योगिता यादव
योगिता का जन्म दिल्ली में १९८१ में हुआ। बचपन दिल्ली में ही बिता।
योगिता
में हिन्दी साहित्य और राजनीति शास्त्र से परास्नातक किया है। विगत ग्यारह
वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। आजकल जम्मू में दैनिक जागरण के लिए
पत्रकारिता। योगिता कविता और कहानियां दोनों विधाओं में लिखती हैं। हंस,
नया ज्ञानोदय, प्रगतिशील वसुधा, पर्वत राग, पुनर्नवा आदि पत्रिकाओं में
रचनाएँ प्रकाशित। योगिता ने अपनी इस कहानी में मन्दबुद्धि लोगों के उन मनोभावों को पकड़ने की सफल कोशिश की है जिन पर प्रायः किसी का ध्यान नहीं जाता। उन्होंने ऐसे उलझे हुए तारों को सुलझाने की कोशिश की है जो इतनी बेतरतीबी से आपस में उलझे हुए होते हैं कि प्रायः अनसुलझे ही छूट जाते हैं। लेकिन यहाँ भी एक जीवन है, जीवन की उमंग है। ऐसा जीवन जो बेतरतीबी में भी अपनी एक तरतीब ढूंढ लेता है। योगिता कहानी की दुनिया में एक ऐसा नया नाम है जिन्होंने अपने शिल्प और कहन के तरीके से ध्यान आकृष्ट किया है। अभी-अभी इन्हें ज्ञानपीठ का 2013 का कहानी का नवलेखन पुरस्कार मिला है। वाकई कहानी पर ही। अगर आपको यकीन न हो तो योगिता की कहानी पढ़ कर ही आप उनके लेखनी की ताकत से रू-ब-रू हो लीजिये।
गांठें
मैं जब जन्मा तब रोया नहीं था। इसलिए मेरे पैदा होते ही मेरी मां रो पड़ी। डॉक्टर
कहते थे कि मैं शायद कभी सुन और बोल न सकूं। मेरे मस्तिष्क का पूरी तरह विकास नहीं
हो पाया है। मैं गूंगा, बहरा, मंदबुद्धि,
दुनिया के लिए गैर
जरूरी हो गया।
मेरे जन्म के बाद मेरे पिता को अहसास हुआ कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। मेरी
मां दूर के रिश्ते में उनकी बुआ लगती थी। उन्होंने सबके खिलाफ हो कर उनसे शादी की। तब
वे आधुनिक थे, पुरानी मान्यताओं को तोड़ डालना चाहते थे। लेकिन मेरे जन्म के बाद उन्हें अहसास
हुआ कि उन्होंने जो किया, वह पाप था। और पाप से ही ऐसी विकृत संतानें पैदा होती हैं। अब
वे इसका प्रायश्चित करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मेरी मां से संबंधविच्छेद का
फैसला किया। मंदिरों में झाड़ू लगाई। कन्या पूजन किया। हनुमान मंदिर में 40 दिन पोंछा लगाया।
गुरुद्वारे में जूते साफ किए....। और फिर परिवार के कहने पर एक दूसरी लड़की से शादी
कर ली। इसके साथ उनके संबंध पाप नहीं थे।
मां पिता जी से अलग थी। वह न गलती छोडऩा चाहती थी और न पिताजी को। इस संबंध के बारे
में उसकी अपनी कोई परिभाषा नहीं थी। बस एक आस्था थी, जिद और मजबूरी भी, इससे बंधे रहने की। उसने अपनी साड़ी के पल्लू
में एक गांठ बांध ली, कि अगर मैं ठीक हो गया तो वह पीर बाबा की मजार पर चादर चढ़ाएगी।
दादी ने पिता जी की गलती भी सुधारी और मां की मजबूरी को भी जगह दी। घर के पिछली
तरफ का एक कमरा उन्होंने मां और मेरे रहने के लिए दे दिया। घर में खाने-पीने की कोई
कमी नहीं थी। न मुझे, न मां को। फिर भी मां खुश नहीं थी। वह बूढ़ी, बीमार सी दिखती। मुझे देख कर कभी खुश होती
तो कभी रोती रहती। और फिर पल्लू में गांठ बांध लेती। एक-एक कर उसकी कई साडिय़ों में
गांठ बंध गई थी।
मैं पिताजी को पिता नहीं कह सकता था, यह पाप था। छोटी मां के आने के बाद घर में एक छोटा भाई और बहन
भी आए। वे दोनों सुंदर थे, बोल सकते थे, सुन भी सकते थे। पिताजी उन्हें देख कर खुश होते। वह पिताजी को
पिता कह सकते थे।
मुझे देखते ही मेरे अच्छे पिता को न जाने क्या हो जाता। वह पागलों की तरह मुझ पर
और मेरी मां पर बरस पड़ते। शायद मेरा होना उनके प्रायश्चित पर पोंछा फेर देना था। बाकी
सबके लिए मेरा होना एक असभ्यता, एक मजाक था। एक बदनुमा सा उदाहरण भर। छोटे भाई-बहन के लिए भी।
जिसे देख कर वे हंसते। कभी मुझ पर पानी डालते। कभी सिर पर गुब्बारे मारते, मैं रोता तो खूब हंसते।
उन्हें हंसता देख कर मैं भी हंसता, तब वे और मारते। वे स्कूल जाते, मैं नहीं जा सकता था। वे सुंदर कपड़े पहनते,
मैं नहीं पहन सकता
था। मेरे मुंह से लार गिरती रहती। मैं जो भी पहनता वह गंदा हो जाता। कभी-कभी मैं निक्कर
में पेशाब कर देता, तब छोटी मां मुझे बहुत पीटती। वे पिताजी को उनके पाप और मां को उनकी चरित्रहीनता
की याद दिलाती। मैं किसी लायक नहीं था, मैं कुछ नहीं कर पाता। पिताजी मुझे हाथ भी नहीं लगाना चाहते
थे। इसलिए जब वे मुझ पर बहुत गुस्सा होते तो जूते और लातों से मुझे पीटते। वे मां के
कमरे तक सिर्फ मुझे ढूंढने या हम दोनों के होने पर अफसोस जताने ही आते। मेरे सब त्योहार
यूं ही लानतों, जलालतों में बीतते। और मां के मेरी गलतियों पर पिटते हुए।
एक दिन मां ने मुझे नहला कर धूप में बैठाया। बच्चे गली में खेल रहे थे। मैं भी
वहां पहुंच गया। मुझे नंगा देख सब लड़कों ने मेरे शरीर पर आगे पीछे मारना और जोर-जोर
से हंसना शुरू कर दिया। चोट तो लगी पर उन्हें हंसता देख कर मैं भी नाचने लगा। पता नहीं कब वहां पिताजी आ गए। कान पकड़ कर वे मुझे
खींचते हुए मां के पास ले आए और मां को पीटते हुए समझाने लगे कि मुझ मंदबुद्धि को कपड़े
पहनने की तमीज सिखाए। मैं अब बच्चा नहीं रहा। इस बार मैंने मां को पिटने के लिए अकेला
नहीं छोड़ा। जैसे सब लड़के लात से मेरे शरीर के आगे पीछे मार रहे थे मैंने भी पिता जी
को मारा। मां घबरा गई। पिता जी बेंत उठाने के लिए दौड़े और मां ने मुझे कमरे में बंद
कर दिया। आज फिर मां ने मुझे पिताजी की मार से बचा लिया था। पर वह रो रही थी। उसने
आज फिर अपने पल्लू में एक गांठ लगा ली। मुझे समझ नहीं आता, पीर बाबा की मजार पर मां कितनी चादरें चढ़ाएगी!
मां सो चुकी थी,
उसके अलावा मुझे रोकने
वाला कोई नहीं था। मैं गली में निकल गया। गली से बाहर सड़क पर। और फिर एक भीड़ में।
मैं भीड़ के पीछे छुप गया। यहां बंदर का तमाशा हो रहा था। सब लोग ताली बजा रहे थे,
पैसे फेंक रहे थे।
मैं भी तो ऐसे ही नाचा था, सब हंस रहे थे। फिर वे पैसे फेंकने की बजाए मुझे मार क्यों रहे
थे? मुझे ये लोग अच्छे
लगे। मैं भी नाचने लगा, सब हंसने लगे, मुझ पर पैसे फेंकने लगे। मदारी मुझे भगाने लगा पर मैंने पैसे
उठाकर उसे दे दिए, वह खुश हो गया। मैंने और बंदर ने मिल कर नाच दिखाया। नाच खत्म हुआ। सबने ताली बजाई
और चले गए। मैं कहां जाता? मैं वहीं बैठा रहा। मदारी ने मुझसे बहुत कुछ पूछा, पर मैं नहीं बता सका।
इसी बात से पिताजी नाराज थे। मैं किसी लायक नहीं था। पर मदारी ने मुझे मारा नहीं। उसने
मुझे अपने साथ साइकिल पर बिठाया और ले चला। हम एक बस्ती में पहुंच गए। मदारी के घर।
वहां एक औरत थी। वह मां की तरह गांठें लगा रही थी। सफेद कपड़ों में। उसके पास चने,
कंकड़ और धागे पड़े
हुए थे। वह गीले कपड़ों में उन सबसे अलग-अलग तरह की गांठें लगा रही थी। उसने मुझे खाना
खिलाया और फिर मैं सो गया। सुबह उठा तो मुझे मां की बहुत याद आई और मैं रोने लगा। मुझे
अपने घर का रास्ता भी नहीं पता था। मदारी ने मुझे अपने साथ साइकिल पर बैठाया और ले
चला। मैं खुश था, मदारी सब कुछ कर सकता है, वह मुझे मेरे घर भी ले चलेगा। पर उसने ऐसा नहीं किया। दिन भर
उसने अलग-अलग जगहों पर मुझे बंदर के साथ नचाया और शाम को वापस अपने साथ घर ले आया।
वह औरत अब भी सफेद गीले कपड़ों में गांठें लगा रही थी। मां कहती थी कि गांठ लगाने से
मुराद पूरी होती है। इसलिए मैं भी गांठें लगाने
लगा। अब शायद मां मुझे जल्दी मिल जाएगी। मेरी गांठें देख कर वह औरत खुश हो गई। उसने
मुझे और दो चार तरह से गांठें बांधनी सिखाई, मैंने बांध दी। वह खुश हो गई और फिर मुझे
शाबाशी दी। जैसे मां देती थी। मुझे मां और ज्यादा याद आने लगी और मैं रोने लगा। उस
औरत ने मुझे अपने हाथ से खाना खिलाया और सुला दिया। सुबह उठा तो फिर मां याद आने लगी।
आज उसने मुझे मदारी के साथ नहीं भेजा, बल्कि अपने साथ घर पर रख लिया। हमने दिन भर में ढेर सारी गांठें
लगाईं। शाम को हम गांठ लगे कपड़े लेकर बाजार में गए। यह तो दुनिया ही अलग थी। गांठ
लगे कपड़े जब भट्टी के उबलते पानी से बाहर निकलते तो अलग ही रंग के हो जाते। गांठों में बंधे कंकड़ और
दाने उन्हें खौलते रंगों से बचा लेते और फिर वे लाल, नीले, पीले, हरे.... रंगों के साथ मिलकर और खूबसूरत हो
जाते। मां होती तो कितनी खुश होती, उसे तो पता ही नहीं होगा कि गांठें जब रंगों से लड़ती हैं तो
कितनी सुंदर हो जाती हैं।
वहां से हम और कपड़े ले कर आए। ढेर सारे। हमें इनमें और गांठें लगानी थीं। ढेर सारी
गांठें, ढेर सारे रंगों के लिए। मैं थक गया था, मैंने खाना खाया और सो गया। सपने में गांठें
मुझसे बात करना चाह रहीं थीं। पर मेरी नींद टूट गई। अंधेरे में कोई मुझे तंग कर रहा
था। गली के उन लड़कों की तरह। आगे पीछे से। मैं डर गया। मदारी मेरे पास था। मैंने डर
के मारे आंखें बंद कर ली और फर्श पर दूर घिसट आया। पर थोड़ी देर बाद उसने मुझे फिर
से आगे पीछे से छेडऩा शुरू कर दिया। मैंने डर के मारे उसे लात मार दी। मुझे पता था
छेडऩे के बाद पिटाई होती है। मैं डर गया अब मदारी मुझे मारेगा। मैं रोने लगा,
वह मेरा मुंह बंद करने
लगा। मैं तड़पने लगा। चिल्लाने की कोशिश करने लगा। मैंने उसे जोर का धक्का मारा,
जैसे पिता जी को मारा
था। उसने मुझे तमाचा मारा, मैंने गांठों वाले कपड़े से उसकी गर्दन में एक बड़ी सी गांठ
लगा दी। अब वह चिल्ला रहा था, तड़प रहा था, मैंने गांठ और सख्त कर दी। वह पैर पटकता रहा और आखिर फर्श पर
गिर पड़ा। मैं डर के मारे कोने में दुबक गया। वह औरत उठ गई थी, मदारी को गिरा देख कर
वह रोने लगी। उसने मुझे मारना शुरू कर दिया। मां होती तो मुझे बचाती। मैं कोने में
दुबका रहा। लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। वे मुझे हैरानी से देख रहे थे, मुझे लगा अब सब मिलकर
मुझे मारेंगे। मैं वहां से भाग खड़ा हुआ। भीड़ मेरे पीछे थी। मैं भागा जा रहा था,
भीड़ मुझे पत्थर मार
रही थी। भागते-भागते मैं ठोकर खा कर गिर पड़ा।
जब मुझे होश आया मैं हॉस्पिटल में था। मैं अब भी डरा हुआ था। मैं हर वक्त बिस्तर
के नीचे या कोने में दुबका रहता। पिताजी, मदारी और भीड़ के पत्थरों ने मुझे एक कोने में कर दिया था। मैं
मां को याद करता, रोता और एक गांठ बांध देता। सब मुझ पर तरस खाते। एक दिन मैं यूं ही कोने में दुबका
चादर की गांठ बांध रहा था, कि मां आ गई। मां मुझे देखते ही रो पड़ी, और मुझे सीने से लगा
लिया। मैं भी मां से लिपट कर रोता रहा। मां मुझे वापस घर ले आई।
मां ने मुझे नहलाया, खाना खिलाया, दवा दी और देर तक थपकियां देती रही, पर मुझे नींद नहीं आई। आंखें बंद करता तो
पिताजी, मदारी और भीड़ सब एक साथ मुझ पर बरसते दिखाई देते। सब मिल कर अगर मुझे मारने लगे
तो मां अकेली मुझे कहां बचा पाएगी। मां के पल्लू में अब भी गांठ बंधी थी। मैंने मां
की साडिय़ों में गांठ लगा कर कई पोटलियां बना दीं। उन पोटलियों में बड़े-बड़े पत्थर बांध
कर कोने में छुपा दिया। और दिन रात उनके पास बैठा रहता। मेरी पोटलियां खौलते रंगों
की तरह सबसे लड़ सकती हैं। मां मुझे कोने से निकालने की, सुलाने की बहुत कोशिश करती, पर उसे कहां पता था
कि सोने के बाद लोग कैसे तंग करते हैं।
आज पिता जी फिर गुस्से में थे, मुझे ढूंढते हुए वे हमारे कमरे की तरफ आ रहे थे। उनके हाथ में
बेंत था। मेरा शरीर दुखने लगा था सबसे मार खा- खा कर। अब तो मेरे शरीर पर जख्म ही जख्म
नजर आते थे। मैंने कोने में लगे पोटलियों के ढेर की तरफ देखा, कोई मेरी मदद के लिए
नहीं उठी। मैंने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। और सारा सामान दरवाजे पर इकट्ठा कर दिया
ताकि कोई दरवाजा न खोल सके। पिता जी गुस्से से दरवाजा पीट रहे थे। उनकी आवाज तेज होती
जा रही थी, डर के मारे मेरा पेशाब निकल गया, मैं कांपने लगा। रोने लगा, आंख से, मुंह से चिपचिपा पानी रिस रहा था। मैं पोटलियों
के बीच में घुस गया। मैंने आखरी बार हर एक की तरफ बड़ी आस से देखा, कोई मेरी मदद के लिए
नहीं खुली। मैंने खुद एक पोटली की गांठ खोली और एक मजबूत फंदा अपने गले में बना लिया,
जैसे मदारी के लिए
बनाया था।
सम्पर्क-
ई-मेल -yyvidyarthi@yahoo.in
ई-मेल -yyvidyarthi@yahoo.in
बेहद मार्मिक कहानी।बधाई
जवाब देंहटाएंDhanyawad Neeraj shukla ji.
हटाएंRegards
Yogita Yadav
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंVery Heart Touching Short Story,CONGRATULATIONS YOGITA.
जवाब देंहटाएंThanks a lot NIDA JI.
हटाएंRegards
Yogita Yadav
स्वदेश दीपक ने अपनी किताब में लिखा है कि इस मुल्क में कैंसर और एड्स के मरीजों के लिए भी सहानुभूति है , लेकिन मानसिक रोगियों के लिए नहीं | समाज उनके साथ बहुत ही गिरा हुआ व्यव्हार करता है |
जवाब देंहटाएंयोगिता की यह कहानी इसे पुष्ट करती है , और इसे पढ़ते हुए मन अवसाद से भर जाता है |
एक अच्छी और सार्थक कहानी के लिए उन्हें बधाई
Shukriya Ramji tiwari ji....
हटाएंMujhe khushi hai ki mera chhota sa prayas uss upekshit varg k liye aap sab ke man me samvednaye jaga paaya...
Regards
Yogita Yadav
kahani se adhik mahatwapoorn kahani ka vishaya hai aur jis or ramji tiwari ji ne sanket kiya hai .....andhere mein bhi kala ka prakash padana chahiye....... srijan drishti jani chahiye ......
जवाब देंहटाएंShukriya Raghu pratap ji. Mera prayas rahega ki mai aage bhi upekshit vargo k liye likti rahu
हटाएंRegards
Yogita Yadav
बहुत प्रभावी रचना
जवाब देंहटाएंBahut dhanyawad onkar ji.
हटाएंRegards
Yogita Yadav
very impressive short story... the subject matter is of immense importance to which unfortunately lacks our attention. yogita ji has very successfully depicted the emotions of differently-able people ... overall heart touching story... congratulations
जवाब देंहटाएंThank you so much Veena ji.
हटाएंThanks for the wishes & ur kind concern.
Regards
Yogita Yadav
प्रिय योगिता...इससे पहले कि मैं तुम्हारी कहानी पर बात करूं, मुझे अपनी एक रचना से बात शुरू करनी होगी
जवाब देंहटाएंपथ भुजंग
पाथेय विष
कैसे आऊँ तुम तक..?
अमा निशा...
गिरि उतंग
पथ भुजंग...?
***
सुंदर रचना. संक्षिप्तता और संप्रेषणीयता में सधा हुआ संतुलन. संकेत में खिलता हुआ सौन्दर्य. फिर भी नकारात्मक प्रभाव वाले शब्दों का चयन ‘पथ भुजंग’...पाथेय विष’ इसे वह कविता नहीं बना रहा, जिसका शिवत्व सिद्ध हो. जिस कविता में सौन्दर्य भी हो, सत्य भी हो, शिवत्व न हो, उसे और जो कुछ भी कहा जाये, वह कविता नहीं होती. अधिक से अधिक हम उसे एक अच्छी रचना कह सकते हैं.
अब बात कहानी को लेकर. हमारे समय में, कहानी जैसी होनी चाहिए ठीक वैसी ही है ..सुंदर और सुघड़ ..! लेकिन, शिवत्व का अभाव इसे सार्थक कहानी के पद से च्युत कर रहा है... इसमें तो कोई दो मत नहीं कि भाषा शैली और शिल्प के स्तर पर बहुत ही गठी हुई कहानी है. विरलों को ही ऐसा कलाकार होने का सौभाग्य प्राप्त होता है. लेकिन, कुछ बिन्दु उभर कर आ रहे हैं. दूर के रिश्ते में बुआ से लगन के सन्दर्भ में, क्या कहानी इस गोत्र मान्यताओं और अंध विश्वासों की भी पुष्टि तो नहीं कर रही. दूसरी बात मदारी के लात खाने की. क्या इस चरित्र के साथ कुछ ज्यादती हुई नहीं लगती ?.उसे क्या आवश्यकता है समलिंगी सम्बन्ध बनाने की, जबकि उसकी अपनी स्त्री उसके पास है ? तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, चुनरी रंगाई की टाई एंड डाई कला को सहेजते हुए कहानी को, समाज की गलत फहमियों को दूर करने वाला सुखान्त भी दिया जा सकता ..फिर यह दुखांत ही देने का मोह क्यों ?
Resp/ Shyam ji,
हटाएंKahani ke shilp aur shaili ki prashansa k liye bahut bahut shukriya. prashansa k sath h aapne kuchh sawal bhi uthaye hai....
Inme pahla sawal thik wesa hi hai ki "ek gaon me ek garib brahman rahta tha" is par aap kahe ki brahman hi garib kyo tha nayi, kisan, kumhar bhi to ho sakta tha....
2nd Mujhe kshama kare, kintu shivatv ka abhav to ab pure sansar me mahsusu ho raha hai, aur har kahani me har tatv maujud ho ye sambhav bhi nahi hai.....
3rd मदारी के लात खाने की. क्या इस चरित्र के साथ कुछ ज्यादती हुई नहीं लगती ?.उसे क्या आवश्यकता है समलिंगी सम्बन्ध बनाने की, जबकि उसकी अपनी स्त्री उसके पास है ? iss par mai kya kahu kuchh samajh hi nahi aa raha, iss sawal ka jawab shayad koi Dushkarmi de paye jo ghar me patni hi nahi MAA, Bahan , Beti sab hone k bad bhi ese dushkritya karta hai.
Shesh kabhi milne par
Regards
Yogita