मुकेश मानस की कहानी 'चींजे जब लौटती हैं'
किसी भी कहानीकार के लिए मिथक एक चुनौती की तरह होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आ रहे इन मिथकों से आज के सन्दर्भ को जोड़ते हुए कोई कृति लिखना आसान काम नहीं। मुकेश मानस ने अपनी कहानी 'चीजें जब लौटती हैं' में हमारे प्राचीन मिथक को आधुनिक सन्दर्भों से भलीभांति जोड़ कर यह साबित किया है कि उनमें एक बेहतर रचनाकार की अपार संभावनाएँ हैं। आईये पढ़ते हैं युवा कहानीकार मुकेश मानस की यह नयी कहानी।
चीजें जब लौटती हैं
मुकेश मानस
कहानी के प्रारम्भ में आदमगढ़ की पहाड़ियां
तकरीबन आधा-पौना घंटा चलने के बाद हमें सड़क के बांईं तरफ़ आदमगढ़ की पहाड़ियां दिखाई पड़ने लगीं। इन पहाड़ियों का एक सिरा तो वहाँ भी था जहां से हमने चलना शुरु किया था। मगर बीच में यह कहीं खो सी गईं लगती हैं। सूरज की तेज रौशनी में सोने सी चमचमाती, अपने भीतर हज़ारों वर्षों के अतीत और जीवनानुभवों का अथाह भंडार लिए किसी गर्व से अपना माथा उठा, अटल, निश्चल और निस्पृह सी पहाड़ियों की इस श्रृंखला ने बरबस ही मेरा मन मोह लिया। अनायास ही मेरे होठों से निकल- 'वाह।' मेरी 'वाह' में अभिव्यक्त हुई मेरी उत्सुकता और जिज्ञासा को जान कर महेश से रहा नहीं गया।
'वाकई! बहुत अद्भुत हैं ये। और बहुत प्राचीन भी। पहले लोगों को इनकी प्राचीनता का अहसास न था। भारतीय पुरातत्व विभाग का हाल तो तुम जानते हो। जब चीजें लगभग नष्ट होने वाली होती हैं तब वह जागता है। फिर भी भारतीय पुरातत्व विभाग का आभार कि उसने इनकी सुध ली और इन्हें बचा लिया इनकी प्राचीन धरोहर के साथ। वैसे बहुत कुछ नष्ट हो चुका है। नष्ट कर दिया है लोगों ने। पर जो बचा है वह भी कम मूल्यवान नहीं।' ड्राईवर ने कार को भोपाल - होशंगाबाद हाईवे से एक तरफ को उतारा और बांई तरफ बने एक रास्ते पर मोड़ लिया। थोड़ा सा चल कर ही कार रुक गई। सामने रेलवे क्रासिंग थी और फाटक बंद था।
'जीटी आ रही होगी' महेश के पिता जी बोले। वो भी हमारे साथ थे, आगे की सीट पर बैठे थे। जीटी से उनका मतलब जीटी एक्सप्रेस ट्रेन से था। छोटे शहर के लोग बसों और ट्रेनों की पूरी समय सारणी याद रखते हैं। हालांकि महेश के पिता जी आदमगढ़ की पहाड़ियों में कई बार आ चुके थे मगर वक्त काटने का ज़रिया समझ कर वो हमारे साथ हो लिए थे। रेलवे फाटक के आगे ही एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था . 'संरक्षित आदमगढ़ की पहाड़ियों की प्राचीन धरोहर पर आपका स्वागत है'- भारतीय पुरातत्व विभाग। कुछ-कुछ ऐसा लगा जैसा आजकल का हर नेता किसी इलाके में कोई काम करवाता है तो इस बात का बोर्ड लगवाना नहीं भूलता कि फलां काम उसने करवाया है। महेश कार से उतर कर गेटमेन के पास गया और उससे बातचीत करने लगा। फिर आ कर बोला- 'आने ही वाली है।'
दो.तीन मिनट में एक ट्रेन हम लोगों के आगे से धड़धड़ाती हुई निकल गई। फाटक खुला तो हमारी कार आगे बढ़ी। जिस सड़क पर कार आगे बढ़ रही थी वो एकदम सूनसान थी और ऐसा लगता था कि किसी घने जंगल के बीच से बनाई गई। लगभग दस-पन्द्रह मिनट चलने के बाद जंगल गायब हो गया। अब हम पठारी इलाके के बीचों-बीच थे। सामने थीं आदमगढ़ की पहाड़ियां और उन तक पहुँचने के लिए एकदम खड़ी चढ़ाई। कार घुरघुराती हुई ऐसे ऊपर चढ़ने लगी जैसे हवाई जहाज एकदम से ऊपर उठता है। जैसे ही दरवाज़ानुमा चट्टान के पास हम पहुँचे ड्राइवर ने कार रोक दी।
'चलो आ गई मंजिल' महेश अपना कैमरा-वैमरा टिकाए पहले से ही तैयार था। कार के रुकते ही वह फट से कूदा। जब तक मैं कार से उतरा तब तक वह अपने कैमरे की दो-तीन बार आँखें चमका चुका था।
जिस सड़क से हम आये थे महेश के पिता जी उसी पर आगे-आगे हो लिए। मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। महेश अभी भी आदमगढ़ की पहाड़ियों के मुख्य द्वार की फोटो खींचने में लगा था जो असल में दो चट्टानों का मिलन स्थल था। लगता था दोनों एक दूसरे का होंठ चूम रहीं हैं। अब किसको पता ये प्राकृतिक रूप से ऐसे ही पाई गईं होंगी या मुख्य द्वार बनाने के लिए इनको ऐसे बना दिया होगा।
थोड़ी देर बाद पता चला कि महेश के पिता जी हम दोनों नास्तिकों को मंदिर में ले आए थे। महेश मंदिर के फोटो खींचने लगा और मैं मंदिर के बाहर पड़े बेंच पर पसर गया। महेश के पिता अंदर गए। मत्था-वत्था टेकाए टीका-वीका लगवाया और खुश हो कर घंटा बजाया। फिर हम वापस लौटे।
अब हम बाकायदा पुरातत्व विभाग का नोटिस बोर्ड पढ़ कर संरक्षित पहाड़ियों को देखने घुसे। बजरी से बनाए गये रास्ते पर चलते हुए हम ऐसी जगह पहुँचे जहाँ एक चट्टान ऊपर आसमान की तरफ़ मुँह किए खड़ी थी। लगता था जमीन में काफ़ी गहरे धंसी हुई होगी। मैं तो उसे 'इसमें क्या खास है?' सोच कर आगे बढ़ा जा रहा था कि महेश ने रोक दिया।
'बो देखो' उसने चट्टान पर नीचे की तरफ़ बनी लाल रंग की कुछ आड़ी-तिरछी रेखाओं की तरफ़ इशारा किया। वह उन्हें देख पाया क्योंकि उसके कैमरे ने उन्हें ज़ूम करके दिखा दिया होगा। मैंने ज़रा और पास हो कर ध्यान से देखा तो कई मानवाकृतियाँ बनी हुईं थीं ठीक वैसी ही जैसी हम अपने बचपन में बनाते थे। सरलतम ढ़ंग से खींची गई और मनुष्य की आकृतियाँ बनाती रेखाएं।
'ये मनुष्य द्वारा बनाई गई आरंभिक और प्राचीनतम आकृतियाँ हैं। लाल रंग के पत्थर से खींच कर बनाई गईं।' महेश को इन पहाड़ियों के बारे में काफ़ी ज्ञान है। वैसे वो बोलता बहुत कम है मगर मेरे साथ कैसे चुप रहता।
'इन्हें आरंभिक इसलिए बताया जाता है क्योंकि इनमें एक अनगढ़ता है, अपरिपक्वता है और चित्रकला का बचपन है। ऐसी बहुत हैं मगर ज्यादातर धुंधली पड़ गई हैं। भौत सारी आकृतियाँ तो यहाँ आते रहने वालों ने भी मिटा डाली हैं। सबसे ज्यादा नुकसान इन्हें हर साल होने वाली बारिश पहुँचाती है। बारिश की वजह से ये हर साल और धुंधली पड़ जाती हैं।'
महेश का बोलना और फोटो खींचना दोनों काम जबरदस्त संयोजित तरीके से हो रहे थे। जब उसका कैमरा बोलता तो वह चुप रहता और कैमरा चुप रहता तो वह बोलता। मगर देख दोनों एक साथ रहे थे। उसका कैमरा भी और वह भी। हम दोनों आगे बढ़े। पुरातत्व विभाग वालों ने वहाँ आने वालों की सुविधा के लिए चट्टानों पर नम्बर डाल दिए थे और उन तक पहुँचने के रास्ते भी बना दिए थे। आगे बड़ी और लम्बी-लम्बी दो चट्टानें त्रिभुज सा बना रही थीं। उन दोंनो के बीच में काफ़ी खाली जगह थी। यह जगह एक बहुत बड़े सभागार की तरह थी।
'ये यहाँ रहने वाले कबीलों का मीटिंग रूम रहा होगा। झगड़े-टंटों का निबटान भी यहीं होता होगा। अगर दोषियों को सजा देने का प्रावधान रहा होगा तो उनको सजा यहीं दी जाती होगी। यहाँ पंचायत लगती होगी और डिसीजन लिए जाते होंगे। तमाम मसलों पर यहीं विचार विमर्श किया जाता होगा। सामूहिक पार्टियां, नाचना और गाना-बजाना यहीं होता होगा। आपदा के वक्त लोग यहाँ जमा होते होंगे और एक प्रकार के सुरक्षा बोध का अहसास करते होंगे।'
महेश का वर्णन सुन कर मैं कल्पनाशील होने लगा और उन स्थितियों को विजुअलाइज़ करने लगा जिनमें यहाँ रहने वाले लोग रहते होंगे।
'वैसे कबिलाई समाज में आदमी की ज़िन्दगी का ज्यादतर हिस्सा सार्वजनिक ही रहता होगा। मेरा ख़्याल है कि सिर्फ़ सेक्स करने के लिए ही आदमी एकान्त की तलाश करता होगा। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनसे पता चलता है दुनिया के और हमारे यहाँ के भी कई कबिलाई समाजों में सार्वजनिक रुप से सेक्स करने की परम्परा थी और उसे गलत निगाह से नहीं देखा जाता था। ये सब आदिम साम्यवादी समाज का अवशेष लगता है मुझको तो। साली पितृसत्ता ने सब कबाड़ा कर दिया।'
महेश के ज्ञान पर मुझे आश्चर्य हो रहा था। अभी तक मैं उसे बस फोटोग्राफ़ी का पुजारी ही समझता था मगर उसके भीतर तो इतिहास का एक गजब अध्येयता मौजूद था। महेश के पिता जी हमसे आगे-आगे चल रहे थे। चार नम्बर वाली चट्टान एक छतरी की तरह थी। हम नीचे से उसे देख रहे थे। उस पर एक तरफ़ वही लाल रंग की आकृतियां थीं मगर अब आकृतियां सिर्फ़ मनुष्यों की नहीं थीं। वहां शेर थे, हिरण थे और हाथी भी थे। दूसरी तरफ़ आदमी को हिरण का शिकार करते हुए दिखाया गया था। अगली चट्टान पर बने चित्र में कुछ आदमी घोड़े पर बैठ कर शिकार कर रहे थे। ये आकृतियां उस दौर की रही होंगी जब इन्सान ने जानवरों का शिकार करना सीख लिया होगा। इनसे कबिलाई समाज के विकास के हज़ारों साल के विकास का इतिहास ज़ाहिर हो रहा था।
'क्यों ज़रा उधर तो देखो। बताओ बो क्या है।'
महेश ने उस चट्टान की तरफ़ ईशारा किया जो आसमान की तरफ़ मुँह किए हुए थी और जिसके आगे हम लोग खड़े हुए थे। एक बनैले सूअर का विशालकाय चित्र और उसके सामने बनाई गई थी इन्सान की बौनी आकृति। इस चित्र में रेखाएं खींच कर बनाई गई आकृति नहीं थी बल्कि चित्र में पूरा रंग किया गया था।
'सूअर इतना बड़ा और इन्सान इतना छोटा।'- मेरे मुँह से निकला
'है ना मजेदार। इस चित्र को यहाँ का पहला व्यंग्य चित्र माना जाता है।'-महेश की बात ने मुझे उस चित्र को फिर से देखने को मजबूर कर दिया। सूअर को आदमी के पीछे भागते हुए दिखाए गए इस चित्र में इन्सान के चेहरे पर भय का भाव एकदम स्पष्ट था। व्यंग्य कुछ था इस चित्र में तो शायद यही था कि इन्सानों की भीड़ तो इस बनैले जानवर को घेरघार कर मार सकती थी मगर अकेला इन्सान इसके आगे बौना ही था। चित्र बनाने वाले की सहानुभूति सूअर के साथ थी।
'ये चित्र ओरिजिनल नहीं है शायद। पहले किसी ने इसे कुछ बनाया होगा और बाद में किसी ने इसमें कुछ कलाकारी कर दी होगी।' महेश के तर्क से मैं थोड़ा-बहुत सहमत ही हो पाया।
इन चट्टानों और उन पर खींची गई आकृतियों को देखने और उनको विजुअलाईज़ करने में मुझे इतना मज़ा आ रहा था कि मैं कई बार उन्हीं में खो जाता। जैसे ही ध्यान टूटता मैं आगे बढ़ लेता या कई बार महेश मुझे आवाज़ दे कर बुला लेता। अक्सर वह मुझे फूल-पत्तियों और यहां-वहां लटकी मकड़ियों के फोटो खींचता मिलता। इसी तरह रुकते-रुकाते, घूमते-देखते हम चट्टान नम्बर सोलह पर पहुँचे। इसकी आकृति कुछ ऐसी थी जैसी किसी खुली सीपी की होती है। मैं उसके आगे ठिठक गया।
'ऐसा लगता है कि ये चट्टानें हज़ारों सालों से यहाँ से वहाँ खिसकती रही होंगी क्योंकि ये किसी पहाड़ी से जुड़ी नहीं लगतीं हैं। कहीं से उखड़ी हुई लगती हैं लेकिन यहां आस.पास में तो कोई बड़ी पर्वत श्रृंखला तो नहीं है' हां बो तो ठीक बात है। हज़ारों सालों में जाने क्या-क्या हुआ होगा। किस पहाड़ से उखड़ कर यहाँ-वहाँ गिरी होंगी। बारिश का पानी भी इनको लगातार बहाते रहा होगा। वैसे यह इलाका जहां अप्पन खड़े हैं एक भूकम्प संवेदी इलाका है। तो भूकम्प-वूकम्प आते ही रहते होंगे और ये चट्टानें यहाँ-वहाँ बिखर गई होंगी। कई बार भूकम्प इतने तीव्र होते हैं कि आस-पास की ज़मीन ही उखड़ कर उलट-पुलट जाती है।' महेश ने बात को संदर्भ दे दिया।
'मुझे बड़ा ताज्जुब हो रहा है कि इतनी भारी भरकम और विशालकाय चट्टानें कैसे उखड़ कर यहां-वहां बिखरी होंगी?' मुझे क्या किसी को भी आश्चर्य होना बेहद स्वाभाविक है।
'क्यों? इसमें क्या है? प्रकृति सब कुछ कर सकती है। मनुष्य बौना है उसके आगे।' महेश कह तो सही ही रहा था। मगर मनुष्य का सारा विकास प्रकृति पर उसकी जीत पर ही टिका है और उसका विनाश भी। मैं उस सीप जैसी आकृति वाली चट्टान की विशालता और सुंदरता पर अचंभित था। बाहर से एक बेहद साफ सुथरी चट्टान थी। बारिश के पानी ने उस पर अनगिनत रेखाएं खींच दी थीं मानो समुद्र में उठती लहरें हों।
'क्यों? अंदर चलें इसके। मैं कई बार आया पर इसके अंदर नहीं गया जब कि हर बार मेरा मन इसे भीतर से देखने का करता रहा। आज तुम साथ हो। तुम्हारे साथ चल कर देखें। क्यों चलें?'
अब पता चला कि महेश इन पहाड़ियों के बारे में इतना कुछ कैसे जानता है। लगता था महेश पहले से सोच कर आया था। महेश की आंखें चमक रहीं थीं बार-बार और इस इंतज़ार में लग रहीं थीं कि कब मैं हां कर दूं। मुझे लगा वह पहले से ही मेरी हां मान बैठा है। मुझसे बस औपचारिकतावश पूछ रहा है। मुझे साफ़ दिख रहा था कि वह उस चट्टान के भीतर जाने को कितना बैचैन हो रहा था। मेरे होठ हिलने से पहले ही वह उसके भीतर घुस लिया। अब मेरे पास उसके पीछे-पीछे जाने के अलावा और कोई चारा नहीं था। मैं उसे अकेले भी नहीं जाने दे सकता था। चट्टान के अंदर अन्धेरा दिख रहा था। जगह भी काफ़ी सूनसान थी। महेश के पिता का भी कोई अता-पता नहीं था। मुझे भय की एक हल्की सिहरन सी होने लगी थी।
भीतर घुसा तो पता चला कि काफ़ी लम्बी चट्टान थी और पीछे की तरफ़ काफ़ी अन्धेरा था। महेश अपने कैमरे के बैग से टार्च निकाल चुका था। वह पूरी तैयारी के साथ आया था। उसने टार्च मुझे पकड़ा दी। मुझे अपने भय से कुछ राहत मिली।
'बारिश-वारिश के दिनों में ये जगह बेडरूम बन जाती होगी। गर्मियों के दिनों में भी यहीं आ कर पसर जाते होंगे हमारे पूर्वज। क्यों नही, मेरा ध्यान टार्च की रोशनी पर था। पर कल्पना फिर से जाग्रत होने लगी थी।
जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जा रहे थे अन्धेरा गहरा रहा था और ठंडक भी बढ़ती जा रही थी। किसी जगह से हवा के आने का अहसास भी हो रहा था। कुल मिला कर पूरा माहौल सुविधाजनक था पर अन्धेरा मुझे रास नहीं आ रहा था। बीच-बीच में जब उसके कैमरे की आंख चमकती तो कुछ जगह पर प्रकाश फैल जाता। ध्यान लगाने के लिए इससे बेहतर जगह और नहीं होगी। तभी महेश ने ऊपर की तरफ़ बने एक चित्र की तरफ़ ईशारा किया। मैंने टार्च की रोशनी उधर डाली। अद्भुत चित्र था वह। इसमें एक जानवर दूसरे के साथ काम क्रिया में लिप्त था। मगर वो क्या जानवर थे यह स्पष्ट नहीं हुआ। अजीब सी आकृतियां थीं जानवरों की। वहां तो वैसी आकृतियां ही आकृतियां थीं। ऐसा लगता था मानों आदिम चित्रों की एक अन्तहीन गैलेक्सी थी वहां। महेश का कैमरा लगातार आंखें चमका रहा था और महेश लगातार आगे बढ़ता जा रहा था।
काफी आगे जाने के बाद हम रुक गए क्योंकि आगे नीचे की जमीन और ऊपर की चट्टान दोनों मिल रही थीं। अन्धेरा भी बहुत घना हो गया था और हवा भी लगभग नहीं के बराबर मिल रही थी। एक बहुत अजीब सी गंध आ रही थी। शायद हवा की कमी की वजह से ऐसा हो रहा होगा। मुझे लग रहा था कि मैं ज्यादा देर तक वहां खड़ा नहीं रह पाऊंगा। वो अजीब सी दुर्गंध मुझे असहनीय हो रही थी।
'महेश चलो अब चलें यहां से' मैंने उसे बहुत धीमी आवाज़ में कहा।
पर महेश जाने क्या तलाश रहा। था वो अन्धेरे में अपने कैमरे की आंखें चमकाए जा रहा था। उसने कोई जवाब नहीं दिया। हालांकि टार्च मेरे ही हाथ में थी फिर भी मुझे भय लग रहा था। अन्धेरे से मुझे बचपन से ही डर लगता रहा है। मैं जानता हूं कि ये मेरा फोबिया है फिर भी मैं आज तक इससे मुक्त नहीं हो पाया हूं।
'ए मुकेश्। इधर आओ। देखो तो उधर तुम्हें कुछ दिखता है या मेरा भरम है।' उसके कहने से मैं थोड़ा आगे बढ़ कर उसके पास चला गया।
'लो देखो। मैं फ्लैश मारता हूं। तुम देखो' उसने जिस तरफ़ फ्लैश चमकाया मैंने उधर देखा। एकदम जहां जमीन और चट्टान बिल्कुल सटे हुए थे वहीं कोई पोटली सी पड़ी थी।
'तुम्हारी तो लाटरी खुल गई प्यारे। लगता है तुम्हें कोई प्राचीन खजाना मिल गया।' मैंने ऐसे ही कुछ मज़ाक सा करते हुए महेश को कहा। हालांकि कहीं भीतर मुझे भी लगा कि कुछ तो है।
'जो भी होगा मेरा तुम्हारा आधा-आधा होगा'
'ठीक है। मगर पहले पता तो चले ये है क्या? पता चला कि खोजा पहाड़ निकली चुहिया।'
'अब जो हो । देखते हैं। ज़रा ये पकड़ो'
महेश ने अपने गले से अपना कैमरा निकाल कर मुझे पकड़ा दिया। मुझे मालूम था कि इस काम को वही अंजाम दे सकता है। शायद वो भांप चुका था कि मुझमें इतना साहस नहीं है। लेकिन महेश समझदार था। उसने वहीं एक पत्थर ढ़ूंढा और उस पोटली के ऊपर फैंका। मैंने तुरन्त उसकी मंशा समझ ली। हमने थोड़ी देर सांस रोक कर इंतज़ार किया। मगर सांप या बिच्छु जैसी कोई चीज़ नहीं निकली तो महेश आगे बढ़ गया। मैं अपनी किस्मत के बारे में सोचने लगा जो शायद थोड़ी देर में ही कुछ और बन जाने वाली थी। महेश आगे बढ़ता गया। मैं उसे टार्च की रोशनी दिखाता रहा। उसने वहां जा कर वो पोटली उठा ली और तुरन्त मेरे पास आ गया। पोटली को नीचे रख कर उसने मेरे हाथ से टार्च ले कर उस पर डाली।
पोटली के मुंह पर कई सारी गांठें लगी हुईं थीं। महेश एक एक करके सारी गांठें खोलता चला गया। अंत में जो चीज हमारे सामने आई उसने हमें अचंभित कर दिया। यह यह किसी काग़ज़नुमा चीज पर लिखी एक पांडुलिपि थी जिसकी भाषा भी कुछ अजीब सी ही थी। इसमें अक्षरों की जगह बहुत से चित्र बने हुए थे। शायद कोई चित्रलिपि होगी। हमने अपनी बहकती सांसों को संयत किया। सचमुच हमको कोई खजाना मिल गया था। शायद इतिहास का कोई अहम खजाना। हम जल्दी-जल्दी बाहर आ गये।
कहानी के मध्य में एक मुलाकात
प्रोफेसर हर्मन के नौकर ने हमें ड्राईंगरूम में ले जा कर बिठा दिया। हमें पानी-वानी देने के बाद बताया गया कि साहब किसी से फोन पर बातचीत कर रहे हैं।
'कोई बात नहीं तब तक अप्पन भी सुस्ता लेंगे।'
बात तो सही थी महेश की। वह होशंगाबाद से लगभग अस्सी किलोमीटर तक अपने खटारा स्कूटर पर मुझे बिठा कर यहां भोपाल ले आया था। रास्ते में दो-तीन बार खराब हुआ महेश का स्कूटर और हर बार महेश ने उसे ठीक कर लिया। अब पता चला कि वह न सिर्फ़ एक अच्छा फोटोग्राफ़र है बल्कि एक अच्छा स्कूटर मैकेनिक भी है। लेकिन जिस हाईवे से हम आये थे वह सिंगल लेन हाईवे था और सिर्फ़ कहने के लिए हाईवे था। बस एक गलती हो गई मुझसे। हाईवे की सड़क पर कितने गड्ढे थे मैंने गिने नहीं। अगर मैं गिन लेता तो शायद यह हाईवे अपने गड्ढों की सख्या के लिए वर्ल्ड रिकार्ड बुक में आ जाता। गड्ढों से बचते तो ट्रक घेर लेते। हिन्दुस्तानी ट्रक वाले तो हाईवेज़ के राजा होते हैं। पूरी सड़क उनकी होती है वह चाहे एक लेन की हो या दस की। कितनी ही बार हमको स्कूटर सड़क से नीचे उतारना पड़ता और तब लगता कि अब गिरे कि तब गिरे। जब शहर भोपाल का छोर छू लिया तब जाकर मेरी जान में जान आई। महेश भी शायद थक गया होगा तभी तो उसने सुस्ताने की बात कही। पर उसके सुस्ताना शब्द के इस्तेमाल पर मुझे हंसी आ गई। शायद मेरे भीतर पैदा हो चुकी भाषा की एक खास किस्म की अभिजात्यता की वजह से। कुछेक पल बाद ही महेश ने कैमरा निकाल लिया और प्रोफ़ेसर साब के घर की ही फोटोग्राफ़ी शुरू कर दी।
ड्राईंगरूम काफ़ी बड़ा था। ड्राईंगरूम क्या था एक छोटा.मोटा अजायबघर था। ड्राईंगरूम में बहुत प्राचीन मूर्तियों, बर्तनों और ऐसी ही अन्य चीजों की तस्वीरों की प्रदर्शनी ही लगी हुई थी। प्रोफेसर हर्मन का ड्राईंगरूम अपने आपमें एक अदभुत जगह थी। मेरा मन हुआ कि मैं उन्हें ज़रा पास से देखूं। वहां कई मूर्तियां थीं जिनको देख कर ही लग रहा था कि वे अति प्राचीन हैं। दीवार के एक कोने में गौतम बुद्ध की एक मूर्ति थी जिसके सिर का कुछ हिस्सा टूटा हुआ था। इस मूर्ति की एक खास बात जिसने मेरा ध्यान खींचा वो यह थी कि इस मूर्ति में गौतम बुद्ध का सर एकदम गंजा था। बुद्ध की ऐसी मूर्ति मैंने पहले कभी नहीं देखी थी जिसमें बुद्ध का सर खांटी हिन्दुस्तानी स्टाईल में गंजा हो। बुद्ध की मूर्ति के पास ही एक पत्थर रखा हुआ था जिस पर अजीबो-गरीब से कुछ चित्र खुदे हुए । मैंने अंदाजा लगाया कि यह कोई चित्रलिपि जैसी चीज होगी। अगर वह लिपि थी जो उसका एक भी अक्षर मेरी पहचान का नहीं था। ऊपर की तरफ़ जो अलमारी थी उसमें कुछ किताबों जैसी पोथियां रखीं हुई थीं जो सजिल्द नहीं लग रही थीं क्योकि उनके सभी पृष्ठ अलग.अलग दिख रहे थे। शायद यह प्राचीन पोथियां होंगी बिल्कुल वैसी ही जैसी हम लोगों को मिली है।
'नमस्कार महेश जी। माफ़ी चाहता हूं आप लोगों को इंतज़ार करना पड़ा।' मैं पीछे से आई आवाज़ की तरफ़ मुड़ा जिसने हिंदी को एक बिल्कुल अलग टोन में बोला था। सामने जो व्यक्ति देखने को मिला उसकी मुस्कान और आंखों की चमक ने मुझे मोहित कर दिया।
'आप तो बड़ी अच्छी हिन्दी बोलते हैं प्रोफेसर हर्मन' मैंने एक विदेशी के मुंह से अपनी राष्ट्रभाषा (जिसके पास राष्ट्रभाषा जैसा कुछ भी नहीं है) सुनी तो मैं तारीफ़ किए बिना नहीं रह सका।
'अरे नहीं। आप नाहक मेरी तारीफ़ कर रहे हैं। मैं तो अभी भी सीख ही रहा हूं। हिन्दी भाषा तो मुझे आ गई है लेकिन उसका उच्चारण मैं अभी भी ठीक से नहीं जानता हूं। मैं एक जर्मन हूं इसलिए हिन्दी को जर्मन लहज़े में बोलता हूं मगर मैं हिन्दी को हिन्दी के लहज़े में बोलना चाहता हूं।'
'क्या आपको लगता है कि किसी भाषा को उसके स्थानीय उच्चारण में बोला जाना जरूरी है। मैं ऐसा नहीं समझता। मुझे लगता है कि किसी भाषा को जितने लहज़ों में बोला जाये उतना ही उस भाषा की स्वीकृति बढ़ेगी और उसका विस्तार होगा।'
महेश ने सिर हिला कर और आंखें चमका कर मेरी बात पर अपनी सहमति दिखाई। यह एक बहस का सिरा था जो हमने अनायास ही पकड़ लिया था।
'लेकिन सर यह बताईए कि जो भाषाएं आज लुप्त हो चुकी हैं और जो आज कहीं नहीं बोली जातीं उनका उच्चारण कैसे पकड़ेंगे?'
'सवाल आपका बिल्कुल सही है पर मेरे पास एकदम सटीक उत्तर नहीं है। फिर भी मैं आपको उत्तर दूंगा। बात ये है कि देखिए कोई भी भाषा कभी भी पूरी तरह से लुप्त नहीं होती। उस भाषा से निकल कर जो भाषाएं विकसित होतीं है या जो उसके समांतर विकसित होती हैं उसके अवशेष ऐसी भाषाओं में रह जाते हैं । ये अवशेष ही हमें उस भाषा के वास्तविक उच्चारण तक ले जाते हैं।'
उत्तर देते हुए प्रोफेसर हर्मन के चेहरे पर एक हल्की स्मिति दिखी जिसने उनके चेहरे की चमक में इज़ाफ़ा किया। शायद उन्होंने यह जान लिया था कि अब मैं उनका कायल हो रहा हूं। और मैं हो भी रहा था। एक खामोशी पसर गई माहौल में। महेश ने भांप लिया कि अब उसी को बात आगे बढ़ानी है।
'जो पोथी मैं आपको दे गया था उसके बारे में कुछ निष्कर्ष निकाला आपने?'
प्रोफेसर हर्मन को मालूम था कि हम उनके पास किस लिए आए हैं। पिछले दिनों जो पोथी आदमगढ़ की पहाड़ियों में मिली थी उसके साथ हम लोग कई दिनों तक माथा-पच्ची करते रहे । अपनी और अपने कुछ इतिहास और साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले अपने सभी मित्रों की नोलेज पावर को निचोड़ डाला लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। एक बात तो हम दोनों को समझ आ गई थी कि वो पूरी पोथी जिस भाषा में लिखी हुई थी उससे हम या हमारे मित्र सभी नावाकिफ़ थे। हम दोनों को ही ये लग रहा था कि हमारे हाथ कोई बेहद प्राचीन पोथी लग गई है जो भारतीय साहित्य- संस्कृति और इतिहास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साबित होने वाली थी। फिर हमने इतिहास विशेषज्ञों से राय मशवरा करना शुरू किया। दिल्ली के एक इतिहासकार से हमें पता चला कि शहर भोपाल में ही इतिहास के एक जर्मन प्रोफेसर रहते हैं जिनका नाम हर्मन है और वो साल के तीन महीने भोपाल में बिताते हैं अपने शोध कार्यों के संदर्भ में। महेश तो भोपाल आता जाता रहता था। उसने प्रोफेसर हर्मन के साथ एक मुलाकात तय की। मेरी तबियत ठीक न होने की वज़ह से वो खुद ही उनसे मिल कर आया और उन्हें पोथी भी दे आया था। प्रोफेसर हर्मन ने उसे एक सप्ताह बाद आ कर मिलने को कहा।
'देखिए उस पोथी के बारे में सबसे पहली बात तो मुझे आपसे यही कहनी है कि मेरे हिसाब से, मेरा अनुमान है गलत भी हो सकता है, और ज्यादा प्रमाणिक होने के लिए ज्यादा समय और अनुसंधान की जरुरत है पर फिर भी लिपियों को समझने और उनको पढ़ने की जितनी मेरी दक्षता है उसके हिसाब से यह हिन्दुस्तान में अब तक पाई गई सभी प्राचीन पोथियों से भी प्राचीन है। बल्कि मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि यह एक अति प्राचीन और अति दुर्लभ पोथी है। यानी आपके हाथ यह एक ऐसा खजाना लगा है जो अनमोल है पर यूरोप में इसकी कीमत लाखों डालर हो सकती है।'
लाखों डालर सुन कर हम दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए।
'तब तो यही किया जाए। इसे बेंच कर कुछ ठाठ किए जाये।' हम सब खूब ठहाका मर कर हंसे।
'अरे तब तो बहुत मजे की बात होगी।'
अब प्रोफेसर हर्मन भी मज़ाक के मूड में आ गए। तभी चाय आ गई। परोसी जाने लगी तो प्रोफेसर साहब बोले. 'भई, हिन्दुस्तानी चाय का जवाब नहीं। और उस पर अगर वो चाय हमारे शफ़ीक मियां बनाएं तो उसका मजा ही कुछ और है। शफ़ीक मियां चाय में पता नहीं क्या कर डालते हैं कि पीते ही मुंह से निकलता है- 'भई वाह!' आज ये हमारे यहां मात्र दो हज़ार रुपल्ली पर काम करते हैं। अगर कल ये जर्मनी में चाय की दुकान खोल लें तो इतनी कमाई होगी कि मेरे जैसे चार नौकर रख लेंगे।'
सब हा हा करने लगे। शफ़ीक मियां 'अरे साब क्या आप भी' कह कर भागे।
मैं प्रोफेसर साहब की दरियादिली और उनकी इंसानियत के आगे झुक गया। यह था उनके नौकरों के साथ उनका बर्ताव। तारीफ़ करने में ज़रा कंजूसी नहीं। मुझे याद आया प्रसिद्ध भारतीय मनोवैज्ञानिक का वो कथन कि हम हिन्दुस्तानी कंजूस भी बहुत होते हैं और खर्चीले भी । लेकिन एक बात जिसमें हम हमेशा कंजूस बने रहते हैं वह है दूसरों की तारीफ़ करना। दूसरे की तारीफ़ करते ही लगता है मानों हम सामने वाले से कुछ कमतर हो गए।
हंसी-मज़ाक के बाद काम की बात फिर से शुरु हुई।
'देखिए जैसा मैंने कहा कि यह एक अति प्राचीन पोथी है और इसमें जो लिपि है वह लिपि अब तक हिन्दुस्तान में पाई गई लिपियों से भी प्राचीनतम है। मैं इसे पूरे दायित्व के साथ प्राचीनतम कह रहा हूं। इसकी वजह ये है कि इस लिपि में ज्यादातर इस्तेमाल किए गए चित्राक्षरों को बहुत मेहनत करने के बाद भी मैं पूरी तरह से पढ़ पाने में अक्षम हूं। अब मुझे बैठे-बिठाए मेरे मन का काम मिल गया है। इसके लिए मैं आप खोजियों का बेहद शुक्रगुज़ार हूं। अगर आपको मुझपर भरोसा है तो ये पोथी आप मुझे दे दें अन्यथा जहां आप ले जाना चाहें ले जा सकते हैं।'
'हमें आप पर पूरा विश्वास है प्रोफेसर साहब। वैसे भी हम इसका क्या करेंगे। हमारे लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं है। मैं ज्यादा से ज्यादा इसके फोटो खींच सकता हूं। हम इसे भारतीय पुरातत्व विभाग को भी दे सकते हैं मगर वहां इस पर क्या काम हो पायेगा भगवान ही जाने। बेहतर है कि यह आपके पास ही रहे।'
महेश ने सही ही कहा था। मुझे खुद भी यही लगा कि अगर यह पोथी हमने सरकारी पुरातत्व विभाग को सौंपी तो उस पर काम तो क्या होगा लेकिन वह यूरोप का रास्ता जरूर देख लेगी। और हमारी लाटरी लगने की बजाए हम किसी और की लाटरी लगवा देंगे।
'लेकिन एक बात बताईए सर। आपने कहा कि आप इसे पूरी तरह से पढ़ पाने में अक्षम हैं। क्या इसका मतलब मैं यह निकालूं कि आप इस पोथी को थोड़ा-बहुत पढ़ सकते हैं ।'
प्रोफेसर हर्मन मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराए और धीमे से बोले- 'हां'। उनकी हां ने हम दोनों को एक प्रसन्नता से भर दिया।
'देखिये अभी थोड़ी देर पहले हम बात कर रहे थे कि कैसे कोई भाषा पूरी तरह से कभी लुप्त नहीं होती। उसके अवशेष उसके बाद की भाषाओं में रह जाते हैं। ठीक इसी आधार पर मैं इस पोथी की भाषा को थोड़ा-बहुत समझ पाया। हिन्दुस्तान में एक अतिप्राचीन लिपि है जिसे 'खर' कहते हैं और जिसे अब लगभग पढ़ लिया गया है। इस 'खर' भाषा के कई चित्राक्षरों में और इस पोथी की लिपि के चित्राक्षरों में अदभुत समानता है जिससे मैं कुछ-कुछ अनुमान लगा पाया हूं।'
'क्या आप कुछ हमारे साथ शेयर करेंगे सर?' मैं लगभग उतावला था यह जानने के लिए कि पोथी में क्या लिखा है। ज्यादा नहीं कुछ तो पता चले।
'अरे क्यों नहीं। इस पर तो आप लोगों का हक पहले है। ऐसा है कि कुछ नाम आए हैं जिन्हें मैं पढ़ सका हूँ। एक नाम है जिससे आप पूरी तरह से वाक़िफ़ हैं। ये नाम है इन्द्र का। मगर इसमें एक खास बात है। वो ये कि इस नाम के साथ एक नाम और आया है जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते। ये नाम कुछ इस तरह से पढ़ने में आता है 'महामहिम इन्द्र आर्य आदिसेन सौमित्र्।' यह इन्द्र के लिए इस्तेमाल किया गया एक नया नाम है। अभी तक इन्द्र के जितने नाम पढ़े गये हैं उनमें ये एक और जुड़ गया। इससे उस तर्क के पक्ष में एक और प्रमाण मिल गया कि इन्द्र किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है बल्कि आर्य जाति के भारतीय शासक के लिए इस्तेमाल की जाने वाली पदवी है। नहुष की कहानी का प्रमाण तो पहले से ही मौजूद है। इसके अलावा एक नाम और है जिसे से हम परिचित हैं- ये महाॠषि वशिष्ठ हैं। वशिष्ठ का मामला भी बिल्कुल इन्द्र के जैसा ही है। मैं खुद अब तक वशिष्ठ के लिए बारह नाम पढ़ चुका हूं और सन्दर्भ सब का वही है। यहां भी उसको ॠषिमंडल के मुखिया के तौर पर ही चित्रित किया गया है। ऐसा लगता है कि इन्द्र के दरबार में बाकी प्रशासनिक सभासदों के अलावा कुछ ऐसे लोग भी रहते होंगे जो श्लोक लिखने वाले यानि कवि और लेखक होते होंगे। इनका काम इन्द्र के किए कामों का लेखा-जोखा रखना होता होगा। यानी मूल रूप से ये इन्द्र के स्तुति लेखक और गायक होते होंगे। इनका एक समूह होता होगा जिसे ॠषिमंडल कहा जाता होगा जिसके प्रमुख को वशिष्ठ कहा जाता होगा। इस मंडल के सदस्यों में से दो के नाम इस पोथी में आये हैं। इनमें से एक शायद पोथी लेखक का दोस्त है और दूसरा उसके दुश्मन की तरह व्यवहार करता है। एक नाम पोथी में शुरु में ही आया है जो इस पोथी के लेखक का नाम है। ये नाम सत्यकेतु सत्यमणि। इनके मामले में भी कुछ ऐसा लगता है कि सत्यकेतु इनका नाम है और सत्यमणि इनको मिली हुई उपाधि। एक नाम और है- बलि। ये नाम भी सुना सुनाया है। ये बली कहीं का राजा है।'
'सर क्या खाली नाम ही नाम समझ आते हैं या कोई कहानी भी बनती है।' मैं कोई कहानी जानने को बेताब था
मेरी बात सुन कर हर्मन साहब हल्के-हल्के मुस्कुराए।
'आप लगता है प्रोफ़ेसर होने के साथ-साथ लेखक भी हैं शायद?'
'लेखक, ये कोई छोट-मोटे लेखक नहीं है। बड़े कहानीकार हैं।' महेश चहक उठा।
'इसका मतलब मैंने ठीक पहचाना।' अब की बार हर्मन साहब खूब जोर से हंसे।
'खैर आप पूछ रहे हैं तो मैं बता देता हूं। ये बात तो सही है कि इस पोथी में जरूर एक ऐसी कहानी है जो कुछ नई बात सामने लायेगी भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में।'
ये बात सुन कर मुझे कुछ अच्छा सा लगा। इसका मतलब था कि सचमुच ही हमारे हाथ में कोई महत्वपूर्ण चीज लग गई है।
'लेकिन ये कहानी पूरी तरह से समझ में नहीं आती'
ये सुन कर हमारी आंखों की चमक गायब हो गई और सारा मज़ा किरकिरा हो गया।
'हां कहानी के नाम पर कुछ जो समझ आता है वो ये कि इन्द्र के सैनिक किसी सेनापति के नेतृत्व में किसी ऐसे व्यक्ति को मार कर आते हैं। उस व्यक्ति का नाम इस लेखक ने दिया है महाबलि। यह नाम हमारे यहां पहले से मौजूद एक वामन और बलि की कहानी में मिलता है। पर ये समझ नहीं आता कि इन्द्र के दरबार का एक ॠषि ऐसे आदमी की कहानी क्यों लिख रहा है जिसे उसका आश्रयदाता अपना दुश्मन समझता है। बस इस एंगल से देखने पर लगता है कि इस कहानी में कुछ नई बात है। अगर यह बलि की कहानी भी है तो यह उस कहानी से एकदम अलग होगी जो हम आज तक जानते आये हैं । बस इतना ही अनुमान मैं इस कहानी के बारे में लगा पाया हूं।'
थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई। हर्मन साहब चुक चुके थे शायद॥ उन्हें कहने के लिए कुछ और सूझ नहीं रहा होगा। और महेश को बात आगे बढ़ाने का कोई क्ल्यु मिल नहीं रहा होगा । और मैं तो अब वहां उपस्थित ही नहीं था। मेरे दिमाग की चक्की तो चलनी शुरु हो चुकी थी।
कहानी के अंत में कई दृश्य
पहला दृश्य
'क्या बात है मित्र सत्यमणि। आप बहुत उदास लग रहे हैं' धूमकेतु ने अपने मित्र सत्यमणि के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
सत्यमणि और धूमकेतु बहुत गहरे मित्र हैं तभी से जब महामहिम इन्द्र ने उन दोनों को उनकी विद्वता से प्रसन्न हो कर अपने ॠषिमंडल में बतौर लिपिकार रख लिया था। यह किसी भी विद्वान के लिए सबसे बड़ा ओहदा था। मजे की बात यह थी कि दोनों एक ही गुरु के शिष्य थे और दोनों ही नियुक्ति परीक्षा में खरे उतरे थे। ॠषिमंडल के अध्यक्ष वशिष्ठ ने दोनों को गले लगा कर ॠषिमंडल में सदस्य के तौर पर सहर्ष स्वागत किया। दोनों मित्र इस मामले में भी भाग्यशाली रहे कि गुरु का आश्रम छोड़ते ही उन्हें राजसी आश्रय मिल गया जो कि बहुत कम लोगों को नसीब होता था। दोनों मित्रों ने साथ-साथ महामहिम इन्द्र के राज में बहुत लम्बा समय बिताया था। दोनों को ही सर्वोच्च उपाधियां भी मिल चुकी थीं। ॠषिमंडल के सदस्य अब खुल कर यह कहने लगे थे कि ॠषिमंडल के निवर्तमान अध्यक्ष आचार्य वशिष्ट के सेवानिवृत्त होते ही उन दोनों में से कोई एक ॠषिमंडल का अध्यक्ष बन जायेगा।
'नहीं ऐसी कोई बात नहीं मित्र। कृपया आप परेशान न हों।' सत्यमणि ने बहुत ही ठंडे स्वर में जवाब दिया।
'लेकिन कोई बात है जिसे लेकर आप चिंतित हैं। मुझसे आप छुपा नहीं सकते। आज तक मैंने आपको इतनी गहन चिंता में नहीं देखा है। आज सुबह दरबार में जब आपने महाबलि के वध का समाचार सुना है तब से ही मैं देख रहा हूँ कि आप लगातार गहन चिंता में डूबते चले गये हैं। मैं दरबार में ही भांप गया था कि कोई बात है जिसने आपको दुखी कर दिया है। दरबार से अपने निवास पर चला तो गया लेकिन ध्यान आप ही में लगा रहा। घर में मन लगा ही नहीं इसलिए आप के घर तक चला आया।'
अपने मित्र धूमकेतु की बात सुन कर सत्यमणि पिघल गए। उनके भीतर धूमकेतु के लिस अगाध प्रेम उमड़ आया। मित्र हो तो ऐसा जो बिन बोले ही मित्र का हृदय देख ले। उन्होंने बड़े प्रेम के साथ अपने मित्र का हाथ अपने हाथ में लिया और बोले- 'आप ठीक कहते हैं मित्र। मैंने जब से महाबलि वध का समाचार सुना है मैं तभी से दुखी हूं।'
'क्या आप महाबलि वध को उचित नहीं समझ रहे।'
'मानना तो चाहता हूं मगर मान नहीं पा रहा हूं। दिमाग कह रहा कि सही है यह वध। मगर मेरा हृदय प्रतिकार नहीं कर रहा है।'
'ऐसा इसलिए हो रहा है मित्र कि आप कुछ ज्यादा कवि हृदय हैं। आप महाबलि जैसे शक्तिशाली योद्धा के वध से खिन्न हैं। और कोई बात नहीं है। महाबलि एक शक्तिशाली योद्धा था इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन वह एक असुर योद्धा था और आर्यों का प्रभुत्व स्वीकार न करने के कारण महामहिम इन्द्र का स्वाभाविक शत्रु था। इसलिए उसका वध तो एक न एक दिन होना ही था। वैसे भी हम महामहिम इन्द्र के लिपिकार है। हमको जो बताया जायेगा हम को वही लिखना होगा। इसी काम के लिए हमको नियुक्त किया गया है।'
धूमकेतु ने कह तो दी अपनी बात लेकिन हदय के किसी कोने में उनके भीतर भी कुछ द्वन्द्व की शुरुआत हो गई। उन्होंने जो कहा था था शायद उनके ही भीतर से उसके विपरीत स्वर भी उठने लगा था। इन्द्र के दरबार में काम करते हुए अनेक बार उनके भीतर यह विपरीत भाव उठता रहा है लेकिन उन्होंने इसकी उपेक्षा करना सीख लिया था। सत्यमणि तब तक आसन से उठ गए और चहलकदमी करने लगे। धूमकेतु जानते थे कि जब कोई विचार सत्यमणि को गहरे मथने लगता है तब वह अक्सर यही करते हैं।
'आप सही कहते है मित्र। जो तथ्य बताए गए हैं, जो विवरण दिए गए हैं अब तक महाबलि के बारे में, उनको जानने के बाद महाबलि वध सही लगता है। लेकिन क्या तथ्य गलत या दुर्भावनापूर्ण नहीं हो सकते हैं। शुरु-शुरु में मैं इस बारे में कतई परवाह नहीं करता था कि हमें बताई जाने वाली बातें सही हैं या गलत। मुझे जो बताया जाता था मैं उसी को सही मान कर महामहिम इन्द्र के लिए स्तोत्र लिख डालता था। किन्तु पिछले कुछ दिनों से मुझे यह विचार मथ रहा है कि क्या हम महज़ लिपिकार हैं। क्या हमारी भूमिका सिर्फ़ इतनी ही है। फिर हमारे ज्ञान और हमारी तर्क क्षमता का क्या मतलब है। पहले मुझे लगता था कि हमें बताए जाने वाले तथ्य सही हैं किन्तु पिछली कुछ घटनाओं के बाद जाने क्यों मुझे हमें बताए जाने वाले तथ्यों पर अविश्वास सा होने लगा है। मैं नहीं जानता आपकी इस बारे में क्या राय है। लेकिन मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसा लगता है कि हमें कुछ भी लिपिकृत करने से पहले हमको उस बताई गई घटना या दिए गए तथ्यों की प्रमाणिकता भी जांच लेनी चाहिए।'
'लेकिन मित्र सत्यमणि प्रमाणिकता जांचना हमारा कार्य नहीं है। हमारा कार्य केवल बताई गई बातों को लिपिकृत करना है। हम महज लिपिकार हैं। मान लीजिए कि हम किसी तथ्य की जांच करते हैं और वह गलत पाया जाता है है तो हम इस मामले में क्या कर सकते हैं? और आप समझते हैं कि सही तथ्य महामहिम इन्द्र स्वीकृत करेंगे और हमें अपने दरबार में बने रहने देंगे।' आचार्य धूमकेतु बहस का व्यवहारिक पक्ष देख रहे थे जो सुख, शांति और सुरक्षा का पक्ष है।
'आपको नहीं लगता कि हम कुछ भौतिक सुविधाओं और पदवी की खातिर महज़ बौद्धिक गुलाम बन कर रह गये हैं। आप सही कहते हैं मित्र धूमकेतु कि सही तथ्य लिखने में बहुत खतरा है। पर मित्र मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हूं कि हम महज़ लिपिकार है। पहले मैं भी यही मानता था। मगर अब मैं इस बात से आश्वस्त हूं कि हम महज़ लिपिकार नहीं हैं हम इतिहासकार हैं। अगर मैं आपकी इस बात को मान भी लूं कि हम केवल लिपिकार हैं तो भी क्या हमारा यह फ़र्ज़ नही है कि हम सही तथ्यों को लिपिकृत करें। और ऐसा करते वक्त हमें अपने तमाम पूर्वाग्रहों से भी दूर रहना होगा। मसलन महाबलि वध के विषय में बताए गए तथ्यों को क्या इसलिए सही मान लें कि वह आर्यों का शत्रु था और हम दोनों भी आर्य हैं और महामहिम इन्द्र के सेवक हैं। वह आर्य सत्ता का शत्रु है। लेकिन जरुरी नहीं कि वह दुष्ट व्यक्ति हो। महाबलि का योजनाबद्ध तरीके से, झूठ और फरेब का सहारा ले कर वध किया गया है और हमसे कहा जा रहा है हम लिखें कि उसने स्वयं अपना राज्य सेनापति वामन को दिया है और वानप्रस्थ जीवन जीने के लिए अपने परिवार के साथ पाताल गुफा में चला गया है।' कहते.कहते आर्य सत्यमणि रुक गए और आर्य धूमकेतु की आंखों में देखने लगे।
'यह आप क्या कह रहे हैं मित्र सत्यमणि। यह आप कैसे कह सकते हैं?' नई सूचनाओं ने धूमकेतु को थोड़ा बौखला दिया लेकिन शीघ्र ही उन्होंने खुद को संभाल लिया।
'मैं जानता था मित्र कि आप भी सच सहन नहीं कर पाएंगे। जिस अभियान में महाबलि को मारा गया उसी में गए एक सैनिक को मैंने धर्म का वास्ता दे कर यह सत्य जाना है। उसी से पता चला कि महाबलि तो अपने राज्य का बेहद लोकप्रिय और न्यायप्रिय राजा था। आस-पास के असुर राजाओं के बीच वह एक अच्छे और शक्तिशाली राजा के रूप में विख्यात था। उसका एक ही कुसूर था कि उसने आर्य सत्ता के प्रभुत्व को मानने से इंकार कर दिया था। सच जान कर मेरा हृदय चित्कार करने लगा। मुझे लगा कि मेरा दिमाग फट जायेगा। मुझे लगा कि मैं अभी तक अपने आपसे ज्ञान की असल परम्परा से और अपनी आत्मा के साथ अन्याय करता आया हूँ। असत्य को सत्य लिखना बहुत बड़ा पाप है मित्र। अपने आप पर मुझे बहुत ग्लानि होने लगी। जानते हैं मित्र कि आर्य साम्राज्य यहां केवल इसीलिए फल-फूल रहा है क्योंकि यहां के असुर राजाओं में एका नहीं है। सब राज्य बिखरे हुए हैं। अगर इनमें एकता होती तो यह आर्य साम्राज्य यहां इतना शक्तिशाली नहीं हो पाता। हमें केवल वही पता चलता है जो हमें बताया जाता है इसलिए हम सच नहीं जान पाते। मैंने हिम्मत कर के सच जानने की कोशिश की तो यह पता चला। और इसे जान कर दुख हुआ। दुख यह जान कर भी हुआ कि हम केवल मोहरे हैं और हम क्या करते आए हैं अब तक। लेकिन सत्य जान लेने के बाद भी क्या मैं वही लिखूं जो महामहिम मुझसे लिपिबद्ध करवाना चहते हैं। नहीं मित्र। अब मैं दृढ़ निश्चय कर चुका हूं कि अब मैं सत्य को ही लिपिबद्ध करुंगा फिर चाहे जो हो। समय आहवान कर रहा कि अपनी सही भूमिका निभाने का वक्त आ गया है।
कहते-कहते सत्यमणि का गला रूंध गया।
'लेकिन क्या यह आर्य सत्ता और आर्य नस्ल से गद्दारी करना नहीं होगा? आखिर हम राज्य के सेवक हैं। हमको राज्य के कामकाज के लिए रखा गया है। बदले में हमें सभी सुख.सुविधायें मिल रही हैं।' धूमकेतु के सवाल से सत्यमणि तिलमिलाए नहीं क्योंकि यह एक वाजिव सवाल था।
'ठीक है मित्र कि हम राज्य के सेवक हैं लेकिन न तो हम गुलाम हैं और ना ही यंत्र। हमारे पास विवेक भी तो है। क्या हम इस विवेक को भी ताक पर धर दें। फिर तो हम महज़ गुलाम होंगे या फिर यंत्र। और असत्य और अप्रमाणिक तथ्य लिख कर आज तो सुखमय जीवन जी लेंगे लेकिन भविष्य के आसमान पर हम दुष्टात्माएं बन कर लटके रहेंगे।' सत्यमणि की आवाज़ जैसे कराहने लगी। धूमकेतु ने सहानुभूति के साथ उनका हाथ थाम लिया। दोनों मित्र अपने अपने आसनों पर बैठ गए।
तभी गृहसेवक ने भोजन के लिए निवेदन किया और दोनों मित्र भोजनकक्ष की ओर चल दिए।
दूसरा दृश्य
सत्यमणि ने धूमकेतु को पुनः अपने निवास पर आमंत्रित किया और उन्हें एक पोथी दिखाई। धूमकेतु ने उन्हें पढ़ना शुरु किया तो उनके भीतर एक अजीब किस्म का भाव जाग्रत होने लगा साथ ही धीरे-धीरे एक भय भी पैदा होने लगा। आर्य सत्यमणि ने उनके भीतर उठते भय को भांप लिया।
'घबराईए नहीं मित्र। इसे मैं बहुत संभाल कर रखूंगा। आपको इसलिए दिखाया कि आपको पता रहे। अगर मैं आपसे पहले मर गया तो इसे आप संभाल कर रखियेगा। मगर मैं सोचता हूं कि इसके पूर्ण होते ही इसे किसी तरह से किसी असुर क्षेत्र के किसी विद्वान तक पहुंचा देना चाहिए।'
'यह आपने सही विचार किया है तब हमें कोई खतरा नहीं रहेगा। और यह ग्रंथ भी सही हाथों पहुंच जायेगा।' धूमकेतु के भीतर उठता भय कुछ कम हुआ।
'आपने एक महांन कार्य किया है मित्र । मैं आपका कृतार्थ हूं कि आपने मेरा भी मार्गदर्शन किया।'
'लेकिन मित्र आपकी मित्रता मेरा सबसे बड़ा संबल है। इसी वजह से मैं ऐसा सोच और कर पाया हूं। बस अब हमें सचेत रहना होगा। एक तो हमें सही तथ्यों को जानना है और फिर उन्हें लिपिकृत करना है। संभव हो तो उन्हें सही जगह पहुंचाना है।'
'अगर महामहिम इन्द्र तक इस बारे में खबर पहुंच गई तो क्या होगा?' धूमकेतु का भय मिश्रित प्रश्न था।
'देखिए मित्र धूमकेतु अपने भीतर उत्पन्न भय को निकाल दीजिये। देखिए पिछली बार जो हमारी बातचीत हुई थी उस समय मैं कुछ ज्यादा ही जोश में था। उस दिन आपके जाने के बाद मैंने सारी परिस्थितियों पर फिर से ख्याल किया। मित्र जिन परिस्थितियों में हम हैं, उनमें हम रातों-रात परिवर्तन नहीं कर सकते। हमारा परिवार है, हमारी सतानें हैं। हम अपने लिए उनके जीवन को कष्ट में नहीं डाल सकते। इसलिए मैंने एक बीच का रास्ता निकाला है। इस रास्ते से हम सत्य भी लिख पाएंगे और सत्ता की गाज से भी बचे रहेंगे।'
'वो क्या रास्ता है।' धूमकेतु के भीतर भय काफी कम हो गया और उन्हें इस बात से भी थोड़ा आनन्द मिला कि अब उन्हें अपनी सुविधाओं और पदवी को नहीं खोना पड़ेगा।
'देखिये मित्र, महामहिम इन्द्र के लिए हम वही लिखेंगे जो हमें बताया या कहा जायेगा। लेकिन इसके साथ ही हम किसी भी घटना का एक सही विवरण भी लिखेंगे और उसे किसी सुरक्षित स्थान पर संरक्षित करते जायेंगे। और इस स्थान की जानकारी हमारी संतानों के ज़रिए आगे चलती चली जायेगी। कोई न कोई समय ऐसा आयेगा जब इन्हें सार्वजनिक किया सकेगा।'
दोनों मित्रों के चेहरे पर संतोष के भाव थे।
तीसरा दृश्य
धूमकेतु तेजी से दौड़े चले आ रहे हैं। आर्य सत्यमणि के घर में घुसते ही वह चीखने लगते हैं
'आर्य सत्यमणि... आर्य सत्यमणि।'
अपने मित्र धूमकेतु की आवाज सुनते ही सत्यमणि अपने अध्ययन कक्ष से बाहर आए। उन्होंने देखा कि धूमकेतु बेतहाशा हांफ रहे हैं। वह बड़ी जोर-जोर से सांस ले रहे हैं।उनके चेहरे पर भय समाया हुआ है और वह पीला पड़ता जा रहा है।
'क्या हुआ मित्र' उन्होंने पूछा
'जल्दी। मित्र, जल्दी। यहां से निकल भागिए मित्र। श्वेतपाणी ने अभी.अभी सेनापति वामन को महाबलि पर लिखी आपकी पोथी के बारे में बताया है।'
'लेकिन श्वेतपाणी को उस पोथी के बारे में कैसे पता चला' सत्यकेतु को हैरानी हुई।
'यह मैं कैसे बता सकता हूँ मित्र ? हो सकता है महामहिम इन्द्र ने ही आपके घर में कोई भेदिया भेज दिया हो।' धूमकेतु ने हांफते हुए कहा।
तभी सत्यकेतु को ध्यान आया कि तकरीबन एक माह पहले एक व्यक्ति उनके घर के दरवाजे पर अपने घोड़े से एकाएक गिर गया था। वह काफी जख्मी हो गया था। सत्यकेतु ने उसे दो दिन तक अपने घर के अतिथि कक्ष में रखा था।
'मित्र सत्यकेतु श्वेतपाणी ने महामहिम इन्द्र को यह जा कर बताया और आपको मृत्युदंड देने की गुहार लगाई। महामहिम इन्द्र ॠषिमंडलाध्यक्ष आर्य वशिष्ठ से इस विषय पर मंत्रणा कर रहे हैं।'
श्वेतपाणी व्यक्ति के तौर पर सत्यकेतु को कभी रास नहीं आया था। वह आवश्यकता से अधिक इन्द्र की चापलूसी करता था और सत्यकेतु और धूमकेतु की विद्वता और मित्रता से जलता भी था।
यह सब सुन कर पहले तो सत्यमणि खुद भी घबरा गए लेकिन जल्दी ही उन्होंने खुद को संभाल लिया। फौरन उन्होंने कुछ काम की चीजें तलाशीं और घर के पिछले द्वार की तरफ़ दौड़े वहां उनका घोड़ा बंधा था। पीछे-पीछे धूमकेतु भी अपने घोड़े पर पिछले द्वार पर आ गए।
'आप चले जाईए मित्र' आर्य सत्यमणि ने उनसे कहा।'
'नहीं मित्र। अब मैं भी यहां सुरक्षित नहीं। अब मैं भी आपके साथ चलूंगा'
'सोच लीजिये।'
'सोच लिया'
'तो चलिए'
दोनों मित्रों ने अपने अपने घोड़ों को ऐड़ लगाई और नगर की सीमा की तरफ़ दौड़ पड़े। ...लोग हैरानी से उन्हें देख रहे हैं क्योंकि नगर के भीतर कोई भी इतनी तेजी से घोड़ा नहीं दौड़ाता जितनी तेजी से वे दौड़ा रहे है... ... घोड़े दौड़ रहे हैं... दौड़ रहे हैं... ... कभी. कभी दोंनो मित्र एकदृदूसरे का चेहरा देख रहे हैं... ॠषिमंडल के दो सम्मानित सदस्यों को आता देख नगर द्वारपाल ने द्वार खुलवा दिया। दोनों मित्र सुरक्षित नगर से बाहर आ गए हैं।
'अब कहां जाएंगे' धूमकेतु ने सत्यमणि से पूछा
'अब हमारे पास एक ही जगह जाने का उपाय बचा है।' सत्यमणि का जवाब था।
'लेकिन असुर क्षेत्र तो यहां से दो हजार योजन की दूरी पर शुरु होता है। क्या हम वहां तक पहुँच पाएंगे...'
'ईश्वर ने चाहा तो जरूर'
असुर क्षेत्र की तरफ़ उनके घोड़े दौड़ रहे हैं... कभी हल्का जंगल तो कभी घना.. कभी कच्ची मिट्टी तो कभी सख्त... कभी समतल तो कभी ऊंचा-नीचा... सूखे कीकर तो कभी हरे-भरे पेड़... सबसे गुज़रते दौड़े चले जा रहे हैं... सामने एक अतिप्राचीनए विशालकाय, सोने जैसी चमकती पहाड़ी श्रंखला आ जाती है जिसे पार करना है... दोनों मित्र एक पल रुक कर उस पहाड़ी श्रंखला की अभिराम सुंदरता को आंख भर देख लेना चाह रहे हैं।
अचानक पीछे से सैनिकों और उनके घोड़ों का शोर करीब आने लगता है... पहाड़ी की चढ़ाई पर घोड़े हांफ रहे हैं, दोंनों मित्र भी हांफ रहे हैं। दोंनों के होठ बुरी तरह से सूख रहे है। दोनों के पेट में बहुत तेज दर्द हो रहा है। घोड़ों का दम फूल गया ...वे गिर पड़े और गिर पड़े दोनों मित्र भी... तेजी से उठ कर वे पैदल ही भागने लगे। शुक्र था कि दोनों में से कोई जखमी नहीं हुआ था। दोनों मित्र तेजी से पहाड़ी पर ऊपर और ऊपर चढ़ने लगे । तभी उनके आस-पास तीर बरसने लगे।अब उन्हें दो काम एक साथ करने थे। भागना भी था और तीरों से बचना था और भागना भी था। अचानक सत्यमणि को एक बेहद संकरी पहाड़ी गुफा सी जगह दिखी। सत्यमणि को जैसे कुछ सूझ गया। उन्होंने तुरंत पोथी को वहां फैंक दिया। और आगे बढ़ गए... दौड़ फिर से शुरु... फिर हवा में तेजी से एक भाला आया और सत्यमणि की दर्द भरी चीख निकल पड़ी 'ऽऽआऽऽऽआऽऽ३३३हऽऽ३।'
मैं एक तेज चीख के साथ उठ गया। मैं पसीने से तरबतर था। सांसों की धौंकनी दनादन चल रही थी और मैंने अपने हाथों से अपने पेट को पकड़ा हुआ था। मेरे पास बैठा हुआ महेश भय मिश्रित आश्चर्य से मुझे लगातार ताके जा रहा था।
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