रमाकान्त राय

  

दंगे किसी भी समाज और राष्ट्र के लिए भयावह त्रासदी की तरह होते हैं। दुर्भाग्यवश भारत आजादी के बहुत पहले से लेकर आज तक इस दंश को लगातार भुगतता रहा है। इन दंगों में इधर एक ख़ास प्रवृत्ति दिखाई पडी है - महिलाओं की इनमें सक्रिय भूमिका। युवा साथी रमाकांत राय ने अपने इस सुविचारित आलेख में इस प्रवृत्ति पर तर्कपूर्ण ढंग से प्रकाश डाला है। पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है रमाकांत का यह आलेख 'साम्प्रदायिकता, दंगे और महिलाओं की बदलती भूमिका।'                    

साम्प्रदायिकता, दंगे और महिलाओं की बदलती भूमिका

उत्तर-आधुनिकता के दर्शन ने तमाम कुरूपताओं के मध्य जो प्रशंसनीय कार्य किया है वह है हाशिए का बहस तलब बनाना। दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श हिन्दी में इसी दर्शन की देन हैं जो कभी हाशिए के मुद्दे कहे जाते थे। भूमण्डलीकरण ने उत्तर-आधुनिकता के दर्शन को मजबूती से स्थापित किया है। भारत में 1991 से शुरू हुए उदारीकरण ने भूमण्डलीकरण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया है। साम्प्रदायिकता एक और बड़ा विषय है जो इस भूमण्डलीकरण के दौर में और भी भयावह रूप लेकर उभरा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में साम्प्रदायिकता बहुपरिचित अवधारणा है। प्रो0 विपिन चन्द्रा के अनुसार साम्प्रदायिकता एक ऐसी अवधारणा है जिसके अनुसार, “किसी खास धर्म को मानने वाले लोगों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हित भी समान होते हैं। यह वही धारणा है जो भारत में हिन्दू, मुसलमान, ईसाइयों और सिखों को अलग-अलग समुदाय मानती है, जिसका निर्माण एक-दूसरे से अलग-अलग और बिल्कुल स्वतंत्र रूप से हुआ है।’’1 इस परिभाषा की व्याख्या यह है कि, “एक धार्मिक समुदाय के लोगों के हित न सिर्फ समान होते हैं, बल्कि वे दूसरे धार्मिक समुदाय के हितों के विपरीत भी होते हैं।’’2 भारतीय संदर्भ में साम्प्रदायिकता का आशय मुख्यतः हिन्दुओं एवं मुसलमानों के मध्य व्याप्त संदेह, भय, प्रतिस्पर्धा, कटुता और हिंसा से है।

साम्प्रदायिकता  का एक महत्वपूर्ण पक्ष महिलाओं  से सम्बद्ध है। साम्प्रदायिक दंगे महिलाओं के लिए भयावह बन कर आते हैं। वे दंगों से सर्वाधिक प्रभावित होती हैं क्योंकि दंगा उनके लिए शारीरिक एवं मानसिक यातना बन कर आता है और दीर्घकालिक यंत्रणादायी होता है। दंगों  में जान-माल की हानि तो होती ही है, स्त्रियों के संदर्भ में यह यौन-दुराचार, छेड़खानी और बलात्कारयुक्त भी होता है। यौन हिंसा इस कदर भयावह होती है कि इसके परिणाम पीढ़ियों तक भुगतने होते हैं। वृंदा कारात लिखती हैं- “साम्प्रदायिक हिंसा में सबसे आसान शिकार महिलाएँ ही होती हैं। किसी भी समुदाय में महिलाएँ दोयम दर्जे की स्थिति में होती है, एक गौण नागरिक होती हैं और समुदाय विशेष की ‘मिल्कियत’ होती हैं। उन्हें ’इज्जत’ और ’सतीत्व’ और ’शुचिता’ के साथ जोड़कर देख जाता है। यदि किसी समुदाय का वर्चस्व कायम करना होता है तो इसी पर सबसे पहले हमला किया जाता है।’’3 मशहूर साहित्यकार यशपाल ने अपने उपन्यास ’झूठा-सच’ में भारत-विभाजन से हुए साम्प्रदायिक हिंसा में महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार का मार्मिक एवं रोंगटे खड़ा कर देने वाला चित्र खींचा है। अमृता प्रीतम के उपन्यास ’पिंजर’, खुशवन्त सिंह का ‘ए ट्रेन टू पाकिस्तान’, सलमान रूश्दी के ’मिडनाइट चिल्ड्रेन’, बांग्ला लेखिका ज्योर्तिमय देवी के ’ए पार गंगा ओपार गंगा’ भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। साम्प्रदायिकता को केन्द्र में रख कर लिखे गए लगभग सभी उपन्यासों/कहानियों में इस पक्ष को अनिवार्य अंग के रूप में चित्रांकित किया गया है। रेखांकित यह भी किया गया है कि दंगे स्त्रियों के मामले में वर्गीय, धार्मिक अथवा जातिगत दृष्टि नहीं रखते अपितु यह कि चाहे किसी भी वर्ग, धर्म अथवा जाति की महिला हो, यौन-हिंसा का शिकार होती है। विभाजन के दौरान होने वाले दंगों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने परिलक्षित किया कि कहीं-कहीं दंगाइयों का मूल लक्ष्य यौन-हिंसा ही रहा। सुमित सरकार ने पेंडरल मून के हवाले से उद्धृत किया है कि ’दक्षिण-पश्चिम पंजाब के बहावलपुर में, जहाँ १९४७ में मून कार्य कर रहे थे, ’’मुसलमानों (मुख्यतः किसानों) की रूचि मारकाट में इतनी नहीं थी जितनी हिन्दुओं की लड़कियों और सम्पत्ति का चुपचाप भोग करने में।’’

यौन-हिंसा  से पीड़ित महिलाओं को भविष्य में भी इस लांछन के साथ जीना पड़ता है। ’झूठा-सच’ में यशपाल ने विभाजन के दौरान यौन-हिंसा का शिकार हुई महिलाओं के दुहरे यातना का मार्मिक चित्रण किया है। वीरेन्द्र यादव लक्षित करते हैं- “वे वतन और शहर से दर बदर हुईं हीं, उनसे अपने घर, परिवार ने भी बहिष्कृत सरीखा सुलूक किया। विभाजन की महात्रासदी के दौरान बिछुड़े मर्दों की परिवार में वापसी पर जश्न हुआ और खुशियाँ मनाई गईं लेकिन स्त्री की वापसी पर मातम ही नहीं, बल्कि उसे घर की दहलीज से उल्टे पाँव तिरस्कृत कर वापस कर दिया गया। विडम्बना यह कि पुरूष सत्ता के इस खेल में स्वयं स्त्रियाँ भी शामिल थीं, कभी सास तो कभी माँ व बहन होने के बावजूद भी।’’5 उपन्यास की एक पात्र बंती, जो लाहौर दंगों में घर से बिछड़ जाती है, का हश्र कुछ इस तरह का होता है कि घर से दुत्कार दिए जाने के बाद वह दहलीज पर माथा पटक-पटक कर जान दे देती है। विभाजन और साम्प्रदायिक दंगों से जुड़ा सच यह भी है कि स्त्रियों के साथ ढोर-बकरियों की तरह सुलूक किया गया, जवान लड़कियों और स्त्रियों की खुली नीलामी की गई। इनमें हिन्दू एवं मुसलमान दोनों समान रूप से भुक्तभोगी रहीं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दंगे महिलाओं के लिए दुहरी यातना का कारण बनते हैं। 



ऐसी स्थिति में, यह अध्ययन दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देने वाला हो सकता है कि स्त्रियों की भूमिका दंगों में किस प्रकार बदल रही है। स्त्री-सशक्तिकरण और स्त्री-विमर्श ने उनमें क्या परिवर्तन किए हैं। दरअसल दंगों में स्त्रियाँ या तो पीड़ित होती थीं या उनकी भूमिका सहानुभूति प्रकट करने वाली, बचाव दल की सदस्या अथवा निन्दक की रहती आई थी, किन्तु उदारीकरण के बाद अथवा यों कहें कि सन् 1992 के बाबरी मस्जिद प्रकरण एवं राममंदिर आन्दोलन के बाद उनकी इस भूमिका में बुनियादी परिवर्तन आया है। यद्यपि स्त्रियाँ भी साम्प्रदायिक भाव से अछूती नहीं रही हैं और विपक्षी सम्प्रदाय के प्रति दुर्भावना उनके मन में रही है लेकिन अंततः दर्द और बेबसी ही उनके हिस्से आता रहा है। यशपाल के उपन्यास ’झूठा-सच’ की बंती सोचती है- “सब जुल्म के लिए हम स्त्रियाँ ही रह गई हैं। मर्द मर्दों को काटकर टुकड़े भले ही कर दें, उनकी बेइज्जती तो नहीं करते।”6

बाबरी मस्जिद प्रकरण साम्प्रदायिकता के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। सन् 1992 में अयोध्या में विवादित ढाँचे के ढहाए जाने के बाद देशव्यापी दंगे हुए थे। इन दंगों से पूर्व राममंदिर के लिए आन्दोलन में बड़ी संख्या में महिलाओें ने कार-सेवकों के रूप में हिस्सेदारी की थी। उमा भारती एवं साध्वी ऋतम्भरा को एक विशेष रणनीति के तहत नेतृत्व दिया गया था और महिलाओं को जोड़ा गया था। उस समय वातावरण कुछ इस कदर साम्प्रदायिक हो गया था कि बहुसंख्यक हिन्दुओं के “परिवारों में भी बँटवारा सा हो गया था। उनके घरों की औरतें भारी संख्या में शिला-पूजन में शामिल होने के लिए निकलीं। अधिकांश या तो चुप रह गए या भीतर ही भीतर समर्थन करते रहे और भारतीय गौरव या भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर इतिहास की घटना का बदला लिये जाने का इंतजार करते रहे।”7 यह बात कई अध्ययनों, रिपोर्ट और विवरणों में देखी गई कि बाबरी विध्वंस के बाद फैले देशव्यापी दंगों में महिलाओं ने आत्मरक्षार्थ ही नहीं, आक्रामक होकर भाग लिया और घर के पुरूष सदस्यों को उकसाया। कार-सेवकों के रूप में उनकी एक बड़ी संख्या अयोध्या पहुँची थी। दूधनाथ सिंह8 ने अपने उपन्यास ’आखिरी कलाम’ में कीर्तन करती और कारसेवा में शामिल औरतों का अनेकशः उल्लेख किया है। मो0 आरिफ़9 के महत्त्वपूर्ण उपन्यास ’उपयात्रा’ में, जो बाबरी-प्रकरण को समेटता है; भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ’उपयात्रा’ का फरीद जब दिल्ली जाने के लिए रेलगाड़ी में सवार होता है, तो कारसेवकों की उन्मादी भीड़ से घिर जाता है। उसके कूपे में जो यात्री हैं, उसमें सुमित्रा ऐसी महिला है जो कारसेवकों की नेतृत्त्वकारी भूमिका में है। फरीद लक्षित करता है कि यह तेज तर्रार महिला अधकचरे इतिहास को खास साम्प्रदायिक अंदाज में प्रस्तुत करती है। वह हिन्दू साम्प्रदायिकता का नया चेहरा है। उसके दबंग व्यवहार से फरीद इस कदर आतंकित हो जाता है कि सकुशल यात्रा के लिए झूठ का सहारा लेकर अपना नाम बदल लेता है। 

वस्तुतः बाबरी मस्जिद के विध्वंस  और राम मंदिर के लिए आन्दोलन  ने साम्प्रदायिक ताकतों के लिए एक प्रयोगशाला की तरह काम किया। विध्वंस के बाद जो देशव्यापी दंगे हुए; उनसे जो जनहानि हुई और भय का वातावरण बना उसका असर परवर्ती घटनाओं पर देखा गया।

वर्ष  2002 में गुजरात के गोधरा में एक रेल हादसा हुआ। इस हादसे का सम्बन्ध भी राम-मंदिर आन्दोलन से था। इस हादसे के बाद समूचे गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों में यद्यपि दोनों समुदायों के लोग मारे गए तथा अकूत संपति का नुकसान हुआ, महिलाओं के साथ यौन-हिंसा हुई तथापि मुसलमान वर्ग अधिक प्रभावित हुआ। इन दंगों में वही कृत्य दुहराए गए लेकिन, “इस बार के दंगों में कई ऐसे दृष्य दिखाई दिए जो पहले कभी नहीं नजर आए थे, मसलन-महिलाओं द्वारा हिंसात्मक कार्यवाइयों को सहयोग देना और हिंसा और लूटपाट में सक्रिय भूमिका निभाना।’’10 गुजरात के दंगे इस मामले में अभूतपूर्व थे। महिलाओं का धार्मिक संगठन दुर्गावाहिनी के सदस्यों ने बड़ी संख्या में दुकानें लूटीं और आगजनी की। दंगों के हालात इस कदर थे कि अपने ही गाँव के लोगों ने महिलाओं के साथ बलात्कार किए और धार्मिक नारेबाजी की। दंगों के एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार, ’’उसने मुसलमानों के घरों को जलाए जाते देखकर हिन्दू औरतों को गर्व से नाचते हुए देखा।’’11



गुजरात  के दंगों में महिला जन-प्रतिनिधियो ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। भाजपा विधायक माया कोडनानी  के इशारे पर हिंसक भीड़ ने आक्रमण किए। माया कोडनानी को अभी पुलिस हिरासत में ले लिया गया है। और अभी हाल के दिनों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक विशेष राजनीति के तहत उनके लिए मृत्युदंड की मांग की है। पार्षद भारती बेन और अनीता बेन ने अस्पताल के डाक्टरों पर दबाव डाला कि वे एक सम्प्रदाय विषेश के लोगों का इलाज न करें। इ० एस० आई० अस्पताल इलाके से भाजपा सभासद कंचनबेन बरोत को दूसरे दंगाइयों के साथ हाथ में तलवार थामे चलते देखा गया। बजवा में जया बेन ठक्कर भी हमलावर दंगाइयों के साथ देखी गईं। आशय यह कि महिला जनप्रतिनिधियों ने दंगों में भी प्रतिनिनिधत्व किया। उन्होंने दंगाइयों को उकसाया और हमले करवाए। उन्होंने न सिर्फ राजनीतिक मंच से इसका समर्थन किया अपितु भौतिक मदद भी की। यद्यपि दंगों में यौन हिंसा, बलात्कार, हत्या आदि जघन्य दुष्कर्म पुरूष दंगाइयों ने किए तथापि इसके लिए प्रोत्साहन महिलाओं की ओर से भी मिला।

वास्तव  में, यह एक नई प्रवृत्ति थी, जो इससे पहले के दंगों में नहीं देखी गई थी। गुजरात दंगों में महिलाओं ने लूट में मिले सामान से असंतुष्ट होने पर दुबारा लूटपाट की। लूटपाट की यही प्रवृत्ति कमोबेश उत्तर प्रदेश के मऊ जिले में भी कुछ वर्ष पूर्व के दंगों में देखी गयी थी। यह रेखांकित किया गया कि गुजरात में पहले तो महिलाओं ने पूरे घटनाक्रम पर सहानुभूतिशील रवैया अपनाया और बुरा कहा लेकिन बाद में हिंसक हो गईं और हिंसा को उचित ठहराया। यह उस दीर्घकालिक अभियान से सम्भव हो सका जिसमें लगातार महिलाओं में यह साम्प्रदायिक विद्वेष भरा जा रहा था कि विपरित पक्ष हमारे हक़ों का बेजा़ इस्तेमाल कर रहे हैं। उनमें लगातार यह असुरक्षा भाव भरा जा रहा था कि वे हवस का शिकार बनाई जा सकती हैं। गुजरात दंगों में हिन्दुत्ववादी विचारधारा के लोगों ने यह कार्य व्यापक स्तर पर किए। एक रणनीति के अन्तर्गत हिंसक हिन्दुओं का साथ न देनेवाली महिलाओं को धमकाया गया, मुसलमानों की सहायता करने पर या धर्मनिरपेक्ष महिलाओं को गालियाँ दी गई। 

गुजरात  हादसा भी साम्प्रदायिक शक्तियों के लिए एक प्रयोगशाला की तरह रहा, जहाँ भविष्य की गतिविधियों के लिए प्रशिक्षण दिए गए। लोगों को बड़ी संख्या में त्रिशूल, तलवार, कटार आदि हथियार बाँटे गए और धार्मिक प्रतीक की तरह अपनाने को कहा गया। स्त्रियों को यह कह कर इस प्रयोग में शामिल किया गया कि उनकी सक्रिय भूमिका से ही ’सतीत्व’ की रक्षा हो सकेगी और सुनहरे तथा गौरवशाली-हिन्दुत्ववादी भविष्य का निर्माण किया जा सकेगा।

गुजरात  दंगों के बाद कई घटनाओं की साजिशें रची गईं। कई बम-विस्फोट हुए और साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिशें की गईं। महाराष्ट्र के मालेगाँव में इसी तरह का एक बम विस्फोट हुआ। इस षड्यन्त्र में ले0 कर्नल श्रीकान्त पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का नाम उछला। उनकी गिरफ्तारी से उनकी संलिप्तता प्रकट हुई। दरअसल आतंकवाद के लिए अब तक मुसलमानों को दोषी ठहराया जाता रहा है। मालेगाँव विस्फोट में साध्वी प्रज्ञा का नाम आने के बाद भगवा आतंक का पर्दाफाश हो रहा है। यद्यपि साध्वी का नाम इस घटनाक्रम में उछलने के बाद कई तरह के बयान आए, जिससे नई बहस चल पड़ी लेकिन मूल विचारणीय प्रश्न है कि ऐसे घटनाक्रमों में महिलाओं की भूमिका किस तरफ संकेत करती है। “साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतों के बीच एक प्रतीक भी बनाया जा रहा है जो बिगड़ती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नई थ्योरी को पैदा कर सके।”12 साध्वी को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे 1992 में बाबरी मस्जिद प्रकरण में उमा भारती और ऋतम्भरा को प्रस्तुत किया गया था। दरअसल यह महिलाओं को साम्प्रदायिक अभियान में शामिल करने की पूर्व नियोजित कोशिश है। 



दंगों में प्रभावित महिलाओं के मानस को एक अन्य किन्तु अत्यन्त  महत्वपूर्ण गतिविधि से भी रेखांकित किया जा सकता है।  यह सदैव से देखा गया है कि दंगों में बलात्कार की शिकार महिलाओं और उसके परिवारवालों ने मामले का दबाने और छिपाने की यथा संभव कोशिश की। हमारे समाज में स्त्रियों से जुड़ा मामला शुचिता, पवित्रता और इज्जत से जुड़ा है और फिर कानून व्यवस्था में बलात्कार एवं यौन हिंसा से सम्बद्ध मामलों में सजा की संभावना बेहद कम और पेचीदगी से भरी होती थी। इस कारण भी बलात्कार एवं यौन हिंसा से जुड़े मामले प्रकाश में नहीं आ पाते थे लेकिन गोधरा के दंगों के यौन-हिंसा और बलात्कार पीडि़तों ने इसे छिपाया नहीं। उन्होंने मीडिया और जनप्रतिनिधियों को विस्तृत ब्यौरे दिए। “महिलाओं के साथ हुए बलात्कार की गवाही उन समाज सेवकों और परिवार के सदस्यों ने भी दी, जिन्होंने उनके साथ यह कुकर्म होते देखा था।”13 बलात्कार के शिकार ऐसे कई पीड़ितों और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान सिद्धार्थ वरदराजन की सम्पादित पुस्तक ’गुजरात हादसे की हकीकत’ पुस्तक में ज्यों-के-त्यों रख दिए गए हैं। यह प्रसंग स्त्री-सशक्तिकरण के एक प्रमुख प्रत्यय ’देह-मुक्ति’ से जुड़ कर महत्वपूर्ण हो जाता है। वास्तव में, बलात्कार के विषय में दिए गए बयानों से स्त्रियों के आत्मविश्वास और बदले दृष्टिकोण का पता चलता है।

ऐसा नहीं है कि यह प्रवृत्ति एकदेशीय है। पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम; जहाँ बीते दिनों ग्रामीणों ने अपनी जमीन बचाने के लिए लम्बा संघर्ष किया; में भी ऐसे वाकये देखे गए। पुष्पराज, जिन्होंने ’नन्दीग्राम डायरी’ नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है; ने ऐसे कई ब्यौरों को कलमबद्ध किया है। वे रेखांकित करते हैं- “बलात्कारियों के खिलाफ़ संघर्ष करने वाली स्त्रियाँ हतोत्साहित होने की बजाय ज्यादा आश्वस्त हो रही हैं कि हमें सरकार और कानून से नहीं समाज से न्याय मिलेगा। शायद हम देश में ऐसा पहली बार देख रहे हैं कि जिस स्त्री के साथ बलात्कार हुआ, उसके प्रति घृणा की बजाय समाज का सामूहिक सम्मान बोध इस तरह अभिव्यक्त हो रहा है। घरों में उसकी तस्वीर टँगी है और जुलूस प्रदर्शनों में तापसी (बलात्कार पीडि़त युवती) नारों के साथ संघर्ष और शहादत का एक प्रतीक बन चुकी है।’’14 ध्यान देने की बात यह है कि नन्दीग्राम के आन्दोलन में जहाँ दंगे साम्प्रदायिक नहीं थे; सर्वाधिक प्रभावित महिलाएँ हुईं और महिलाओं के साथ हुए यौन-हिंसा के मामलों में कुछ महिलाओं ने उत्पीड़नकर्ता की भूमिका निभाई अथवा पुरूषों का साथ दिया। नंदीग्राम के आन्दोलन में; पुष्पराज लिखते हैं, “अद्भुत यह है कि बलात्कार पीडि़तों ने बलात्कारियों के पहचान के साथ-साथ कुछ महिलाओं के नाम भी दर्ज कराए हैं जो बलात्कारियों का सहयोग कर रही थीं। बलात्कारियों की मदद करनेवाली कामरेड बलात्कारियों के खिलाफ़ पुलिस ने कोई कार्यवाई नहीं की।’’15



उपरोक्त आधार पर यह निष्कर्ष निकालना  गलत न होगा कि न सिर्फ  दंगों का चरित्र बदला है अपितु  उससे प्रभावित होने वाली महिलाओं  के दृष्टिकोण में भी बदलाव  आया है। दंगों में अब भी महिलाओं के साथ यौन  हिंसा होती है लेकिन उन्होंने प्रतिरोध करना सीख लिया है और अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को जगजाहिर कर दंगाइयों को बेनकाब करने की हर संभव कोशिश की है। वे ’देह’ की परम्परागत अवधारणा से मुक्त हो रही हैं। इस तरह शोषण के एक बहुत बड़े अस्त्र को निष्फल बना रही हैं। इसके साथ ही वे दंगों में सक्रिय भूमिका अदा करने लगी हैं, राजनीतिक मंचों से आह्वान कर रही हैं। वे लूटपाट करने लगी हैं और पुरूष दंगाइयों का सहयोग कर रही हैं। वे स्वयं के सशक्तिकरण के लिए बाधा बन रही हैं और अंततः पुरूष सत्ता के हाथों कठपुतली का सा व्यवहार कर रही हैं। नारी सशक्तिकरण के दोनों प्रतिरूप दंगों के विश्लेषण में देखे जा सकते हैं।

संदर्भ  सूची:-

1. प्रो0 विपिन चन्द्रा, आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन  निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण-1996, पृष्ठ-1।
2. विभूति नारायण राय, साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा0 लि0, जगतपुरी, दिल्ली-51 प्रथम संस्करण-2002, पृष्ठ-17-18।3.
3. वृंदा कारात, भारतीय नारी: संघर्ष और मुक्ति, ग्रंथ शिल्पी (इण्डिया) प्रा0 लि0, लक्ष्मीनगर, दिल्ली-92, प्रथम संस्करण-2008, पृष्ठ-194।
4. सुमित सरकार, आधुनिक भारत, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-02,  दसवीं आवृत्ति-2003, पृष्ठ-456।
5. वीरेन्द्र यादव, 'झूठा सच: राष्ट्रवाद, मुस्लिम अलगाववाद और नारी प्रश्न',  तद्भव-9, पृष्ठ- 29।
6. यशपाल, झूठा-सच, खण्ड-2, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद दसवाँ संस्करण-2005, पृष्ठ-120।7. रमणिका गुप्ता, साम्प्रदायिकता के बदलते चेहरे, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-02, प्रथम संस्करण-2005, पृष्ठ-66-67।
8. मो0 आरिफ़, उपयात्रा, राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-02, प्रथम
संस्करण-2006। 
9. दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, राजकमल प्रकाशन, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-02, प्रथम संस्करण, दूसरी आवृत्ति-2002।
10. सिद्धार्थ वरदराजन, गुजरात हादसे की हकीकत, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-02, संस्करण-2004, पृष्ठ-91।
11. सुधा अरोड़ा, आम औरत: जिन्दा सवाल, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली-02, प्रथम संस्करण-2008, पृष्ठ-121।
12. पुण्यप्रसून वाजपेयी, पाखी, अंक-03, दिसम्बर, 2008, पृष्ठ-79।
13. सिद्धार्थ वरदराजन, गुजरात हादसे की हकीकत, पृष्ठ-210।
14. पुष्पराज, नंदीग्राम डायरी, पेंगुइन बुक्स इण्डिया, पंचशील पार्क, नई दिल्ली-17, प्रथम संस्करण-2009, पृष्ठ-71।
15. पुष्पराज, नंदीग्राम डायरी, पृष्ठ-82।

सम्पर्क-
365 A/ 1, कंधईपुर, 
प्रीतमनगर, धूमनगंज, 
इलाहाबाद
उ0प्र0 –  211011
मो0 - 9838952426     

टिप्पणियाँ

  1. बहुत बढ़िया आलेख है यह ...इसे शोध की तरह से पढ़ा जा सकता है | बधाई आपको मित्र ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद सर. आपका यह कहना मेरे लिए आशीर्वाद की तरह है.

      हटाएं
  2. बहुत गहन शोध /अध्ययन के बाद लिखा गया एक बेहद जरुरी आलेख . मैं, भाई रमाकांत जी को बधाई देता हूँ और संतोष जी के प्रति आभार प्रकट करता हूँ इस महत्वपूर्ण आलेख को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए .
    -नित्यानन्द गायेन
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. धन्यवाद jangra जी. मैं वहां उपस्थित रहना पसंद करूंगा. हौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया.

    जवाब देंहटाएं
  4. आपका लेख इस जगह साझा किया है
    https://www.facebook.com/SmashFascism

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. smash Fascism द्वारा इसे साझा करना सुखद है. यह बताता है कि लेख सही मुद्दों को छूता है.धन्यवाद.

      हटाएं
  5. साम्प्रदायिक दंगों पर काफी कुछ पढ़ चुका हूँ....पर इस दृष्टि से साम्प्रदायिक दंगों को देखना न हुआ था | महिला सशक्तीकरण के दोनों पहलुओं पर निश्चित रूप से गहराई से विचार करने की आवश्यकता है | इस सुचिंतित आलेख के लिए बहुत- बहुत बधाई मित्र....

    जवाब देंहटाएं
  6. I am sorry for not being able to post in Hindi.But the subject has been analysed in all the aspects very vigorously.I have recently got some insight into riots and its effects on women by Mark Tully's collections of such incidence.To add to this I will like to add one more dimension that while there are riots women not only go through physical torture,but as the lady of the house its her duty to feed her children in that period also.So in these conditions she has become active in looting and rioting places.Because food does not come easy in such scenario.One interesting point that you have put forth Ramakant ji,is that women have stop considering themselves as the just the body,which is taken to be the embodiment of purity and respect.I would like to discuss on it,anytime when we can have opportunity.I have some views on it.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद ऋचा जी. आपके सुझावों का स्वागत है. मेरा मोबाइल नंबर वहां लिखा है. ईमेल पता है- royramakant@rediffmail.com इसी पते से मैं फेसबुक पर भी हूँ.

      हटाएं
  7. नया और बहुत ज़रूरी आलेख ! पर मैं सोचता हूँ कि यह थोड़ा और विस्तृत हो सकता था ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'