हरीश चंद्र पाण्डे के कहानी संग्रह ‘दस चक्र राजा’ पर रमेश प्रजापति की समीक्षा
हरीश चन्द्र पाण्डे की ख्याति आम तौर पर एक कवि की है। इसमें कोई संशय भी नहीं कि हरीश जी हमारे समय के बेहतरीन कवियों में से एक हैं। लेकिन अभी-अभी राजकमल प्रकाशन से हरीश जी का एक कहानी संग्रह आया है ‘दस चक्र राजा।’ ऐसा लगता है कि कवि जो बातें अपनी कविताओं में नहीं कह पाया है उसे उसने अपनी कहानियों में कहा है। इस संकलन की एक समीक्षा लिखी है हमारे मित्र कवि रमेश प्प्रजापति ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा
स्त्री जीवन का यथार्थ
रमेश प्रजापति
सुपरिचित कवि हरीश चंद्र पाण्डे के पहले कहानी संग्रह ‘दस चक्र राजा’ की कहानियाँ
मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में धटित होने वाली रोज़मर्रा के जीवन की
उठा-पटक से ओत-प्रोत है। इनके केंद्र में स्त्रियों के सामाजिक और पारिवारिक
संघर्ष निहित हैं। वर्तमान समय की कठोरता से टकराते हुए सामाजिक परिवेश की
जटिलताओं को सामने रखने में सक्षम हुई हैं। पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री जीवन
के संघर्ष को अभिव्यक्त करती ये कहानियाँ स्त्री-विमर्श को नया आयाम देती हैं।
इस संग्रह की कहानियों में स्त्री के वैयक्तिक संबंधों की
अनुगूँज, पीड़ा, बेचैनी और छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकता है। ‘दायरा’ कहानी में निम्न मध्य वर्ग की स्त्री के भावात्मक स्पंदन और
अंतर्मन की ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। यह निम्नवर्गीय समाज में स्त्रियों की दयनीय
स्थिति और पारिवारिक के साथ-साथ विडम्बना और सामाजिक व्यवस्था की वास्तविकता को
बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करती है।
‘सन्धि-पत्र’ कहानी में दफ्तर और परिवार के बीच जूझते व्यक्ति की त्रासदी
है। इस उत्तर आधुनिक समय में बच्चों को स्कूल भेजने के लिए एक परिवार किस तरह खटता
और उसका दबाव महसूस करता है। यह कहानी उसका बखूबी बखान करती है। हरीश चंद्र पाण्डे
की ये कहानियाँ वैचारिकता के नए मूल्यों को स्थापित करती है। साथ ही निम्न
मध्यवर्गीय समाज के अन्तर्द्वंद्वों को चित्रित करती हुई पाठकों के अंतस में दबी
संवेदनाओं की कोमल भूमि को कुरेदती हैं।
उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद के इय भयावह दौर में बौद्धिक
वैचारिकता से दूर हरीश चंद्र पांडे की कहानियाँ उन सामाजिक वर्गों के जीवन
संघर्षों के प्रति अधिक जवाबदेह लगती है जो अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करते रहते
हैं। संग्रह की ‘दस चक्र राजा’ कहानी जहाँ एक ओर
भाग्यवाद को नकारती है वहीं दूसरी ओर खेतिहर मज़दूरों की व्यथा-कथा का खुला चित्रण
प्रस्तुत करके नरैण दा और साबुली जैसे किसानों के मज़दूर बनने की प्रक्रिया को बड़ी
ही संजीदगी से अभिव्यक्त करती है- ‘साबुली की आँखों में सपने तैरने लगे...एक सपना टूटता है तो दूसरा उगा लेती है।
ज़मीन न हुई तो क्या हुआ। साबुली भी एक दिन गाड़ से पत्थर ढोने वाली औरतों की कतार
में शामिल हो गई।‘ सामाजिक विसंगतियों के बीच पारिवारिक
रिश्तों के ताने-बाने को बुनतीं इन कहानियाँ में संबंधों की कोमलता एवं जीवन की
सहजता को अन्तःकरण में पुष्ट करने के लिए ऐसे वातावरण की रचना की गई है जिसमें संवेदनाओं
और विचारों की तरंगें उद्वेलित होती रहे।
हरीश चंद्र पांडे की इन कहानियों में स्त्री-जीवन के
संघर्षों और संत्रासों को सजगता से चित्रित किया है। संग्रह की ‘दश चक्र राजा’ कहानी जहाँ एक ओर भाग्यवाद को नकारती है, वहीं दूसरी ओर
खेतिहर मज़दूरों की व्यथा-कथा का खुला बखान करती है। यह कहानी नरैण दा और साबुली
जैसे किसानों के मज़दूर बनने की प्रक्रिया को संजीदगी से व्यक्त करती है- ‘साबुली की आँखों में सपने तैरने लगे...एक
सपना टूटता है,तो दूसरा उगा लेती है। ज़मीन न हुई तो क्या हुआ। साबुली भी
एक दिन गाड़ से पत्थर ढोने वाली औरतों की कतार में शामिल हो गई।‘
सामाजिक विसंगतियों के बीच पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने
में बुनी इन कहानियों में संबंधों की कोमलता और जीवन की सहजता निहित है। इनमें ऐसे
भावप्रवण कथ्य और वातावरण की रचना की गई है जिसमें संवेदना और विचारों की तरंगें
उद्वेलित होती रहे।
‘प्रतीक्षा’ कहानी में कथाकार
हरीश चन्द्र पाण्डे ने स्त्री जीवन की सामाजिक विडंबना को चित्रित किया है इस कहानी में ललिता का पति गौरदत्त जीवन की कड़ुवी
सच्चाइयों से या विक्षिप्त होने के कारण मुँह छुपाते हुए बार-बार आँखों से औझल हो
जाता है। जग पुरुष जीवन की सच्चाई से दूर भागते हैं तो परिवार की जिम्मेदारी को एक
स्त्री ही अपने कंधों पर ढोती हुई आगे बढ़ती है। कहानी की पात्रा ललिता ने इस
जिम्मेदारी को वहन करके पुरुषसत्तात्मक समाज को यही दिखाने का भरसक प्रयास किया
है। ‘कुंता’ कहानी सामाजिक
परिप्रेक्ष्य में स्त्री-जीवन के उस यथार्थ को चित्रित करती है, जिनमें स्त्री का
जीवन कष्टकारी हो जाता है। इस कहानी की नायिका कुंता की लम्बाई मात्र तीन फुट है।
ब्याह-शादी में बिचौलिया पंडित नित्यानंद बड़ी चालाकी से उसकी शादी राधावल्लभ के
साथ करा देता है। कुंता का देवर एक दिन उसको मायके छोड़ देता है। कुंता बूढ़ी होने
तक ससुराल न जाने की जिद्द ठान लेती है। यह जिद्द उसकी लम्बाई से बहुत बड़ी होती
है- ‘तीन फुट की कुंता
बौनी और जिद इतनी लम्बी कि जब तक ससुराल से कोई बुलाने नहीं आएगा, वह नहीं जाएगी।
कोई का मतलब पति स्वयं।‘ ऐसा होता भी है जब तक राधावल्लभ उसे खुद लेने नहीं आता वह अपनी ससुराल जाती
नहीं है। इसी जिद के कारण उसे अपनी यौवनावस्था मायके में ही बितानी पड़ती है।
हरीश चंद्र पांडे ने अपनी कहानियों में प्रतिदिन, जीवन की वास्तविक
विद्रूपताओं और जटिलताओं के रूबरू होकर साहसपूर्ण एंग से सामाजिक चुनौतियों का
सामना करते दिखाई देते हैं। इन कहानियों में स्त्री विमर्श के साथ-साथ निम्नवर्गीय
समाज का टूटा हुआ स्वर भी सुनाई देता है। ‘वह फूल छूना चाहती है’ कहानी स्त्री
सशक्तिकरण को एक नए संदर्भ के साथ पाठकों के सामने रखने में सक्षम हुई है। घरेलू
कार्यों में व्यस्त और दिनभर की भाग-दौड़ से त्रस्त, स्त्री की आज़ादी
को संबंधों की ऐसी कोमल रस्सी ने जकड़ लिया है, जिसे चाह कर भी वह
तोड़ना नहीं चाहती। या कहे उससे मुक्त होना ही नहीं चाहती है। ऐसी स्थिति को स्त्री
ने अपनी नियति मान लिया है। ऐसा ही सामाजिक विसंगतियाँ इस कहानी कीयुवती पुष्पा के
सामने उपस्थित होती हैं।
‘बफर स्टेट’ कहानी निम्न
मध्यवर्ग के स्त्री जीवन की उन कटु अनुभूतियों को व्यक्त करती है, जिनसे वे सफर
करते हुए आए दिन टकराती रहती हैं। सफर चाहे बस का हो या ट्रेन का। इलाहाबाद
जंक्शन से रेलगाड़ी में अपने तीन बच्चों के साथ बैठी रूपाली गंतव्य तक पहुँचने में
अपनी तेरह-चौदह वर्ष की बड़ी बेटी को आदमी की शक्ल में छिपे ख़ूँख़ार भेड़िओं की
नज़रों से बचाती हुई जिस विकट मानसिक पीड़ा से गुजरती है, उसे कथाकार ने बड़ी
मार्मिकता से उभारा है।
‘ढाल’ कहानी की नायिका
कुसुम दफ्तर में हैदर बाबू और लम्बू बाबू के अभद्र व्यवहार से पीड़ित होती है। यह
कहानी दफ्तर में कार्य करने वाली स्त्रियों की वस्तु-स्थिति से अवगत कराती है।
संग्रह की ‘दायरा’, ‘वापसी’, ‘क्रमश’, ‘साथी’, ‘यात्रा’ और ‘गड्ढ़ा’ कहानियाँ भी स्त्ऱी-जीवन के सच्चे यथार्थ को मजबूती के साथ
अभिव्यक्त करने में सफल हुई हैं। ‘स्वदेश’ कहानी
अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का बहुत ही संजीदगी से जायजा लेती है। सर्दी में ऊनी कपड़ों को़ बेच कर आजीविका के लिए संघर्ष करने वाले तिब्बतियों के प्रवास की स्थिति
को यथार्थ के धरातल से उठाती हुई कुछ जरूरी प्रश्न खड़े करती है।
संग्रह की कहानियों में स्त्री-जीवन के जटिल और मारक यथार्थ
की सच्ची तस्वीर है। समाज में तेजी से बदलते सामाजिक और मानवीय मूल्यों के बीच
विलुप्त होती संवेदना के बरक्स मनुष्यता के अंकुरों को बचाए रखने की जद्दोजहद इन
कहानियों में दिखाई देती है।
कुल मिलाकर हरीश चंद्र पांडे की कहानियों का कथ्य सामाजिक
जीवन में घटित होने वाली रोज़मर्रा की घटनाएँ हैं। इस बदलते सामाजिक परिदृश्य में
आम आदमी का जीवन बड़ा ही दूभर होता जा रहा है। आम आदमी की इसी पीड़ा और त्रासदी को
रचनाकार ने बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से चित्रित करने का प्रयास किया है। इस
असंवेदनशील समय में ये कहानियाँ इसलिए भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं कि
इनमें समय की नब्ज को मजबूती से पकड़ने का प्रयास किया गया है। इसलिए ये कहानियाँ
स्त्री-जीवन के बदलते-बिगड़ते संबंधों के बीच उनके जीवन के सच्चे यथार्थ को
अभिव्यक्त करती हैं। साथ ही उन स्थितियों-परिस्थितियों पर भी करारी चोट करती है,
जिनके कारण समाज
में स्त्रियों की ऐसी दशा हुई है। इन
कहानियों की भाषा में ताज़गी और काव्यात्मकता लेखक के कवि होने का सबूत देती है।
पुस्तक-दस चक्र राजा (कहानी-संग्रह), लेखक-हरीश चंद्र
पांडे, प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, 1-बी नेता जी सुभाष मार्ग,दरियागंज, नई दिल्ली-110002,
संस्करण-प्रथम,
2013, पृष्ठ-120 मूल्य-250 रूपए।
सम्पर्क
रमेश प्रजापति,
20-सी,बी-पॉकेट, एल.आई.जी.,
डी.डी.ए. फ्लैट्स, न्यू जाफराबाद,
शाहदरा, दिल्ली-110032
मो- 09891592625
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