रणविजय सिंह सत्यकेतु की सात कविताएं
सत्यकेतु का नाम हिंदी के युवा कथाकारों में सुपरिचित नाम है। हाल ही में पता चला कि सत्यकेतु ने कुछ बेहतरीन कवितायें भी लिखीं हैं। मैंने सत्यकेतु से कविताओं के लिए आग्रह किया। इन कविताओं के जरिये पता चलता है कि इस कहानीकार के मानस में एक कवि पैठा हुआ है जो इसकी कहानियों को एक कवित्वपूर्ण धार दे देता है. आईये पढ़ते हैं सत्यकेतु की कविताएँ।
रणविजय सिंह सत्यकेतु
मेरी दुपहिया की टुनटुनी
दुपहिया मेरी
दौड़ती उस पथखंड पर
जहां गौरैया का घोसला है
जिसकी टुनटुनी से
बगल में दाना चुग रही पड़ोकी
और काठ खोदता कठपोड़वा
उड़ जाते हैं साथ-साथ
बैठ जाते हैं बिजली के तारों पर
झांकते रहते हैं इधर-उधर
उबड़-खाबड़ सड़क पर
टूटे चप्पलों और फटे-चीथड़ों को
कि कहीं कुछ खाने का तो नहीं....
कौवे की कांव-कांव की तरह
बन जाती है भक्षकों की दुश्मन
मेरी दुपहिया की टुनटुनी
चौकन्ने हो जाते हैं र्पंरदे
चेत देते हैं बच्चों को
घेर लेते हैं अंडों को
जिन्हें घूर रहा होता है
झाड़ी से विषधर
शीशम की फुनगी से बाज....
किन्तु, तब क्या क्या होगा
जब चंद दिनों बाद
बदल जाएगी
मेरी प्यारी दुपहिया
खटहरे में?
तब भी क्या कभी बजेगी टुनटुनी?
बचेंगे निरीह प्राणी नासूर से?
तब भी क्या कोई प्रतीक उभरेगा सतर्कता का?
बन सकेगा कोई पर्याय निर्गुटता का?
जबकि बबूल, बेल और कटैया भीर्
हिंसकों के समर्थन में
रखते हैं प्रतिद्वंद्विता
मेरी दुपहिया से....
‘जंगल सम्मेलन’ निरीहों का होगा
‘पृथ्वी सम्मेलन’ और ‘निर्गुट आंदोलन’ की तरह
बल्कि आत्मरक्षा और सम्मानपूर्ण ग्रास बनने के लिए
उन्हें बनना ही पड़ेगा
गुटों का मोहताज
क्योंकि झाड़ी से फुनगी तक
उनका ही साम्राज्य है....
काश, सदाबहार बन जाती
मेरी दुपहिया की टुनटुनी!
(पृथ्वी सम्मेलन के बाद लिखी गई। 1999 में काशी प्रतिमान में प्रकाशित)
लड़की
ओंकार के रास्ते पर पत्थर रख
लड़की अपने लिए नकार लेकर आती है
उसका असली दोस्त उसके आंसू होते हैं
जो आमरण साथ निभाते हैं
उसे घड़ी-घड़ी दी जाती है
पिता की पगड़ी की दुहाई
मां की ममता की कसम
भाई के भविष्य का वास्ता
उसे सिखाया जाता है
झाड़ू मारना
आंगन लीपना
बर्तन मांजना
चूल्हा जलाना
गोबर पाथना
धीरे हंसना
मौके पर मुस्काना
नजर नीचे रखना
पैर दबाकर धीरे चलना
सबसे पीछे बचा-खुचा खाना
परिवार और समाज के लिए
उसका रोना महत्वहीन होता है
और खोना कलंक
उसकी चाहत अशुभ होती है
और पसंद खतरनाक
इसलिए गर्भनाल में ही बिछा दिया जाता है
उसके लिए नकार
और वह पैदा होती है नसीहत के साथ।
प्रेम
(बिना विवाह किए बच्चे को जन्म देने पर नाइजीरिया की स्थानीय अदालत ने 2002 में 21 वर्षीया अमीना को गर्दन तक जमीन में गाड़कर उसे पत्थरों से मार देने की सजा सुनाई थी। अमीन के समर्थन में..)
प्रेम करना जहां गुनाह है
और बच्चे पैदा करना जुर्म
कितनी गर्म होगी वहां की हवा!
खिलने की कल्पना से ही
सिहर उठते होंगे फूल
कांपती होंगी कलियां;
दहशत कायम करने का सबसे सुगम उपाय है
लगाना हर तरह की अभिव्यक्ति पर लगाम
जड़ तत्व और तम गुण की पैदाइश
हुकूमत को मंजूर नहीं मुस्कान
आंखों में पानी;
मगर मुहब्बत को चाहिए स्वतंत्रता
हर उस बंधन से जो करती है
मस्तिष्क को निश्चेतन
हृदय को भावनाहीन,
जैसे पक्षियों को विचरने के लिए चाहिए
सारा आकाश
नहीं मंजूर उन्हें कोई बंधन
धरती उजाड़,
बुलबुलों के चहकने से
उमड़ती हैं भावनाएं
जगती है मन में आस
जो नहीं मानतीं फरमान
वहशी हुक्म,
जब घोर यातनाएं सहना
और सलाखों के पीछे जाना
लगाता है आसान
महसूस होता है कैसा भी दंड कमजोर
तभी मन में जागता है संकल्प
और करता है कोई प्रेम।
डर
काम करने वाले हाथों के बूते मलाई मारने वाले
कामगारों के बुलंदियां हासिल करने को
दूर की कौड़ी कहते हैं,
उनका मानना है
कि सत्ता और शक्ति के सारे स्रोत उनकी पकड़ में हैं
उनके दायरे बड़े और आभा अजस्र सूत्रमयी है
वे रोक सकते हैं पक्षियों का चहचहाना
बकरियों का मिमियाना
वे खुला छोड़ सकते हैं घड़ियालों और सांडों को
खुली कीमत देकर....
भयानक अस्त्र-शस्त्रों वाले सहस्त्र हाथों के साथ
मारक जुगलबंदी करती हैं
उनकी चिकनी-चुपड़ी शक्ल
उनके होठों से निकलते हैं जंगल विधान
उनका दावा है
कि खेतों-खलिहानों पर आंखें गड़ाए पटवारी
खदानों-घाटियों में जमे र्कांरदे
थानों-कचहरियों में डटीं कुर्सियां
उनकी खनखनाती जेब की हद में हैं
इसलिए नैतिकता उनके ठेंगे पर
ईमानदारी उनकी जूती तले
हालांकि शक है उन्हें दिखावे की अपनी व्यस्तताओं पर
चकाचौंध में उलझी अपनी उनींदी आंखों पर
उन्हें डर है
कि शातिर दिमाग और कठोर हृदय के साथ
तारत्म्यता नहीं बिठा पाईं उनकी आंखें..तो..
कहीं मुट्ठी भींचे कामगारों के हाथ आसमान न छू लें
क्योंकि वे पूरी नींद से जगे होते हैं
ताजे और तप्त लहू से लबालब
जो जिंदगी से मोह तो रखते हैं
मगर मौत से डरते नहीं
और शायद....यहीं से फूटता है बुलंदी का रास्ता।
धर्म का डंडा
रंग-बिरंगी पताकाओं से आंखें चौंधियाती हैं
उनमें लगे डंडों को देखकर देह कांपती है
उनके नीचे और पीछे लग रहे नारों से
फटने लगते हैं कान के परदे
दहशत से बढ़ जाती हैं धड़कनें
गांव-गांव
शहर-शहर
बंटते हैं पर्चे
गूंजते हैं धर्मादेश
तो बंद हो जाते हैं हाट-बाजार
खेतों की राह भूल जाते हैं हल-बैल
थम जाते हैं खदानों में हाथ
तालों के हवाले हो जाते हैं स्कूल-कॉलेज
बचपने में पढ़ी थी
संवेदनाओं से भरी धर्म पुस्तकें
चरित्रों से टपकते थे आदर्श
आज उन्हीं चरित्रों के नाम पर
मची है मार-काट
हुहकार रही हैं धर्म पताकाएं....
धर्म के बाजार में खड़े नंगों से
बचानी होंगी पीढ़ियां
जो तोड़ सकें उनके वहशी डंडे
सहेज सकें टूटी-बिखरी संवेदनाएं।
युद्ध
युद्ध
संवादहीनता का वीभत्स रूप
और सोचने की क्षमता पर
पूर्णविराम की स्थिति है।
युद्ध
सहने की कूव्वत का क्षरण
और दूूसरों की हैसियत मिटाने की
अनाधिकार चेष्टा है।
युद्ध
आंगन की खुशियां छीनने
दरवाजे को बेरौनक करने का
भयानक और क्रूर जरिया है।
संशय भरा दौर
संशय भरे इस दौर में
न कोई आदर्श टिक रहा न वाद
रूह कंपाने वाली घटनाओं
त्रासदियों
और आपदाओं के बीच
बेहिचक लिए जा रहे हैं
ऐन्द्रिक थिरकन और लहालोट वासनाओं का स्वाद
बेधड़क हो रहा शीलभंजन
और छविभंजन का कारोबार
तीव्र और तात्कालिक हो गए हैं जीवन के व्यवहार
हर स्तर पर क्षीण हुआ है स्थायी भाव
इस तिकड़मी और हिंसक दौर में
परछाइयां भी भरोसेमंद नहीं रहीं
पति-पत्नी
प्रेमी-प्रेमिका भी छुपे एजेंडे से लैस हैं
दिशाहीन और धर्मांध हो गया है शासक वर्ग
हाशिए पर हैं मजदूर, किसान और बेरोजगार
अनसुने रह जा रहे हैं उनके दुख-दर्द
टुकड़ा-टुकड़ा चिंतन वाले उत्तर आधुनिक दौर में
कलाकार और कलमकार भी हो गए हैं करियरिस्ट
अब न कोई खांटी कलावादी रहा
न सचमुच का कम्युनिस्ट
प्रेम, प्रकृति और संवेदनाओं से दूर
इस उपभोक्तावादी समय में
विद्या से विनय नहीं चतुराई फलित होती है
जीवन के हर क्षेत्र में
विकास की परिमाणात्मक गति तेज है
और गुणवत्ता मूल्यों से दूर
इसीलिए तो अब
अंगोछा भर गुलाल से भी सूर्ख नहीं होते चेहरे।
(नोट- 1995 से 2012 के बीच लिखी गईं कविताएं)
संपर्क :
मोबाइल - 9532617710
Achchhi kavitain...Abhaar!
जवाब देंहटाएंरणविजय सिंह जी ;नमस्ते। सात कविताएँ बेहतरीन। विशेष कर प्रेम,लड़कीऔर धर्म का डंडा कविताओं ने प्रभावित किया।यथार्थ परक रचनाओं के लिए अनेकानेक बधाई। सन्तोष जीअच्छा काम कर रहे है। शुक्रिया।
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