस न कर सकेगा, और अगर कोई लिख भी ले, तो  कोई प्रकाशक उसे प्रकाशित नहीं कर पायेगा। यहां तक कि चीनी सरकार ने हान कांग की इस उपन्यास के प्रकाशन-प्रसारण  पर भी रोक लगा दी है। जहां तक भारत का सवाल है, हिन्दीभाषी क्षेत्र में हिंदू राष्ट्रवाद की लहर के कारण आज शायद ही कोई ऐसा साहसी लेखक होगा जो भारत के कुछ राज्यों में सेना की हिंसा के कारण उत्पन्न परिस्थिति को पूरी सहजता के साथ चित्रित कर पाये और पीडित समाज के दुख-दर्द से अपने उपन्यास का ताना-बाना बुने। जापान में दूसरे ढंग का उपन्यास लिखा जा रहा है।  सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक हारुकी मुराकामीके उपन्यास में देश के यथार्थ का चित्र नहीं मिलता, देश की सांस्कृतिक परम्परा की गंध नहीं मिलती --  वहां फैंन्तासी है, जादुई यथार्थवाद है, अपराध है, साइंस-फिक्शन विधा की भविष्य-केन्द्रित कल्पना है।


 

हान कांग अपनी जमीन से गहराई से जुडी हुई लेखिका है। उसकी रचनाओं को पढ कर  मुझे  लुकाच की कालजयी कृति "द थ्योरी ऑफ द नॉवेल" (1920) की आरम्भिक  पंक्तियां याद आयीं : "धन्य है वह युग जिसमे आसमान में टिमटिमाते सितारे  हमारे सभी संभावित मार्गों को आलोकित करें और हमारे पथप्रदर्शक हों।  ऐसे युग में सब कुछ नूतन होता है,  फिर भी वह परिचित होता है। ऐसे युग में विशाल विश्व घर की तरह प्रतीत होता है, क्योंकि आत्मा में जलने वाली आग की प्रकृति मूलतः वही होती है जो आसमान में चमकने वाले सितारों की होती है।"




लुकास के अनुसार उपन्यास देवता द्वारा परित्यक्त उस युग की महागाथा है जिसमें अनिश्चय है, इस विधा में उस दुनिया की चिंता गुम्फित होती है जिसने अपना रास्ता खो दिया है।' हान कांग ने 1980 की फौजी तानाशाही के जोर-जुल्म को देखा और 1990 के दशक में जब उसने अपने साहित्यिक करियर की शुरुआत की, कोरिया की प्रगतिकामी जनता लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष कर रही थी। 'वह लड़का आ रहा है' जैसी रचनाएँ लिखने में वह इसलिए सक्षम हुई, क्योंकि उन्होंने तीन दशकों तक अपने युग की धड़कन को ध्यान से सुना, अपने समाज मे हाशिए पर जी रहे बेबस लोगों के दर्द को समझा और साझा किया।


अपनी पुस्तक में लुकाच लिखते हैं कि उपन्यास एक विशेष प्रकार का रूप विधान है, जिसकी नियामक शक्ति या मूल  तत्त्व है प्रोबिमैटिक हीरो अर्थात् समस्याग्रस्त, प्रश्नाकुल मुख्य पात्र जिसे हम हिन्दी में नायक कहते हैं। समस्याग्रस्त इन्डिविजुअल पदच्युत तथा पतित समाज से समझौता नहीं कर सकता। जब आसमान के तारे हमारे भावी पथ के मानचित्र की भूमिका नहीं निभा सकते, वह उस रोशनी को खोजने की कोशिश करता है जिससे भूले-भटके लोगो को जीवन की सही राह का पता चल सके। 'लड़का आ रहा है' उपन्यास का मुख्य पात्र दोंगहो जो अठारह वर्ष का छात्र है, एक ऐसा "समस्याग्रस्त व्यक्ति" है जो अपने समाज के अन्तर्विरोध को समझता है, जिसके मन में अफसोस और ग्लानि है कि सामाजिक न्याय के लिये प्राण की बलि देने वाले सहपाठियों के साथ वह भी क्यों न मर गया, वह जीवित क्यों रह गया। वह मानवीय गरिमा, जीवन के उदात्त मूल्य और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है। वह मूल्यहीन समाज में अकेलापन अनुभव करता है, लेकिन समाज को दिशा दिखाने वाले मूल्यों और आदर्शों के लिए छटपटाहट भी महसूस करता है। रूस पर नेपोलियन की चढाई पर आधारित उपन्यास "युद्ध और शान्ति" का नायक भी अपने समाज से तालमेल नहीं बैठा पाता।


तोंगहो जब देखता है कि फौजी तानाशाही हुकूमत अपने अधिकार के लिये लड़ने वाले निहत्थे नागरिकों पर अन्धाधुन्ध गोलिया चला कर नरसंहार कर रही है, वह एक गंभीर सवाल पूछता है: "जो लोग फौजी तानाशाही की बन्दूक से भूने गये, उनके लिए राष्ट्रगान क्यों गाया जाता है, उनके ताबूत को राष्ट्रध्वज से क्यो लपेटा जाता है? वे इसे छिपाने की कोशिश करते हैं कि  देश की फौज ने उन्हें नहीं मारा।" यह प्रश्न एक साधारण प्रश्न नहीं है। यह आधुनिक कोरियाई इतिहास में राष्ट्र और व्यक्ति, हिंसा और न्याय, स्मृति और विस्मृति के बीच के अन्तर्विरोध को तेजी से उजागर करता है।


हान कांग ने ग्वांगजू के नागरिकों की गहरी पीडा और आधुनिक कोरियाई इतिहास के दर्द, जिसे कोरियाई भाषा में 'हान' कहा जाता है, की आधारशिला पर अद्भुत साहित्यिक कृति की रचना की है, जिसकी कलात्मक प्रभा से कोरिया ही नहीं बल्कि लोकतंत्रिक मूल्यों और मानव अधिकार के लिये संघर्ष कर रहे  "ग्लोबल साउथ" का मस्तक उन्नत हुआ है। अपनी रचनाओं मे हान कांग अपने समाज की सामूहिक पीड़ा की स्मृति को सिर्फ उकेरती ही नहीं है, बल्कि नई राजनैतिक जागरूकता और  चेतना का द्वार खोलती हैं और पीड़ितों के घाव भरने की प्रक्रिया की भी शुरुआत करती हैं।



पंकज मोहन 


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं