नंदलाल 'कैदी' की कविताएं

     

नंदलाल 'कैदी' 


नंदलाल 'कैदी'     


जीवन परिचय


कवि स्व. नंदलाल 'कैदी' का जन्म उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद के खागा तहसील में भोगलपुर गाँव में एक छोटे किसान परिवार में 26 जनवरी सन् 1946 को हुआ था। उनके पिता का नाम सूर्यदीन एवं माता का नाम कौशल्या देवी था। चार भाइयों एवं दो बहनों में वह सबसे छोटे थे। कैदी जी जब कक्षा 8 में पढ़ते थे, तभी उनका विवाह श्रीमती राजरानी देवी के साथ हो गया था। वह तीन पुत्र और तीन पुत्रियां के पिता हुए। कैदी जी को अपने दो जवान पुत्रों का मृत्यु शोक भी भोगना पड़ा था।               

बचपन से कुशाग्र बुद्धि के कैदी जी की प्राइमरी शिक्षा गाँव में ही हुई। हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट की पढ़ाई क्रमशः श्री सुखदेव हायर सेकेंडरी स्कूल खागा एवं ए. एस इंटर कॉलेज फतेहपुर से किया। महात्मा गांधी डिग्री कॉलेज से बी. ए. तथा एम. ए. एल. टी. डी. ए. वी. कालेज कानपुर  से करने के बाद श्री सुखदेव इंटर कॉलेज  खागा में सन् 1967 में एलटी ग्रेड में सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। 8 अप्रैल 2019 को नंदलाल 'कैदी' इस संसार को अलविदा कह गए।     

स्व. नंदलाल 'कैदी' के जीवन काल में उनकी दो पुस्तकें 'शिक्षा क्यों और कैसे' सन् 1983 तथा 'जेवर और दहेज' 1989 में प्रकाशित हुई। कैदी जी के मृत्योपरांत उनके तीन काव्य संग्रह 'दर्द को बेनकाब न कर', 'आ गई फिर से सुबह' सन् 2020 मे वरिष्ठ साहित्यकार अब्दुल बिस्मिल्लाह के संपादन में एवं 'तार वीणा के सजा दो', का प्रकाशन मोहन सिंह के संपादन में प्रकाशित हुए।

कैदी जी के साहित्यिक अवदान तथा उनके विराट व्यक्तित्व से प्रेरित हो कर उनके पैतृक गाँव भोगलपुर में स्थित उनकी समाधि स्थल पर उनके परिजनों, इष्ट मित्रों एवं शिष्यों द्वारा उनकी पुण्यतिथि 8 अप्रैल पर प्रतिवर्ष एक विशाल साहित्यिक कार्यक्रम 'साहित्य संसद' का विविध रंगी आयोजन किया जाता है।        

स्व. नंदलाल 'कैदी' के पुत्र भालचंद्र जी ने, जो खुद भी एक अच्छे कवि हैं, बताया कि उनकी अप्रकाशित कविताओं का बहुत बड़ा जखीरा बोरियों में भर कर सुरक्षित रखा है, जो प्रकाशन की बाट जोह रहा है।



कबीर जैसा अक्खड़पन और सामाजिक कुरीति, पाखंड पर करारा प्रहार, बाबा नागार्जुन जैसी निडरता एवं सचबयानी कवि नंदलाल 'कैदी' की पहचान है। उनकी कविताओं में सत्ता की निरंकुशता, दमन एवं उत्पीड़न के खिलाफ मुखर प्रतिरोध दिखाई पड़ता है। 'कैदी' ने कभी सम्मान, पुरस्कार, प्रशंसा अथवा आत्मप्रचार की लालसा नहीं किया। वरिष्ठ साहित्यकार अब्दुल बिस्मिल्लाह के शब्दों में,  "वे अपनी कविताएं आत्मसंतोष के लिए लिखते हैं, दूसरों को सुनाने के लिए नहीं। तुलसीदास की तरह स्वांतः सुखाय, किंतु सर्वांतः सुखाय। जब उनका कोई मित्र बहुत जोर डालता तो अपनी एकाध कविता सुना दिया करते थे।" नंदलाल 'कैदी' ने कविताओं के साथ साथ गजलें भी लिखीं जो अपने समय की विडंबनाओं को उद्घाटित करती हैं। कैदी की गजलों के बारे में अब्दुल बिस्मिल्लाह लिखते हैं, " 'गजल' तो मूलतः प्रेम से संबंधित रचना होती है, किंतु दुष्यंत कुमार के समान ही नंद लाल 'कैदी' भी ग़जलों में विन्यस्त विषय वस्तु 'प्रेम' की सीमा से आगे बढ़ कर अपने समय की सच्चाइयों को व्यक्त करती है- पूरी दृढ़ता के साथ।" कैदी जी की ये कविताएं पहली बार को कवि मोहन लाल यादव ने उपलब्ध कराई हैं। इसके लिए हम उनके आभारी हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नंदलाल 'कैदी' की कुछ कविताएं एवम गजलें।



नंदलाल 'कैदी' की कविताएं

      

हठधर्मी


बधिया बैलों का प्रजातंत्र 

शासन सरकार निकम्मों से 

युग धर्म स्वयं लाचार हुआ 

कवि नायक लेखक नर किन्नर 

                सबका थोथा व्यापार हुआ 



क्या कहना सुनना मौसम से 

जीवन अपना अखबार हुआ 

विद्या विनय न दे पाई

शिक्षा साक्षर तक ही पहुंची 

             लिजलिजा मनस तैयार हुआ 



मुस्कान हंसी बस आर पार 

बेवक्त बेवजह भावों का 

हठधर्मी जात बिरादर की 

हमदर्दी अपने मजहब की 

          हर मन में भूत सवार हुआ 



हर सुबह चुनौती दे जाती 

संध्या समझौता सुलह संधि

हर कदम प्रगतिवादी जिनका 

दिल दिमाग मजबूत हुआ 

            खुल्लम खुल्ला दरबार हुआ


      

अच्छा हुआ


अच्छा हुआ!

मैं शहीद नहीं हुआ 

अन्यथा बहुत बड़ा होता 

और किसी चौराहे पर 

पत्थर के साथ गड़ा होता 

मेरे नाम पर कोई बेईमान 

जनता की कालर पकड़े 

           मंच पर खड़ा होता।


एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय का

ख़ून किये पड़ा होता 

एक धर्म दूसरे धर्म की

पूंछ में आग लगाता

और सबको राष्ट्र धर्म की

               महत्ता समझाता।


मैं संसद से पूछता हूं 

कहां है सन् सत्तावन की तलवार 

कहां है सुभाष की हुंकार 

आज जलियांवाले बाग का

कोई एहसास नहीं 

बावनी इमली उसी तरह मौन है 

पूछती है, लोकतन्त्र में जीने वाला कौन है?

जब मैं पूछता हूं लोकतन्त्र को 

हवा पानी देने वाला कौन है?

तो पाता हूं 

इसके नाम पर हर एक मौन है।

    




भारत-भगत

चला जा रहा है, चला जा रहा है 

भगत आज कैसे चला जा रहा है 

घनी रात काली भयंकर निराली 

मुर्दा जिलाने चला जा रहा है 

मिले लोग रस्ते में पूछा, बताया 

बूढ़ी कमर में अकड़ को छिपाये

दौड़ा बेचारा चला जा रहा है 

किस्सा है ये एक डाक्टर थे चड्ढा 

उसी की कोई थी पहले की घटना

मगर भूल पिछली भूलें कई

लपका बेचारा चला जा रहा है 

बचेगा नहीं ये सभी जानते थे

कहते व सुनते यही बात सारी

भगत भावना भर चला जा रहा है 

अमर कर दिया एक ही पात्र में कुल 

असर अपना ले कर चला जा रहा है 

हुआ क्या ये समझो, पढ़ो जा के घर में 

कथानक खतम बस ‍किया जा रहा है 


        प्रेमचंद की यह कथा, 

        घर घर पहुंची आज।

         फिर भी जाने क्यों हुआ,

         चिन्तनहीन समाज।


मना है


मना है 

रात है काली अंधेरा भी घना है 

घर से निकलना, लोग कहते हैं मना है 


गोल बांधे जा रहे हथियार वाले 

खास रिश्तेदार अपने 

हो कोई त्यौहार, ईद होली या दशहरा 

लोग हैं खामोश !

कहते छेड़ना इनका मना है 


मानता हूं मैं कि

जो तुम सोचते अपने हृदय में 

मैं हूं कैदी उम्र भर का 

पर्व है गणतंत्र का जनतंत्र का 

बोलना क्यों कर मना है?


और भी क्या-क्या मना है।





     


दूर कभी अज्ञान होगा


तुम चीखो चिल्लाओ जितना 

सुर से सुर तान मिलाओ जितना

मनचाही ताली पिटवाओ 

चाहे जितना गाल फुलाओ

जनता का कल्याण ना होगा 


तुम भले प्राण प्रतिष्ठा में 

आयोजित सभा समाज करो 

संगठन समिति निर्माण करो 

पर बिना हृदय से हृदय मिले 

यह जीवन धन्य महान ना होगा 


कहने को कह रहे बराबर 

हर काम बिना रिश्वत का होगा 

कृपा दृष्टि यदि नहीं रही और 

खुलती नहीं दया दृष्टि तो 

जन गण मन से दूर कभी अज्ञान होगा


 

मेरी चिट्ठी उनके नाम


मेरी चिट्ठी उनके नाम 

जिनसे दुनिया कुल बदनाम 


जीना मरना एक समान 

खाना पीना जहर सामान

 रिश्ता नाता व्यर्थ तमाम 

शासन सत्ता और सरकार 

शिक्षा संस्कृति कुल बेकार 

सेहत में कुल धरम ईमान 

        ‌ मेरी चिट्ठी उनके नाम 


जिनकी मुट्ठी में भगवान 

पैरोकार स्वयं शैतान 

जिनसे व्यथित स्वयं इंसान 

जिनके पुरखे रहे गुलाम 

दान की दौलत सेंत  का मान

पाये जन्मजात अभिमान 

             मेरी चिट्ठी उनके नाम 


कुचले और दबे मजदूर 

जिनके सपने चकनाचूर 

फैला उन्मादी संताप 

घर-घर बैठ पश्चाताप 

तानाशाही आपै आप 

शाहंशाही कुल चुपचाप 

गहराया कुल गर्व गुमान 

            मेरी चिट्ठी उनके नाम 


सबके आगे कुल परिणाम 

खुला खुला है खासो आम 

छाया घर-घर है अंजाम 

मेरी चिट्ठी उनके नाम 

              जिसे छूटा दुआ सलाम



झोपड़ी क्या शिकायत करे


आजादी के सालों साल हो गए 

जो दरवाजे लेटते थे अंदर हो गए 


आम अमरूद और जामुन वाले देश में 

यूकेलिप्टस और बबूल बो गए 


शुद्ध और ताजा हवाएं 

सहम कर रुक गई है 

कूड़े कचरो के ढेर हो गए


झोपड़ी क्या शिकायत करे

बैंक से रुपए हमारे 

गोल हो गए हैं 


इधर पूरब है इधर पश्चिम है 

बाप दादे से यही रट रहे हैं 

सूरज अपना गोल है 

हम जुगनुओं से जट रहे हैं





     

कुछ गजलें 


है अमावस रात काली फिर


है अमावस रात काली फिर

हो रही हर बात जाली फिर 


ये परेवा दूज तीजा चौथ चंदा

ले गये हैं मार बाजी भाट माली फिर 


ख़ून पर है ख़ून का मौसम रुपहला 

एक उठती शाख उसने काट डाली फिर


वो मसीहा किस तरह मर खप गया 

ले रहा मौसम हमारा हमको गाली फिर 


हो रहा कोहराम कोहरे ओस पाले का

तैश में हैं मेड़ औ चकरोड नाली फिर 


सदियों सदियों का तकाजा बीन शहनाई नगाड़े 

फूटी नहीं मुसकान से अधरों मे लाली फिर

 


डूबा गांव बचाये कौन 


डूबा गांव बचाये कौन 

बोलो शोर मचाये कौन 


जनपद पूरा सहमा सहमा 

भय से मुक्त कराते कौन 


पत्रकार चुप्पी मारे हैं 

कलमकार बन आये कौन 


किसकी हिम्मत जुर्रत किसकी 

भाव विचार जगाये कौन 


वक्त तिकड़मी धोखा देता

रहमो करम सिखाये कौन 


मुल्ला पंडित तथा पुरोहित 

इन्हें भला समझाये कौन 


मोह की मारी भेड़ बकरियां 

शेरे बबर बनाये कौन






पनघटों से मरघटों तक की सदा अच्छी लगी 


पनघटों से मरघटों तक की सदा अच्छी लगी 

गुलमोहर से छांव बरगद की सदा अच्छी लगी 


दिनों दिन यह शोर गुल हंगामा हमें खलता रहा 

जाने अनजाने सयाने की सदा अच्छी लगी 


अब नहीं परवरदिगारी की शकल सूरत में दम 

एक सूरज की ये दमदारी सदा अच्छी लगी 


कोई पहुँचे या न पहुँचे उस दशा तक 

इस जमीं से आसमां की दास्तां अच्छी लगी 


कैदी अब चुपचाप हर संताप सह लो 

बेवजह की बतकही से खामोशी सदा अच्छी लगी



धूप दीवार पर चढ़ती है उतर जाती है 


धूप दीवार पर चढ़ती है उतर जाती है 

प्यास जब हद से गुजरती है तो मर जाती है 


दिन गुजरता है उजालों का तसव्वुर करके 

रात आती है अंधेरों में गुजर जाती है 


कोई मिट्टी के चिरागों को कहां पढ़ता है 

चांद सूरज पर जमाने की नजर जाती है 


एक मोहब्बत है जो ले जाती है मंजिल-मंजिल 

एक जरूरत है जो रस्ते में उतर जाती है 


नेकनामी हो, बदनामी हो या हो जो भी 

रौशनी बनके फिज़ाओं में बिखर जाती है



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. नंदलाल कैदी जी बहुत स्पष्ट एवं बेबाकी के साथ अपनी बातें रखते थे। वह आम जन के सवालों को हमेशा फलक पर ले आते थे। वह सत्ता से सवाल पूछते थे। उनकी रचनाएं जनवादी एवं लोकतांत्रिक मूल्य का समर्थन ही नहीं करती अपितु उनका संरक्षण भी करती है। मोहनलाल यादव

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  2. बहुत ही जरूरी रचनाकार को इतनी तवज्जो से इस ब्लॉग पर प्रकाशित करने के लिए शुक्रिया सर।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही पुनीत कार्य आपके द्वारा किया
    जा रहा है, साहित्य एवं साहित्यकारों
    को आम एवं विशिष्ट लोगों तक पहुंचाने
    के लिए बहुत बहुत आभार।
    -भालचन्द्र

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