रवीन्द्र कालिया की कहानी 'सिर्फ एक दिन’
युवावस्था के दिन अजीब से होते हैं। जहां एक तरफ किसी भी बात को कर गुजरने का अदम्य उत्साह होता है वहीं दूसरी तरफ भविष्य की चिन्ता भी सताती रहती है। कम नौकरियां और उसके लिए ढेर सारा आवेदन, युवाओं को हतोत्साहित करता है। रही सही कसर निकाल देती है भ्रष्ट व्यवस्था जिसमें कुछ लोग अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाने के सारे हथकंडे अपनाते हुए अन्ततः उसे पा ही लेते हैं। ऐसे में वे युवा जो सामान्य परिवार से आते हैं, एक हताशा जन्म लेती है। युवावस्था के इस संत्रास को रवीन्द्र कालिया ने अपनी कहानी 'सिर्फ एक दिन’ में बेहतर तरीके से व्यक्त किया है। कहानी पढ़ते हुए जो बोझिल सा माहौल लगता है वह हमारे देश दुनिया का यथार्थ भी तो है। रवीन्द्र कालिया इसे अपनी पहली प्रकाशित कहानी बताते थे। हालांकि उनका मानना था कि ‘नौ साल छोटी पत्नी’ उनके द्वारा लिखी गई पहली साहित्यिक कहानी है। कल 11 नवम्बर को कालिया जी का जन्मदिन था। उनकी स्मृति को हम नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी पहली कहानी। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रवीन्द्र कालिया की कहानी 'सिर्फ एक दिन’।
'सिर्फ एक दिन’
रवीन्द्र कालिया
नींद तो उस समय ही खुल गई थी, जब दरवाजे के पास अखबार वाले की साइकिल क्षण-भर के लिए रुकी थी और अखबार फेंकने की आवाज आई थी, परंतु मैंने आँखें अभी तक नहीं खोली थीं। आँखें मैं तब भी नहीं खोलता, जब माँ सुबह की चाय ले कर आती हैं, क्योंकि मैं इस परिणाम पर पहुँच चुका हूँ कि आँखें खुलते ही खुमारी काफूर हो जाती है और मुझे खुमारी में झूलना उतना ही प्रिय है, जितना सुबह-सुबह अखबार पढ़ना या ब्रश करना या सिगरेट पीना। माँ दो-एक बार आवाज दे कर मुझे उठाने की कोशिश करती हैं, परंतु मेरी ओर से जब कोई उत्तर नहीं मिलता तो बड़बड़ाते हुए अथवा पाठ करते हुए चाय का कप खाट के नीचे रख कर चली जाती है। जब मुझे विश्वास हो जाता है कि अब चाय ठंडी हो चुकी होगी और पीने में होंठ नहीं जलेंगे (वैसे मैं ठंडी चाय पीना पसंद नहीं करता), तो आँखें मूँदें-मूँदे आहिस्ता-आहिस्ता खाट के नीचे हाथ फेर कर प्याले को छू लेता हूँ और फिर उसके ऊपर से प्लेट उठा कर एक ही साँस में पी लेता हूँ।
मुझे इस प्रकार एक ही साँस में ठंडी चाय पीते देख कर पापा को क्रोध तो अवश्य आता होगा, परंतु अब वे कुछ कहते नहीं, केवल ‘सिच्युएशन वेकेंट’ का कॉलम, जो वे मुंह में पढ़ रहे होते हैं, ऊँचे स्वर में पढ़ने लगते हैं। मैं रोज सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि पापा अखबार हाथ में आते ही समाचार क्यों नहीं पढ़ते? और यदि उन्हें ‘सिच्युएशन वेकेंट’ के कॉलम ही पढ़ने होते हैं, तो ये सब मुंह में भी पढ़े जा सकते हैं। यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन, सेंट्रल रेवेन्यू कंट्रोल लैबोरेटरीज, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के रिक्त स्थानों को वे एक ही लय, गति और आशा से पढ़ते हैं। यदि उन्हें कोई नौकरी अच्छी लगती है, तो उसे लाल पेंसिल से रेखांकित कर देते हैं। रेखांकित करने के बाद वे उसे दुबारा पढ़ेंगे। मुझे पता रहता है कि पापा मुझे सुनाने के लिये ही दुबारा पढ़ने का कष्ट उठा रहे हैं, परंतु मैं बदस्तूर रजाई में दुबका रहता हूँ और उनकी बात अनसुनी करने की कोशिश करता हूँ। इस बात पर मुझे ताज्जुब होता है कि हम दोनों के मनोरंजन के साधनों में वह कैसी समानता आ गई है। खैर, इसका परिणाम सुखद निकला। इन कॉलमों से मुझे वितृष्णा हो चुकी है और मेरी रुचि ‘मैट्रिमोनियल्स’ पर स्थानांतरित हो गई है, हालांकि शादी के बारे में मैं महीने में दो-एक बार से अधिक नहीं सोचता।
रजाई में दम घुट रहा था, परंतु मैं इस ख्याल से लेटा था कि पापा उठें तो मैं बिस्तर से उठ कर छत पर चला जाऊँ। पापा उठते कि माँ नन्ही को लिए आ गई। नन्हीं मेरी भतीजी है। पापा ने उसे देखते ही पूछा, “डैडी कहाँ हैं नन्हीं?”
पापा दिन में कई बार उससे यही प्रश्न करते हैं और जवाब में नन्हीं अपना सिर दाएँ कंधे पर रख दिया करती है और कहती है, “डैडी दूऽऽ...।”
‘डैडी के पास जाओगी?’ पापा का दूसरा प्रश्न होता है।
‘हूँ।’
माँ ने नन्हीं को पापा के सुपुर्द करते हुए पूछा, “बमों के परीक्षण हो रहे हैं या बंद हो गए?” माँ पहले ही युद्ध से बहुत डरा करती थीं, परंतु जब से भैया भारतीय सेना के साथ कांगो गए हैं, वे परमाणु-परीक्षणों से भी डरने लगी हैं।
“आज तो कोई खबर नहीं है।”
पापा ने कहा, “आज ‘वेकेंसियों’ के कॉलम में भी खबरें छपी है।”
मैं करवट बदलता हूँ, शायद पापा ‘वेकेंसियों’ की बात बंद कर दें, परंतु उन्होंने कहा, “बाजी को आज बीस रुपए दे देना।”
“रुपए कहाँ हैं?” माँ ने कहा।
“दफ्तर से भिजवा दूँगा।” पापा ने पूछा, “उसने फॉर्म मँगवा लिए हैं?”
“मैंने पूछा नहीं।” माँ ने कहा, “ शायद मँगवा लिए हैं।”
“कहाँ मँगवाए होंगे।” पापा ने उसी पुराने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, जो मेरे लिए सुरक्षित रहता है, “अंतिम तिथि के बाद मँगवाएगा।”
मुझे मुंह पर से रजाई उठाने का बहाना मिल गया। आँखें मलते हुए कहा, “फार्म मैंने मँगवा लिए थे।”
“तो भिजवाते क्यों नहीं?” पापा ने नन्हीं को चपत लगाते हुए कहा, “यह मुँह में क्या चबा रही हो?”
मैंने पापा को सही-सही नहीं बताया कि फॉर्म क्यों नहीं भिजवाया, क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरी बात सुनते ही उनका चेहरा सुर्ख हो सकता है और वे खाँसते हुए बिना भोजन किए दफ्तर जा सकते हैं।
मैंने अखबार बगल में लिया और छत की सीढ़ियां चढने लगा। यद्यपि मैं महसूस करता हूँ कि छत के ऊपर का आकाश शेल्फ में रखी किताबों और ट्रंक में रखी डिग्री की भाँति पुराना हो गया है, उसके नीचे बैठना मुझे बुरा नहीं लगता।
छत पर एक खुला हवादार कमरा है। आराम कुर्सी निकाल कर मैं बाहर धूप में जा बैठा। सूरज गुरुद्वारे के ऊपर टँगा था। सूरज की ओर मुँह कर के मैं रोज सोचता हूँ कि अब किसी दिन सूर्योदय देखूँगा (गत एक वर्ष से मैंने सूर्योदय नहीं देखा।)
सूरज के सामने आँखें बंद करके लेटने में बड़ा मजा आता है। आँखों की शिराओं में रक्त का दबाव बढ़ जाता है। आँखों में सुर्ख मलमली परदे लहराने लगते हैं। मैं पाँच एक मिनट यों ही लेटा रहा, फिर मल कर आँखें खोलीं, आँखों में थोड़ी-सी ताजगी आ गई और मैं घुटनों पर टिका अखबार उठाकर पढ़ने लगा। एकदम सारा अखबार पढ़ जाना मुझे पसंद नहीं। पहले मैं चौबीस प्वॉइंट की सुर्खियाँ पढ़ता हूँ, फिर अड़तालीस प्वॉइंट की और उसके बाद बहत्तर प्वॉइंट की सुर्खियां पढ़ता हूँ, फिर अड़तालीस प्वॉइंट की और उसके बाद बहत्तर प्वॉइंट की। संपादकीय पृष्ठ मैं कमरे में आ कर पढ़ता हूँ और ‘सिच्युएशन वेकेंट’ का कॉलम रात को। अखबार में यदि विचारोत्तेजक सामग्री का अभाव हो तो मुझे नींद-सी आने लगती है, और यदि ऐसी सामग्री अधिक हो तो नींद की गोलियाँ खा कर सो जाता हूँ। पिछले सप्ताह मैंने निद्रा-सप्ताह मनाया था। मैं इसे जारी रखना चाहता था, परंतु परसों अचानक मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। मैंने नींद की सारी गोलियाँ कुत्तों को खिला दीं, हालाँकि सोचा था कि इनका इस्तेमाल पड़ोस के शरीर बच्चों पर करूँगा।
अखबार वाकई आज खुश्क था। मैंने अखबार तह लगा कर रख दिया और सिगरेट सुलगा ली। गुरुद्वारे के स्कूल में बच्चों ने सहगान में पहाड़े बोलना आरंभ कर दिया था। साथ वाले मकान में कोई कपड़े सी रहा था और सीते-सीते वह तोते को ‘सरदार जी’ कहना सिखा रहा था, परंतु तोता स्वतंत्र प्रकृति का था और वह केवल ‘बीजी’ ही कहता था। सामने वाले ऊँचे मकान की छत पर एक लड़की गीले कपड़े धूप में फैलाने के लिये आई। मैंने उसकी ओर देखा। उसकी ओर देख कर मैं रोज सोचता हूँ कि मुझे चश्मा लगवा लेना चाहिए, क्योंकि लाख कोशिश करने पर भी मैं उसका चेहरा साफ-साफ नहीं देख पाता। परंतु चश्मे के बारे में एम. ए. में ही तय कर लिया था कि जब नौकरी करूँगा, तभी लगवाऊँगा। न जाने मेरी यह धारणा किस आधार पर बनी है कि बेकार आदमी चश्मा लगा कर अधिक मूर्ख लगता है?
धूप में कुछ तीखापन आ रहा था। मैंने अखबार उठाया और कमरे में चला गया। कमरा सिगरेट के टुकड़ों और राख से भरा पड़ा था। मुझे फाकिर याद आया, जो मेरे कमरे को ‘ऐश-ट्रे’ कहा करता है। सामने दीवार पर एक चीनी कलाकार की घोड़ों की तस्वीर दो वर्षों से लटक रही है। यह उस जमाने की यादगार है, जब मैं इन घोड़ों से प्रेरणा ले-ले कर पढ़ा करता था और नेहरू जी की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के, जो मुझे एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में पुरस्कार स्वरूप मिली थी, बीसियों गद्यांश मुझे जुबानी याद थे। आज इन घोड़ों पर धूल की तह जम गई है और ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के वे वाक्य कि ‘हमें मेहनत करनी है, जुट कर काम करना है जिससे हम अपने सपनों को साकार कर सकें’, याद करके पैरोडी करने में आनंद आता है: ‘हमें मेहनत करनी है, सिफारिश से काम लेना है, जिससे हम अपने सपनों को साकार कर सकें।’
कमरे में धूप के खरगोश पालथी मार कर बैठ गए थे। तोता अभी तक सरदार जी कहना नहीं सीख पाया था और सरदार जी की मेहनत जारी थी। स्कूल के बच्चे सोलह के पहाड़े तक पहुंच गए थे। मैं दीमक की तरह अखबार चाट गया था और अब वक्त जानने की इच्छा हो रही थी। फिर मुझे अपनी इसी इच्छा पर हंसी आ गई। यदि दस की बजाय बारह बजे होंगे तो क्या अंतर पड़ेगा? यही सोचते-सोचते मैं इस परिणाम पर पहुँच गया कि यदि घड़ी रखना एक ऐयाशी है, तो घड़ी न रखना उससे भी बड़ी ऐयाशी। बच्चों के साथ-साथ सोलह का पहाड़ा मुझे भी याद हो रहा हैः ‘सोलह एकम सोलह, सोलह दूनी बत्तीस।’ बत्तीस सुनते ही मुझे एक अभिनेत्री का ख्याल आया, जिसकी फिल्म मैं केवल उसके दांत देखने के लिये देखा करता हूँ। फिर मुझे पंजाब का नया मंत्रिमंडल याद आ गया। अपनी स्मृति की परीक्षा लेने के लिये मैंने मंत्री गिनने आरंभ कर दिए। बहुत परिश्रम करने पर मैं सत्रह मंत्रियों के नाम और तीन मंत्रियों की शक्लें याद कर सका। आखिर हार मान कर हवा में धुएँ के छल्ले छोड़ने के लिए मैंने सिगरेट सुलगा ली।
कुछ देर यों ही बच्चों के पहाड़े सुनता रहा, फिर मालूम नहीं कब मैं अल्जीरिया की ओ. ए. एस. के बारे में सोचने लगा, फिर क्रिकेट के बारे में, फिर लॉन टेनिस के बारे में, फिर राष्ट्रसंघ के बारे में। मेरा ध्यान तब टूटा, जब नीचे से माँ की आवाज आई। माँ की आवाज सुन कर मैंने सोचा कि या तो डाक आई है या धोबिन आई है। गुलाटी को आज आना था, शायद वही आ गया हो। परंतु गुलाटी को तो एक बजे आना था। शायद एक बज गया हो। धूप की ओर देख कर मैंने वक्त का अंदाजा लगाना चाहा, परंतु किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सका। मैं माँ की दूसरी आवाज की प्रतीक्षा करने लगा। माँ शायद आवाज दे कर भूल गई थीं। या शायद उन्होंने यह जानने के लिये आवाज दी होगी कि मैं सो रहा हूँ या जग रहा हूँ। सोना मुझे अत्यधिक प्रिय है, परंतु माँ को मेरा दिन-भर सोए रहना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। कई बार मैंने माँ से सोने का विकल्प जानने की कोशिश की है, परंतु इसका उत्तर उनके पास भी नहीं। कुछ देर मैं लेटा हुआ माँ की दूसरी आवाज की प्रतीक्षा करता रहा, परंतु जब कोई उत्तर न मिला, तो मैंने उठकर बालों पर हाथ फेरा और नीचे उतर आया।
चाय बनाने के लिये मैंने स्टोव के पेच खोल दिये और माँ से कहा, “आपने आवाज दी थी?”
“आज राजस्थान अर्जी भिजवा दो, तुम्हारे पापा ने बीस रुपये भिजवा दिए है।”
बीस रुपयों से पापा का सूट इस बार ड्राईक्लीन हो सकता है, मैंने पापा के मैले सूट का ख्याल आते ही सोचा।
“आप कहती हैं तो भिजवा दूँगा।”
मैंने अनमने भाव से कहा, “वैसे उम्मीद कोई नहीं।”
मेरी बात सुन कर माँ खिन्न हो गई, “जिसे उम्मीद ही नहीं, वह भला कर ही क्या सकता है?”
सिवा झूठी उम्मीद के और कुछ नहीं, मैंने कहना चाहा, परंतु मुझे मालूम था कि माँ को यह बात भी पसंद नहीं आएगी। मुझे चुप देख कर माँ ने अपनी बात का लहजा बदल दिया, “तुम सारे दिन ऊपर बैठे क्या करते रहते हो? न किसी से बात करते हो और न तुम्हें भतीजी पर ही प्यार आता है। ऐसे कितने दिन चलेगा?” माँ का स्वर गीला हो आया था, “बड़ा यहाँ था, तो घर में चहल-पहल रहती थी। तुम्हें तो किसी से कोई वास्ता ही नहीं। कल जब तुम्हारे पापा ने बताया कि बीजी को उनसे बात किए महीनों गुजर जाते हैं, तो मुझे रुलाई आ गई।”
चाय का पानी उबलने लगा था। मैंने सोचा, चाय पीने के बाद सिगरेट पीने में मजा आएगा।
“ऊपर बैठे रहने की बजाय बाहर घूम आया करो।” माँ ने काँच का गिलास धो कर मुझे पकड़ाते हुए कहा, “पता चलता रहता है, कहाँ जगह खाली है।”
“आप कहती हैं, तो किसी दफ्तर में क्लर्की कर लेता हूँ।” मैंने जानबूझ कर यह बात कही थी, क्योंकि मुझे अच्छी तरह मालूम है कि माँ को अगर किसी नौकरी से नफरत है, तो क्लर्की से। यह दूसरी बात है कि क्लर्की के लिये भी मैंने कम कोशिश नहीं की।
“राजस्थान तो अर्जी भिजवाओ, कहीं न कहीं तो काम मिल ही जाएगा।” माँ ने कहा। मुझे माँ के इस आशावाद पर कभी-कभी ईर्ष्या होती है। चाय पीते हुए मैं सोचने लगा कि एक बजे गुलाटी आएगा, तो उसके साथ ही बाहर निकलूँगा। अर्जी का बहाना न मिलता तो दोपहर भर के लिए कमरा ही सामने था। रॉक्सी में दोपहर गुजारे मुद्दत हो गई है। मैंने मन ही मन में सोचा, पहले कॉफी पिएँगे और उसके बाद सिगरेट। शायद कुछ अच्छा लगे।
गुलाटी के साथ मैं इस शर्त पर बाहर निकला कि वह आज न तो तुलाराम की बातें करेगा और न ही आई. ए. एस. की। इन दोनों विषयों के अभाव में वह मेरे साथ चलते हुए बहुत अकेला महसूस कर रहा था। रास्ते में उसने सिर्फ यह जानने की चेष्टा की थी कि आज मैं किस खुशी में बाहर निकला हूँ और कॉफी पिला रहा हूँ।
मैंने उसका मनोरंजन करने के लिए कहा, “आज इंटरव्यू लेटर आया है।”
“कहाँ से?”
“कहीं से भी नहीं।” उसकी उत्सुकता मुझे अच्छी लगी। मैंने उसके कंधे थपथपाते हुए कहा, “कॉफी के लिए भी किसी खुशी की जरूरत होती है।?”
रॉक्सी के निकट पहुँच कर मैंने उससे पूछा, “तुलाराम कौन-सी कॉफी पीता था?” वास्तव में मैंने तुलाराम की बात इसलिए छेड़ी थी कि उसे शर्त याद आ जाए। पहले मैं इसी गरज से आई. ए. एस. की बात करने वाला था, परंतु मुझे मालुम था कि आई. ए. एस. के संदर्भ में वह आसानी से बातचीत को निरस्त्रीकरण तक घसीट कर ले जा सकती है और निरस्त्रीकरण के बारे में मैंने आज ही एक-दो कॉलम का संपादकीय तथा चार कॉलम का अंतर्राष्ट्रीय समाचार पढ़ा था।
गुलाटी ने शिकायत-भरी नजरों से मेरी ओर देखा और फिर मुस्करा कर बोला,
“कापूचिनी।”
रॉक्सी का दरवाजा खुलते ही कॉफी की गंध हमारी साँसों में घुलने लगी। हम अपनी पुरानी टेबल पर चले गए। बाई ओर वाली टेबल से हमारी ओर देख कर कोई हाथ हिलाने लगा। बैठने के पूर्व मैंने साथ वाली टेबल की ओर देखा भी था, परंतु फिर भी सरोज को पहचान नहीं पाया था। एक तो रेस्तराँ में रोशनी धीमी थी, दूसरे मेरी नजर भी कमजोर है और तीसरे यह ख्याल भी था कि सरोज तो अंबाला में लेक्चरर हो गई है। मैं मुस्कराने की चेष्टा करता हुआ बोला, “मिस सरोजा देवी!” मैंने क्षण-भर रुक कर कहा, “कहाँ हैं आजकल? बहुत मुद्दत के बाद नजर आई हैं।”
अगर मैं सरोज को पहचान गया होता तो शायद ये सब बातें न करता। न तो लोगों का अता-पता जानने की मेरी इच्छा रही है और न कभी मैंने इसके लिए सोचा ही है।
सरोज मेज के काले शीशे में देखते हुए मुस्कराई। मैं जानता था कि वह मुस्कराएगी। उसके साथ बैठा हुआ नवयुवक भी मेरी ओर देखने लगा। मैं उसे भी जानता था कि वह सरोज का भाई है, परंतु मैंने इस गुप्त परिचय को जाहिर नहीं होने दिया। मैं सोच रहा था कि सरोज अभी कहेगी कि वह अमुक कॉलेज में है और मैं थोड़ा-सा मुस्करा कर, थोड़ा-सा खुश होने का अभिनय कर के लौट जाऊँगा और औपचारिकता खत्म हो जाएगी, परंतु सरोज ने अपने भाई के साथ परिचय कराया और उसी टेबल पर बैठने का अनुरोध किया।
गुलाटी की सिगरेट का बादल मेरे कानों पर रेंग रहा था। वह शायद पूछना चाहता होगा कि क्या यह वही सरोज है, जो एक वर्ष पूर्व “पोनी टेल’ किया करती थी, परंतु मैं उन सभी बातों को भुला चुका था, जो एक जमाने में गुलाटी को बढ़ा-चढ़ा कर सुनाया करता था। मैंने गुलाटी का हवाला दे कर उनसे क्षमा चाही, परंतु उन्होंने गुलाटी को भी वहीं बुला लेने के लिये कहा। कुछ क्षण मैंने कोई और बहाना सोचने की कोशिश की, परंतु अंत में मुझे गुलाटी को बुलाना ही पड़ा। मैं जानता था कि छोटी-सी बात के लिये सरोज वहाँ बैठने का अनुरोध कर रही है- उस बात के लिए, जिसे मैं पहले से जानता हूँ।
मैंने गुलाटी से उनका परिचय कराया। सरोज और उसके भाई, दोनों को उससे मिल कर खुशी हुई। गुलाटी भी खुश हुआ। सामने बैठ कर मैंने महसूस किया कि सरोज कुछ मोटी हो गई है। सरोज का भाई साथ में न होता तो मैं उसकी सेहत पर अवश्य कोई मजाक करता। एक लड़का ज्यूक बॉक्स पर लगी गानों की सूची को कितनी देर से पढ़ रहा था। आखिर कुछ निश्चय कर के उसने चवन्नी छेद में से गिरा दी और बटन दबा दिया। मैं गाना सुनने की तैयारी करने लगा। लड़के के हाव-भाव देख कर मैंने महसूस किया कि उससे कोई गलती हो गई है। उसने जेबें टटोलीं, फिर एक रुपया निकाल कर काउंटर की ओर बढ़ गया।
“आप क्या पिएँगे?” सरोज ने मुझसे ही पूछा।
मैंने ज्यूक बॉक्स से ध्यान हटा कर सरोज की ओर देखा, वह मुझसे ही पूछ रही थी।
“हम तो कॉफी पीने के इरादे से आए थे।”
“कौन-सी कॉफी पिएंगे? मैं गुलाटी की ओर देख कर मुस्कराया और बोला, “कापूचिनो।”
“कापूचिनो!” सरोज खिलखिला कर हँस पड़ी, फिर अपने भाई की ओर देख कर बोली, “अंबाला में तो एसप्रेसो ही चलती है।”
“चलती तो यहाँ भी एसप्रेसो ही है।” मैंने कहा।
“सच, अंबाला में मेरा जी बिलकुल नहीं लगा।” सरोज ने मेरी ओर देखते हुये कहा।
“आप अंबाला में हैं आजकल?” गुलाटी ने पूछा। गुलाटी ने न पूछा होता तो शायद मैं पूछने के लिये विवश हो जाता।
“जी हाँ, मगर मेरा दिल वहाँ बिल्कुल नहीं लगता। कॉलेज तो खैर मुझे पसंद है, मगर कॉलेज में तो सिर्फ दो-तीन पीरियड होते है।” सरोज अपने भाई की ओर कनखियों से देखते हुये मुस्कराई, “इधर भैया हैं कि लेक्चररशिप से बोर हो कर आई. ए. एस के बारे में सोचने लगे हैं।”
“आई. ए. एस.? गुड”!” गुलाटी सरक कर सरोज के भाई के सामने हो गया।
“तब तो हम बहुत-सी बातें कर सकते हैं,” उसने मेरी तरफ शरारत से देखा और कहा, “यह दूसरी बात है कि मैं बलराज के साथ इस शर्त पर आया था कि कम्पटीशन की बातें नहीं करूँगा।”
तीनों मेरी ओर देखने लगे। मैंने काउंटर की ओर देखा। काउंटर के पास खड़ा एक बैरा काउंटर पर सिर रखे ऊँध रहा था। मुझे उसका ऊँघना भला लगा और अलग टेबल पर बैठा होता तो शायद दो घड़ी में भी ऊँघ लेता। सरोज प्यालियों में शक्कर डालने लगी और वे दोनों आई. ए. एस के गिर्द मंडराने लगे। मुझे सरोज से करने के लिये कोई बात नहीं मिल रही थी और इस तरह चुप बैठना बेतुका लग रहा था।
“आप किन ख्यालों में खो गए हैं?”
सरोज ने मेरी समाधि भंग करने के लिए ही शायद पूछा।
“यह समाधि कापूचिनो से ही टूट सकती है।” मैंने कहा। सरोज हँस पड़ी। यह दूसरी बात है कि मैंने उसे हँसाने की गरज से नहीं कहा था। मेरे सामने पड़े प्याले में चम्मच से शक्कर डालते हुए उसने पूछा, “आप किधर हैं आजकल, यहीं?”
“हाँ, यहाँ।” मुझे वे प्रश्न बेहद प्रिय हैं, जिनके अस्पष्ट उत्तर आसानी से दिये जा सकते हैं। मेरी प्याली शक्कर से एक-चौथाई भर गई थी। मैंने कहा, ‘क्षमा कीजिए, मैं सिर्फ एक चम्मच लेता हूँ।”
सरोज ने प्याली से शक्कर निकालते हुए कहा, “मुझे भी पापा की वजह से जॉब मिल गया। मैनेजिंग कमेटी पर पापा का होल्ड न होता तो मुझे कौन पूछता। बहुत कंपीटीशन था, पी-एच. डी. तक पहुँचे हुए थे।”
मेरी पैंट की जेब से एप्लीकेशन फॉर्म बाहर झाँक रहे थे, मैंने हाथ से उन्हें जेब से अच्छी तरह छिपा दिया। मुझे इस विषय पर बात करने से घृणा हो रही थी। सरोज मुझे आश्वासन देने के लिये यह बात कही थी। मैंने कॉफी सिप करते हुये गुलाटी से कहा, “गुलाटी साहब, कापूचिनो आपके सामने है।” मैं खुश था कि पोस्टल आर्डर खरीद कर यहां नहीं आया।
सरोज के भाई ने, जिसका नाम सुरेन्द्र था, कहा, “आप साथ में क्या लेंगे, सरोज को तो पकौड़े प्रिय है।”
“हां, मैं भूल ही गई।” सरोज ने बैरे को बुला कर ऑर्डर दिया।
ज्यूक बॉक्स पर मेरी पसंद का एक गाना बजने लगा। मैंने मन ही मन चवन्नी खर्च करने वाले का शुक्रिया अदा किया। हमारे साथ वाली टेबल पर नाटे कद का एक लंबी मूंछों वाला व्यक्ति बैठ गया था। वह नाक की बजाय मुंह से सांस ले रहा था। उसके मुंह में बीयर की बू आ रही थी और वह निरंतर सरोज की ओर घूर रहा था। रेस्तराँ में बहुत कम लोग थे। बैरा ज्यूक बॉक्स के साथ आहिस्ता से पीठ टिकाए खड़ा था और गाने के साथ-साथ पैर हिला रहा था। हम जब कॉलेज में पड़ी रॉक्सी में बैठा करते थे, तो यह हमारी ओर घूरा करता था। जिस दिन हम सब बिल नहीं देते थे। उसके दूसरे दिन हमें देखते ही इसका माथा तन जाता था और यह हमें अटैंड करने की बजाय अपनी व्यस्तता का अभिनय करते हुये इधर उधर घूमा करता था। गुलाटी और सरोज का भाई कंपीटीशन के बाद अब इंटरव्यू तक पहुँच गए थे। मैंने पकौड़ा निगलते हुए कहा, “और शायद घर पहुँचते पहुँचते घर चले जाएंगे।” सभी ठहाका लगा कर हँस पड़े। मैंने अगर पकौड़े कॉफी से पहले खाए होते और बाद में सिगरेट पी होती तो शायद उनकी बातों में दखल न देता।
“आप आई ए एस में क्यों नहीं अपीयर होते?” सरोज ने मुझसे पूछा।
“ताकि इन दोनों में से एक के लिये स्थान रिक्त रहे।” मैंने कहा।
सरोज इस उत्तर से संतुष्ट हो गई और प्लेट पर झुक गई।
“छुट्टियों में यहीं रहने का प्रोग्राम है?” सरोज ने पूछा।
मैंने अनुभव किया कि वह शायद इसलिए बातचीत को जारी रख रही है कि मैं बोरडम से बचा रहूँ, परंतु उसे यह नहीं मालूम कि मेरी जैसी स्थिति में रहने वाले व्यक्ति के लिये बोरडम कोई समस्या नहीं रहती और दूसरे, बोरडम चुप्पी का पर्याय नहीं है। मैंने कहा, “हाँ, फिलहाल तो यहीं रहेंगे।”
सरोज अपनी ही बात पर झेंप गई, बोली, “खैर, छुट्टियों के बाद तो बहुत-सी जगहें निकलेंगी।”
सरोज को सहानुभूति से लथपथ देख कर मुझे यहाँ बैठने की गलती पर उलझन महसूस होने लगी। मैंने अपने संबंध को कॉफी की परिधि में सीमित रखने की गरज से कहा,
“कहिए, कॉफी कैसी रही?”
“कॉफी भी अच्छी थी और वक्त भी खूब गुजरा।” सरोज ने कहा।
सरोज के चेहरे पर सहसा फीकापन आ गया था। मैंने सोचा, या तो सरोज को मेरा विषयांतर लाना अच्छा नहीं लगा, या हमारी बगल में बैठा नाटे कद का लंबी मूँछों वाला व्यक्ति अब भी उसकी ओर घूर रहा है। सरोज के भाई ने घड़ी और ज्यूक बॉक्स के सहारे खड़े बैरे को इशारे से अपने पास बुला कर बिल भिजवाने को कहा।
मुझे देख कर बैरा रुक गया और फिर ऐसे बोलने लगा, जैसे मुद्दत से मुझे जानता हो, “साब, आप बहुत दिनों के बाद तशरीफ लाए हैं। बहुत दुबले हो गए हैं आप। वहाँ का पानी आपको ठीक नहीं बैठा। क्यों जी? जगत भी इस साल मैट्रिक की परीक्षा में बैठ रहा है। उसे अपने ही दफ्तर में कहीं छोटा-मोटा काम दिलवा दीजिए। परीक्षा के बाद उसे आपके ही सुपुर्द कर दूँगा।.... अब तो देखने में भी अच्छा लगता है।”
“हमारे दफ्तर का पानी ठीक नहीं है,” मैंने कहा, “वहां मेरी तरह ही दुबला हो जाएगा।”
“नहीं साब, आप मेरी बात को मजाक में न लें,” उसने पूछा, “आप किस शहर में रहते हैं?”
‘मैट्रिक पास कर ले तो मुझे याद दिलाना।”
मैंने उससे पीछा छुड़ाने की गरज से कहा, “अच्छा अब बिल ले आओ।”
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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