यादवेन्द्र का आलेख 'यह दुनिया ऐसी नहीं रहेगी, बदलेगी ही।'

 

यादवेन्द्र 



साहित्य केवल कल्पना की जमीन पर ही नहीं रचा जाता बल्कि उसमें अपने समय का यथार्थ भी अंकित होता है। इसके लिए जरूरी होता है इन्हें 'बिटवीन द लाइंस' पढ़ना। इस तरह कहानियां अपने समय का वह सच रचती हैं, जो आमतौर पर अव्यक्त रह जाता है। हाल ही में कथाकार कमलेश का एक कहानी संकलन सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है "पत्थलगड़ी"। आज जब मनुष्यता के ऊपर तमाम तरह के हमले बढ़ गए हैं ऐसे में कमलेश की कहानियां मनुष्यता के पक्ष में एक ऐसा आख्यान रचती हैं जो हमें आश्वस्ति प्रदान करती हैं। विचारक यादवेन्द्र जी पहली बार पर सिलसिलेवार ढंग से हर महीने के पहले रविवार को 'जिन्दगी एक कहानी है' शृंखला के अन्तर्गत समकालीन कहानियों पर अपनी राय व्यक्त करेंगे। इस सिलसिले की पहली कड़ी कमलेश के संकलन "पत्थलगड़ी" की एक कहानी 'बाबा साहब की बांह' पर केन्द्रित है। कहानियों का चयन खुद यादवेन्द्र जी करेंगे। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'यह दुनिया ऐसी नहीं रहेगी, बदलेगी ही।'



'यह दुनिया ऐसी नहीं रहेगी, बदलेगी ही'



यादवेन्द्र 


फैंटेसी मन प्रसन्न करने वाली ऐसी स्थिति होती है जिसके बारे में सोच कर खुश हुआ जा सकता है पर जिसके साकार होने की संभावना न के बराबर है।

यूटोपिया समाज का पूरी तरह से त्रुटिहीन व आदर्श रूप होता है जहां हर व्यक्ति खुश होता है, लेकिन वास्तव में ऐसा संभव नहीं होता।

(फैंटेसी और यूटोपिया को कॉलिन्स डिक्शनरी ऐसे परिभाषित करती है)


कुछ महीनों पहले कमलेश ने मुझे अपनी कहानियों की किताब "पत्थलगड़ी" (सेतु प्रकाशन) दी थी। तभी मैं सारी कहानियाँ पढ़ गया गया था और  इस विषय में उन्हें अपनी राय बताई भी थी। कहानियाँ मुझे अच्छी लगी थीं लेकिन एक कहानी "बाबा साहब की बाँह" पर मैं खास तौर पर ठहर गया था। ऐसा नहीं कि सिर्फ उस समय ठहरा था, अब तक ठहरा हुआ हूँ.... उसी तरह जैसे हिंदी का प्रबुद्ध पाठक समुदाय दशकों से मंटो की कहानी "टोबा टेक सिंह" पर ठहरा हुआ है। और वह कहानी आज फिर से मैंने ढूंढ के निकाली, दोबारा पढ़ी और बेहतर समाज और भविष्य को लेकर एक खास तरह के आशावाद से भर गया।


कितनी दिलचस्प बात है कि आज उस कहानी को याद करने और फिर से पढ़ने का सबब बनी कमलेश जी की "परिकथा" के 106वें अंक (सितंबर - दिसंबर 2024) में छपी कहानी "सैदुल्लाहपुर"।


"बाबा साहब की बाँह" किसी बिहारी कस्बे के चार 20 से 24 बरस के आवारा छोकरों के इर्द-गिर्द घूमती है जिनमें से कोई भी इंटर के आगे नहीं पढ़ पाया था। चारों अपने पिताओं के नजर में नालायक बेटे थे - पिता क्या शहर के अन्य वाशिंदों  की नजर में भी उनकी छवि ऐसी ही थी। रात 8:00 बजे शहर से नियमपूर्वक बिजली चली जाती और अंधेरा छा जाता और वे चारों एक उपेक्षित पड़े चबूतरे पर बैठ कर गांजा पीते, इधर उधर की गप्पें हाँकते और गाना गाते सुनते। हालांकि वे बेरोजगार नहीं थे, अरुचि होते हुए भी पिता के धंधे में दिन में सहयोग करते। कभी किसी का नुकसान किया हो कहानी यह भी नहीं बताती।


"गांजा का नशा चाहे कितना भी गहरा हो जाए, वे कभी जाति धर्म की बात नहीं करते।"


एक दिन उस चबूतरे पर किसी ने बाबा साहब की एक छोटी सी मूर्ति लगा दी - बड़ी जातियों को तभी सूझा कि चबूतरा देवी की प्रतिमा के लिए मुफीद है और वर्चस्व के लिए शक्ति प्रदर्शन होने लगा। जले पर नमक छिड़कने का काम विधानसभा के चुनाव की घोषणा ने किया। अपने नशे की लत की वजह से पहले यह चार युवक निशाने पर थे, देखते देखते चुनाव ने पूरे शहर को नए और ज़्यादा गहरे नशे में जकड़ लिया। कथा बिहार की है सो चुनाव के केंद्र में जाति और आरक्षण को होना ही था।


होश में रहते हुए पूरा समाज आरक्षण और नौकरी के अंतः संबंधों को देखकर भी नहीं देख रहा था लेकिन गांजे की पहली टान लगाते ही उनमें से एक युवक ने पते की बात कह दी: "साला आरक्षण रहे कि खत्म हो जाए, का फर्क पड़ता है? सरकार के पास नौकरी तो है नहीं। साला आरक्षण ले कर चाटते रहिए। अरे आरक्षण को ले कर कटने मरने से पहले नौकरी तो मांगो।" 


जलती आग में घी का काम किया उन्माद पैदा करने वालों ने बाबा साहब की मूर्ति का एक हाथ तोड़ कर। मूर्ति के नीचे एक बड़ा सा कागज भी साट गए : "देवी स्थान पर कोई और प्रतिमा नहीं रहेगी। प्रतिमा को हटाना होगा।"


माहौल एकदम से बदल गया। शहर में ऊपर से दिखने वाला सन्नाटा छा गया पर अंदर-अंदर नफ़रती हिंसा उबालें ले रही थी। उपेक्षित और गंदे-संदे पड़े चबूतरे के देवी स्थान नामकरण होते ही पुलिस चौबीस घंटे उसकी निगरानी करने लगी और चार यार अपनी आज़ाद दुनिया से बेदखल कर दिए गए।


षड्यंत्र का अपेक्षित परिणाम फ़ौरन सामने आया। बाबा साहब की मूर्ति के अपमान को ले कर पास के अंबेडकर नगर बस्ती के युवा जब तैश में आने लगे तो बड़े बुजुर्गों ने उन्हें समझा बुझा कर शांत किया : "कोई खून खराबा नहीं। हम अपने इलाके में बनवा लेंगे बाबा साहब की मूर्ति।" इस सयाने हस्तक्षेप से सब मान गए।


कहानी में अचानक ट्विस्ट तब आता है जब तीन - साढ़े तीन बजे भोर में  चबूतरे पर अड्डा जमाए पुलिस वाले जहाँ तहाँ लुढ़के हुए थे, दुनियावी अर्थों में नालायक चारों दोस्त प्लास्टर ऑफ पेरिस ले कर वहाँ पहुंचे और मोबाइल का टॉर्च जला कर टूटी बाँह को जोड़ने की कोशिश करने लगे।


तभी पुलिस वालों को इसकी आहट लगी और वे इस नेक और समझदारी भरी पहल से तिलमिला गए। अपनी चिर परिचित शैली में उन चारों की अंधाधुंध पिटाई करने लगे, उन्हें नक्सली बता कर दंगे फैलाने का दोषी बताते हुए गालियाँ देने लगे।


पुलिस की मर्दानगी को चुनौती देती हुई तभी रात भर घर से बाहर निकल कर धंधा करने वाली कुछ औरतें वहां प्रकट हो जाती हैं और लड़कों के पक्ष में बोलती हैं :


"काहे के दंगाई दरोगा जी? सीधे-साधे लड़के हैं। रोज़ रात में यहां गाना गाते हैं।"


भोर में घर से बाहर निकले बस्ती से और लोग भी देखते-देखते  वहां पहुंच गए और पुलिस से सवाल करने लगे कि इन लड़कों को क्यों मार रहे हो? ये कर क्या रहे थे?


पुलिस के पास भला दुम दबा कर भागने के सिवा क्या जवाब था।


"बाबा साहब के टूटे हाथ को जोड़ रहे थे।" पुलिस के डंडे से घायल एक लड़के ने बताया। कहानी यहीं खत्म हो जाती है पर पाठकों के मन में बड़ा सवाल छोड़ जाती है कि सामाजिक सौहार्द्र बिगाड़ने का असली गुनाहगार कौन है - जोड़ने वाले या तोड़ने वाले?


कमलेश



अब दूसरी कहानी पर आते हैं : मुझे नहीं मालूम कि सैदुल्लाहपुर बिहार में है या किसी और प्रांत में, इस नाम का कोई गांव है भी या नहीं लेकिन कहानी में दिए तर्कों के आधार पर शहरों और गांवो के नाम बदलने का यह कुटिल खेल कुछ दिनों से खूब खेला जा रहा है - मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश में। इसके पीछे असल मुद्दा यह है कि उन वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाया जा सके जो उनके दैनिक जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। यह खेल अब भी चल रहा है - हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, सोशल मीडिया के भीड़ तंत्र की अफ़ीम पिला देने से युवा पीढ़ी को महंगाई, बेरोजगारी और गैरबराबरी जैसी खोखला करती जा रही समस्याओं के बारे में सवाल करने का होश ही नहीं रहता।


मैं लम्बे समय तक उत्तराखंड में रहा हूं और यहाँ यह बताना विषयांतर नहीं होगा कि जब बीजेपी की सरकार वहां आई तो संस्कृत को उर्दू हटा कर दूसरी राजभाषा बनाया गया और यह फैसला किया गया कि राज्य भर में सार्वजनिक स्थलों पर लिखे हुए कार्यालयों और पदों के सभी नाम पट्ट हिंदी के साथ-साथ संस्कृत में भी लिखे जाएंगे। तब आरटीआई से पूछे किसी सवाल के जवाब में यह तथ्य सामने आया था कि पूरे प्रदेश में  नाम पट्टों पर संस्कृत शामिल करने पर कई करोड़ का खर्च आएगा। गौर करने की बात यह है कि हरिद्वार को संस्कृत में हरिद्वारः लिखा जाना था।


कहानी में सदियों से अमन चैन से मिल जुल कर रह रहे गांव के लोगों के बीच अचानक हाथ से लिखा एक पोस्टर बम गिराया जाता है जिसमें हिंदू बहुल गांव का नाम सैदुल्लाहपुर से बदल कर शिवदुलारपुर करने का आह्वान किया जाता है। जाहिर है गाँव हिंदू-मुसलमान टोलों में बंट जाता है और आपस में दोनों समुदायों का मिलना-जुलना दुआ-सलाम बहुत बड़ा गुनाह। इसी बीच एक मुसलमान के बाड़े में घुस कर एक हिंदू गाय के नुकसान करने का मामला सामने आ जाता है - अधम कर्म। कहानी पाठकों के मन में यह विश्वास पैदा करती है कि किसी ने जान बूझ कर कोई शरारत नहीं की है पर यह तो आग में घी डालने जैसी क्रिया थी। गाय भी एक बाहुबलि विनोद सिंह की।


"हमेशा तीन चार राइफलधारियों से घिरे रहने वाले विनोद सिंह कभी खुद किसी से लड़े हों किसी को याद नहीं लेकिन यह भी सच है कि कम से कम एक दर्जन कत्ल के मुकदमों के नामजद अभियुक्त थे। जेल जाना और बेल पर बाहर आना जैसे उनकी आदतों में शामिल था।"


बाड़े के मुस्लिम मालिक के हांकने के क्रम में गाय एक गड़हे में गिर कर घायल हो जाती है। मुस्लिम टोले में दहशत फैल जाती है - एक तो हिंदू बाहुबलि की गाय दूसरे ऐसी घायल हो गई कि चल फिर नहीं पा रही, अब तो कयामत आने से कोई रोक ही नहीं सकता।

 

ऐसे में मुस्लिम टोल के सयाने हकीम साहब ने धैर्य और विवेक नहीं खोया, उन्होंने बाड़े के मालिक को सलाह दी कि वह स्वयं विनोद सिंह के दुआरे जाए और सारी बात सच-सच बता दे... आगे जो होगा देखा जाएगा।


दुर्घटना के बारे में सुन कर दबंगई के लिए कुख्यात विनोद सिंह ने सगीर के साथ कोई बदतमीजी या मारपीट नहीं की बल्कि अपने आगे पीछे रहने वाले नौजवानों को इस बात के लिए आगे बढ़ाया कि वह किसी तरह से खींच कर गाय को गड्ढे से निकालें और ठेले पर लाद कर अस्पताल ले जाएं जिससे उसकी चोट का तत्काल इलाज किया जा सके।


कुछ समय पहले तक मिल-जुल कर फुटबॉल खेलने वाले हिंदू मुस्लिम लड़के अलगाव भूल कर गड्ढे में उतरे और रस्सी से गाय को खींच कर बाहर निकालने में कामयाब रहे - उस गांव की शोहरत में  जो नारा पहले लगा करता था वही नारा उन्होंने मिल कर फिर से लगाया।


"सुनो भाई लोग जो मिल्लत और एकता आज आपने दिखाई है उसको बना कर रखती है। कोई लंपट शिवालय पर पोस्ट साट गया है। हमारी मिल्लत को तोड़ने की कोशिश हो रही है लेकिन हम लोगों को सावधान रहना है।" कहानी के अंत में कमलेश ने विनोद सिंह के मुंह से यह शब्द कहलाए।


मुझे यह नहीं मालूम कि इस कहानी की बुनावट में अखबार में छपी खबर कितनी मात्रा में है और लेखक के दिमाग में समाज के सकारात्मक स्वरूप की कल्पना की हिस्सेदारी कितनी है - लेकिन विनोद सिंह की शख्सियत के अंदर छुपा हुआ समझदारी और मनुष्यता का जो भाव है उसको लेखक ने बड़ी जिम्मेदारी के साथ सृजनात्मक तरीके से उभारा है। कहानी में विनोद सिंह की एंट्री जहां होती है वहां यह कल्पना करना पाठक के लिए लगभग असंभव  है कि अपनी सबसे प्रिय गाय के बुरी तरह से ज़ख्मी हो जाने पर भी उसका इतने संयमित ढंग से बरताव देखने में आएगा। पर एक सजग और जन पक्षीय रचनाकार उन लगभग असंभाव्य संभावनाओं की तरफ भी इशारा करता है जिनके बारे में उन्माद की आंधी में झुलस रहा समाज सोचने से भी परहेज करता है।





कुछ साल पहले स्व रमेश उपाध्याय की एक कहानी पढ़ी थी "पागलों ने दुनिया बदल दी" यह कहानी एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का यूटोपिया रचती है जिसमें अल्पसंख्यक समर्थ और  बहुसंख्यक असमर्थों के दो वर्गों के बीच बुरी तरह विभाजित है। असमर्थ सिर्फ इसलिए नष्ट नहीं किए जाते क्योंकि उनसे समर्थ सेवा टहल करवाते हैं, उनके बगैर समर्थों की दुनिया का सारा सुख-चैन और विकास थम जाएगा हालांकि वे उनके अस्तित्व को हर तरह से धरती से धो पोंछ देने को उद्यत हैं। असमर्थों ने रणनीतिक तौर पर अपने आप को बचाए रखने के लिए हंसी का हथियार इस्तेमाल किया - किसी भी स्थिति में वे धैर्य नहीं खोते, हिंसक नहीं होते, हताश निराश नहीं होते, बस सामूहिक रूप में हंस कर आक्रांता को परेशानी में डाल देते हैं, परास्त कर देते हैं। 


"उन्हें मरने से डर नहीं लगता था। गोली लगने पर वह चीखते नहीं थे, गला फाड़ कर हंसते थे - हा हा हा। गोले बरसाए जाने पर भी भागते नहीं थे, तोपों के सामने निहत्थे खड़े होकर हंसते थे - हा हा हा। ऊपर से बम बरसाए जाने पर जब उनकी लाशों के चिथड़े उड़ने लगते तब भी उनके सामूहिक ठहाके सुनाई पड़ते - हा हा हा। उन ठहाकों का ऐसा गगनभेदी शोर होता कि फौजियों के दिल दहल जाते।"


पुलिस, न्यायपालिका, जेल, जल्लाद और यहां तक कि फ़ौज तक को वे अपनी हंसी से निहत्था कर देते हैं। 


पागल हँस कर उनसे कहते हैं: "सत्ता के आसमान में बहुत उड़ लिए। अब श्रम की जमीन से जुड़ो, मेहनत करो और खुद कमाओ खाओ। जहां भी खाली जमीन मिले वहां खेती और बागवानी करके अन्न और फल पैदा करो। गाय, भैंस, भेड़, बकरी मुर्गी, मछली आदि पाल कर दूध मांस आदि पैदा करो। बेचने के लिए नहीं खुद खाने और दूसरों को खिलाने के लिए... खुद जीने के लिए और दूसरों को जिलाने के लिए।"


फौजियों को यह कहते हुए पढ़ना देखना पाठकों को हैरान भी करता है गुदगुदाता भी है: "हम कितने पागल थे जो तुमको पागल समझते थे। असली पागल तो हम हैं जो मरने और मारने की वह नौकरी करते हैं जिसने हमें इंसान से हैवान और शैतान बना दिया है।"


असमर्थों को कीड़ा-मकोड़ा समझ कर कुचल डालने के लिए प्रशिक्षित फ़ौजी कहानी के अंत में समवेत स्वर में नारा लगाते हैं:


"मरेंगे और मारेंगे नहीं, जियेंगे और जिलाएंगे।

डरेंगे और डराएंगे नहीं, हंसेंगे और हंसाएंगे।"


भले ही यह रूपक आज के हमारे सामाजिक यथार्थ से बहुत दूर और अलग दिखाई देता हो लेकिन निराशा और असफलता  के सागर में डूबते-उतराते इंसान के लिए ऑक्सीजन के आश्वासन की मानिंद आश्वस्तकारी टॉनिक है। साहित्य और कला में बुनियादी आदमीयत और संभावनाओं की उपस्थिति पर भरोसा दिलाने वाले यूटोपिया का भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए।



सम्पर्क 


मोबाइल : 9411100294

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