अजय तिवारी का आलेख 'परसाई का भारत'
हिन्दी साहित्य में काफी समय तक व्यंग्य को एक उपेक्षित विधा के रूप में ही देखा जाता रहा। हरिशंकर परसाई को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने व्यंग्य को उसका समुचित स्थान प्रदान कराया। परसाई जी के पैने और मारक व्यंग्य भले ही इस समय के तात्कालिक विषयों को ले कर लिखे गए हों, वे आज भी प्रासंगिक नजर आते हैं। उनकी धार आज भी बनी हुई है। किसी भी रचना की यह सफलता होती है कि वह परवर्ती समय में भी अपनी प्रासंगिकता बनाए और बचाए रखे। हालांकि परसाई जी रचना की अमरता में विश्वास नहीं करते थे। उनका मानना था कि जिन विडंबनाओं को वे अपने व्यंग्य का विषय बना रहे हैं वे अगर सुलझ जाएं तो रचना अप्रासंगिक हो जाती है। कोई भी बेहतर रचनाकार यही चाहता है लेकिन हम भारतीय विडंबनाओं को ही अपना जीवन बना लेते हैं। तभी तो कबीर आज सात सौ वर्षों के बाद भी अपनी रचनाओं में जिन्दा हैं। परसाई जी का यह शताब्दी वर्ष हैं। इस क्रम में पहली बार पर हम कई आलेख पहले भी प्रस्तुत कर चुके हैं। आगे भी इस क्रम में कुछ और आलेख प्रस्तुत किए जाएंगे। इसी शृंखला में आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चर्चित आलोचक अजय तिवारी का आलेख 'परसाई का भारत'।
'परसाई का भारत'
अजय तिवारी
स्वाधीनता के बाद की आधी शताब्दी के भारत का इतिहास अगर जनता की नज़र से देखना है तो हिन्दी के दो रचनाकार सबसे अधिक मददगार सिद्ध होते हैं। कवि नागार्जुन और गद्यकार हरिशंकर परसाई। नागार्जुन पहले से लिख रहे थे लेकिन उनकी कविता में व्यंग्य का आविर्भाव 1947 के बाद हुआ। परसाई जी ने 1947 के बाद लिखना शुरू किया। इसलिए दोनों के लेखन में जीवन का परिदृश्य बहुत कुछ एक समान है। यह ध्यान देने की बात है कि परसाई ने निबंध लिखे या कहानियाँ लिखीं पर उनमें व्यंग्य की धार अत्यंत तीक्ष्ण थी। इतनी कि परसाई को हिन्दी में एक विधा के रूप में व्यंग्य को स्थान दिलाने का श्रेय दिया जाता है। नागार्जुन ने भी अपनी कविता में 1947 के बाद जो महत्वपूर्ण परिवर्तन किया वह व्यंग्य का अधिकाधिक उपयोग था। इस व्यंग्य के स्वरुप में ही उस दृष्टि का समावेश हुआ है जिसने इन दोनों की प्रति क्रियाओं को जनता की प्रतिक्रिया का रूप दिया। यह बहुत जिरह करने की बात नहीं है कि आज़ादी के सपनों और आजाद भारत के यथार्थ में जो अंतर्विरोध था, व्यंग्य उसी का सहज परिणाम है। दूसरे शब्दों में, जब भी अपेक्षित मूल्य और उपलब्ध वास्तविकता में विरोध प्रकट होता है, तब रचनात्मक अभिव्यक्ति का सबल माध्यम व्यंग्य ही बनता है। अपेक्षित मूल्य और उपलब्ध वास्तविकता के अंतराल को विडम्बना कहते हैं। जो आवश्यक है वह न हो, जो अनावश्यक है वह घटित हो, इस विडम्बना को व्यंग्य के माध्यम से ही सशक्त रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
स्वतंत्र भारत की विडम्बनाओं को नागार्जुन और परसाई ने जिस तरह पकड़ा, उसने अभिव्यक्ति के माध्यम को न सिर्फ विकसित किया बल्कि उसे नए आयाम प्रदान किये। संयोग की बात नहीं है कि अपने युवतर सहयोगी की मारक व्यंग्य क्षमता को लक्ष्य करके नागार्जुन ने लिखा था:
छूटने लगे अविरल गति से
जब परसाई के व्यंग्य-वाण
सरपट भागे तब धर्मध्वजी
दुष्टों के कम्पित हुए हुए प्राण
...क्या और किसी ने मारे हैं
जनयुग के दुश्मन गिन-गिन के!
परसाई ने जनयुग के दुश्मनों को अपने शब्दों के वाण से मारा था लेकिन इन दुश्मनों ने परसाई पर लाठियों से हमला किया था। यह जनयुग के पक्षधर लेखक और जनयुग के शत्रु स्वार्थों के बीच जीवन-मरण का संघर्ष था। सच्चा लेखन इस संघर्ष से उदासीन नहीं रहता। नागार्जुन आज़ादी के पहले किसान आन्दोलन में जेल गए, आज़ादी के बाद आपातकाल में जेल गए; परसाई पर हिन्दुत्ववादी फासिस्ट शक्तियों ने हमला किया। शब्द का जवाब लाठियों से—एक लेखक और एक फासिस्ट में यह अंतर है। गनीमत है कि परसाई पर केवल हमला हुआ, दाभोलकर और पानसारे की तो हत्या कर दी गयी। क्या परसाई पर हमले को इन हत्याओं का पूर्वाभास कहा जा सकता है?
दाभोलकर और पानसरे ने तो किसी राजनीतिक या ‘सांस्कृतिक’ संगठन की सीधे आलोचना नहीं की थी, केवल विवेकवादी चिन्ताधारा का प्रसार कर रहे थे; परसाई ने विवेकवाद के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर की आलोचना की थी। ‘जनयुग’ (कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र) में परसाई ‘आदम’ नाम से ‘ये माजरा क्या है’ स्तम्भ लिखते थे। एक अंक में गोलवलकर की अध्यात्मवादी विचारधारा और अर्थवादी व्यवहार के फासले पर व्यंग्य किया। इसका उत्तर जबपुर के संघ कार्यकर्ताओं ने घर में घुस कर परसाई पर हमले के रूप में दिया। जवाब मेंपरसाई ने फिर लिखा कि 'आदम पिट गया विचारों के कारण।’
रचनात्मक विचार और दमनकारी राजनीति का यह संघर्ष आज अधिक कठिन दौर में पहुँच गया है। ऐसे में परसाई की प्रासंगिकता बहुत बढ़ गयी है।
व्यंग्य लेखक स्थायी भावों और अमर विषयों पर नहीं लिख सकता। वह अपने समय के जीवन के विषय में लिखता है। वह कालातीत विषय, चरित्र, समस्या नहीं उठाता. वह जिन विडम्बनाओं को लक्ष्य करता है वे लोगों के वर्तमान जीवन को तात्कालिक रूप में प्रभावित करने वाले होते हैं। परसाई कहते थे कि मैं अमर साहित्य नहीं लिखना चाहता, मैं चाहता हूँ कि आज लिखूँ और कल मर जाय, क्योंकि जिन समस्याओं पर लिखता हूँ उनसे मनुष्य को छुटकारा दिलाना चाहता हूँ। भारतीय रीतिवादी और पाश्चात्य ‘क्लासिक’ साहित्य से अनुकूलित हिन्दी की पत्रिकाओं में व्यंग्य को स्थान नहीं मिलता था। परसाई जी कहते थे कि द्विज पत्रिकाओं में शूद्र व्यंग्य को पाँत में नहीं बिठाया जाता था। इन पत्रिकाओं में व्यंग्य को सम्मानजनक स्थान दिलाने में परसाई का संघर्ष सबसे मूल्यवान है। हालाँकि अमर विषयों पर भी उनके सांस्कृतिक वातावरण की छाप होती है, केशव दास, अज्ञेय, अशोक वाजपेयी का साहित्य अभिजात वातावरण की देन है, इस वातावरण के बदलने पर उस साहित्य का मूल्य भी ख़त्म या कम हो जाता है; फिर भी, तात्कालिक लगने वाले, शास्त्रीय सीमाओं से स्वतंत्र चलने वाले विषयों पर लिखा गया साहित्य ही कालजयी होता है। कबीर, तुलसी, मीराँ, प्रसाद, निराला, प्रेमचंद के उदाहरण से स्पष्ट है। परसाई कबीर-निराला-प्रेमचंद की परंपरा के लेखक हैं। इस साहित्य में अपने समय का इतिहास व्यंजित होता है।
एक तरफ ‘स्थायी भाव’ और विषय, दूसरी तरफ ‘तुरंत मरने’ वाले भाव और विषय—परसाई के संघर्ष का महत्वपूर्ण पक्ष है। रीतिवाद का विकल्प, एक नया साहित्यशास्त्र विकसित करने में योगदान। रीतिवाद के लिए अगर सामंती भोगवाद और प्रजा का उत्पीडन उपेक्षणीय था तो इस नए साहित्यशास्त्र के लिए विषम, अन्याय, पाखडं गंभीर चिन्ता का विषय थे।आधुनिक चेतना के साथ जिस परिस्थिति -सजगता का विकास हुआ था, उसे अपने व्यंग्य के माध्यम से परसाई ने रचनात्मक रूप से स्थापित किया।
परसाई की विशेषता यह है कि समाज में व्याप्त विषमता से उनका जीवन बोध बना है और स्थितियों की अन्तस्सम्बद्धता से उनका इतिहास बोध बना है। इसलिए तात्कालिक होते हुए भी उनकी रचनाओं की व्याप्ति देर तक और दूर तक बनी रहती है। उन्हें अपनी रचना की लोकप्रियता के लिए शब्द-कौतुक की ज़रूरत नहीं पड़ती। उनके व्यंग्य गंभीर, गहरे और बेधक हैं। यह बात भी रेखांकित करने की है कि जीवन की वास्तविकता, विडम्बना और विषमता पर लिखने वाला लेखक ‘निरपेक्ष’ और निष्पक्ष नहीं रह सकता। वह जिन बातों पर व्यंग्य करता है उन्हें बदलना चाहता है। उसकी सहानुभूति और घृणा स्पष्ट रहती है। इसलिए वह परिवर्तनकारी, सकर्मक और उदात्त भावभूमि से अनुप्राणित होता है। वह एक नयी मानवीय परिस्थिति के निर्माण के लिए सचेष्ट होता है। इसलिए व्यंग्य का मूल भाव ‘हास्य’ नहीं करुणा है। ‘निरपेक्ष’ रहने वाली भावना को नागार्जुन की तरह परसाई भी नापसंद करते हैं।
जब हम परसाई के व्यंग्य निबंधों और कहानियों की मारक शक्ति पर ध्यान देते हैं तब यह भी याद करना उचित होगा कि व्यंग्य तब जन्म लेता है जब विडंबना का बोलबाला हो। यानी, जो होना चाहिए वह न हो और जो नहीं होना चाहिए वह हावी हो। इस परिस्थिति से क्षोभ और असंतोष पैदा होता है। कहना चाहिए कि व्यंग्य का प्राण करुणा है और व्यंग्य की प्रेरणा असंतोष। ज स मनुष्य में विडम्बनाओं-विषमताओं के प्रति असंतोष नहीं है वह अच्छा सामजिक भी नहीं है। परसाई ऐसे मनुष्यों को बार-बार व्यंग्य का लक्ष्य बनाते हैं। ‘वह क्या था’ निबंध में उस आदमी के लिए वे कहते हैं जो ‘कोई प्रतिरोध करता ही नहीं था’, कि ऐसा ‘संतोष’ से रहने वाला आदमी ‘केंचुआ’ था! (रचनावली, खंड-१, पृ. 30) यह व्यक्ति ‘ठंडा शरीफ आदमी’ में फिर प्रकट होता है जिसे ‘आसपास क्या हो रहा है, इससे कोई सरोकार नहीं.’ (उप. 1/125) ऐसे चरित्रों पर उनकी सर्वाधिक चर्चित और अविस्मरणीय रचना है ‘एक तृप्त आदमी की कथा’. (1/402) हालाँकि ‘शरीफ’ आदमी छिपकली की तरह घात लगाकर स्वार्थ सिद्ध करता है और ‘तृप्त’ आदमी जीवन में कुछ प्राप्त नहीं करता। लेकिन दोनों को समाज की असंगति, अनीति और अन्याय से मतलब नहीं है।
यह उल्लेखनीय है कि परसाई के लिए व्यंग्य केवल असंगतियों के उद्घाटन का माध्यम नही है. उसमें निहित करुना उनके निबंधों और कहानियों में अभिव्यक्त होती है। यही दूसरे व्यंग्यकारों से परसाई का अंतर है। एक रामदास रघुवीर सहाय के यहाँ है जिसकी पूर्व-निर्धारित हत्या होती है। एक रामदास परसाई के यहाँ भी है जिसका कारुणिक जीवन-प्रसंग पाठक को व्यथित कर देता है। यह रामदास गरीब है, ईमानदार है; इतने साधन नहीं हैं कि बाल-बच्चों को साथ रख सके। परिवार कानपुर में रहता है. वह कुछ पैसे घर भेजता है लेकिन इतना अपर्याप्त कि बड़ा बेटा इलाज के बिना मर जाता है। फिर भी वह घर नहींजा पाता। कहानी का अंत अत्यंत भावपूर्ण है। वह सोचेगा कि एक ‘अच्छा-सा’ मकान पा सके सके लेकिन पायेगा नहीं; कानपुर से चिट्ठियाँ आयेंगी कि ‘अब दूसरा लड़का नहीं रहा, अब लड़की भी नहीं रही, और अब स्त्री भी नहीं रही।’ (1/40) यहाँ तक आते-आते कहानी पाठक को हिला कर रख देती है।
इस मर्मव्यथा को जानने वाला ही विषमता पर प्रहार करता है. जैसे रामदास रघुवीर सहाय के यहाँ एक प्रतिनिधि, एक प्रवृत्ति है, उसी तरह परसाई के यहाँ भी। उनकी कहानियों में प्रवृत्तियों का सन्निवेश है। इसलिए निबंधों से कम उनकी कहानियाँ लोकप्रिय नहीं हैं। रामदास में करुणा प्रत्यक्ष है। इसकी रचनाशैली अपेक्षाकृत कम चुनौतीपूर्ण है। जहाँ व्यंग्य प्रत्यक्ष होता है, करुणा अन्तर्निहित, वहाँ बहुत कुशल कलाकार अपेक्षित होता है। परसाई ऐसी रचनाओं में कमाल करते हैं। इसीलिए उनसे लिए गए साक्षात्कारों में अक्सर यह बात उठती थी कि व्यंग्य का हास्य से क्या रिश्ता है। परसाई की रचनाएँ दिखाती हैं कि करुणा और कटाक्ष का, हास्य और मार्मिकता का सम्बन्ध सामाजिक जीवन के विषय में लेखक के विवेक से है।
परसाई के चरित्र इतने विश्वसनीय होते हैं कि वे चाहे सामान्य जीवन के हों, पौर्निक सन्दर्भों के हों या विशिष्ट समाज के हों, उन विद्रूप पाठक को कहीं कार्टून नहीं लगता। वे वास्तव में विद्रूप हैं जिन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त है। इस तरह परसाई अपने चरित्रों के माध्यम से जीवन के सहज बोध को प्रतिष्ठित करते हैं। मसलन, ‘लिटरेचर ने मारा तुम्हें’ का एक वाक्य है, ‘साहित्य में भी मोनोपली है। मोनोपली छोटे को नहीं पनपने देती।’ (3/25) यह प्रवृत्ति देव-कथाओं से चली आयी है। विष्णु ने नारद को बन्दर का चेहरा दे कर खुद वरमाला डलवा ली! पूछने पर कहा, ‘नारद, वह तुम्हारा मोह था।’ परसाई कहते हैं, ‘और हुज़ूर आपका?’ जो बात नारद के लिए सच है वह विष्णुके लिए क्यों नहीं है—इस सहज प्रश्न से टकराते ही दोहरापन या पाखंड उजागर हो जाता है। अध्यात्म के क्षेत्र से समाज के क्षेत्र तक एक नियम लागू होता है। लोग सलाह देते है, ‘कलाकार तो त्यागी होता है। वह धन के लोभ में नहीं पड़ता।’ परसाई पूछते हैं, ‘और हुज़ूर आप? आप पड़ सकते हैं? धन का लोभ बुरा है तो आप भी उसमें क्यों पड़ते हैं?’ (3/27)
सच्ची नैतिकता के मानदंड अलग-अलग नहीं हो सकते—यह विवेक परसाई की रचनाएँ जगाती हैं. इसलिए व्यंग्य केवल प्रहार नहीं करता, सुधार भी करता है। अंतर्वृत्तियों का परिष्कार ही साहित्य का प्रमुख कार्य है और परसाई के व्यंग्य यह कार्य किसी प्रकार की रचना से अधिक करते हैं। विष्णु अध्यात्मिक सत्ता हैं, उनका उपयोग एक विशेष प्रकार के जीवन मूल्य की स्थापना के लिए किया जाता है। परसाई उसे विखंडित करते हैं। जो नियम विष्णु पर लागू करते हैं, वही नियम कलाकार पर लागू करते हैं। अध्यात्म की तरह राजनीति सामाजिक सत्ता है। परसाई ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ में कहते हैं, ‘श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया है। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है. जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपडे खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं।’
आप विश्वास कीजिए कि यह अंश आज नहीं लिखा गया है! लेकिन जितना आज लागू होता है, उतना शायद पहले कभी नहीं हुआ होगा।
साधारण जन से अभिजात वर्ग तक, बौद्धिक समूह से दैवी सत्ता तक दृष्टि की यह जो व्याप्ति है, वह परसाई के जीवन-अनुभव और व्यापक अध्ययन का नतीजा है। यह उल्लेखनीय है कि अपने समय में परसाई का अध्ययन इतना विशाल था जिसकी तुलना रामविलास शर्मा के अलावा किसी से नहीं हो सकती। उन्हें भारतीय वांग्मय, संस्कृत साहित्य, अंग्रेजी, रुसी, स्पैनिश साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि विद्याओं का विशद ज्ञान था। वे ‘देशबंधु’ अख़बार में जो स्तम्भ लिखते थे, उसकी संक्षिप्त टिप्पणियों का अलग से विश्लेषण होना चाहिए जिसमें वे न सिर्फ पाठकों की जिज्ञासा शांत करते थे बल्कि दुनिया के किसी भी विषय पर सारगर्भित विचार प्रकट करते थे।
अपने विशद अध्ययन और जनसाधारण से सहानुभूति के नाते वे यह देख पाते थे कि उनके सामने तत्काल ‘मरने योग्य’ कौन-सी प्रवृत्तियाँ हैं जिनकी आलोचना होनी चाहिए। दुखद यह है कि आज़ादी के अमृत वर्ष में उनकी बातें गंभीर चेतावनी की तरह विद्यमान हैं। साधारण लोगों की चेतना पर सबसे अधिक प्रभाव धर्म-अध्यात्म और राजनीति का रहता है। इन दोनों का संश्लिष्ट चित्र परसाई के यहाँ बार-बार आता है। वे मानों हमारे सामने उपस्थित एक दशक का चित्रण कर रहे हों कि लंका विजय के बाद वानरों के उत्पात से त्रस्त हो कर भरत राम से कहते हैं, ‘भैया, आपके इन वानरों ने बड़ा उत्पात मचा रखा है। राज्य के नागरिक इन दिन-दूने उपद्रवों से तंग आ गए हैं। ये वानर लंका-विजय के बाद से उत्पन्न हो गए हैं।’ (1/355) क्या इन संकेतों के वर्तमान निहितार्थ किसी को बताने की ज़रुरत है?
इन प्रतीकों की राजनीति एक विशेष संगठन के लिए सत्ता का साधन है। गोरक्षा से गीता आन्दोलन तक अनगिनत उपायों से ये लोग ‘क्रांति की ओर बढ़ती हुई जनता को गाय के (धर्म के खूंटे से बाँध देते हैं।’ इन हुल्लड़बाज़ी के तरीकों को ये लोकप्रियता का साधन समझते हैं। वे जनता को समझाते हैं कि ‘महँगाई तो विकासशील अर्थव्यवस्था का लक्षण है।’ अगर आन्दोलन के कारण महँगाई रुक गयी तो गोलवलकर के अनुसार, ‘आर्थिक वि कास रुक गया।’ (3/391) संयोग नहीं है कि ये हुल्लड़बाज़ अपने को ‘बजरंग’ दल कहते हैं। परसाई इनके पाखंड और उद्देश्यों के प्रति आवश्यक निर्ममता रखते हैं। एक स्थान पर इनकी हरकतों के आधार पर वे कहते हैं कि बन्दर से आदमी बनने की ‘मिसिंग लिंक’ ऐसे ही लोगों में मिलती है। (5/26) इस हुल्लड़ से जनता परेशान होती है लेकिन ये उसे हितकारी समझते हैं। गोलवलकर के उत्तराधिकारी देवरस के लिए परसाई ने लिखा ही कि उनके अनुसार लोकप्रियता का अर्थ लोक-आतंक होता है। (5/381)
परसाई यह सब संघ द्वारा उन पर आक्रमण के बाद भी निर्भीक हो कर लिख रहे थे। उनकी आलोचना नकारात्मक और सीमित राजनीति क आशय नहीं रही रखती थी। वे केवल एक धर्मोन्माद की आलोचना नहीं करते थे। जहाँ भी उन प्रवृत्तियों को देखते थे, उस पर प्रहार करते थे। ‘इस्लाम के कोड़े’ निबंध में उन्होंने पूरा सैद्धांतिक आधार देते हुए लिखा कि ‘धार्मिक उन्माद पैदा करना, अंधविश्वास फैलाना, लोगों को अज्ञानी और क्रूर बनाना राजसत्ता, धर्मसत्ता और पुरुषसत्ता का पुराना हथकंडा है। हिन्दू पीछे नहीं हैं मुसलमानों से। बालासाहब देवरस खुश होंगे कि हमारे कौटिल्य ने स्पष्ट आदेश दिया है कि राजा को प्रजा में अज्ञान और अंधविश्वास का प्रचार करना चाहिए। यह राजा का कर्तव्य है, निष्कंटक राज करनेके लिए। जिया और खोमैनी हमारे कौटिल्य का आदेश ही मान रहे हैं। देखा हिन्दूधर्म और संस्कृति का जोर।’ (4/152-53) संयोग देखी, नागार्जुन भी देवरस पर कटाक्ष करते हैं—‘देवरस दानव रस/ पी लेगा मानव रस।’ यही कारण है कि इस्लामी राज्य हो या हिन्दू राज्य, दोनों की नीति एक है। उन्माद, शोषण, निरंकुशता और जहालत।
परसाई राजनीति पर बात करते हैं लेकिन एक साहित्यकार की तरह। उन्हें भलीभाँति पता है कि हर देश की सरकार ‘स्थितिवादी’ होती है; हर देश का साहित्यकार ‘वर्तमान से आगे बढ़ कर अधिक उन्नत भविष्य के दर्शन करता है।’ (6/166) जिस अनुपात में सरकारें स्थितिवादी होती हैं, उसी अनुपात में साहित्य से उनका टकराव होता है। इसका यह अर्थ नहीं कि राजनीतिज्ञ पतित होते हैं और साहित्यकार आदर्श। कमजोरियाँ रचनात्मक प्रतिभाओं में भी होती हैं। परसाई उनके बारे में सचेत हैं। लेकिन उनकी उपलब्धियों के सामने कमजोरियाँ छोटी हैं जबकि राजनीतिज्ञों की कमजोरियों से समाज और देश का बहुत अधिक अहित होता है। परसाई की कसौटी है विवेक: ‘कमजोरियाँ सबमें होती हैं। पर उन कमजोरियों की चर्चा कब करना और कैसे करना, यह विवेक की माँग करता है।’ तोल्स्तोय, बायरन, वाल्तेयर, रूसो, आस्कर वाइल्ड, फोंर्स्टर, चेखव और एनी बेसेंट की कमजोरियों का उल्लेख करने के बाद वे कहते हैं, ‘मगर रचनात्मक प्रतिभा का आंतरिक संघर्ष कुछ ऐसा होता है कि उसे समझना आसान नहीं होता है। लेखक थोडा-बहुत ‘एबनॉर्मल’ भी हो जाता है। इस कारण कि उसके जीवन-मूल्य चालू जीवन-मूल्यों से मेल नहीं खाते।’ (3/24)
चटखारे लेने वाली प्रवृत्ति के विपरीत यह कितनी गंभीर व्याख्या है! इस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए जिन उदाहरणों का परसाई ने जिक्र किया है उनका कितना गंभीर विश्लेषण किया होगा, यह सोचना चाहिए। दूसरे ‘व्यंग्यकारों’ से परसाई का यही अंतर है। खुद परसाई जिस संसार में हैं, उसके मूल्यों से उनके मूल्यों का टकराव बहुत तीव्र है। टकराव इसलिए है कि यथास्थिति की रक्षा करने वाले मूल्य और जनता के हित में उसे बदलने वाले मूल्य आपस में संगत नहीं हो सकते। आजाद भारत में परसाई ने जिस भविष्य का स्वप्न देखा था, वह निरंतर दूर होता गया और आडम्बर, पाखंड अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जाता रहा। पिछले साठ-सत्तर वर्षों में परसाई ने जो कुछ देखा, जिस पर टिप्पणी की, वह उनके निधन के बाद और विकराल एवं विकृत रूप में उभरता गया है। इन स्थितियों को परसाई जिस सादगी से अभिव्यक्त करते हैं, वह अधिक मारक व्यंग्य का रूप ले लेता है। कुछ उदाहरण काफी हैं। लगता है आज के राजनीतिक हालात को देख कर परसाई ने लोकतंत्र और गुप्तचर वि भाग के विषय मेंकहा है: ‘आप तो जानते ही हैं कि प्रजातंत्र में गुप्तचर विभाग राजनैतिक विरोधियों के पीछे पड़े रहने का ही काम करता है। अपराधों का पता लगाना तो एक बहाना है।’ (2/70)
नैतिकता पूंजीवादी लोकतन्त्र के लिए मुखौटा भर है। गुप्तचर विभाग की तरह ब्लैकमेलिंग भी विरोधियों को धमकाने का माध्यम है: ‘(रानी नागफनी की कहानी का मुख्य अमात्य)—‘किसी को मारना हिंसा है, पर मारने की धमकी देना अहिंसा है। जब वह (भैया सा’ब) गड़बड़ करेगा, मैं उसे धमकी दे दूंगा ...वह हमेशा मेरे चंगुल में रहेगा।’ सब सदस्य चंगुल में रहें तो संसदीय प्रजातंत्र का मज़ा आता है! (2/80)
घटित यथार्थ और प्रदर्शित यथार्थ के अंतराल में सत्ता का पाखण्ड और समाज की विडम्बना मौजूद होती है। कहा गया है कि सामाजिक सत्ता और देवी सत्ता दोनों के मानसिक आतंक से परसाई जनसाधारण को मुक्त करने के लिए लिखते ही। व्यंग्य इसका कारगर साधन है।सामाजिक सत्ता का पाखंड: ‘यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन (गणतंत्र दिवस पर) झाँकी सजाए लघु-उद्योगों की.’ (3/77)
अध्यात्मिक सत्ता का पाखंड : वेद में सोमरस पर 60-65 मन्त्र हैं; उसे ईश्वर और पिता तक कहा गया है; ‘यहाँ तक कहा गया है, अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में ले कर मसल सकता हूँ। ऋषि को ज्यादा चढ़ गयी होगी.’ (3/73)
देवी-देवताओ और अध्यात्मिक तर्कों का सहारा सबसे अधिक पण्डे-पुजारी, कालाबाज़रिये और घूसखोर-दलाल इत्यादि लेते हैं। परसाई के साहित्य में इन सबके प्रतिरूप जिस तरह आते हैं वह आजाद भारत के विकास का विद्रूप उपस्थित करता है और पाठक को सचेत भी करता है निर्धन लोगों को समझाया बजता है कि ‘अन्न ब्रह्म’ नहीं, ‘आनंद ब्रह्म’ है। परसाई लोकानुभव को सामने रख कर दर्शन की व्यवहारिक व्याख्या करते हैं। भरे पेट और खाली पेट का ब्रह्म एक नहीं है, एको ब्रह्म बहुस्याम! ‘ब्रह्म एक ही है पर वह कई हो जाता है। एक ब्रह्म ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दूकान की लाइन में खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है।’ सब एक जैसे नहीं हैं, एक-दूसरे के सहयोगी भी नहीं हैं; ब्रह्म ठगता है, ठगा भी जाता है—‘शक्कर में पानी डालकर जो उसे बेचता है, वह भी ब्रह्म है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रह्म है। ब्रह्म ब्रह्म को धोखा देरहा है।’ (3/248-250)
यह सब एक विशेष आर्थिक दिशा में देश को ले जाने की परियोजना का अंग है। यह है निजीकरण। परसाई उसे लक्षित करते हैं। कितने पहले वे कह चुके हैं कि ‘सरकार के विभिन्न मंत्रालय नीलाम हो जाने चाहिए। ...जो उद्योगपति उद्योग विभाग खरीद लेगा, उसी के उद्योग चलेंगे। दूसरे उद्योगपतियों से वह खुद महसूल ले कर उन्हें कारखाने खोलने देगा।’ (5/68)
इस प्रकार, परसाई आजाद भारत की दिशा का, उसकी दुर्गति और परिणति का जो भय आधी शताब्दी पहले देख चुके थे, वह आज फलित हो रही है। विडम्बना यह है कि इस उद्देश्य को साफ-साफ जनता के आगे नहीं रखा जा सकता. उसे संस्कृति, राष्ट्रवाद और सच्चे इतिहास के नाम पर प्रचारित कि या जाता है। इसी को ‘पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद’ कहा जाता है। ‘मेरे नगपति, मेरे विशाल’ वाले दिनकर जब ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ के पुनरुत्थान से हो कर ‘उर्वशी’ के कामाध्यात्म’ पर पहुँचे, तब उनके इस परावर्तन पर परसाई ने लिखा, ‘भावना पर टिका हुआ पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद बड़ा मोहक लगता है, पर वह आगे चल कर फासिज्म हो जाता है। चीनी हमले के बाद बहुत-से स्तम्भ चरमरा उठे। कुछ को परशुराम याद आये, कुछ को शिवाजी और कुछ को सुदर्शन चक्रधारी।’ (3/378-79)
इन नायकों की अवज्ञा किये बिना परसाई ने उनके सामन्ती चरित्र को सामने रखा और यह स्पष्ट कर दिया कि वे आज के आदर्श नहीं हो सकते, ‘जनता के लिए अनाज या शक्कर की ज़िम्मेदारी न महाराज शिवाजी ने ली, न राणा प्रताप ने और न छत्रसाल ने।’ (3/391)
वास्तविकता के प्रति जनता को सजग करना मीडिया का काम है. लेकिन अगर वह सत्ता का मुखापेक्षी बन जाय तो? परसाई के समय अख़बार प्रमुख साधन थे, टेलिविज़न नहीं था। उन्होंने ‘अरस्तूकी चिट्ठी’ में कहा, ‘प्रजातंत्र में अखबारनवीस अभिभूत हुआ कि प्रजातंत्र गया।’ (6/28) क्या ऐसा ‘अभिभूत’ संचार माध्यम ही गोदी मीडिया नहीं कहलाता? परसाई उसी समय देख रहे थे कि अधिकांश मीडिया ‘सरकारी पार्टी’ और सेठ साहूकारों’ के हैं; अब इसमें माफिया जुड़ गए हैं; ‘यह संकेत है प्रजातंत्र की असफलता का।’ समस्या यह है कि जिन्हें जनता में परिवर्तन की चेतना लानी चाहिए, वे ‘क्रांतिकारी’ खुद जड़ता के शिकार होते गए हैं। परसाई वामपंथी बुद्धिजीवी थे लेकिन वामपंथ की कमजोरियों को अनदेखा नहीं करते थे। अरस्तू को स्वर्ग में मार्क्स मिलते हैं। वे बताते हैं, मार्क्स से मेरी मुलाक़ात अक्सर हो जाती है. इतना क्रन्तिकारी विचारक विरले ही मिलेगा, आयुष्मान! पर कुछ लोग मार्क्सवाद जैसे क्रन्तिकारी दर्शन को ‘डाग्मेटिक बना देते हैं।’ परसाई जानते हैं कि ‘दकियानूसी मार्क्सवाद उतना ही खतरनाक है, जितना बुर्जुआ।’ (6/29-31)
परसाई अपने देखे हुए और बदलते हुए भारत की सबसे मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। उसकी मार्मिकता इस बात में है कि समाज के प्रस्तावित लक्ष्य और प्रचलित आचरण के बीच गहरी खाई सामंती और औपनिवेशिक युग की तरह बनी रही है। इसकी परिधि में जीवन और संस्कृति के सभी पहलूचले आये हैं। इसलिए परसाई के साहित्य में मानव चरित्रों, जीवन स्थितियों ऐतिहासिक परंपरा के प्रायः सभी पक्ष आपस में जुड़े हुए चले आते हैं। जीवन प्रसंगों, वास्तविक परिस्थितियों और मानव मनोविकारों के जितने संभव रूप हैं, वे सब परसाई के निबंधों और कहानियों में मौजूद हैं। सच तो यह है कि उनकी कहानियों और निबंधों का विशेष अध्ययन होना चाहिए, इन स्थितियों, मानव चरित्रों और भावात्मक आवेगों की तरह उनके साहित्य में कलात्मक साधनों का भी आश्चर्यजनक वैविध्य है, जिस पर चर्चा की ज़रुरत है। लेकिन परसाई ने अपने जीवन काल में जिन सच्चाइयों का वर्णन किया, वे उनकी जन्मशताब्दी के समय उतनी ही सजीव हो कर खड़ी हैं। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिन समस्याओं के तुरंत मरने की उम्मीद में वे मर्त्य साहित्य का सिद्धांत ले कर लिख रहे थे, वे सभी समस्याएँ पहले से भी विकराल रूप में उपस्थित हैं। यह हमारे समय का कर्तव्य है कि समाज को संवेदनशील और स्पन्दनशील लोकतंत्र की दिशा में ले चलने की जागरूकता उत्पन्न करें। यही परसाई का सच्चा स्मरण और श्रद्धांजलि है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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अच्छे रूप में प्रस्तुत किया है। सुरुचिपूर्ण चित्र लगाए हैं।
जवाब देंहटाएंVery Nice Post....
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog for new post....