शिवम चौबे की कविताएं

 

शिवम चौबे 


एक कवि इस जीवन और संसार को अपनी अलहदा आंखों से देखता है और अपनी संवेदनाओं के हवाले से कविताओं में दर्ज करता है। कवि की इस स्वानुभूति में समयनुभूति शामिल होती है जिससे उसकी अनुभूतियां सार्वजनिक बन जाती हैं। बोगी' हो 'लेटर बॉक्स' हो या 'स्टेशन' ये महज जगहें नहीं रह जाते, बल्कि जीवन से अनुप्राणित स्थल बन जाते हैं। 'नाम' महज नाम नहीं रह जाता बल्कि 'सुबह के सूरज की तरह उगता है' और 'जीवन के कण-कण में/ उम्मीद सा फैल जाता है'। शिवम चौबे ऐसे ही कवि हैं जिनकी सघन संवेदनाओं से गुजरते हुए हम अपने जीवन के आस पास को अनुभव करने लगते हैं। 

'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की यह दसवीं कड़ी है जिसके अन्तर्गत आज शिवम चौबे की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। इस शृंखला में अब तक हम प्रज्वल चतुर्वेदी,  पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव, प्रियंका यादव, पूर्णिमा साहू, आशुतोष प्रसिद्ध,, हर्षिता त्रिपाठी और सात्विक श्रीवास्तव की कविताएं पढ़ चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवम चौबे की कविताओं पर नासिर अहमद सिकन्दर की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी और कवि शिवम चौबे की कविताएं।



कथ्य, शिल्प, संरचना और काव्य भाषा की नयी कविताएँ


नासिर अहमद सिकन्दर       


आज की हिंदी कविता में शिवम चौबे ऐसे परिपक्व व ज़हीन कवि लगते हैं, जिन्हें समकालीन कविता का काव्य-मुहावरा, काव्य-शिल्प, काव्य-संरचना, काव्य-कथ्य का बखूबी प्रयोग करना आता है। कभी हम अपनी कविता के शुरूआती दौर में सुना करते थे कि कथ्य अपना शिल्प स्वयं ले कर आता है, शिवम की कविताओं को सलीके से पढ़ा तो लगा कि ये बात सच है। यहाँ प्रस्तुत उनकी सभी कविताएँ कथ्य के साथ अपने नये व अलग-अलग शिल्प में व्यक्त हुई हैं। जैसे पहली कविता ‘‘बोगी’’ का शिल्प देखिए, कवि कहता है- ‘‘ये कविता जिंदगी के बारे में बिल्कुल नहीं है’’। इसे कवि का आत्म वक्तव्य माना जाना चाहिए। यह शिल्प समकालीन कविता का चर्चित शिल्प रहा है, विशेषकर आठवें दशक की हिंदी कविता की छोटी कविताओं का।

         

उनकी ‘‘दुअरा पे दादुर बोलिहैं अंगना में झींगुर’’ शीर्षक कविता लोकधर्मिता के धरातल पर अवतरित होकर समकालीन कविता तक पहुँची है। यह कविता केदार, विजेन्द्र, मान बहादुर सिंह की काव्यात्मकता तक पहुँचती है, जब वे कहते हैं-


"जब अषाढ़ में जीवन की तरह साड़ी को समेटे हुए औरतें रोपनी करतीं

तब भी उनका घर जेठ की भयंकर लू में भांय-भांय करता


‘सइयां गइलें परदेस लइहें चुनरी’ के बोल ओसारे तक आते-आते ‘जइसे एतना बीतल तइसे आगे बीती’ की बुदबुदाहट में बदल जाते


कभी-कभी जब फोन की घंटी बजती तो उनकी झुर्रियों में उसी तरह चमक आ जाती

जैसे अषाढ़ की रात में बिजली

बिजली चली जाती तब वे भी बुझ जाते


वे ज्यादातर चुप ही रहते

थाली में सामने आए दुख को बिना चबाये घोंट जाते

कुछ देर बर्तनों की खड़-खड़ सुनाई पड़ती और फिर सन्नाटा सब-कुछ को अपनी गोद में लेकर सुला देता


सन्नाटा बढ़ता जाता और उसी सन्नाटे में मेढकों और झींगुरों का शोर भी 

बढ़ता जाता और मास्टर दयाराम अपने आखिरी दुख की प्रतीक्षा में


‘दुअरा पे दादुर बोलिहैं अंगना में झींगुर

केहु नाइ बोली उसरवा में’

गुनगुनाते हुए सो जाते, हाथ अभी भी डेहरी में ही फंसा रहता"

                          

(दुअरा पे दादुर बोलिहैं अंगना में झींगुर)

         

शिवम की ‘‘तुम्हारा नाम’’ शीर्षक कविता भी नया मुहावरा इख्तियार करती है। मैं पुनः कथ्य-शिल्प पर पहुँंचता हूँ। इस कविता का शिल्प कुछ हद तक प्रयोगवादी भाषा से जुड़ कर कथ्य का विस्तार करता है। इसे कथ्य-शिल्प की नयी संवेदना के रूप में देखा जाना चाहिए, जहाँ कथ्य की नवीनता शिल्प के स्तर पर मानवीयता की पक्षधर होती है। ‘‘लेटर बॉक्स’’ जिसे हम बिसरा चुके हैं, एक नए कवि को याद है, ताज्जुब है ! इसे ‘नॉस्टेल्जिया’ की तरफदारी में रखता हुआ मैं, फिर कथ्य मुहावरे पर आकर कहूँगा ‘नास्टेल्जिक’ कविता भी जीवन का आधार बनती है, यदि कविता के भीतर गुजरा हुआ समय वर्तमान में दिखाई दे-


"जिस दिन नहीं आया कोई चिट्ठियाँ निकालने

वह खुद ही पहुँच जाएगा लोगों के दरवाजे पर

ठक-ठकाकर कहेगा- चिट्ठी है ?


आखिर इतना प्रेम, इतनी करूणा, इतनी चिंता को समेटे

कोई निर्जीव कब तक रहेगा ?"

(लेटर बॉक्स)

         

समकालीन कविता में वाक्यों के हेर-फेर की कला भी महत्वपूर्ण रही है जिसमें कहन शैली के माध्यम से बहुत बड़ा कथ्य उभरता है। शमशेर बहादुर सिंह, प्रयाग शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल इस कला के बड़े कवि सिद्ध हुए हैं। शिवम की ‘‘फूूल’’ कविता इसी कला की कविता है। छोटी कविता का शिल्प और नया मुहावरा उनकी ‘‘आत्महत्या’’ कविता में भी मिलता है। उनकी ‘‘मेसापोटामिया की औरतें’’ शीर्षक कविता भी एक तरह से छोटी कविताओं का ही शिल्पगत रूप है, जहाँ छोटी कविताओं का वाक्य विन्यास भी मौजूद है।

         

कुल मिला कर शिवम चौबे की कविताएँ समकालीन कविता के कथ्य-शिल्प-मुहावरे की नयी जमीन की कविताएँ हैं, तथा नयी काव्य-भाषा और काव्य-संरचना की भी कविताएँ हैं।





सम्पर्क 


नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी

भिलाईनगर, जिला-दुर्ग छ.ग.

490006


मो.नं. 98274-89585





शिवम चौबे की कविताएं


1- बोगी


शुरू-शुरू में वह एकदम खाली होती है

पहले एक औरत चढ़ती है

फिर दूसरा आदमी चढ़ता है


फिर एक और के चढ़ने भर की जगह भी नहीं बचती

कितने लोग लटके रहते हैं दरवाज़ों पर

भीतर घुस आने की इच्छा से भरे हुए लोगों से भरी हुई बोगी में

लड़ते रहते हैं लोग अपनी-अपनी जगहों के लिए


हर तरह के शोर को मद्धिम करते हुए धीरे-धीरे उतरते हैं

ओझल हो जाते हैं लोग


यह कविता ज़िंदगी के बारे में बिल्कुल नहीं है।



2- दुअरा पे दादुर बोलिहैं अंगना में झींगुर


रह रह टपकती बूंदों ने उनके अकेलेपन को और सघन कर दिया था

डेहरी में चावल निकालने को हाथ डालते तो अतीत के किसी छोर में उलझ के रह जाते

मालकिन बोल पड़तीं- हाली-हाली निकरता तनी।

घर में वे दो ही थे

मास्टर दयाराम और उनकी मालकिन।


दिन भर दुआरे पे बैठे हुए मास्टर एकटक खड़ंजे को देखते रहते फिर पुराने समय के जूते पहने कहीं और चले जाते

इसी खड़ंजे से रिटायर हो कर साईकल खड़खड़ाते वे घर में दाख़िल हुए थे

इसी खड़ंजे से घर की सारी बेटियाँ बिदा हुई थीं

इसी खड़ंजे से लड़के कमाने के लिए निकले थे


खड़ंजे पे सबका जाना दर्ज था, लौटने की स्मृतियाँ ईंटो की दरार में गायब हो चली थीं

वहाँ लौटना इतना कम था कि दर्ज होने से पहले ही मिट जाया करता।


जब अषाढ़ में जीवन की तरह साड़ी को समेटे हुए औरतें रोपनी करतीं

तब भी उनका घर जेठ की भयंकर लू में भांय-भांय करता


'सइयां गइलें परदेस लइहें हरियर चुनरी' के बोल ओसारे तक आते-आते 

'जइसे एतना बीतल-तइसे आगे बीती' की बुदबुदाहट में बदल जाते


कभी-कभी जब फ़ोन की घण्टी बजती तो उनकी झुर्रियों में उसी तरह चमक आ जाती जैसे अषाढ़ की रात में बिजली

बिजली चली जाती तब वे भी बुझ जाते


वे ज़्यादातर चुप ही रहते- थाली में सामने आए दुख को बिना चबाये घोंट जाते

कुछ देर बर्तनों की खड़-खड़ सुनाई पड़ती और फिर सन्नाटा सब-कुछ को अपनी गोद में लेकर सुला देता


सन्नाटा बढ़ता जाता और उसी सन्नाटे में मेढकों और झींगुरों का शोर भी बढ़ता जाता

और मास्टर दयाराम अपने आख़िरी दुख की प्रतीक्षा में-


'दुअरा पे दादुर बोलिहैं अंगना में झींगुर

केहु नाइ बोली ओसरवा में' 


गुनगुनाते हुए सो जाते, हाथ अभी भी डेहरी में ही फँसा रहता।



3. तुम्हारा नाम


मैं तुम्हारा नाम लूंगा

और दुनिया सुंदर होती जाएगी


कंठ से छूट कर तुम्हारा नाम

जा बैठेगा पेड़ पर

फूलों की गर्दन पे फूंक मारेगा

कान के पीछे चूम कर

घोंसले में बैठी चिड़िया के साथ उड़ जाएगा


मन के अंधेरों को काटता हुआ

सुबह के सूरज की तरह उगेगा

जीवन के कण-कण में

उम्मीद सा फैल जाएगा

तुम्हारा नाम





4- लेटर बॉक्स


काली रंग की टोपी पहने

चेहरे पे लेटर बॉक्स का शीर्षक लिए

धूप में खड़ा है

लाल रंग का निर्जीव सा बक्सा


तमाम तरह की भावनाओं से भरा हुआ

बहुतों के प्रेम, करुणा और चिंता को 

अपने भीतर समेटे

यह निर्जीव सा बक्सा

खड़ा है सालों से


जिस दिन नहीं आएगा कोई चिट्ठियाँ निकालने

यह खुद ही पहुँच जाएगा लोगों के दरवाज़े पर

ठक-ठका कर कहेगा- 'चिट्ठी है'


आख़िर इतना प्रेम, इतनी करुणा, इतनी चिंता को समेटे

कोई निर्जीव कब तक रहेगा।



5- फूल


मैंने कहा- 

फूल सफ़ेद है।


उसने कहा-

सफ़ेद, फूल है।


मुझे लगा 'सफ़ेद' उदास है

मैंने कहा।


उसने कहा- 

फूल उदास है।


मैंने कहा- 

तुम्हारा चेहरा फूल है।






6- स्टेशन


कुछ लोग स्टेशनों पर ही मिलते हैं

और वहीं बिछड़ जाते हैं


स्टेशन मिलने

और

बिछड़ने वालों का

बहीखाता होता है


वहाँ कुछ नहीं लिखा जाता

फिर भी बहुत कुछ

लिखा जाता है वहीं।



7- बेटे की इच्छा


जैसे दिन के साथ साथ आती है तीखी धूप

जूतों के साथ कभी कभार आ जाती है मिट्टी

जैसे बादलों के साथ घरों में आ जाती है सीलन

जैसे ज्वार के साथ साथ आती हैं मछलियाँ

ठीक वैसे ही

हम पाँच भी इसी तरह आये थे

एक बेटे की इच्छा की प्रक्रिया में


घर में कोई भी माँ को प्यार नहीं करता था

सब एक बेटे की इच्छा को प्यार करते थे

पिता साल भर बाद जब लौटते तो वे भी बेटे की इच्छा से ही सहवास करते

उनके पास माँ नहीं सोती, बस बेटे की इच्छा ही सोती


हमने बचपन में ही देखा था

कि कैसे एक भरी पूरी औरत 

बड़े जतन से बदल दी जाती है

एक बेटे की इच्छा में

अपनी पहचान को मिटाते हुए।







8- आत्महत्या


रस्सी बाज़ार से आ जायेगी

ज़हर दुकान पे मिल जाएगा

डूबने की जगह नदियाँ देंगी

कटने के लिए रेलगाड़ी की प्रतीक्षा की जाएगी

लेकिन मरने की इच्छा

इसी समाज से आएगी।


पैदा होने के ठीक बाद

और मरने के ठीक पहले

तुम्हारे मन में क्या था

यह कोई जान भी नहीं पायेगा

मैं तुमसे कहूँगा

अगर जीने का एक भी कारण हो

तो जी लेना।


वह एक ख़बर की तरह उठेगी

और धूल की तरह बैठ जाएगी सड़क पर

दो दिन बाद

कोई याद भी नहीं रक्खेगा

उस ख़बर को

जो सड़क पे ठीक वहीं पड़ी है

जहाँ तुम्हारी लाश।


तुम जीने की इच्छा के साथ जन्मे

और न जी पाने की टीस के साथ चले गए

तुम्हारी लटकी देह से टपकती हैं

तुम्हारी इच्छाएँ

जिन्हें मृत्यु मुँह बा-बा कर निगलती है।


सुबह तक तुम जीवित थे

और सामान्य ही दिखते थे

पिछले एक घण्टे में

तुम वहाँ पहुँच गए

जहाँ तुम्हें कोई नहीं खोज सकता


मैं घर भी जाता हूँ तो आठ घण्टे लगते हैं

और वहाँ बहुत से बच्चे 'आठ-काठ' खेलते हैं


तुमसे पहले भी वहाँ बहुत से बच्चे हैं

उनके साथ खेलना

जो जीवन यहाँ नहीं जी सके

वहाँ जीना।


तुम्हारे पिता सोचेंगे-

क्या कमी थी

तुम्हारी माँ कलपेगी-

क्यों चले गए

तुम्हारी प्रेमिका तो कह भी नहीं पाएगी अपना दुख


और इस देश की सरकार को पता भी नहीं चलेगा उन दीयों का

जो दीवाली से पहले ही बुझ गए

सरकार के पास बहुत ज़्यादा रोशनी है मेरे दोस्त

और दीवाली 

इस बार मई में थी।


(2024 के भारतीय आम चुनाव अप्रैल-मई में हुए थे)



9- मेसोपोटामिया की औरतें


वे चुनार से आयीं थीं

और वापस वहीं जा रही थीं

इसी बीच वे मुझे मिलीं

पहले उन्होंने वक्त पूछा जो वाकई खराब था

फिर परिचय जो अधूरा रहा


बातें हुईं तो एक ने बताया 

'मनगढ़ गइल रहली, दवाई लेवे'

उनके कष्ट के लिए जितनी दवाएं थीं, उससे कहीं ज्यादा दवाओं के लिए कष्ट।

वे बिना मर्दों के समूह में थीं लेकिन बिना मालिक के भेड़ें नहीं थीं वे।


उनका रंग इतना गाढ़ा था कि अँधेरा उनकी झुर्रियों में पैठा था

आँखें इतनी व्यस्त कि उन्हें कुछ देखने की फुर्सत नहीं थी

उनके हाथ पत्थर जितने कठोर थे और चमड़ी मिट्टी जितनी खुरदुरी।


वे मेसोपोटामिया की औरतें थीं जो भूल कर हमारी सभ्यता में आ गईं थीं 

और नष्ट होने की प्रक्रिया में शामिल थीं।


वे इतनी निर्भीक थीं कि बिना टिकट सेकंड क्लास में चढ़ आयीं और 

अपनी उम्र से ज्यादा जगह घेर कर बतियाने लगीं

उनकी बातें सर्दियों की रात जितनी लम्बी थी और उनके कपड़ों ने सदियों की धूल फांकी थी


उन्हें बस इतना पता था कि पहाड़ शुरू होते ही उन्हें उतर जाना है

और तीन बजे के गाढ़े अँधेरे में गाँव की तरफ सरक जाना है।

पहाड़ उनके लिए उसी तरह थे जैसे अनजान रास्तों पर छोटे बच्चों के लिए पिता।

पिता के मरते ही वे घर से निकलना बंद कर देंगीं लेकिन वे निर्भीक थीं।


वे अभी भी अपनी परंपराओं में जीती थीं 

वे घर बनाती थीं, चूल्हा चौका करती थीं, निर्भीक तो थीं लेकिन प्रकृति से डरती थीं

खेतों में फसलों को लोरियाँ सुना कर जवान करती थीं

हवाओं से मानता मानती और नदियों का धन्यवाद करती थीं

वे बच्चे पैदा करतीं और उन्हें इंसान बनाये रखने को हमारी सभ्यता से टकराती रहतीं।


वे युगों युगों से जीवित थीं परंतु अब जब हमारी सभ्यता ने उन्हें ठुकरा दिया है, वे बीमार पड़ गयी हैं।

और अब जब वे मरेंगी तब उनकी राख हवाओं में मिल कर संसार की तमाम नदियों में घुल जायेगी

और मैं किसी पुल से गुज़रते हुए याद करूँगा 

कि वे मेसोपोटामिया की औरतें थीं जो हमारी सभ्यता में भटक आयी थीं

जिनका रंग रात जितना गाढ़ा था और जो वाकई निर्भीक थीं।


2


वे जिस तरह विदा करतीं अपने बेटों को शहर की तरफ

उसी तरह भोर में तारों को आकाश की सांस में लुप्त होते देखतीं

उन्होंने कभी नहीं देखा था शहर

आकाश ही उनका शहर था

जहाँ जाते हुए खो जाते थे उनके बेटे


वो सुबह उठतीं तो दुआरा बुहार के खड़ी हो जातीं सूरज की अगुआनी में

और गातीं

'आवा आवा सुरुज देवता आवा हो,

हमरे ललन के जिनगी बनावा हो'


उन्होंने हर चीज़ में मान लिया था ईश्वर

यहाँ तक कि

किसी बीमारी और महामारी को भी देवता और माई कहके सम्बोधित करतीं

वे लोहे से बनी थीं और गीत गाते हुए हर चीज़ में फूंक देती थीं जान

वे कोई जादूगरनी नहीं थीं लेकिन किसी जादू की तरह ही नचा रहीं थीं अपने हिस्से का संसार

अपने हाथों में


देखने वाले कहते कि वे कभी बीमार नहीं पड़तीं

पेट में सात माह का गर्भ लिए ही नाथ आती थीं बैल

हाथों में छाले लिये चला आती थीं हल, पीस लेती थीं दाल

खींच लेती थीं कुँए से बाल्टी

पैरों के दर्द में भी दुह लेती थीं गाय

खांसते हुए भी फूंक लेती थीं तीन वक्त का चूल्हा


शहरों से बहुत दूर वे बस इतना ही जानती थीं

कि जो भी गया उस तरफ वो वहीं खो गया

सबसे पहले नदी गयी और गायब हो गयी

फिर हवा, फिर पेड़, फिर पहाड़, फिर जानवर और फिर आखिरी आदमी भी नहीं लौटा उनकी तरफ

एक दिन जब गायब हो रही थी उनकी पगडण्डी

उन्होंने गाया एक और गीत जिसका मतलब था कि वे अब कुछ नहीं दे पाएंगी

और इस दुख में उन्होंने अपने गीत भी सौंप दिये शहर को जो कभी नहीं लौटे

सब कुछ लुटा देने के बाद वे भी लौट गयीं

अपनी दुनिया में 


अब वे कहीं नहीं दीखतीं लेकिन अब भी किसी रोज़

गाती हुई किसी औरत की आत्मा में चली आती हैं वे 

और बैठती हैं कुछ देर

वे कहीं नहीं होते हुए भी रहती हैं कहीं न कहीं


उन्हें याद करते हुए याद आता है कि वे बरगद जितनी जीवट थीं और न रहने पर भी

वे दिन और रात के बीच

जीने की तरह लगी रहीं

जिनसे होते हुए धीरे धीरे

डोलता रहा पूरा घर

इधर से उधर।



10- लेबर चौराहा


कठरे में सूरज ढो कर लाते हुए

गमछे में कन्नी, खुरपी, छेनी, हथौड़ी बाँधे हुए

रूखे-कटे हाथों से समय को धकेलते हुए

पुलिस चौकी और लाल चौक के ठीक बीच

जहाँ रोज़ी के चार रास्ते खुलते हैं

और कई बंद होते हैं

जहाँ छतनाग से, अंदावा से, रामनाथपुर से


जहाँ मुस्तरी या कुजाम से

मुंगेर या आसाम से

पूंजीवाद की आंत में अपनी ज़मीनों को पचता देख

अगली सुबह

ग़रीबी की गद्दी पर बैठ विकास की टुटही साईकिल पे सवार

कई-कई मज़दूर आते हैं

वहीं है लेबर चौराहा


कई शहरों में कई-कई लेबर चौराहे हैं

अल्लापुर या रामबाग़ में

बनारस या कानपुर में

दिल्ली या अमृतसर में

हर जगह जैसे सिविल लाइन्स है, जैसे घण्टाघर है, जैसे चौक है

वैसे ही लेबर चौराहा है

इन जगहों से बहुत अलग

लेबर चौराहा ही है

जिसकी हथेली पे पूरा शहर टिका है


आँखों से अभिजातपने की पट्टी हटा कर देखोगे तब समझोगे कि

दुनिया के कोने-कोने में जहाँ-जहाँ मज़दूर हैं

वहाँ-वहाँ भी होता ही है लेबर चौराहा

फिर भी कितनी अजीब बात है

जिन रेलों से मज़दूर आते हैं

उनमें उनके डिब्बे सबसे कम हैं

जिन शहरों को बसाते हैं

उनमें उनके घर नगण्य हैं

जिन खेतों में अन्न उगाते हैं

वहाँ उनकी भूख सबसे कम है

खदानों में, मिलों में, स्कूलों में, बाज़ारों में, अस्पतालों में

उनके हिस्से न के बराबर हैं


फिर भी वे आते हैं अपना गाँव-टोला छीन लिए जाने के बाद

जीने के लिए

गंदे पानी, गंदी हवा और गंदी व्यवस्था में

बचे रहने के लिए

उसी विकास की टुटही साईकिल पे सवार उन्हें जब भी लेबर चौराहे की तरफ आता हुआ देखो

उन्हें पहचानो

वे हमारे पड़ोस से ही आये हैं

उनसे पूछो- "का हाल बा"

वे जवाब ज़रूर देंगे

इज़राइल या फिलिस्तीन में

भारत या ब्राज़ील में

जहाँ दुनिया ढहेगी

पहली ईंट रखने वे ही आएंगे


लेकिन सोचने वाली बात ये है

कि हर बार विकास की टुटही साईकिल पे सवार

गमछे में कन्नी, खुरपी, छेनी, हथौड़ी बाँधे हुए

रूखे-कटे हाथों से समय को धकेलते हुए

पुलिस चौकी और लाल चौक के ठीक बीच

क्या वे इसी तरह आएंगे...?



शिवम चौबे

परास्नातक - हिंदी साहित्य, इविवि

शोधार्थी - काशी विद्यापीठ

सदानीरा, वागर्थ, पाखी, कृति बहुमत में रचनायें प्रकाशित हैं।

मूलतः लखनऊ से हैं, इन दिनों इलाहाबाद में रहते हैं।




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल - 9889641248

E mail : Tumharesathrehkar@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बहुत बढ़िया कविताएं। बहुत सधी हुई। शब्दों के मकड़जाल से मुक्त। लोकजीवन से जुड़ी हुई।‌‌ शिवम् जितने संवेदनशील हैं उनकी कविताएं उससे भी ज्यादा। आगे भी रचते रहिए।‌ शुभकामनाएं।‌

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  3. ये कविताएं इसलिए खास हैं कि ये अव्वल तो कविता हैं। दूसरे यह कि इन कविताओं में जो जीवन अंटा हुआ है, वह मामूली या लगभग अनचीन्हीं पहचानों के जीवट का आख्यान हैं। शायद पहली बार मानव सभ्यता और कविता, दोनों के इतिहास में सफेद रंग प्यार का रंग बनकर उभरा है। यहाँ दिख रही सभी कविताओं में सफेद रंग के फूल की मुलायम और महीन सी मौजूदगी है। उदासी का रंग सफेद है या 'उसका' चेहरा फूल है, यह द्वन्द्वात्मक सौंदर्यबोध हिन्दी कविता की पूरी बुनावट में अनूठा प्रयोग है। सिकंदर साहब से क्षमा चाहते हुए कहना लाजमी है कि शिवम का कवि किसी रेडीमेड कथ्य, शिल्प या मुहावरे से न तो कृतकृत्य दिखता है और न ही आक्रांत। वह समकालीन कविता या किसी भी काव्य लीक से अलहदा है। एक अल्हड़ सी सजगता है। हद दर्जे का महीन ऑब्जर्वेशन है। लेटर बाॅक्स भी शायद शिवम की कविता का चेहरा ही है। इतनी करुणा, इतना प्रेम और इतनी चिंता समेटे हुए जैसे लेटर बाॅक्स दरवाजे को खटखटाने खुद ही पहुँच जायेगा, उसी तरह शिवम की कविताएँ भी बिना स्थापित, प्रचलित एवं प्रचारित युक्तियों के अपने हिस्से की मंज़िल और रास्ते तय कर ही लेंगी, यह भरोसा जगता है।

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