जितेन्द्र श्रीवास्तव के कविता संग्रह 'कायान्तरण' पर मनीषा जैन की समीक्षा



जितेन्द्र श्रीवास्तव युवा कविता में एक सुपरिचित नाम है. अभी-अभी उनका एक और कविता संग्रह 'कायान्तरण' आया है. इस संग्रह की समीक्षा कर रही हैं युवा कवियित्री मनीषा जैन. तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा 
 
कायान्तरण से आगे आत्मान्तरण की कविताएं

मनीषा जैन

कविता का स्वभाव जहां सरल, कोमल व शांत होता है वहीं वह जीवन के यथार्थ भावों का सहज उच्छलन होता है। कविता के द्वारा ही कवि की जीवन-दृष्टि, सामाजिक सरोकार, लोक के प्रति समर्पण जैसे भावों के दर्शन होते हैं। यही समाज में कवि का स्थान नियुक्त करते हैं तथा मनुष्यता का बोध कराते हैं। सुचर्चित युवा कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं भी आज के समय में मनुष्यता को व्यक्त करती हैं। आज की ‘दो मिनट नूडल्स वाली दुनिया’ में ये कविताएं जीवन में स्थिरता व सकारात्मकता प्रदान करती हैं।
जितेन्द्र श्रीवास्तव की नई कविताओं का संग्रह ‘कायांतरण’ बिल्कुल नए भाव-बोध, नए बिम्ब ले कर आया है। ये कविताएं किसी परिपाटी के सांचे में नहीं, बल्कि बिल्कुल प्राकृत रूप से रची गई हैं तथा समाज को नया विस्तार व विकास देती हैं। इन कविताओं में जीवनानुभव का विशाल धरातल है तथा जीवन की अनपेक्षित स्थितियों को बड़े सहज शब्दों में व्यक्त किया गया है। इस संग्रह की कविताओं में जीवन की सच्चाईयों की परछाईं सर्वत्र विद्यमान हैं। इसलिए कबीर की कविता की तरह ‘‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी’’ की सच्ची आंच ही इन कविताओं में दहकती है तथा पाठक को अपने मन की-सी बात ही लगती है जो कि एक कवि की सार्थकता होती है।


इस संग्रह की कविताओं की अनुभूति घर-परिवार, गांव से निकल कर शहर तथा शहर से फिर घर परिवार और जे.एन.यू में विस्तार पाती है जिसमें कवि की व्यक्तिगत अनुभूति को महसूस करने का आनंद प्राप्त होता है; क्योंकि कवि की वैश्विक दृष्टि व सफलता की भूमि वहीं से तैयार हुई थी जिसकी अनुभूतियां आज भी कवि के अन्तस्तल में व्याप्त हैं-


‘‘मेरे यहां बीते बरस
मेरी धमनियों में संचरित होते हैं रक्त की तरह
यकीन न आए तो पिन चुभा कर देख लीजिए।’’ (पृ0110)


यह संग्रह कवि के पिछले संग्रहों ‘‘इन दिनों हालचाल’’, ‘‘अनभै कथा’’, ‘‘असुन्दर सुन्दर’’ और ‘‘बिलकुल तुम्हारी तरह’’ की अपेक्षा नयापन लिए हुए व जीवन के विस्तार व काया के आत्मा में लीन होने की उच्चता लिए हुए है। यहां काया का आत्मा की ओर मुखरित होना ही नहीं, अपितु आत्मा के सामाजिक व पारिवारिक दायरे का फैलाव भी है। इस वैश्वीकरण के दौर में भी कवि अपने भीतर संवेदना की एक लौ जलाये रखता है जो सामाजिकता की ओर संकेत है। यही संवेदना कवि ने ‘‘खबर’’ नामक कविता में उठाई है। एक मजदूर की विडम्बना कवि को भीतर तक संवेदित कर जाती है-
 

‘‘वह एक अदना-सा मजदूर
खींचता था ठेला
बाँध कर पीठ पर बोरियां कोशिश करता था हंसने की
ज्यादा उम्मीद यह है कि उस मामूली आदमी के लिए
जगह ही न अखबारों में
समय ही न हो समाचार चैनलों के पास’’ (पृ0 32, 33)


इस संग्रह की कविताओं में आज के समय को ‘‘पीपल के पत्तों सा झरता हुआ’’ व ‘‘काठ की तरह बेजान’’ बताने के बावजूद सभी कविताओं में रिश्तों के पानीदार होने की संभावना व उम्मीद की रोशनी दिखाई देती है। आज जब वक्त कठिन होता जा रहा है, व्यक्ति के पास व्यक्ति के लिए समय ही नहीं है, तब भी वे इस बेरूखे समय में कहते हैं-


‘‘और हां-
अबकी मिलना तो
आंखों में आंखें डाल कर मिलना
सचमुच/धधा कर मिलना’’ ( पृ0 15)


जितेन्द्र अपने समय के शायद ऐसे अकेले कवि होगें जिनमें जीवन के अनुभव की गहराई, रिश्तों को समझने की समझ, भाषा की सुगढ़ता सभी विस्तार पाते हैं तथा कविता आत्मा के अन्तरतम् बिन्दु तक पहुंच कर सुख का अनुभव कराती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कविता का उद्देश्य ही होता है सुख का अहसास कराना। एक कविता में वे कहते हैं-

उजाला पसरता है इस तरह
कि उतर जाएगा जैसे
आत्मा की भीतरी चादर में (पृ0 115)


इस तरह के बिम्ब पाठक को सुख की अनुभूति कराते हैं लेकिन इस तरह की कविताओं को ध्यान से पढ़ कर आत्मा में उतारने की जरूरत होती है। इस तरह की कविताओं को पढ़ना जैसे मनुष्यता को पढ़ना व लू जैसे समय में बारिश के छीटों को महसूस करने जैसा होता है। ये कविताएं थाह कर लिखी गई हैं। इनमें कोई जल्दबाजी नहीं है।


( कवि : जितेन्द्र श्रीवास्तव)

हमारे वास्तविक जीवन में स्मृतियां एक अहम् भूमिका निभाती हैं। स्मृतियां ही हमारे उथल-पुथल भरे जीवन को ठंडी छांव सी देती हैं। इसलिए कविताओं में स्मृतियां बार-बार उभर कर पुनः जीवन प्राप्त करती हैं। वे कहते हैं-


अब बाबू जी की बातें हैं, बाबूजी नहीं
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
जब भी चोटिल होता हूं थकने लगता हूं
जाने कहां से पहुंचती है खबर उन तक
झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे। ( पृ0 53)


और

स्मृतियां सूने पड़े घरों की तरह होती हैं
लगता है जैसे/बीत गया सब कुछ
पर बीतता नहीं है कुछ भी ( पृ0 61)


जैसा कि पीछे कहा गया है, इन कविताओं में परिवार व समाज प्रमुखता से मुखरित होते हैं। ये कविताएं इतनी मनुष्यता लिए हुए हैं कि जन-जन व आम जन तक पहुंचाया जाना चाहिए।


जितेन्द्र की वास्तविक चिन्ता मनुष्यता, समाज, घर परिवार और वर्तमान से जुड़ने की चाह है; क्योंकि इसी जुड़ाव से मनुष्य का जीवन विस्तार व उष्मा पाता है। आज के बाजारवाद की दुनिया में रहने के बाबजूद कविताओं में मनुष्यता का विवेक ज्यों का त्यों है-

‘‘जीतने के प्रतिमान बदल भी सकते हैं
कभी बदल सकते हैं चलने के भी मेयार
इसलिए किसी सच को मान लेना स्थायी सच
समय की नदी में नहाने से बचने का मार्ग तलाशना है।’’


इन कविताओं में समय की काली नदी से बचने का आग्रह है व मनुष्यता का दम भरने का साहस है। ये जीवन के प्रश्नों को हल करने का माद्दा भी रखती हैं। संग्रह में सरकार की नजर, कायांतरण, अपनों के मन का, नमकहराम, बिजली की तरह गिरता हुआ, शहर का छूटना व अन्य कविताएं निरंतर विकास की ओर मुख किए रहती हैं। कुछ कविताएं वैयक्तिता से होकर सामाजिकता के बीच जाकर समाज की हर गतिविधि को अपनी नज़र से देखती हैं।


जहां स्त्री विमर्श पर आज ढ़ेरों कविताएं लिखी जा रहीं हैं वहीं इस काव्य संग्रह की स्त्री विषयक कविताएं स्त्री विमर्श को नया आयाम देती हैं। स्त्री जीवन से जुड़ी कविताओं को पढ़ते हुए एक क्षण के लिए भी नहीं लगता कि ये कविताएं किसी पुरूष द्वारा लिखी गई हैं। इस अर्थ में ये ‘आत्मान्तरण’ की कविताएं हैं। संग्रह की कविताओं में परंपरा से घिरी स्त्री को बाहर निकालने का प्रयास है-


‘‘स्त्रियां अनादिकाल से पी रही हैं अपना खारापन
बदल रही हैं
आंखों के नमक को चेहरे के नमक में’’ (पृ011)


और

‘‘जिसे उसकी राय जाने बिना
बांध दिया गया अनजान खूंटे से
तुम्हारी गलतियों ने
लहुलुहान कर दिया है उनका जीवन’’ (पृ044-45)


भारत में पति के अस्तित्व से पहचानी जाने वाली स्त्रियां जीवन के अर्थ को सिंदूर में देखती हैं व भय में जीवन गुजार देती हैं-

‘‘अब विश्वास हो गया है मुझे
कि सिंदूर भय है स्त्री का
जो डर अनादिकाल से/घुला हुआ है
रक्त-मज्जा-विवेक में/वह कैसे निकलेगा
मीठी-मीठी बातों
और छोटे-छोटे स्वार्थों से। (पृ0 77)


इस प्रकार इस कविता संग्रह की कविताएं जीवन के फलक को अपने में समेटे हुए उन्हें विस्तार देने के साथ ही संवेदना के फलक को चौड़ा करती हैं। सहज भाषा व बिंब इन कविताओं को असामान्य व अनुपम बनाते हैं। कविताओं में पठनीयता, सहजता व संप्रेषणीयता है। भूमंडलीकरण की इस आंधी में मानुष राग, नया विहान, रक्त में खुशी, अपनों के मन की पुकार, केन की उदासी आदि कविताएं जीवन और समाज को हमारे सम्मुख लाती हैं। इन कविताओं की विषय-वस्तु व अभिव्यक्ति की निजता ही इन्हें बिल्कुल भारतीय संदर्भ प्रदान करती हैं।







सम्पर्क -

मनीषा जैन
165- ,वेस्टर्न एवेन्यू
सैनिक फार्म,
नई दिल्ली-110062


फोन न0- 09871539404

ई-मेल- 22manishajain@gmail.com
 


टिप्पणियाँ

  1. श्रीराम त्रिपाठी8 अप्रैल 2014 को 10:37 am बजे

    हिन्दी आलोचना में किसी भी कवि की समूची कविताओं का आकलन करना आसान हो गया है। कविता की कुछ पंक्तियों को विचारों की पुष्टि में उद्धृत कर देना। कवि की एक कविता को जाने बिना, समूचे कवि को जानने की कोशिश मेरी समझ में तो नहीं आती। यहाँ अगर जितेंद्र श्रीवास्तव की कम से कम एक कविता की गहन व्याख्या की गयी होती, तो उनकी कविता की संरचना का पता चलता। पाठक को उनके शब्द-चयन, उनके संयोजन और कथन भंगिमा इत्यादि के द्वारा उनका कोई रूप बनता। जिससे पाठक उनकी अन्य कविताओं की ओर मुखातिब होता। इससे कवि की शैली का पता चलता। उदाहरण के रूप में निराला की तोड़ती पत्थर कविता में आलोचकों ने यह देखा ही नहीं कि वह सड़क बनाने के लिए पत्थर तोड़ रही है, या सड़क का पत्थर। अगर वह मजदूरिन है, तो उससे यह काम कौन करा रहा है। वह को सर्वनाम है। तो क्या उसके नाम का पता नहीं लगाना चाहिए। लेखक अपने मान को नाम के माध्यम से ही प्रकट करता है। सर्वनाम का मतलब अरूप होना है। जो चीज हमें स्पष्ट रूप से दिखती और भाती है, उसे हम अपनी भावना के अनुसार नाम देते हैं। कहने का मतलब यह कि हमारे आलोचक लोग पहले किसी कवि की एक कविता की गहन विवेचना करें। इससे हममें कविता को विवेचित करने की हुनर पैदा होगी। कविता को उसकी पूरी संरचना में देखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। जब हम एक कविता को उसकी पूरी संरचना के साथ व्याख्यायित करने में समर्थ होंगे, तब ही किसी कवि की समूची कविताओं, मतलब कि उसके व्यक्तित्व को समझ सकेंगे।
    यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि ये बातें उपर्युक्त समीक्षा के ही संदर्भ में नहीं है। समूची हिन्दी आलोचना से संदर्भित है। इस तरह की आलोचना से न कविता, न कवि और न पाठक को कोई लाभ होता है। हम ऊपर-ऊपर से देखने के आदी हो जाते हैं। पहले कविता से कवि की ओर जाया जाए। जब इसमें प्रौढ़ता हासिल हो जाए, तब कविता से कवि की ओर और कवि से कविता की ओर आवन-जावन, दोनों किया जाए। इससे ही कविता और आलोचना, मतलब कि हिन्दी साहित्य का विकास होगा। ऐसी आलोचना से न केवल पाठक को फायदा होगा, बल्कि कवि को भी लाभ होगा।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं