बसन्त त्रिपाठी
जन संस्कृति मंच, दुर्ग-भिलाई द्वारा 30 जून 2013 को आयोजित बुद्धिलाल पाल के कविता संग्रह राजा की दुनिया पर आयोजित चर्चा-गोष्ठी में बसंत त्रिपाठी द्वारा दिए गए वक्तव्य का लिखित संशोधित रूप पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है।
मित्रों, बुद्धिलाल पाल के नए संग्रह ‘राजा की दुनिया’ पर एक ऐसे समय बातचीत के लिए उपस्थित हुए हैं जब हिन्दी में लाँग नाईन्टीज़ के नाम पर समकालीन हिन्दी कविता की बहुलता, विस्तार और वैचारिकी को दरकिनार कर एक खास तरह की कविता को जीवन का प्रतिरूप बताकर उसे ही मुख्य सिद्ध करने की कोशिशें तेज हुई हैं। यह सही है कि साहित्य के इतिहास में किसी भी दौर की प्रातिनिधिक रचनाशीलता दर्ज होती है। और वह प्रातिनिधिक रचना समूचे दौर की हताशा, उल्लास, स्वप्न और संघर्ष को अपने में समाहित किए हुए होती है। क्या लाँग नाइन्टीज़ के नाम पर जिस तरह की कविता को प्रोजेक्ट किया गया है वह गुजरे तीस वर्षों के समय और समाज को पूरी तरह व्यक्त करने में समर्थ है ? यदि नहीं, तो हमें इससे अलग उन कवियों को भी इस बहस के दायरे के भीतर लाना होगा जिसके द्वारा हम अपने समय और उसके अंतर्विरोध को समझ सकते हैं। मैं राजा की दुनिया की कविताओं को इसी परिपेक्ष्य में महत्वपूर्ण समझता हँू। और इसका आधार तार्किक है। पहला आधार तो यह कि हमारे समय के अधिकतर कविता-संग्रह महज कविताओं के संकलन हैं। यानि उसमें एक तरह की कविताओं को चुन कर उचित क्रम में रख दिया गया है जबकि राजा की दुनिया की कविताएँ एक ही विषय राजा (या राजतंत्र) को अलग-अलग कोणों से देखती परखती और समझती है। ऐसे जो संग्रह मुझे तुरंत याद आ रहे हैं उनमें श्रीकांत वर्मा का ‘मगध’ और देवीप्रसाद मिश्र का ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ हैं। इस तरह के संग्रह हमारे समय में बहुत ही कम हैं। मैं मिथक आधारित खंडकाव्यनुमा काव्य को फिलहाल इस दायरे के बाहर रख रहा हूँ ।
इस संग्रह में राजा कोई एक व्यक्ति नहीं है बल्कि एक प्रवृत्ति है जो कबीलाई दौर से लेकर कथित भूमंडलीकृत दौर में पूँजी के वर्चस्व के रूप में हमारे इतिहास में मौजूद है। इस तरह इस संग्रह का दायरा लगभग पाँच हजार वर्ष के समय को समेटता है। वे कहते भी हैं कि कबीलाई दौर में कबीले के सरदार राजा होते थे और हमारे समय में राजा सात समुंदर पार से आ रहे हैं। और एैसे राजाओं की खासियत यह है कि वे वर्चस्ववादी संस्कृति के पोषक होते है। बुद्धिलाल पाल ने अपनी कविताओं में राजा के बहाने सत्तातंत्र को जिस तरह से एक्सपोज किया है वह काफी दिलचस्प है। कविता अदृश्यता में हथियारों को उन्होंने राजा का आभूषण कहा है। कविता राजा का न्याय में राजा का मुकुट अत्याचार का लायसेंस है। सत्ता तंत्र के भीतर केवल राजा ही नहीं बल्कि उसके दरबारी, चाटुकार, नाते-रिश्तेदार, गुण्डे, राजा के घोड़े ये सब मिलकर राजा की दुनिया बनाते हैं। राजा द्वारा व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत जाति-व्यवस्था, धर्म, ईश्वर और कर्मकाण्ड ने उसकी सत्ता को लगभग अजेय बना डाला है। और उस दुनिया में जनता कहीं नहीं है। राजा तो यह भी जानते हैं कि जनांदोलनों को कैसे कुचला जाएगा और इसकी योजना वे पहले ही बनाऐ हुए होते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि यह संग्रह राजतंत्र, उसकी संरचना और उसकी मनोरचना को बहुत प्रखर वैचारिकी के साथ व्यक्त करने वाली कविताएँ हैं।
धर्म और ईश्वर को लेकर इस संग्रह में जैसी और जिस तरह की कविताएँ हैं वह इस संग्रह को विशिष्ट बनाती हैं। मुझे बहुत पहले पढ़ा हुआ आत्माराम जी का एक लेख याद आ रहा है जिसमें उन्होंने धर्म और ईश्वर को सत्ता पक्ष की बहुत सुलझी हुई और महीन किस्म की राजनीति कहा था। बुद्धिलाल पाल की कविताएँ इसी राजनीति के तमाम पक्षों का खुलासा करती हैं। वे बहुत साफगोई के साथ कहते हैं कि देवता राजा की दुनिया रचते हैं। यह देखने वाली बात है कि ईश्वर की बढ़ती लोकप्रियता ने कैसे मध्यवर्गीय समाज को आक्रामक, आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बनाया है। इस नए समाज में ईश्वर की ऐसी मीमांसा कविताओं में कम ही देखने को मिलती है।
बुद्धिलाल पाल ने केवल सत्तातंत्र की चालाकियों को ही नहीं उसके अंतर्विरोधों को भी अपनी कविताओं में दर्ज किया है। सन्नाटा, हादसा, झूठ इस दृष्टि से मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगती हैं। वे कई बार मुग्ध करने वाले मिथों को भी जैसे ढहा देते हैं और नए तरीके से सोचने के लिए आपको बाध्य करते हैं। जैसे झूठ या हादसा कविताओं को ही लें। दीपक और पतंगें को एकनिष्ठ प्रेम के प्रतीक रूप में सदियों से लिया जाता रहा है। साकेत में मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के विरह वर्णन में दोनों ओर प्रेम पलता है लिखकर जैसे इस तरह की मौत को भावुक आधार दे दिया है। लेकिन बुद्धिलाल पाल इस मिथ को ध्वस्त कर देते हैं जब वे हादसा कविता में पतंगों के खामोशी से आत्महत्या करने की घटना को दुनिया का सबसे बड़ा हादसा कहते हैं और झूठ कविता में:
वे दीपक से प्रेम करते हैं
ऐसा कहना
दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है
राजा की दुनिया की उक्त चर्चा से यूँ लगता है जैसे बुद्धिलाल पाल नियतिवादी हैं। कि वे राजतंत्र को अपराजेय मानते हैं और किसी भी तरह के बदलाव के प्रति उनकी आस्था नहीं है। ऐसा लगता भी है लेकिन जैसे ही सन्नाटा और नकेल जैसी कविताओं को पढ़ते हैं, यह धारणा बदल जाती है। सन्नाटा में सत्तातंत्र का खालीपन तो है ही नकेल में वे बहुत फोर्स के साथ कहते हैं कि ऐसी स्थितियों पर नकेल डालना जरूरी है। और नकेल भी किस पर और कयों? संग्रह की अंतिम कविता नकेल देखिए:
मर्द जो औरत को
दोयम दर्जे की नागरिकता देता है
सवर्ण जो दलित को
घृणा की नजरों से देखता है
अमीर जो गरीबों का
शोषण करते हैं
अतिधार्मिक व्यक्ति जो
पृथ्वी को जकड़कर बैठे हैं
इन सबके नाक में
नकेल जरूरी है
यहां स्पष्टतः दिखाई पड़ता है कि राजा की दुनिया का निर्माण मर्दवाद, जाति, धन, और धर्म के गठजोड़ से होता है। एक बेहतर दुनिया की तलाश इस दुनिया पर नकेल डाले बिना नहीं हो सकती। इसलिए राजा की दुनिया मुझे हमारे समय की एक महत्वपूर्ण किताब लगती है।
बसंत त्रिपाठी जाने-माने युवा कवि हैं। आजकल नागपुर के एक महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं।
संपर्क-
मोबाईल- 09850313062
achha likha hai..
जवाब देंहटाएंअच्छी व सटीक टिप्पणी
जवाब देंहटाएंसटीक विश्लेषण , अच्छी समीक्षा | बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सरिता जी.
जवाब देंहटाएंKeshav Tiwari-
जवाब देंहटाएंBasant ne kavitaon ki sateek byakhya ki ha. Kavitayen meri padhin han. Budhdhi bhai ko badhai.
Ashok Shandilaya ·
जवाब देंहटाएंbahut badhiya