श्रीराम त्रिपाठी का आलेख 'आलोचना : इस समय'





साहित्य में आमतौर पर आलोचना को रचना के पीछे-पीछे चलने वाली विधा माना जाता है। लेकिन वरिष्ठ आलोचक श्रीराम त्रिपाठी आलोचना को भी रचना कर्म मानते हैं इसी क्रम में वे कहते हैं - 'आलोचना और सर्जना को लाख विरोधों के बावजूद एक-दूसरे से संयोजित होना ही पड़ेगा। अन्यथा दोनों का बचना मुमकिन नहीं।' आलोचक का दायित्व बहुत बड़ा होता है। मुँहदेखी आलोचना अंततः आलोचक और रचनाकार दोनों के लिए घातक होती है अपने आलेख 'आलोचना : इस समय' के माध्यम से त्रिपाठी जी ने आलोचना की बात पर एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेख 'आलोचना : इस समय'     

आलोचना : इस समय

श्रीराम त्रिपाठी

आलोचना और सर्जना एक-दूसरे के विरोधी होने पर भी एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर ही निर्भर है। आलोचना के बिना सर्जना अंधी और सर्जना के बिना आलोचना लूली है। आलोचना अगर आँख है, तो सर्जना हाथ। आँख के बिना हाथ और हाथ के बिना आँख की कोई अर्थवत्ता नहीं होती। यह सच है कि दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं, मगर के एक-दूसरे से गुणकर, दोनों अपनी-अपनी अर्थवत्ता को बढ़ाते ही हैं, कम नहीं करते। इस प्रकार आलोचना और सर्जना को लाख विरोधों के बावजूद एक-दूसरे से संयोजित होना ही पड़ेगा। अन्यथा दोनों का बचना मुमकिन नहीं। आपसी संघर्षात्मक-संयोजना द्वारा ही वे एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश में एक-दूसरे को ठेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। ऐसे में मुमकिन है कि कभी कविता पर ज़ियादा ज़ोर पड़े, तो कभी आलोचना पर। ऐसा करने में जिस पर ज़ियादा ज़ोर पड़ता है, उसका चीख़ना-चिल्लाना वाज़िब है। यही है साहित्य का संसार, जो जीवन-संसार से स्वायत्त होने पर भी उसके अंतर्गत है। उससे लगा होने पर भी अलग है। आकार में छोटा यह संसार, जिस वृहद संसार के अंतर्गत है, उसे इसे ही वहना भी है। उलटी लगती इस क्रिया को इसे ही सम्पन्न करना है। जीवन-संसार विविध और विभिन्न है। विविध और विभिन्न संसार को इसे ही अविधना और अभिन्नना भी है। अविधन और अभिन्नन की प्रक्रिया ही संघटन की प्रक्रिया है। भिन्नों का सम्मिश्रण ही संघटन और उसका गुण ही शील कहलाता है। जो लशे, वही शीलवान है। लोक में इसे ‘लासा’ कहते हैं। इस तरह लोक-वेद एक-दूसरे के विरोधी होने पर भी एक-दूसरे से संयोजित होते हैं। लोक लसता है, जबकि वेद वदता। इन दोनों के संयोजन का ही नाम है, साहित्य। हमारी कोशिश होगी कि ‘आलोचना : इस समय’ को इस तरह विवादा जाये कि संवाद बन जाये। ध्यान रहे कि संवादना नहीं, विवादना। आजकल तो ‘विवाद’ शत्रु का पर्याय और ‘विवादक’ हिंसक मान लिया गया है। आज का दौर तो एकदम्मे अहिंसक हो गया है। नित नयी मिसाइलें और परमाणु हथियार बन रहे हैं, मगर दौर है अहिंसक। घनघोर अहिंसक। इनके निर्माताओं का कहना है कि रक्षा के लिए यह सब करना पड़ रहा है, मगर वे यह नहीं बतलाते कि रक्षा किससे करनी है। आपको कौन अरक्षित कर रहा है। पड़ोसियों में इतना बैर कभी न था, जितना आज है। कथनी-करनी में इतना बड़ा अंतर शायद ही कभी हुआ हो। इसीलिए आज हर शब्द अपने से जुड़े किसी भी अर्थ से बिलकुल अलग हो गया है। किसी भी शब्द का कोई भी अर्थ हो सकता है। पूरी स्वतंत्रता है। पूरी स्वछंदता है। जो चाहो करो, जैसे चाहो करो। एकदम बंधनहीन, उन्मुक्त। तभी तो जहाँ देखो वहाँ संवाद ही संवाद है। भिन्न-भिन्न संवाद है। सुर-सुरों की भरमार है। नहीं है तो केवल अभिन्न और असुर। तो झूठ काहे कहें, हम भी संवादना चाहते हैं, ख़ूब संवादना चाहते हैं, मगर जानते हैं कि यह तो बहुत कठिन काम है। इसके लिए शील चाहिए, जो अपने में है नहीं। इसलिए अपने तर्इं तो विवादेंगे ही, यह सोच कर कि विशेष नहीं बना, तो कम से कम विरोधी तो बनेगा ही। कुछ न करने से तो अच्छा है कि कुछ किया जाये। हाँ, इसके लिए भुगतने की तैयारी होनी चाहिए। तो दोस्तों, हम यहाँ जो कुछ कहेंगे, उसका नतीजा भुगतने को तैयार हैं। कुछ नहीं, तो कम से कम तजुर्बा तो हासिल होगा ही। चाहे अच्छा, चाहे बुरा। बुज़ुर्गों ने कहा है न कि तजुर्बा बहुत बड़ी चीज़ है। उसका कोई मोल नहीं। वह आगे के लिए बड़े काम का होगा। वह और किसी के काम का भले ही न हो, इतना ही नहीं, और किसी काम का भी न हो, परंतु ख़ुद के संशोधन-परिष्कार में तो बहुत मददगार होगा ही।

      तो दोस्तो, सृजन-कर्म श्रेष्ठ है आलोचन-कर्म से, इसे कोई इनकार नहीं सकता। मगर यह भी सही है कि आलोचन-कर्म की प्रौढ़ता ही सृजन-कर्म की बुनियाद है। मतलब कि आलोचना ही सर्जना का पहला पायदान है, जिसके बिना सर्जना के पायदान पर पहुँचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। जिस तरह आठो डाँड़ी सीखे बिना लिखना मुमकिन नहीं, उसी तरह आलोचना के बिना सर्जना भी मुमकिन नहीं। रचना का बीज-तत्त्व है, आलोचना। एक सर्जक पहले तो आलोचक ही होता है, मगर एक आलोचक पहले सर्जक हो, ऐसा कहना अगर नामुमकिन नहीं, तो मुश्किल ज़रूर है। जो है, वह पर्याप्त और श्रेष्ठ है या उससे बेहतर भी हो सकता है, इसका बोध तो आलोचना ही कराती है। वह वर्तमान को संशोधित-परिष्कृत करने में इसी तरह मदद करती है। संशोधन-परिष्कार की क्षमता के अभाव में सर्जना कैसी! अनुकरण ही मुमकिन है। जो केवल आखे-चाले वह आलोचना और जो आखने-चालने के बाद बनाये भी, वो सर्जना है। मुक्तिबोध मूलतः कवि थे, मगर उनकी आलोचना किसी भी स्थापित आलोचक से कम नहीं, बल्कि बेहतर है। उसी मुक्तिबोध ने साहित्य के नेतृत्व का भार आलोचक को सौंपा था, सर्जक को नहीं। कारण कि सर्जक पहले से ही दुहरा भार वहता है। वह आखने-चालने के साथ-साथ बनाता भी है। उस पर और बोझ लादना ठीक नहीं। दूसरे, आलोचक तो केवल आखने का काम करता है। इसलिए उस पर एक तो कम बोझ होता है, दूसरे एक ही काम करने के कारण उसमें पटु हो जाता है। तो सवाल उठता है कि क्या आज की आलोचना साहित्य का नेतृत्व कर रही है? अगर हाँ, तो कैसे? और नहीं, तो क्यों? इन्हीं सवालों की छानबीन में शायद ‘आलोचना : इस समय’ की भी छानबीन हो जाये। ‘छानबीन’ पर ज़रा ग़ौर कीजिए। यह छानना-बीनना का लघुरूप है। ये दोनों क्रियाएँ न केवल आखना-चालना की समानधर्मा हैं, बल्कि उनसे ज़ियादा सूक्ष्म हैं। ये सभी क्रियाएँ वस्तुओं का परिष्कार करती हैं, इसीलिए समानधर्मा हैं। छानना-बीनना, आखने-चालने के बाद होता है। छाने-बीने हुए को छानना-बीनना। मतलब कि महीन से महीन करना। मतलब कि आलोचे हुए को फिर से आलोचना। यह पहले से अधिक कठिन और दुरूह है। फँसा दिया आयोजक मित्रों ने। बुरे फँसा दिया। जहाँ विवाद के अलावा कुछ मुमकिन ही नहीं। कहा जा चुका है कि आज के दौर में ‘विवाद’ तो पूरी तरह असामाजिक हो गया है। एक अश्लील शब्द। सामाजिक मान्यता तो संवाद’ को मिली हुई है। जहाँ देखो वहाँ संवाद ही संवाद हो रहा है, जिसका नतीजा हैं नित नये पुरस्कार। विवादी स्वर गुम हैं। एकदम गुम। और जब विवादी स्वर ही गुम हों, तो आलोचना की स्थिति भला बेहतर कैसे हो सकती है! निंदक का अर्थ कभी आलोचक हुआ करता था और सर्जक उसको कितना ज़रूरी समझता था कि “आँगन कुटी छवाने” की बात कहता था। वह आलोचक के क़रीब रहना चाहता था, जिससे उसकी हर क्रिया पर निंदक की नज़र बनी रहे। जिससे उसकी सर्जना ज़ियादा से ज़ियादा गुणात्मक बने। 

यहाँ ज़रा निंदक को समझते चलें। निंदक का सामान्य और थपा अर्थ है, बुराई करने वाला। निंद शब्द नींद से नाभिनाल बद्ध है। दिन भर हम जीवन-व्यवहार के तहत घर से बाहर भटकते हैं और रात को नींद के लिए विस्तर पर ख़ुद को फैला देते हैं। अगर विस्तर हमारे फैलाव से छोटा होता है, तो हमें संतुलित नींद नहीं आती। इस तरह हमारा विस्तर हमारे शरीर के विस्तार से कम नहीं होना चाहिए। जिस तरह औरतें पकाने से पहले चावल को किसी छिछले बर्तन में फैला कर उसके कंकड़-पत्थर को बीन कर साफ़ करती हैं, उसी तरह हमें भी दिन भर के बटोरे को फैला कर साफ़ कर लेने के बाद बटोर कर रख लेने के उपरांत ही निंदना होता है। वही हमारी पूँजी है, जिसके द्वारा हमें दूसरे दिन का जीवन-व्यवहार चलाना होता है। ऐसा न करने-वाला भी निंदक ही है और ऐसा करने वाला भी, क्योंकि निंदते तो दोनों हैं। स्पष्ट है कि ऊपर जिस निंदक के लिए कुटी छवाने की बात कही गयी है, वह ऐसा करने वाला ही है। इसे अगर आलोचक की ओर से देखें, तो आलोचक को इससे सृजन-प्रक्रिया को देखने तथा उससे गुज़रने का लाभ मिलता था। यह बात दीगर है कि तत्कालीन आलोचकों ने इससे लाभ उठाया कि नहीं। और उठायाए तो कितना और कैसे। आलोचना का विकास तब मुमकिन है, जब वह पाठक-सर्जक के ही नहीं, सर्जन के भी सम्मुख हो। मगर नहीं, हमारे आलोचक तो निष्कर्षक हैं। निरर्थक नहीं, द्वंद्वहीन निष्कर्षक। न द्वंद्वते हैं, न कृषते-कर्षते। सर्जन के सम्मुख कम और पाठक-सर्जक के सम्मुख अधिक होते हैं। या तो वे सर्जक के इतने पास स्थिर हो जाते हैं कि उसकी क्रिया को ठीक से देख ही नहीं सकते, या इतनी दूर कि देखने-दिखने का सवाल ही नहीं उठता। वे पास और दूर में आवन-जावन करते ही नहीं। इसीलिए वे आलोचते कम और संवादते अधिक हैं। इस तरह आलोचक-सर्जक के संवाद से हमारा साहित्य समृद्ध हो रहा है, विवाद से नहीं। जिस तरह विश्व बैंक के ऋण से हमारी सड़कें फिसल रही हैं, उसी तरह हमारी आलोचना दाय में प्राप्त हमारे बुज़ुर्गों द्वारा निर्मित पथ को दुरुस्त न कर के पश्चिम के ऋण से निर्मित पथ पर फिसलती है। कहाँ और किधर जाना है, इसका पता जाने बिना। इससे आप समझ सकते हैं कि आज की आलोचना में साहित्य का नेतृत्व करने की कितनी क्षमता है। रही बात नेतृत्व कर रही है या नहीं की, तो इतना ही कहना मुनासिब है कि हमारा साहित्य इस समय नेतृत्वहीन है। छोटी-छोटी टुकड़ियों में बंद एक कुनबा, जिसमें द्वंद्व और संदेह का अभाव है। जहाँ भूलने-भलने की कोई गुंजाइश नहीं। यहाँ जो भी होता है, सही और श्रेष्ठ ही होता है। इसलिए सहर्ष स्वीकार लिया जाता है। समय से बड़ा आलोचक कोई नहीं। उसकी छननी-बिननी बहुत बारीक़ होती है। वह ज़रा भी मुरव्वत नहीं करती। सार को ही गहती है और थोथों को उड़ा देती है। देखने की बात यह है कि आज का वही साहित्य श्रेष्ठ है, जो जितना उड़ता है, न कि उठता है। उठने वाले साहित्य की पहचान उसका ज़मीन से जुड़ाव है, जिससे उसका कोई वास्ता नहीं। ध्यान रहे कि उठने वाला साहित्य टिकाऊ होता है, उड़ने वाला साहित्य नहीं।

      हमारी दिक़्क़त यह है कि हम कार्य की जगह कर्ता को महत्त्व देते हैं। इसीलिए कृति से अधिक कृतिकार महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कर्म की प्रधानता नहीं, कर्मक की प्रधानता। ‘रामायण’ से ज़ियादा वाल्मीकि, ‘सबद’ से ज़ियादा कबीर और ‘रामचरित मानस’ से ज़ियादा तुलसी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। फिर आलोचना का विकास हो तो कैसे! जब रचना से बड़ा रचनाकार हो जाये, तो पूजा की प्रवृत्ति बढ़ती है, आलोचना की नहीं। आलोचना की प्रवृत्ति तभी बढ़ेगी, जब रचनाकार से बड़ी रचना मानी जाये। ध्यान रहे कि कोई भी कृति अकेले कृतिकार की ही निर्मिति नहीं होती। कृतिकार तो निमित्त और माध्यम होता है। वह जिस समय और परिवेश में रहता है, वह भी उस कृति का कारक होती है, जिसे आलोचना की शब्दावली में समय और परिवेश का दबाव कहते हैं। कबीर की कुछ रचनाएँ उलटबाँसी कहलाती हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर की शब्दावली को सिद्धों-नाथों से तो जोड़ा, मगर सिद्ध-नाथों की शब्दावली उलटी होने का कारण क्या था, इसे नहीं बताया। तो क्या हमें इसका पता नहीं लगाना चाहिए! यह किनके उलट थी। तुलसी के हिसाब से तो वाल्मीकि भी उलटे थे। तब ही तो ‘राम-राम’ की जगह ‘मार मार’ कहते थे। रामभक्त तुलसी भला क्यों कहने लगे कि ‘रामायण’ के राम वाल्मीकि के अनुसार मार ही हैं, क्योंकि मार-मार करते हैं। मारने में ही उन्हें मज़ा आता है। ब्राह्मण के बेटे को छोड़ कर, अगर किसी को जीवन दिया हो, तो आपै बताइए। इस तरह हमारे यहाँ दो विरोधी दृष्टियाँ सतत रही हैं। कभी पहली का ज़ोर रहा, तो कभी दूसरी का। उदाहरण के रूप में हम सौ के अंक में शून्य को दाहिनी ओर लिखा मानते हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि शून्य जब दाहिनी ओर आता है, तो संख्या का मान दस गुना बढ़ा देता है। हम भूल जाते हैं कि यह कथन द्रष्टा का है। जिस कागज़ पर हम लिखते हैं, हाशिये को बायीं ओर छोड़ते हैं। हाशिया द्रष्टा की बाँयीं ओर होता है, न कि कागज़ के। कागज़ की ओर से देखें तो दायीं ओर लगेगा। इसी तरह सौ के अंक की ओर से देखें, तो शून्य एक के दायीं ओर होगा। एक दृष्टि कृति-कर्ता की ओर से, तो दूसरी द्रष्टा की ओर से। सत्य इन दोनों के बीच है। लोगों को अकसर कहते सुनते हैं कि उलट-पलट कर देखो। वस्तु का पूरा पता तभी चलेगा। इस तरह उलट-पलट कर देखे बिना सत्य का पता नहीं चलता। कृतिकार रचना को उलट-पलट कर देखता-परखता है। वह उसे सर्वांग सुन्दर बनाना चाहता है, इसीलिए ऐसा करता है। आज हम अपने मकान के चेहरे को ख़ूब चमकाते हैं। पिछवाड़े का ख़याल ही नहीं रखते। इसे अवांतर न समझें और न अश्लील ही। याद आता है बचपन का एक प्रसंग। हमारे पटिदार के यहाँ कुछ बरदेखुआ आये थे। रस्म-रिवाज़ के मुताबिक़ ख़ातिरदारी हुई। बातचीत चल ही रही थी कि बरदेखुओं में से एक बुज़ुर्ग उठे तो पेशाब जाने के लिए, मगर मकान की परिक्रमा करने लगे। जानते हैं, वे क्या कर रहे थे... पँड़ोह देख रहे थे। ज़रा भी रुचा नहीं न। अश्लील लगा होगा। मगर वे बुज़ुर्ग इसका पता लगा रहे थे कि यह घर खाता.पीता है, या फाँकाग्रस्त है। पँड़ोह में अगर सीलन ज़ियादा हो, तो समझना चाहिए कि घर खाता-पीता है। फाँकाग्रस्त नहीं है। द्रष्टा का लक्ष्य पँड़ोह नहीं, घर की समृद्धि का पता लगाना था। पँड़ोह तो समृद्धि जानने का माध्यम था। अब, अगर इस माध्यम पर हम नाक-भौं सिकोड़ कर अलग हो जायेंगे, तो एक छिपे सत्य को जानने से वंचित रह जायेंगे। मालूम है कि इसे जानने के बाद हमारे गाँव के लोग बरदेखुवा आने पर पहले पँड़ोह में ख़ूब पानी बहाने लगे। बरदेखुवों की ख़ातिरदारी बाद में करते। क्या पता, कहीं वही बरदेखुवा भेष बदल कर न आ गया हो। 

तो कोई भी रचना सर्वांग सुन्दर तब कहलायेगी, जब उसका अगवाड़ा ही नहीं, पिछवाड़ा भी सुन्दर होगा। हर क्रिया अपना चिह्न छोड़ती है। अगर वह कुरुचिपूर्ण है तो दाग़ और सुरुचिपूर्ण है तो चिह्न अथवा टीका कहलाती है। टीका का एक मतलब आलोचना है, तो दूसरा सम्मानित करना। इस प्रकार आलोचे बिना किसी को कैसे टीक सकते हैं। परंतु जिधर देखिये उधर आलोचे बिना ही टीकने का रोज़गार चल रहा है, जिस तरह किसी कथा-बार्ता में पंडित जी यजमान के साथ-साथ अन्यों को भी टीक देते हैं, इस आस में कि दस-पाँच जो भी मिल जाएगा। 

बचपन में हम बॉलपेन अथवा फाउंटेनपेन से नहीं, सरकंडे की क़लम को शीशी की स्याही में डुबो कर लिखा करते थे। जिस दिन स्कूल में कुछ भी नहीं पढ़ते थे अथवा गुल्ली मारते थे, उस दिन होंठ और अँगुलियों पर स्याही ज़रूर पोतते थे। यह सोचकर कि इससे ज़ियादा पढ़ाई करना साबित होगा। अखाड़े में लड़ते न थे, मगर अखाड़े की मिट्टी पहलवानों से भी ज़ियादा लगा कर घर लौटते थे। तो भैया, आज की आलोचना में यह सब बहुत हो रहा है। ध्यान से देखने की ज़रूरत है। जितना हम बाहर का परिष्कार करते हैं, उतना ही भीतर का भी परिष्कार होना चाहिए। मगर आज की आलोचना गहरे उतरने से बचती है। उपरे.उपरे मिल जाता हो, तो गहरे कोई क्यों उतरे! कूप मंडूक हैं, जो गहरे उतरते हैं। कितनी चालाकी से उन्होंने ख़ुद को न केवल मंडूक, बल्कि विस्तृत मंडूक के रूप में स्थापित कर दिया। जो मंडन करे, वही मंडक और मंडूक है। ‘कूप-मंडूक’ तिरस्कार और अप-मान वाची है। यह सम्मान वाची क्यों नहीं रहा, जबकि वह न केवल स्वच्छ जल में रहता है, बल्कि स्वच्छ करने में सहायक भी होता है। पीयेंगे कुएँ का पानी और उसके मंडूक को अपमानित करेंगे। ख़ुद तो गंदगी करेंगे और उसे साफ़ करने वाले से दूरी बनाएँगे। वाह भाई, क्या दृष्टि है! कुल मिला कर न छिछली गड़हिया का मंडूक विस्तृत है, न गहिरे कूप का मंडूक गहिरा। उनकी यह हदबंदी आलोचना और जीवन, दोनों के लिए घातक है। दोनों को एक-दूसरे में आना-जाना पड़ेगा, तभी उनका मंडूक’ नाम सार्थक होगा। 

आज की आलोचना की सबसे बड़ी कमज़ोरी है, उसकी निश्चिंतता। वह चिंतती कम, चिंतने का दिखावा ज़ियादा करती है। चिंतना की पहचान है एकाग्रता, जो आज की आलोचना से लगभग सिरे से ही ग़ायब है। सभी जानते हैं कि किसी भी समस्या का मूल अतीत में होता है। वर्तमान तो उसका फल है। निदान फल का ही नहीं, समस्या का भी किया जाता है। अगर यह कहें कि समस्या का निदान करने के बाद ही फल का निदान किया जाता है। मगर हम तो केवल फल के निदान में ही जुटे रहते हैं। कबीर इसीलिए सर्जक भी हैं और आलोचक भी। वे द्रष्टा की तरह भी देखते हैं और भोक्ता की तरह भी। वे बाहर से भी देखते हैं और भीतर से भी। उन्होंने दुनिया-जहान को दुनिया-जहान से ही गुणा-गोड़ा है। उन्होंने जितना और जैसे पाया उसे अपने स्व से गुणा तो सगुण बन गये। मतलब कि गुणवान हो गये। फिर वे इसी गुण को बाहर निकालते हैं, तो ख़ुद तो निर्गुण और निर्मान हो जाते हैं और अपनी निर्मिति को सगुण कर देते हैं। वे बाहर को गुणने के लिए ही ख़ुद को निर्गुणते हैं। भीतरी गुण बाहर नहीं निकलाए तो भीतर नया गुण कैसे आयेगा! सर्जक तो प्रकृत को संस्कृत और प्रकार का संस्कार करता है। प्रकृत यह है कि हम ऑक्सीजन को भीतर लाते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर करते हैं। जो प्रकृत है, वही सामान्य है। सर्जक इसे अमान्य करने के उपरांत ही विमानता है। वह कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर नहीं करता, बल्कि ऑक्सीजन को बाहर कर के मनुष्य जाति का कल्याण करता है। इसी अर्थ में सर्जक वृक्ष ही नहीं, शिव भी है। बाहर से रूखा, मगर भीतर से रसपूर्ण। निर्मान का मतलब ही है, अपने मान को निरू करके ख़ुद को मानहीन कर देना। जिस मान से भरपूर था, उसे निकाल कर एक ओर वह ख़ुद निर्मान हो गया, तो दूसरी ओर समाज का सामान (गुणवान वस्तु) बन गया। सगुण को क्या सगुणना। सगुणना तो निर्गुण को होता है। भरे पेट खाना नहीं होता। ख़ाली पेट खाना होता है। इस तरह कबीर निर्गुण से सगुण और सगुण से निर्गुण में रचते-राचते हैं। 

आज की आलोचना फलधर्मी न होकर फलवादी है। फलधर्मी आलोचना ही प्रक्रियाधर्मी होती है। जिसकी नज़र केवल फल पर होती है, वही फलवादी और जिसकी नज़र फल से लेकर जड़ तक होती है, वही फलधर्मी अथवा प्रक्रियाधर्मी कहलाता है। उसकी नज़र एक छोर से दूसरे छोर तक सतत गतिशील रहती है। मतलब कि पूरे वृक्ष को गुणती है। सिर्फ़ फल खाना उपभोक्तावाद है और फल खाने के बाद वृक्ष को गणना-गुणना भोक्तावाद। हमारी आलोचना जब प्रक्रियाधर्मी होगी, तभी साहित्य का नेतृत्व करने में समर्थ होगी। इसके अभाव में वह साहित्य का नेतृत्व नहीं कर सकती। ऐसा करने पर उसकी नज़र रचना की पूरी प्रक्रिया से गुज़रेगी। मतलब कि संरचना से गुज़रने के कारण वह विकसित होकर सर्जना बन जायेगी। आलोचना इसी तरह सर्जना का विकास करती है। यह कहना असंगत न होगा कि आलोचना के विकास के बिना सृजन का विकास मुमकिन नहीं।

      एक बात और। अकसर कहा जाता है कि सर्जक को लोक के क़रीब होना चाहिए। विविध और विभिन्न अनुभवों से गुज़रना चाहिए। ऐसी सलाह हमारे आलोचक अकसर सर्जकों को दिया करते हैं और ख़ुद को इससे बचा लेते हैं। जैसे ‘चाहिए’ शब्द उन पर लागू होने के लिए बना ही नहीं है। दूसरी बात यह कि आलोचक में सर्जक बनने की लालसा ज़ोर मारेगी, तभी श्रेष्ठ आलोचना मुमकिन होगी। सर्जक बनने का प्रयासी ही श्रेष्ठ आलोचक भी बन सकता है और श्रेष्ठ सर्जक भी। सर्जक के लिए शून्य बाँये होता है, दायें नहीं। शून्य ही आधार है। मतलब कि ज़मीन। स्त्री को वामांगी कहते हैं। इनसान का वाम ही धड़कता है। सृजन-कर्म स्त्री-कर्म है। स्त्री सिरजती है, पुरुष नहीं। स्त्री अपने पुरुष को सिरजती है। स्त्री शक्ति है और शक्ति सूक्ष्म और अमूर्त होती है। वह रूप के भीतर रहती है और क्रिया के वक़्त ही प्रकट होती है, जिसे पौरुष कहते हैं। तो पुरुष अमूर्त शक्ति का ही प्रकट रूप है। सूक्ष्म और अमूर्त को प्रकट करना ही सर्जना-सिरजना है, मूर्त को प्रकट करना नहीं। दृष्ट को दिखाना सर्जना-सिरजना नहीं है, अदृष्ट को दिखाना सर्जना-सिरजना है। इस प्रकार आलोचना को रूप के भीतर के अदृष्ट, मतलब कि सूक्ष्म को उद्घाटित करना होगा। मान और निर्मान की प्रक्रिया को उद्घाटित करना होगा। 

हमें यह कहने में ज़रा भी हिचक नहीं है कि आज की आलोचना ऐसा नहीं कर रही। यहाँ ‘नहीं कर पा रही’ भी कहा जा सकता था, परंतु नहीं कहा गया। कारण कि ऐसा करने की कोशिश कहीं-कहीं ही दिखती है। अधपठ या कचपठ, जो भी चाहें कह लें, प्रवृत्ति के रूप में कम से कम हमें तो नहीं दिखती। जुगनू निराशा से हमें सिर्फ़ बचा सकते हैं, प्रकाशित करके हमारी आशा की पूर्ति नहीं कर सकते। कहीं-कहीं की इस कोशिश को अपनी गहनता के साथ विस्तृत होकर प्रवृत्ति का रूप लेना होगा। तभी उसके प्रकाश में सत्य को स्पष्ट रूप से देखा जा सकेगा। सत्ताधारियों को हर वर्तमान सुखता और जनता को दुखता है। इसीलिए सत्ताधारी परिवर्तन-विरोधी और जनता परिवर्तन-कामी होती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि आलोचना का यह वर्तमान हमें अतुष्टत ज़ियादा करता है और संतुष्टत बहुत कम।

सम्पर्क-


ए-67, तेजेन्द्रप्रकाश-1,

खोडियार नगर, अहमदाबाद-382350

मोबाइल : 09427072772                      

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'