वन्दना शुक्ला का यात्रा वृत्तांत
लेखक जब भी
कहीं किसी जगह की यात्रा करता है तो औरों से इतर वह वहाँ की आबोहवा, परिस्थितियों, जलवायु, ऐतिहासिक
इमारतों, दस्तावेजों, उस जगह की
ऐतिहासिकता आदि को अपने लेखन का हिस्सा बनाता है। स्वयं द्रष्टा होते हुए भी उससे अलग हो कर उसे देखने का प्रयास करता
है और उसे लिपिबद्ध करने की कोशिश करता है। ये यात्रा
संस्मरण इस मायने में भी विशिष्ट होते हैं कि ये केवल आने-जाने-खाने, जगहों को
देखने को ही नहीं बताते बल्कि उसकी एक साहित्यिक-सांस्कृतिक तहकीकात भी करते हैं। अभी हाल ही में लेखिका वन्दना शुक्ला शिमला की यात्रा
पर गयीं थीं। इस यात्रा के संस्मरण उन्होंने लिख भेजे हैं पहली बार के पाठकों के
लिए। तो आईये वन्दना जी के साथ-साथ हम-आप भी कुछ देर के लिए शिमला के सफ़र पर हो
लेते हैं।
शिमला -एक अविस्मरणीय यात्रा .....
6 मई1821 को एक जरनल में मेज़र लॉयड ने दर्ज किया था ‘’पहाड़ की
हवा एक तेज़ की तरह मेरी धमनियों में समा गई ,जिससे
मुझे लगा कि मैं सबसे गहरी संकरी घाटी में कुलांचें भर सकता हूँ अथवा उतनी ही
आसानी से पहाड़ के दुरारोह छोरों तक फुर्ती से उछलता जा सकता हूँ ...आज का दिन मैं
कभी नहीं भूलूंगा।’’
पहाड़ का
जादू कुछ इसी तरह आदमी के मन मस्तिष्क को अपने वश में कर लेता है।
चंडीगढ़ से
शिमला के लिए हम शाम करीब चार बजे रवाना हुए। मनोरम
दृश्यों को पीछे छोडती हुई गाडी घुमावदार घाटियों पर चढ़ रही थी। हवा में
थोड़ी ठंडक आने लगी थी। लगभग 7300 फीट की उंचाई पर बसे और चारों और
से हिमालय की पर्वतीय श्रंखला से घिरे शिमला की सरज़मी पर जब हमने कदम रखा तब शहर
पर शाम की झीनी सिंदूरी चादर लिपटने लगी थी, पेड़
उनींदे और थके लग रहे थे। घाटी ओक तथा रोडोडेंड्रॉन के पेड़ों से ढंकी
हुई।..चीड और देवदार के बेहद लम्बे दरख़्त जो गहरी घाटियों से लेकर ऊँचे पहाड़ों
तक सीना ताने खड़े हुए हैं मानों पर्वतों के प्रहरी हों। उनके बीच बीच में
पहाड़ियों से फूटते सुर्ख लाल फूलों से लदे हुए पेड़ और गाढ़ी हरी पत्तियों से भरी
झाड़ियाँ गोया वसंत के त्यौहार में जंगल ने रंग बिरंगे छापेदार वस्त्र पहने हों। सुबह जल्दी ही नींद
खुल गयी ..एक थकी हुई गहरी नींद के बाद की ताजगी ...खिड़की का पर्दा सरकाया ...चौथी
मंजिल की बालकनी से सुदूर उन पर्वतों पर उतरती बिखरती गुलाबी सुबह और मीलों तक
फ़ैली प्रकृति की उस अकूत संपदा को अपलक निस्तब्ध देखते रह जाना, ज़िंदगी में इससे भी बड़ा कोई आनंद होता होगा ...नहीं
जानती। तुरंत कैमरा निकाला बैग से और उस ख़ूबसूरत
सुबह को मैंने अपने कैमरे में कैद कर लिया।
हिन्दुस्तान
के मैदानी भागों में भाषा, रहन-सहन, भोजन आदि तो
अलग हो सकते हैं लेकिन हम स्वयं चूँकि मैदानी इलाकों में रहने उस भौगोलिक वातावरण, मौसम, उनके
गुणों वहां की समस्याओं, असुविधाओं आदि के अभ्यस्त हो
जाते हैं इसलिए हमें ज्यादा भिन्नता नज़र नहीं आती लेकिन पहाडी स्थलों पर बहुत कुछ
बदला और नया नया सा लगता है। मसूरी, नैनीताल, कुल्लू
मनाली, रोह्तान्पाश, या मध्य
प्रदेश में पचमढी आदि पर्वतीय स्थल देखने के बाद इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि भले ही
इन अलग अलग स्थलों की भाषा, भौगोलिक स्थिति, इतिहास, कथाएं, रहन सहन, वनस्पति
आदि में फर्क हों लेकिन उनके दृश्य और स्थानीय लोगों की दिक्कतें प्रायः एक सी ही
होती हैं।
पहला ही
दिन झडीदार और तेज़ बारिश की भेंट चढ़ गया। लेकिन
दूसरे दिन जब अलस्सुबह बालकनी से देखा तो कल जैसा अंधेरा नहीं घिरा था बल्कि
पहाड़ों पर आसमान से धूप की मुलायम चमक बिखरने लगी थी यानी आज मौसम कुछ साफ़ होने की
उम्मीद की जा सकती थी लिहाजा अपनी तीनों मित्रों सहित कुफरी जाने का कार्यक्रम
बनाया। शिमला से
करीब सत्रह किलोमीटर दूर यह पर्यटको के लिए एक आकर्षण का केंद्र है। वाहनों को
नीचे ही रोक दिया जाता है और बहुत उंचाई तक जाने के लिए यहाँ पिट्ठू उपलब्ध कराये
जाते हैं। कुफरी में पर्यटक
स्कीइंग, टोबोगैनिंग, गो कार्टिंग आदि को इंजॉय कर सकते हैं। इतनी उंचाई से तलहटी में देखना रोमांचक लगता है। कुफरी
में पिट्ठू से ऊपर चढ़ते वक़्त यहाँ बेहद कीचड़ और अजीब चिपचिपा सा मौसम था। पिट्ठू की
सवारी करना यूँ भी असुविधाजनक होता है। शिखर की
और चढाई के वक़्त यहाँ एक दुर्घटना भी घटी। एक पिट्ठू
का पैर फिसल गया और उसके ऊपर सवार एक महिला गिर पडी। उसका सर
एक चट्टान से टकराया और कनपटी रक्त से भीग गई। उसके साथी
उसे पकड़ कर और सर से बहते हुए रक्त को दुपट्टे से बाँध वापस नीचे लाने की कोशिश
करने लगे। इसी बीच
युवाओं के दो गुटों में झगड़ा हो गया एक ने दो लड़कों को बुरी तरह पीटा और फिसलन भरी
चट्टान से नीचे धकेल दिया। चारों और
कीचड़ और अफरातफरी का साम्राज्य। हम भी
मारे डर के पिट्ठुओं से उतर गए और किसी स्थानीय व्यक्ति की मदद से एक पतली सी
पगडंडी से ढरकते हुए से नीचे अपने वाहनों तक पहुंचे। हमारे
जूते कीचड़ में लथपथ थे और मन डरे हुए। ये सब
देखकर कुछ प्रश्न मन में उठे ...यहाँ के मौसम और ऊँचाइयों को देखते हुए ये दृश्य
आम ही होते होंगे लेकिन ना तो यहाँ पुलिस की कोई व्यवस्था है और ना ही फर्स्ट ऐड
की। ..खैर ..कुल मिला कर दिन कुछ निराशाजनक गुज़रा। थोड़ी
कोफ़्त हुई। ये पहला
ही दिन था ...ये दोनों दृश्य आतंकित होने के लिए काफी थे।
अगले दिन
हम जाखू मंदिर गए। संकरे, घुमावदार
रास्तों से जाते हुए बहुत उंचाई पर बना ये शिमला का एक प्रसिद्ध और पौराणिक मंदिर
है। कहते हैं कि हनुमान जी यहाँ संजीवनी बूटी लाते हुए
कुछ देर के लिए रुके थे। किंवदन्ती
है कि यहाँ उनके
पैरों की छाप भी है। कुछ
वर्षों पहले इस पौराणिक मंदिर के पास हनुमान जी की विशाल मूर्ति भी बनाई गई है जो
घाटी के निचले हिस्सों से स्पष्ट दिखाई देती है। यहाँ के
लोग बताते हैं कि इसका उद्घाटन अमिताभ बच्चन द्वारा किया गया था। यहाँ
बंदरों का साम्राज्य और आतंक है। हम खुद भी
उनकी हरकतों के शिकार हो गए जब कार से उतरते ही मेरा सन ग्लास एक बन्दर मेरे पीछे
से आकर धीरे से उतार कर ले गया। मैं डरकर
कांपने लगी जब मैंने अपना धूप का चश्मा उसके हाथ में देखा। आसपास कम
से कम सौ बन्दर थे जो इसी तरह पर्यटकों को परेशांन कर रहे थे। ’’अपना पर्स
अन्दर रखो, चश्मे उतार लो, मोबाईल
कैमरे पर्स में डालो, हाथ में डंडा रखो आदि शब्द कानों
में पड रहे थे। इतनी बड़ी
तादाद में बन्दर मैंने पहली बार ही देखे थे। एक ‘’प्रसाद
वाले‘’ आदमी ने कहा कि आप परेशांन न हों, तीस रुपये
के चने खरीद लो। मैंने
ऐसा ही किया। वो आदमी
मेरे खरीदे हुए चने ले कर एक खाई में उतर गया और ओझल हो गया। मेरे
हौसले पस्त....लेकिन कुछ ही देर में वो ग्लासेज़ ले आया। ये सब
इतनी जल्दी घटा कि समझ में नहीं आया कि आखिर माजरा क्या था? क्या उन
बंदरों को इसकी ट्रेनिंग दी जाती है, या ये कोई चमत्कार है? खैर..इसके
बाद बहुत ऊचाई पर स्थित मंदिर की और पैदल जाते वक़्त हमें अपनी सुरक्षा के लिए एक
डंडा खरीदना पड़ा जिसके बूते पर हम बंदरों से बचते बचाते मंदिर तक पहुंचे। इस
पौराणिक मंदिर को देखना आधुनिक शानदार सर्वसुविधा युक्त इमारतों को देखने से बहुत
अलग और अद्भुत अनुभव था। बंदरों
के भय से वहां कैमरे पर्स से नहीं निकाल सके। वहां से
लौटते हुए शाम गहराने लगी थी। चीड और
देवदार के लम्बे पेड़ों से घिरी संकरी व घुमावदार सडकों /ढलानों पर गाड़ियों से उतरना
बहुत डरावना सा लग रहा था। दोनों और
गहरी खाइयां ...दृश्य देखने का साहस हम खोते जा रहे थे। कई बार
घुमावदार सडक पर सामने से आती गाडी को देख कर हमारी हल्की सी चीख भी निकल गई। इस वक़्त
हमारे सामने ऑंखें मींच लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था ...लेकिन
वहां के वाहन चालकों की सचमुच तारीफ़ ही करनी पड़ेगी कि ऐसे रास्तों पर कितनी सधी
हुई ड्राइविंग करते हैं।
एक स्थानीय व्यक्ति ने हमें बताया कि
यहाँ एक अंग्रेजों के ज़माने की छोटी रेल चलती है जिसे टॉय ट्रेन भी कहा
जाता है। ज़ाहिर था कि उसमे यात्रा करने का लोभ संवरण करना मुश्किल था
हमारे लिए लिहाजा इस आकर्षण का आनंद लेने के लिए हमने निश्चय किया कि यहाँ
से कम दूरी के किसी स्टेशन तक का सफर आज इसी ट्रेन से तय करेंगे और हम टिकिट
ले कर उसके लेडीज़ कम्पार्टमेंट में बैठ गए। इस प्यारी और छोटी रेल का
स्टेशन भी किसी परीलोक की तरह रंगबिरंगा था। लग रहा था हम गुलीवर के देश में
पहुंच गए हैं। कुछ देर में ट्रेन ने सामान्य रफ़्तार से दौड़ना शुरू किया।
छोटी, ऐतिहासिक
और प्यारी सी ट्रेन हरे भरे पहाड़ों, काले चौकोर पत्थरों से बनी पौराणिक व्
गोलाकार सुरंगों व ढलानों पर बसे गाँवों के बीच से गुज़र
रही थी। छोटी बड़ी पहाड़ियों जिन पर हरी भरी झाड़ियाँ फिसलती हुई सी लग रही थीं,
लम्बे घने पेड़ों,
बुरोंश के फूलों से
भरे हुए दरख्तों व् पुरानी इमारतों को पार करती लहराती वो यात्रियों को लिए
मंजिल की और दौड़ी जा रही थी। उस ट्रेन के यात्री पर्यटक ही नहीं बल्कि स्थानीय
लोग भी थे जो शायद इस ट्रेन का सफ़र रोज़ ही तय करते होंगे क्यूँ कि उनके
हाव भाव में पर्यटकों जैसी उत्तेजना और जिज्ञासा नहीं थी। मौसम सुहावना
था और जंगल हरे भरे ...आसमान में बादल घिरने लगे थे कुछ बूंदाबांदी भी
शुरू हो गई। रेल का सफर अद्भुत रहा। उसी शाम हमने माल रोड पर शॉपिंग की हालाकि
झरझरा कर बारिश हो गई और लिफ्ट से मार्केट तक पहुँचने तक धुआन्धार बारिश
शुरू हो गई। कुछ देर बारिश रुकने की प्रतीक्षा करने के बाद हमने ‘शेड’ के
निकट की दूकान से छाते खरीदे और माल रोड की गीली सडकों पर निकल पड़े।
माल रोड भी लगभग हर पर्वतीय क्षेत्र की एक सी ही होती है ..वही छोटी छोटी
दुकानें, एक
जैसे सामान, इफरात
ऊनी कपडे, मोल
भाव आदि लेकिन इनका एक ख़ास आकर्षण तो होता ही है विशेषकर
स्त्रियों के लिए। लेकिन मेरी कुछ मित्र यहाँ स्थित उस चर्च को भी देखने के लिए
उत्सुक थीं जहाँ (उनकी जानकारी के अनुसार) थ्री इडियट्स फिल्म की शूटिंग
हुई थी। बारिश रुकने की प्रतीक्षा का कोई असर नहीं हुआ और थोड़ी शॉपिंग करके
और ‘’चर्च’’
देखने का खुद से वादा करते
हुए हम वापस लौट आये।
अगले दिन हम फिर अपने गंतव्य की और चले। रास्ते उसी तरह ऊँचे नीचे गीले और
कीचड़ भरे थे। यहाँ ज्यादातर इमारतें और पक्के घर पुराने और
ब्रिटिश स्टायल के बने हैं द्वार तिकोने और फ्लोर लकड़ी के। भीड़, छोटी
बड़ी दुकानें, काम पर जाते मर्द औरतों की आँखों में कुछ परेशानी, स्कूल
जाते बच्चे, तंग सडकों पर तेज़ –धीमी
रफ़्तार में दौड़ते वाहन सभी दृश्य वही जिनको देखने की पिछले तीन दिनों में एक आदत
सी हो गयी थी। पहाडी क्षेत्र असमतल होते हैं इसलिए इन पर
सुनियोजित कॉलोनी वगेरह बनाना तो कल्पनातीत ही है लेकिन ये देख कर आश्चर्य हुआ कि
काफी उंचाई पर स्थित कुछ मकान जो देखने में लकड़ी के लग रहे थे काफी पुराने और
ज़र्ज़र अवस्था में थे और जिनके किनारों पर गहरी खाई थी, नीचे
से देखने से प्रतीत हो रहा था मानो अधपर लटके हों। लगता था कि तेज़ हवाओं या तूफ़ान में
ये कभी भी भरभरा कर खाई की तलहटी में समां सकते हैं। उस गहरी खाई में भी (जो इलाके की
निचले हिस्से थे) यहाँ पर छोटी बस्तियां थीं। पहाड़ों के शिखर पर स्थित कई घरों
में रेलिंग या ओट ही नहीं थी और एक दृश्य देख कर तो जैसे सांस ही थम गई। बहुत उंचाई पर बिना रेलिंग के छज्जे
पर एक औरत अपने बच्चे को नहला रही थी ...नीचे गहरी और बड़ी खाई ... । मैंने जब वहां के स्थानीय कार चालक
जिसमे उस वक़्त हम जा रहे थे से इस विषय में पूछा तो उसने हंस कर कहा कि ‘’नहीं
मैडम ..यहाँ के लोग नहीं गिरते...उन्हें इन पर रहने की आदत हो जाती है।‘’ क्या
ये किसी अन्य ग्रह के जीव हैं जो डर का मतलब नहीं जानते ...? या
इन्हें मौत के साथ क्रीडा करना और उसे पराजित करने की आदत पड़ चुकी है? ढलानदार
सडकों पर कतारबद्ध कारें यहाँ के सामान्य दृश्य हैं। इन व्यस्त या खाली, ऊँची
नीची ढलान भरी सडकों के दौनों और कारों की लम्बी लम्बी कतारें देख कर यही लगा कि
शायद यहाँ कार होना सम्पन्नता और अमीरी की निशानी नहीं बल्कि घर में अपनी एक अदद ‘पर्सनल
पार्किंग’’ होना रईसी का लक्षण होगा।
इस पूरी
यात्रा का जो सबसे खुशनुमा और यादगार दिन रहा वो था वाइसरीगल लौज को देखना। टिकिट ले कर हम
भीतर दाखिल हुए। ब्रिटिश स्टाईल की भव्य
इमारत जिसके सामने के हिस्से में दुर्लभ और विदेशी फूल जैसे डेजी, बटरकप, रोदोड्रेगन, स्फानी आदि व् घांस की अनेकों किस्मों का लाजवाब संग्रह।
बीच में वाईसरीगल लौज की भव्य इमारत, सामने
शानदार बागीचा और एक तरफ एक सुव्यवस्थित लायब्रेरी। पता पड़ा कि अभी ‘’भीतर’’ दर्शक हैं इसलिए बाहर ही खड़ा होना होगा कतार में अतः मैं इस
समय का उपयोग करने के उद्देश्य से सामने
की लायब्रेरी में चली गई। लायब्रेरी बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन सुव्यवस्थित थी। यहाँ कुछ हिन्दी लेखकों की किताबें भी थीं जहाँ
से मैंने कृष्णा सोबती की लम्बी
कहानी ‘’ए लडकी’’ पुस्तक खरीदी। और भी कुछ छोटी मोटी चीज़ें जैसे ग्रीटिंग
कार्ड्स, लौज के चित्र का चाय का मग, आदि। कुछ देर बाहर लगी कतार में प्रतीक्षा करने के बाद हम इस
शानदार इमारत के भीतर पहुंचे। ऑंखें
चौंधियाना किसे कहते हैं ये वहां मालूम हुआ। यहाँ पहले से मौजूद ‘गाईड’’ ने हमारी अगवानी की। ऊँची ऊँची छतें, जिनमे अखरोट की लकड़ी पे ख़ूबसूरत नक्काशी ...भव्य कमरे, सामन्ती परिवेश। उन्होंने बताया कि ये इमारत और जितना भी
फर्नीचर आप देख रहे हैं ये डेढ़ सौ साल से
ज्यादा पुराना और विदेशी डिजायन का बना हुआ है। यहाँ बेल्जियम आदि जगहों से मंगाई गई लकड़ी के फर्नीचर थे। कारीगर शिमला से कुछ
दूरी पर स्थित सोलन से आते थे और संजौली
से लकड़ी आदि के गट्ठे घोड़ों पर लाद कर लाये जाते थे। तब आवागमन के साधन अत्यंत सीमित थे। अखरोट की लकड़ी की नक्काशीदार छतें
आज भी उतनी ही चमकदार और ख़ूबसूरत
हैं। विदेशों से लाये गए लगभग डेढ़ शतक पुराने ब्रास और हाथीदांत के झाड फानूसों की सुन्दरता देखते ही बनती है। यहाँ का
आलीशान सेन्ट्रल हॉल व् नृत्य कक्ष बहुत ही
ख़ूबसूरत है जहाँ मेहमानों का मनोरंजन होता था दावतें होती थीं व् नृत्य के पश्चात निकट के भोजन कक्ष में भोजन की व्यवस्था
होती थी। यहाँ एक १९३६ में लगाई गई दीवार घड़ी
है जो आज भी काम कर रही है और ये जान कर अचम्भा हुआ कि इसे आज तक ठीक करने की आवश्यकता नहीं पडी। इसमें सात दिन में एक
बार चाभी भरी जाती है। ऐसे ही एक पियानो है
जिसे तत्कालीन वायसराय और उनकी पत्नियाँ उपयोग में लाते थे। उसे बजाकर बताया गया वो अब भी शानदार आवाज़ में बजता है।
एनान्देल जिमखाने क्लब में पोलो, क्रिकेट और घुड़सवारी होती थी। कुछ जानकारियाँ रोचक थीं जैसे
यहाँ 700 से अधिक
नौकर चाकर, रसोइये, माली आदि थे जिसमें से करीब पचास लोगों की नौकरी सिर्फ बंदर
भगाने की थी क्यूँ कि यहाँ बेहद बन्दर थे
और बगीचों आदि को नुकसान पहुंचाते थे। गाइड ने ये भी बताया कि जलियावाला काण्ड के कत्लेआम का दोषी जनरल रेजिनाल्ड डायर
शिमला से ही था और उसने व पाकिस्तान के
भूतपूर्व राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने शिमला के बिशप कॉटन स्कूल से शिक्षा पाई थी।
पहले यानी
१८१४-१६ के
आसपास सैनिक टुकड़ियों के सुरक्षित जगह पर आराम के लिये इस स्थान का उपयोग किया
जाता था। शिमला की ठंडी जलवायु, सुरम्य प्राकृतिक
दृश्यों, हिमाच्छादित पहाड़ी
दृश्यों, चीड़ और देवदार के
जंगलों और शहरी भूदृश्य से आकर्षित हो ब्रिटिश शासकों का ध्यान इस क्षेत्र की और गया।
ठंडी जलवायु में रहने के अभ्यस्त व् मैदानी इलाकों की गर्मी से
अघाए अंग्रेजों ने इसे अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया ये १८६४ का वर्ष था। इसके बाद जितने
वाइसराय नियुक्त किये गए उन्होंने इसे अपनी शौकों व् सुविधाओं के मुताबिक़ आगे बनाए
जाने का काम किया। यहाँ एनान्देल जिमखाने क्लब में पोलो,क्रिकेट और घुड़सवारी
होती थी इसमें मनोरंजन, रंगमंच, नाच गृह, पिकनिक, जिमखाना, कांफ्रेंस हौल, जहाँ बैठकर भारत की कई
अगली नीतियों पर गंभीर चर्चायें की गई .. । यहीं पर १९४५ में ‘’शिमला कॉन्फ्रेंस‘’ हुई। इसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग और
अंग्रेजी शासकों के मध्य त्रिपक्षीय वार्ता हुई थी। जिसमे गांधी जी, पंडित नेहरु, मौलाना आज़ाद, मुहम्मद अली जिन्ना
आदि उपस्थित थे। यहाँ बेल्जियम से मंगाई गई एक लकड़ी की मेज है
जिसके पास चार कुर्सियां बिछी हुई हैं। हमें बताया गया कि यह
शांति वार्ता असफल हो गयी और हिन्द पाक विभाजन का ऐतिहासिक और दुर्भाग्यपूर्ण
निर्णय यहीं पर हुआ था। उस मेज़ के बीच में एक दरार है जिसे
अंधविश्वासियों द्वारा विभाजन का निर्णय होते ही मेज़ के दो टुकड़े हो जाना माना गया। ये दरार स्पष्टत आज भी
दिखाई देती है लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि उस समय इतने बड़ी मेज़ एक ही लकड़ी
से नहीं बनाई जा सकती थी इसलिए इसमें दो लकड़ियों का उपयोग हुआ था। इस तरह ये इमारत एक
एतिहासिक दस्तावेज है एक सबूत भारत के उथल पुथल भरे दौर का।
सन १९४७ यानी आज़ादी के बाद यह एस्टेट भारत के
राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आ गया और इसका नाम रखा गया ‘’राष्ट्रपति निवास।‘’ जिसका विधिवत उदघाटन
तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन ने किया। आजकल इसमें
इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी (भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान) है।
आँखों व ज़ेहन में इस अप्रतिम एतिहासिक
दस्तावेजों व् सौन्दर्य को भरे हम वापस लौटे। कुछ और छोटे मोटे
स्थानों को देख कर हम उस ‘’घाटी’’ से मैदानी भाग में उतर रहे थे। चंडीगढ़ पहुंच कर हमने
पिंजोर गार्डन, रोज़ व् रोक गार्डन देखा। सुगंध रहित ख़ूबसूरत
गुलाबों की असंख्य किस्में और रंग। इससे आगे मार्ग में हमने कुरुक्षेत्र
विश्वविद्यालय, कुछ ऐतिहासिक स्थल भी देखे। करनाल में भारत की
पहली अंतरिक्ष महिला यात्री कल्पना चावला की स्मृति में बना प्लेनेटोरियम देखना
बहुत अच्छा और अद्भुत अनुभव था। कल्पना चावला यहीं की निवासी थीं। वे अंतरिक्ष शटल मिशन
विशेषज्ञ थीं और कोलंबिया अंतरिक्ष यान आपदा में मारे गए सात यात्री दल सदस्यों
में से एक थीं। अत्याधुनिक तकनीक से बने इस प्लेनेटोरियम में
बाहर वृत्ताकार दीवारों पर सौर मंडल की कुछ जानकारियाँ, कल्पना चावला का
सचित्र जीवन एवं उनकी उपलब्धियां दर्शाई गई हैं। वे नेशनल एरोनौटिक्स
एंड एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के कोलंबिया अंतरिक्ष यान में जाने वाली भारतीय मूल की
प्रथम महिला थीं। गुम्बद के भीतर दर्शकों को आरामदायक
कुर्सियों पर बिठाया गया। घटाटोप अँधेरे में डिज़िटल व् प्रोजेक्टरों के
माध्यम से अंतरिक्ष यान व् यात्रियों से सम्बंधित जीवंत दृश्य दिखाए गए जो अद्भुत
थे। उन तीस मिनटों में ऐसा महसूस हुआ जैसे हमारा संपर्क भी पृथ्वी से टूट चुका
है और हम भी अंतरिक्ष यान में सफर कर रहे हैं।
इस फिल्म में अन्तरिक्ष में जाने वाले
यात्रियों की समुद्री तल व् आकाश के दुरूह वातावरण में अत्यंत कठिन ट्रेनिंग और
अंतरिक्ष में जाने के बाद की जटिल परिस्थितियों, गुरुत्वाकर्षण विहीन
स्थितियों का शरीर पर दुष्प्रभाव आदि को बहुत बारीकी और प्रभावी तरीके से बताया
गया है। इस वृत्ताकार कमरे में मानव की खोज और
अंतरिक्ष की ये सच्चाईयां देखना एक चमत्कार था। यह अपने ज्ञानकोष को
सम्रद्ध करना व हिन्दुस्तान की इस जाबाज़ और दुस्साहसी युवती के इस जुनून और
हिन्दुस्तान की स्त्री की अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धि को पुनः आदर और गर्व से नमन करने
का मौक़ा भी था। पितृसत्तात्मकता, अबला व अधीन जैसे
शब्दों की ज़ेहन पर जमी बर्फ शायद पिघल रही थी। जिस स्त्री की
बहादुरी और ज़ज्बे को हमने अभी देखा उसकी रोशनी ने कितने धुंधले और अस्तित्वविहीन
और बौने कर दिए थे स्त्री मुक्ति व् विमर्शों के तर्क ...? कितना सरल होता है
आरामदायक घरों में बैठ नारी की दुर्दशा पर विलाप कर लेना और पुरुषों को कोसना और
कितना कठिन है एक सम्पूर्ण मानवता के हित में अपनी जान की बाज़ी लगा कर स्त्री की
चिर परिचित छवि को खारिज करते हुए इतिहास के पन्नों में
दर्ज हो जाना। जिन एतिहासिक दस्तावेजों को देख कर अभी लौट रहे
थे तुम भी भारत के उन्हीं महत्वपूर्ण दस्तावेजों का हिस्सा रहोगी कल्पना चावला।
कुल मिला कर कह सकते हैं कि इन सात दिनों को
मेरे जीवन की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियों एवं यादगार दिवसों में शामिल किया जा सकता
है।
(वन्दना
शुक्ला पिलानी में रहती हैं। मूलतः
कहानीकार और कवियित्री हैं। अभी हाल ही में इनका एक
उपन्यास ‘मगहर
की सुबह प्रकाशित और चर्चित हुआ है।)
सम्पर्क
ई-मेल : shuklavandana46@gmail.com
वन्दना जी ;नमस्कार। शिमला की शानदार यात्रा करवाई । 2005 में मैंने शिमला यात्रा की थी ।यादें ताजा हो गई। जाखू हिल पर अचानक बन्दर द्वारा चश्मा उतार कर ले जाने का वाकया मेरे साथ भी हुआ था। पुनः मिलने का तरीका वही। पहाड़ों की यात्रा सचमुच रोमांचक होती है। भीतर तक ताजगी ।नये ज्ञान का लोक ।सबसे बड़ी बात आनंद का उजास। इस सुन्दर लेखन के लिए बधाई। संतोष जी का आभार।
जवाब देंहटाएं