शैलजा की डायरी
शैलजा को मैंने उनकी कविताओं के जरिये जाना. तभी शैलजा में एक बेहतर रचनाकार की एक संभावना दिखी थी. इधर फेसबुक पर उनकी डायरी के पन्ने मैं लगातार देखता रहा हूँ. जैसे इन पन्नों में भी एक नयी कविता रच रही हों वे. इन पन्नों में अतीत नास्टेल्जिक हो कर नहीं बल्कि रचनात्मक और सकारात्मक बन कर जैसे रेखा चित्रों के रूप में उभर पड़ा है जिसमें अपनी कल्पनात्मक और काव्यात्मक उड़ान से शैलजा ने टटकार रंग भर दिया है. तो आईए पढ़ते हैं शैलजा की डायरी के कुछ पन्ने.
एक लेखक का एकांत
शैलजा पाठक
१
हरे हुए खेत ..पिली हुई सरसों सा ..महकता बहकता सा प्यार
..गाँव की रेशमी पगडण्डी ..आम के बगीचे में निर्भीक तुम्हारा हाथ थामे
..छोटे से गाँव की सीमाओं को बार बार छूते..हमारी मुस्कराहटे कितनी खरी
थी ना ..जीने के लिए एक नौकरी ..घर तो बस बन ही जाना
था ...हमने बरसो अपने आप को छला ...
हमने अपनी नादानी में बड़ी बातें सोची ..घर वालो ने समझदारी से हमारी नादानी को ख़ारिज कर दिया ..छोटे सपने थे बस गिरे टूटे
बिखर गए ..मुस्कराता रहता है सरसों का खेत बेअसर
...गाँव की अंतिम छोर तक डूबते सूरज को भगा आता हूँ ...
मन की उन् हरी भरी पहाड़ियों पर भूरी पड गई है घास ..कूकती कोयल
हूक सी जगा जाती है ..साथ की यादों से लिपा-पुता है घर का आँगन ..मुंडेर की
गौरैय्या रुला जाती है ...तेरी लम्बी पतली अंगुली कपूर सी महकते हाथों
ने अभी अभी मेरी आखों पर पर्दा किया ....पता है तू है.
२
मन की स्लेट पर जो चाहे लिखो मिटा दो ..फिर
दूसरा लिखो ...चाहो तो बार बार एक ही बात ..एक बार ऐसा भी
होगा जब तुम कुछ नही लिखते ..काले स्लेट पर फिर भी कुछ बाते उभरेंगी ..मन
की आँखें सफ़ेद पन्नो की इबारते भी पढ़ लेती हैं .
हम ठहरे होते हैं कई बार ..रात होती है तो कहते
है..अरे रात हो गई ..क्यों कि हम शाम के साथ इतना थे
की रात का इन्तजार ही नही किया ..समय के साथ रहो न
रहो समय आपके हाथ कुछ नई तारीखे थमा कर आगे चला जाता है ..देखो दिन बदल गया ...
अतीत की तिजोरी में मेरा बचपन है ..मेरी फ्रोक पर बना मोर ..गुमसुम
बीमार सा है ..तह लगे कपड़ों में मुदा तुड़ा ..ऐसे कपड़ों को कभी न कभी झटक लेना चाहिए ...कपड़ों की तह खुलते ही मोर के
पंख खुलेंगे ..अतीत नाच उठेगा ..
.समय हो तो खाली को पढो ...मौन सुनो ..यादों की पुरानी गलियों में घूम आओ ...बड़ी उर्जा है वहां ..राख
में चिंगारी ...घुप्प अँधेरे में जुगनू जैसे ..टिमटिम
यादें ...काली स्लेट पर देखो ..लिखा दिखा न बहुत कुछ
.....
३
वो नीले आसमान सा मुझे ढँक लेता मैं रेशा रेशा बादल बन जाती ..मुस्कराहट सा
मनभावन कुछ नही होता ..
उसके होठों पर ज़माने भर के गम होते ..सूखे सफ़ेद ...मैं चुन
लेती कतर कतरा ..जब भी मिलने आता ..गहरे कुवें के
पानी सूख जाते ..बेसाख्ता प्यास बेकल करती है ..तेरी आखें
नमकीन है ...वो तृप्त हो बोलता ...उलझा मत कर ..डोरी है क्या ..मैं खिच जाती
उसके ओर....
हमारी परेशानियों में ही हमारी मुस्कराहटें छुपी होती जहाँ तहां
...हम एक दुसरे का सुख खोजते खोजते दुखी हो जाते ...समय सारे जबाब देगा
..हाँ सच्ची ..नही यूँ भला मैं अपने शून्य से खाली बतिया रही हूँ ..बिना जबाब
गिरती है है हरी पत्तियां ..मेरे सामने रखे खाली पन्नो में भर रही एक कविता ...और तुम ? ..मुझसे कितने
दूर ...
४
मराठवाडा में सूखे संतरों ने बच्चो का खेल ही छीन
लिया ..ना छिलका गारने से कुछ निकालता है ..ना बब्बन
दौडाता है ..ना खिलखिलाहाट गूंजती है ..अब बिना कुछ किये ही आँखों में
धूप जलती है ..आंसू निकलते है ..माटी पथराई है ..पेड़ों के तन काले पड़े है
..बचे हुए लोग ..सन्न सन्न गरम हवा में ..पत्तो सा उधिया रहे है ..पानी
कहते ही उनकी आँखें सूख जाती है ...जानवर आदमी सबकी पसलियों के बीच उन्हीं के देह का पानी पसीना बन बहता है ..खुली
फटी धरती में जहाँ तहां परदों सी लटकी कुछ जिंदगी हवा
के रुख के साथ फडफडाती है ..बचे तो बच जायेंगे
अभागे पानी देखने के लिए ...सरकार तालियाँ बजवा रही है ..इनकी उनकी जीत पर इधर उधर कुछ बदलाव की उम्मीद जो है ...एकांत
का कसकता पन्ना
५
पीतल के कजरौटे में एक कालिख है कपूर सा महकता.. अँगुलियों के
पोर में लगा लो और आँखें रंग गई ..पावडर के डिब्बे में एक पफ था.. थप थप
के पोत लो सफेदी.. सात रंग की महीन शीशियों में सात रंग थे जो जमे उस
रंग का चाँद माथे पर.. हरे फीते में तेज कसी वो डोलची
वाली चोटी मजाल है एक बाल भी उड़ जाए.. अब कौन से बारात
का सुन्दर लड़का देखता मेरी तरफ.. आँखें उलझाने को बालों का खुला होना
शर्त था
.ये अम्मा मेरी रूप रेखा ऐसा बिगड़ती ना की मुझे बस दूध भात वाली चिल्लर टीम में रहना होता .वो कक्षा ६ के
दिन थे होठ पर लाली लगाने को तरसता हुआ जब एक चुटकी
सिंदूर की कीमत तुम क्या जानों अम्मा ...हम उसी से अपने
होठ लाल करते थे ..अब तुम नही ..हम बड़े ..होठ सफ़ेद ..बालों के उलझन में उलझ जाती आवाज तुम्हारी..तेल लगाया
करो..माथे पर चाँद सा टिका हो न हो ..अब
खुले बालों में नही उलझती वो निगाहें ..समझदार होने के क्रम में सफ़ेद घोड़े पर सवार राजकुमार टप टप की आवाज के साथ नही
आता महल में ..
पीतल के कजरौटे का कालिख आखों को नही रंगता हमारी बड़ी
छोटी आखों से दूर हो ना तुम ..नहीं है आँख की रोशनी इतनी की दूर बैठी तुम्हें देख लूँ मैं ...तुम भरमाती बहूत थी
...(एक लेखक का एकांत)
६
इन्तजार की बेहद पतली सुइयों पर एक
ख्याल बुन रहीं हूँ .अनजाने ही एक तस्वीर उभर जाती है ..तुम हो ..निराश
से हारे हुए से ..मैंने झट से वो लाइन अपनी सलाइयों से उतार दी ..तुम्हें हारा
हुआ नही देख सकती ..मुश्किलों की हवा तेज हो तो साथ के परदे भी उड़ उड़ से
जाते हैं ..उघडे जखम पर अजनबी कहकहो के नमक ..आह .
मैं छुपा लुंगी तुम्हारी तकलीफें .आँचल की बयार बड़ी मधुर होती है
जानते हो ना ?समय एक सा कहाँ होता है ..बदलेगा ..माटी की छाती बड़ी उपजाऊं होती है जनेगी ..उम्मीद .यकीं मानों
..मेरी सलाइयों में तुम धीरे धीरे उतर रहे हो
.मुस्कराहट..रंग .यकीं .जो तुम न होती ..इस अधूरे पर तुम मेरे हाथ
पर अपना हाथ रख देते हो .हम पूरे हैं ..
सलाइयों के सफ़ेद परदे पर कुछ फूल बिखर जाते है ..जिंदगी की
धार पर..सदियों के खुबसूरत इन्तजार की एक बारीक लाइन भी नही टूटेगी .मैं
कुछ महकते एहसास चुनूंगी .मिलन की एक सतरंगी चुनर पूरी होने के पहले चले आना ..धूप तेज है ..(लेखक का एकांत )
७
क कर लस्त पड़ी है मन की कश्ती ..तुम पार जाना चाहते हो हौसलों की
नांव कस कर तैयार की है .....चलो जल्दी करो ...अपने जर्जर
सपनें को बाद में दुरुस्त करुँगी... उस पार की
चमकीली दुनियां का निमंत्रण है...
मैं ले चलूँगी तुम्हे विरोधी हवाओं की मंशा नही होगी पूरी
....मैंने वादों की पतवार थाम ली है.. मुश्किल में निभाउंगी तुम्हारा साथ....
तर पसीने से फ़ैल रहा है मेरे मांग का सिंदूर मेरे मन में रेत की अंधड़....
तुम बस पार जाने वाले अधीर सवारी भर हो....मेरी देह पर ठोंक दी गई तुम्हारे हक
की नुकीली कीलें और ये अनछुआ मन...
पार की रेत पर सूखती नदी का अनदेखा एकांत जहाँ सिसकियाँ बेआवाज टूटती है धार
कांप जाती है बस....
एकांत के पन्ने से रिश्ता है दर्द कश्ती डगमगाती सी पार हो जाती है........
८
रात कम्बल सी काली .....उलझन सी गांठे ... बात ईमली सी
खट्टी..मन को धीरे से खुरच जाती है दूरियाँ...मन बिना
पंख ही उड़ जाता है..मैं अपने शहर के एक सूने रास्तों
पर भटकती हूँ कि भूल जाऊं उलझने...
.आज शाम के डूबते सूरज से कुछ नही माँगा...कल सुबह उसकी दस्तक से पहले ही उठ जाउंगी...शरीर का दर्द मन
को अनायास ही बुझा देता है....सांवले सपनें आँख में लाल
डोरियाँ डाल देते हैं....कहीं उदास है कोई..परेशान
मन....
समय आपके लिए एक पेंसिल शार्प करता है और आपको चुभा कर कहता है ...लो लिखो
आगे...उप्स..
रात के काले में ..दुःख दर्द उलझने दिखाई नही देती...पर कसकती आह का क्या करें?..मेरे कान
ज्यादा सुनते है क्या?
एकांत मंझे सा उलझ गया है...कहीं परेशान है कोई...
९
धोखे का कोई रंग नही होता ना साहेब .होता तो पहचान जाती उस
रंग के आस पास भी ना आती ..मुझे लगा आग सी जल रही है
..पर नही वहां पहुंची तो रिश्ते सुलग रहे थे ..मैंने
बुझाया गले से लगाया...ये कौन किसका झगड़ा जाने भी दो..जिन्दगी की अपनी बड़ी उलझनें हैं ..तुम शांत हो गये..
तुम्हें वो कौन सा गीत बड़ा पसंद है..हाँ वही..मैं गा सकती हूँ
तुम्हारे लिए...तुम पर आसमान का नीलापन उतर आया ..ओह कितना मधुर गाती हो ..उसकी कवितायों में प्यार लौट आया ..अब
निश्चिन्त मुस्कान के दिन ..एक भरोसे की अंगुली थामे मैं
व्यस्त शहर का भीड़ भरा रास्ता पार करना चाहती थी
..पर अचानक तुम कुछ और रंग की तरफ मुड जाते हो...
मेरे मखमली सोच के शरीर पर तेज़ धूप अपना होना लिखती हैं ..मैं भटक
गई हूँ ..मेरी आँखों में खो जाने का भय है ..मेरा घर दूर हो गया है ..मैं अपने उसी कोटर में अपने पंख बंद कर घुस जाना
चाहती हूँ ..जहाँ भूखा बच्चा मेरी राह देख रहा था ..जिससे मैंने आसमान
लाने का वादा किया था ...जख्मी उड़ान थी ..आसमान काला ..भटके रास्तों का
बवंडर मुझे परेशान कर रहा है ..क्या
आवाज पहुचती है मेरी तुम तक..मौसमों से तेज बदलती फितरत ..हैरानी का
खाली कागज़ धोखे के रंग की तलाश.....
एकांत की दिवार से टिक कर बैठना चाहती हूँ ..रुक कर सोचना ..मासूम हत्याओं की
आँख भर दास्ताँ ....................
१०
तुम्हारी याद के मद्धिम आंच पर पक रही है एक प्रेम कविता ....
तुम्हारी बात बेबात कही अनकही से पट रहीं हैं दूरिया ..एक गाडी
लगातार भाग रही है तुम्हारे कस्बे को दहलाती सी... एक सन्नाटा उभर आता है मेरे घर के संगमरमर पर....
उकेरती हूँ तुम्हारे गाँव का नाम और तब्दील हो जाती हूँ तुलसी के
पौधे में जिसे अभी अभी पास आ झुक कर छुआ तुमने सूुखी पत्तियों का हिसाब
रखा नई पत्तियों को चूम लिया बेशक तुम्हें होने को
जीया मैंने ...मेरे घर के फर्श पर कुछ मोती एक गीत....
मुस्कराते एकांत की चमकती आँखें ...नज़र का टिका..धत्त...
माफ़ी के साथ बड़ी देर की मैंने ....
सम्पर्क
ई-मेल : pndpinki2@gmail.com
बहुत अच्छा संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संकलन
जवाब देंहटाएंइसे डायरी के साथ-साथ कविता की तरह भी पढ़ा जा सकता है | बस कुछ वर्तनी की अशुद्धियाँ खटकती हैं | उम्मीद है कि शैलजा इसे पुस्तकाकार भी करेंगी | बधाई
जवाब देंहटाएंइनका काव्य हेतु व्युत्पति और अभ्यास नहीं केवल प्रतिभा है . विलक्षण प्रतिभा !! दूसरी बात , यह पन्ने एकांत के हैं अकेलेपन के नहीं . यहाँ रोना धोना नहीं जीवन का राग है . आत्मीय रंग हैं . अधिकार है . अर्पण है . दर्पण है . जहां हर किसी को अपनी कोई न कोई छवि दिख जाती है . इनकी व्यष्टि में भी समष्टिपरकता है . गाँव , खेत , लोक इनका हाथ
जवाब देंहटाएंपकड़ कर चलते हैं . मुंबई में बनारस है . किसी के खेत का पीला फूल है . दूर अदेखे गाँव , कस्बे , पहाड़ और छोटे शहर की परेशानियां और ढेर सारा प्रेम है ... असीम विश्वास है . कहीं कोई नकलीपन नहीं . स्वाभाविकता इनकी लेखनी की जान है . कला और भाव दोनों में ही . महाकवियों के इस बोने युग में ऐसा साहित्य आश्वस्त करता है . बहरहाल सभी पन्ने एक से बढ़कर एक . हार्दिक बधाई मेरी दोस्त ! भाई संतोष जी बहुत बहुत आभार ! हाँ ! कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं एक बार पढ़कर ठीक कर लें .
- कमल जीत चौधरी [ साम्बा , जे० & के० ]
शैलजा को पढने के लिए... दोनों हाथों से अपनी टोपी सम्भालनी पडती है
हटाएंvery nice
जवाब देंहटाएंdairi ? paribhasha badalni paegi shayad..
जवाब देंहटाएंएक औरत के अनेकांत...जो अक्सर अदेखे रह जाते हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया....
जवाब देंहटाएंये शब्द
जवाब देंहटाएंबहते हैं
कहते हैं
बहते रहते हैं
कहते रहते हैं
हर कही बात को कहीं एक दास्तान में बदलते रहतें हैं
मगर कभी-२ जब मौन बोलता है तो यही शब्द सुनतें हैं
धरती और गगन के बीच के अविरल वार्तालाप की बूंदें है ये शब्द
जो शैलजा की कलम से टप से टपक जाते हैं .
Shabdo ka rochak jaal he. Bimb ache he. Sansmaran sa lugta he. Manisha jain
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