सुशील कुमार की कविताएँ




भाषा शब्द बन कर कवि के पास कैसे आती है इसे जानने के लिए आपको कवि के घर जाना पड़ेगा जो अपने घर में रहते हुए भी प्रकृति से जुड़ा होता है. हो सकता है आपको वहाँ भौतिक सुविधाओं का अभाव दिखे, लेकिन आत्मीयता की सुगन्ध और समृद्धि आपको वहाँ जरुर दिखाई पड़ेगी.  ऐसी ही समृद्धि से युक्त सुशील कुमार की कविताएँ आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं. आईए पढ़ते हैं सुशिल कुमार की कविताएँ - 

कवि का घर
(उन सच्चे कवियों को श्रद्धांजलिस्वरूप जिन्होंने फटेहाली में अपनी जिंदगी गुज़ार दी )

किसी कवि का घर रहा होगा वह
और घरों से जुदा
और निराला
जहाँ चींटियों से ले कर चिरई तक उन्मुक्त वास करते थे  
चूहों से गिलहरियों तक को जहाँ हुड़दंग मचाने की छूट थी  

बेशक उस घर में सुविधाओं के ज्यादा सामान नहीं थे  
ज्यादा दुनियावी आवाज़ें और हब-गब भी नहीं होती थीं   
पर वहाँ प्यार, फूल और आदमीयत ज्यादा महकते थे
आत्माएँ ज्यादा दीप्त दिखती थीं  
साँसें ज्यादा ऊर्जस्वित   

धरती की सम्पूर्ण संवेदनाओं के साथ
प्यार, फूल और आदमीयत की सु-गंध के साथ
उस घर में अपनी पूरी जिजीविषा से
जीता था अकेला वह कवि-मन बेपरवाह 
चींटियों की भाषा से परिंदों की बोलियाँ तक पढ़ता हुआ  
बाक़ी दुनिया को एक चलचित्र की तरह देखता हुआ  

तब जाकर कहीं भाषा
एक-एक शब्द बन कर आती थी उस कवि के पास
और उसकी लेखनी में विन्यस्त हो जाती थी  

अपनी प्रखरता की लपटों से दूर, स्वस्फूर्त हो
कवि फिर रचता था उनसे एक नई कविता|


हमारे सपनों का मर जाना

खुली आँखों में सच होता है 
बंद आँखों में सपना

सपने अदृश्य होते हैं
पर बेहद आस-पास होते हैं -
जैसे फूल में मकरंद
जैसे श्वास में प्राणवायु  

हालाकि सपने सच नहीं होते,
पर सच की कोख से जनमते हैं
और सच से बड़े होते हैं

सपनों में धवल-धूसर कई रंग होते हैं 
जोश होता है, जज़्बा होता है
और सच का भविष्य पलता है

सबके अपनेअपने सपने होते हैं - , 
नदी के सपनों में जल, मछलियाँ, मल्लाहों के गीत और पनहारिनों का मुखड़ा आता होगा
पहाड़ के सपनों में आते होंगे जंगल-झरने,  मेघ, पशु-पंछीहिमपात 
समुद्र के सपनों में चंचल नदियाँ, गिरती-उठती लहरें और जलयात्राओं के साहसिक किस्से 
हिरणों को हरी घास, चिड़ियों को दाना,
मोर को सावन की घटा  और मधुमक्खियों को फूलों के सपने आते होंगे 
किसानों को आते होंगे लहलहाते खेत और पकी हुई बालियों के सपने

लोग कहते हैं
सपने वे नहीं होते जो जागती आँखों में आते
सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते 
ऐसे में अपनों के गुजर जाने की तरह गहरा दु;ख होता है -
किसी के सँजोये सपनों का मर जाना
 
फिर दु:स्वप्न का दौर-सा चलता है -
तब वह नदी रेत से भर जाती है / मछलियाँ तड़पकर मर जाती हैं  
गीत में दु:ख समा जाता है / पहाड़ ठूँठ हो जाता है, नीड़ उजड़ जाते हैं
उस समुद्र को सुनामी का अंदेसा होता है, दरियाई घोड़े और शार्क नजर आते हैं
हिरणों को बाघ, चिड़ियों को बहेलिये का बिछाया जाल दिखता है
और वे मधुमक्खियाँ देखने लगती हैं अपना उजड़ा हुआ छत्ता
विष खाकर किसान भी अपने खेत की मेड़ पर लेट जाता है  

सपनों के टूटने-बिखरने का दु:ख शायद उतना गहरा नहीं होता
जितना गहरा होता है हमारे सपनों का मर जाना|

  
चिड़ियों का प्रेम

पहले-पहल जब चलना सीखा 
और माँ की गोद से उतर 
देहरी पर पहला पाँव रखा
तो दालान में चिड़ियों को देखा
अपनी चोंच में तिनका दबाये 
घोंसला बुनने में मगन थीं
कभी चोंच से अपने बच्चों को दाना चुगा रही थीं 
तो कभी चोंच मारकर अपनी बोली में उसे
फड़फड़ानाउड़ना-फुदकना सीखा रही थीं 

सचमुच इतने कुसमय में भी नहीं बदला 
चिड़ियों का प्रेम|
 
कविता तुम्हारे भीतर

गौर से सुनो और महसूस करो कवि,
रेत के भीतर बह रही पहाड़ी नदी का स्पंदन
कोख में गिरते एक बूँद की हलचल
अंडों के भीतर सुगबुगाते पंछियों की आहट
अपने ही शरीर में कोशिकाओं के टूटने-बनने की क्रियाएँ 
मन के किसी कोने रूढ़ हो रहे शब्दों की तड़पन
फिर कहो, क्या कोई कविता नहीं आकार ले रही तुम्हारे भीतर


घनी आबादी वाले हिस्से में

पहाड़ से उतरती आड़ी-तिरछी ये पगडंडियाँ
नदी तक आते-आते न जाने कहाँ बिला जाती हैं

बलुई नदी पार कर रहे मवेशियों के खुरों की आवाज़
पहाड़ी बालाओं के गीतों के स्वर 
गड़ेरियों की बाँसुरी की धुन
माँदर की थाप
जंगली फूलों की गंध
पंछियों का शोर
- ऐसा कुछ भी नहीं जा पाता नदी के उस पार
- घनी आबादी वाले हिस्से में

सिर्फ़ जाते हैं वहाँ
कटे हुए जंगलकटे हुए पहाड़
और अपने घर-गाँव से कटे 
काम की खोज में  
पेट की आग लिए पहाड़ी लोग|

लकड़हारा और मैं

सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लादे
कमर कमान-सी झुकी
उस बूढ़े लकड़हारे का रास्ता रोक
जीवन का रहस्य जानना चाहता हूँ उससे -

न जाने अपने जीवन के कितने वसंत देख चुका
वह बूढ़ा आदमी
लकड़ियों का बोझा धीरे से अपनी पीठ से उतारता है
फिर तनकर एकदम खड़ा हो जाता है
अपना पसीना पोछता है
मुझे देखकर थोड़ा मुसकुराता है
फिर सिर पर अपना बोझा लाद
पहले की ही तरह झुक जाता है
और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाता है |


अपने भूले-बिसरे साथियों को याद करते हुए 

हमारी आँखों में तुम थे तुम्हारी आँखों में हम
हम-सब की आँखों में ढेर-सारे सपने थे

सपनों के उजले पंख थे
मन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर

जेबें खाली थीं अपनी पर हृदय संतोष से भरा था
फटेहाली कम न थी पर मस्तमौला थे बावरे थे हम
और कई उलझनों के बावजूद लगभग निश्चिंत-से रहते थे

आज न तुम हो  न हमारे सपने
लानतों से भरे सामान हैं, जेबें भरी-पूरी हैं अपनी
पर न रंग है कोई न जज्बा
न वह उमंग न उड़ान

अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
अपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही गली-मुहल्ले में कैद
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं

सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल और संगीत कितना बदल लिया हमने |


 महुआ का पेड़

मेरी बारी में
महुआ का यह पेड़
दिन-दिन सूखता जा रहा है
अब फल नहीं आते उस तरह
न गमक ही उसकी फैल पाती
भीतर वाले घर – ओसारे और पास वाले ताल-तलैया तक

कंक-सा होता जा रहा है यह पेड़
तुम्हारे जाने के बाद 

कहती है माँ 
जब से तलैया का पानी सूखा है
सोनचिरैया भी
लापता हो गई इस पेड़ से
और पहाड़ के भूतों ने
यहाँ डेरा डाल दिया है 

 कौन देस चली गई
 
सोनचिरैया संग तुम
ताल का जल और महुआ की खुशबू उतार शहर को
किस जादू के वशीकरण-मंत्र से अभिभूत हो कर
कि गाँव लौटने का नाम नहीं लेती?


 सोनचिरई

फुदकती थी
बहुरंगी सोनचिरई
मेरे आँगन बहियार- तलैया पर रोज 
टुंगती थी दाना,
गाती थी गीत
और मुझसे मिलने
सोनचिरई के संग संग
गाती 
ठुमकती
चली आती थी तुम
उसे रोज दाना खिलाने के बहाने

फिर एक दिन वह उड़ गई
और कभी न लौटी

तुमने कहा
जरूर बहेलिये के जाल में
जा पड़ी होगी वह

सहसा विश्वास न हुआ मुझे
पर तुम भी जब न लौटी शहर से
अपने गांव
इतने बरस बाद
  तो सचमुच लगने लगा -
सोनचिरैया को
हमेशा के लिए
फाँस ले गए बहेलिये |


इस तरह मत देखूँ तुम्हें कि  

इस तरह मत देखूँ तुम्हें कि
कि अनदिखा ही रह जाय तुम्हारा रूप-लावण्य   
अनछुई ही रह जाय तुम्हारी आंतरिक बनक 
दबे ही रह जाएँ मन में हिलोरें लेती इच्छाएँ   
और अनसुने ही रह जाएँ वहाँ जनमते प्रेमसंगीत

रूप-रस और गंध तो मात्र 
देखने-सुनने और छुवन के ढंग पर निर्भर  है
और आँखों का दोष सिर्फ़ इतना है
कि वह देखते हुए भी
देख नहीं पाती  
अकस्मात तुम्हें पूरा-पूरा  

न मन ही एकबारगी पढ़ पाता  
तुम्हारे रूप के आवरण-आकर्षण में गुप्त प्यार-सनी   
गहरी धँसी इच्छाओं की जटिल ज्यामितियाँ

आँख से अधिक वह नजर चाहिए दीदार को कि
जब देखूँ तुम्हें तो कुछ इस तरह देखूँ
कि पूरा देखूँ तुम्हें,
और महसूस करूँ तुम्हें अपनी आत्मा के सम्पूर्ण अतिरेक से
सूँघूँ वैसे कि रजनीगंधा बिखर रही हो मेरे मन के आँगन में -

ठीक जैसे किसान देखता है
स्वेद-सिंचित धरती पर 
लहलहाते धान की बालियों के बीच 
अपनी पत्नी का खिला मुखड़ा
जैसे मोर देखता है गर्व से 
धमाचौकड़ी करता मेघ भरा बादल
जैसे मेहनती विद्यार्थी परीक्षा का
अपना सफल रिपोर्टकार्ड
देखकर हुलसता है

सुनूँ वैसे कि
साँप सँपेरा की बीन सुन डोलता है
और सूँघूँ वैसे,
जैसे महुआ की गंध से पहाड़िया
और जंगलजीव जाग उठते हैं   

और उनका मन
बौराने लगता है
प्रेम-हर्ष के तेज बयार में|
                  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स प्रख्यात चित्रकार राम कुमार की हैं, जिन्हें हमने गूगल से साभार लिया है.)

सम्पर्क- 

मोबाईल- 09431310216 

टिप्पणियाँ

  1. सुशील जी की कविताएं एक गहरा प्रभाव छोड़ती हैं अपने कथ्य के स्तर पर. उनका गद्य भी पड़ता रहा हूँ, जिसमे उनकी आलोचनात्मक दृष्टि और चिंताएं जाहिर होती हैं.
    धन्यवाद.

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  2. अपने आसपास के परिवेश और उसमें क्रियाशील जनजीवन एवं प्रकृति को एक शब्द विन्यास देकर आपने उसे अपना व्यक्तित्त्व प्रदान किया है। जिस जगह पर आप रहते हैं वह स्थान इन कविताओं के धरातल का निर्माण करता है। आज की कविता में एक विश्लेषण तत्त्व भी आ गया है , जो हमको उन कारणों की दिशा में ले जाने का काम करता है ,जिनसे अमानवीय स्थितियां बनती हैं। बहरहाल अच्छी कविताओं के लिए बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर कविताएं अाैर सुन्दर बिम्ब। मनीषा जैन

    जवाब देंहटाएं
  4. आस पास के विषय और आम भाषा मिलकर सहज सरल कविताओं का निर्माण कर रहे हैं।
    बधाई

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  5. सूर्य प्रकाश जीनगर फलौदी29 अप्रैल 2014 को 11:34 am बजे

    जमीन से जुड़ी सुन्दर रचनाएँ ।बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  6. प्रियवर सुशील ;

    "पहलीबार" ब्लॉग पर तुम्हारी कवितायें पढ़ कर बेहद प्रसन्नता हो रही है । बहुत
    कुछ बदल गया है । तुम उम्र में प्रौढ़ होते हुए कविता में बेहद सहज हुये हो ।
    गहरी संवेदना के अंकुर फूटते दिखते है । कविता का मुहावरा भी बहुत बदला है ।
    मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि प्रशासनिक पद पर होते हुये तुमने अपनी
    इंद्रियों को जड़ नही होने दिया है । लोक जीवन के मनोरम चित्र जीवित हो उठे है
    । अब थोड़ा आगे भी जाओ। जहां भयावहता से जीवन आक्रांत है । लोक का वो रूप जब
    छूटता है तो यथार्थ कमजोर पड़ने लगता है । तुम्हारा लकड़हारा उन लोगों से भी
    मुखातिब हो जिन्हों ने उसकी जंदगी वैसी बनाने को जाल बिछाये है । जैसे निराला
    का कुकुरमुत्ता कहता है गुलाब से -
    अबे , सुन बे गुलाब
    भूल मत जो पाई खुशबू , रंगोआब
    खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
    डाल पर इतरारता है कैपिटलिस्ट
    कितनों को तूने बनया गुलाम
    शाहों , राजों , अमीरों का रहा प्यारा
    सभी साधारणों से तू न्यारा
    यह लट्ठ मार भाषा बb सामने आती है तो कुलीन घबराते है । उनका पिलपिला
    सौंदर्यबोध बिखरने लगता है ।
    इस बात को तुम से कोई नहीं कहेगा । सब तारीफ करके ही रह जाएंगे । तुम मेरे
    बहुत करीब हो । मै तुम्हें शिखर की ओर बढ़ता देखना चाहता हूँ । किसी को क्या
    पड़ी । औपचारिकता से आगे नही बढ़ते । मुझे उम्मीद है तुम अन्यथा नही लोगे ।
    सस्नेह, विजेंद्र - तुम्हारा अपना











    2014-04-23 9:14 GMT+05:30 Facebook <

    जवाब देंहटाएं
  7. Anuj Lugun ne mere Facebook par bheja --सचमुच इतने कुसमय में भी नहीं बदला चिड़ियों का प्रेम ...उम्दा कवितायेँ हैं

    जवाब देंहटाएं

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