अल्पना मिश्र
हिन्दी कहानी के क्षेत्र में अल्पना मिश्र ने थोड़े ही समय में अपनी एक मुकम्मल पहचान बना ली है। अभी-अभी अल्पना ने अपना पहला उपन्यास लिख कर पूरा किया है। इस उपन्यास में इन्होंने उस समस्या को बड़ी खूबसूरती से उठाया है जो हमारे समय का सच तो है लेकिन जिस पर बात करना आम तौर पर वर्जित माना जाता है। अल्पना ने इस उपन्यास के माध्यम से यह दुस्साहस किया है और अपने तरीके से बखूबी किया है. कहीं पर भी लाउड हुए बिना अपनी बातें कह देना अल्पना की खूबी रही है, जिसका निर्वहन इस उपन्यास में भी इन्होने बखूबी किया है। शिल्प की छटा जो अल्पना की खूबी है वह तो आप इस उपन्यास में देखेंगे ही।
तो आइए पढ़ते हैं आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य अल्पना मिश्र के उपन्यास - ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ का एक अंश।
मनसेधू , तोरा नगर बासंती.....
(आत्मकथा -3)
एक बसंती पीला, खिलने खिलने को होता गुलाब मेरे हाथ में था। ओस कण की केवल एक झिलमिलाती बूंद उसकी हेम काया पर थिरक रही थी। जरा सा असावधान हुई कि यह खो जाएगी। मैं इस कण के खो जाने की संभावना को बचा ले जाना चाहती हूँ। कम से कम अभी या कम से कम जब तक मैं बचा पाती।
हथेली जैसे एक आँगन थी। मिट्टी की किनारे बनी क्यारियों में जैसे यह पीला फूल खिलने को आया था। इसे प्यार दुलार के जल से नहलाना था। हवा, मिट्टी के साथ थोड़ी उष्मा जीवन की, इसमें डालनी थी। फिर यह फूलता, निखरता। जीवन का खिलना ऐसा, कोई देखता!
मैंने बहुत आहिस्ता से, बहुत संभाल कर पूरा आँगन उसके सामने रख दिया।
‘‘सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता को तुम नहीं समझती! पढ़ो, वह किताब। जो पिछले दिनों तुम्हें दिया था।’’ उसने हॅस कर कहा था।
‘‘कोई कोई अहसास बचाने का मन होता है। तुम इसे समझते ही नहीं। कुछ बहुत कोमल, कुछ बहुत महीन बुना होता है, उसे उतनी ही कोमलता से बरतना होता है। टूट न जाए, इसका ख्याल रखना होता है।’’
यह मैंने सोचा। कहा नहीं। अचानक ही कहना व्यर्थ लगने लगा। कभी अचानक ही हम कितनी चीजों से छूट जाते हैं। बिना किसी प्रयास के, बिना किसी हिम्मत की कोशिश के। ऐसे ही अकस्मात मैं छूट निकली हॅू और अपने शब्दों को बहा देना चाहती हूँ अनन्त की ओर। कहते हैं कि शब्द नहीं मरते। तो ये भी नहीं मरेंगे। कहीं पॅहुच जायेंगे। किसी जगह, किसी छोर तक। वहाँ, कोई इन्हें जान ले शायद। कोई इन्हें समझ ले। शायद। समझ ही ले।
‘‘तुमने पढ़ा ही नहीं होगा। अब कहोगी अंग्रेजी में है। तो अभ्यास करो अंग्रेजी में पढ़ने का। और ये क्या बचपना है?’’ वह हॅसा। वही अपनी गंभीर सी हॅसी।
मेरे आँगन में खिला फूल उसने किनारे रख दिया।
बचपने का बहुत कुछ किनारे रख दिया!
किनारे रख दिया कि उसे, उसकी जल, मिट्टी, वायु और उष्मा से किनारे कर दिया!
ओस-कण की बूंद - एकमात्र ठिठकी सी बूंद जाने कब हिली और लुढ़क कर विलीन हो गई। कहाँ विलीन हुई होगी? एक दूसरी वस्तुसत्ता में! फूल की वस्तुगत सत्ता थी। एक वस्तु और क्या ? बस, वस्तु-भर! वस्तु की सत्ता भी वस्तुभर है या उपयोग भर? उससे बहस कर के क्या होगा,? वह अंत तक हार नहीं मानेगा। हार जाने के बाद भी नहीं ! मैं यह नहीं देखना चाहती। अपने प्रिय को हारता और हार कर, हार न मानता हुआ देख कर कौन खुश होगा?
लेकिन करेक्शन तो लगाना ही होगा।
करेक्शन जरूरी सच है। इसे भी वह समझ पायेगा ?
मैंने किताब अब तक नहीं पढ़ी थी। किताब से वह छांट छांट कर उद्धहरण दे सकता था। मैं किताब की बात टाल रही थी। असल में किताब बोरिंग थी। बहुत उबाऊ। जीवन उसमें था ही नहीं। रंगों छंदों में बिखरा जीवन। यह बात भी मैं उससे कई तरह से कहना चाहती थी। पर वह अपनी रौ से बाहर ही नहीं आता था। जीनियस रौ। जीनियस झक।
‘‘मैं अपनी झक को बहुत प्यार करता हॅू।’’ वह गर्व के साथ ऐलान कर सकता था।
मैं नहीं कर सकती थी। मैं इस पर ठहर कर विचार करने लगती थी। मेरी झक है क्या? और अगर है भी तो मैं उसे कितना प्यार करती हॅू? करती भी हॅू या कि नहीं कर पाती? या कि अपनी झक से डरती हॅू कि इसी डर से पार जाने की कोशिश है सारी।
यह भी कि अगर दुनिया का हर आदमी अपनी अपनी झक से प्यार करे, सबसे ज्यादा, तो कैसी अनोखी बन जाएगी यह दुनिया?
‘‘हम अब बच्चे नहीं रहे। तुम भी कुछ बड़ी हो जाओ।’’
हॅसी तुम्हारी मुझे चीरती हुई निकलती चली गई। क्या सचमुच मुझे बड़ा हो जाना चाहिए? जीवन की यह खूबसूरती क्या बचपना भर है? या कि बचपना ही है जो समेटे हुए है अब तक थोड़ी सी कोमलता, थोड़ा सा प्यार, थोड़ा सा भरोसा, थोड़ी सी निश्छल हॅसी.... आदमी हर पल एक गंभीर मुद्रा ओढ़े रहे तो जीवन कितना बोझिल होने लगे।
‘‘मेरे पास मेरा फूल हो तो मुझे दूसरे फूलों का क्या?’’ कुछ सोचते हुए तुमने कहा था। हो सकता है कि तुम्हें लगा हो कि मुझे हर्ट कर चुके हो या शायद अब कुछ मेरी निकटता की इच्छा हो आई हो ? क्या पता? फिर तुमने अपने परिचित से अंदाज में मुझे अपनी तरफ खींच लिया। मैं खिंच आई।
मेरा आँगन छूट गया। हथेली चली आई।
फूल छूट गया। खुशबू नहीं छूटी।
क्या था इस खिंच आने में? अब तक सोचती हॅू। मेरी अपनी झक तो नहीं थी! या कि मैं कुछ खोज रही थी, जिसकी कोई गंध तुम्हारे भीतर से उठने की संभावना लगती थी। लगती रहती थी, यह मैं जानने लगी थी। इस संभावना को पकड़ लेना चाहती थी।
तुम हॅसे हो। जीनियस हो, हॅस सकते हो। जीनियस दुनिया पर हॅस सकता है। ऐसा मानते हैं। जो मानते हैं, उनसे मैं कभी मिल नहीं पाई। कुछ मर भी गए होंगे। काल कवलित कहना चाहिए था। एक बहुत ब्लंट भाषा आ जाती है बार बार। चाहने न चाहने की बात नहीं है, जीवन की खरोंचे भाषा भी बदलती ही हैं। तो जीनियस दुनिया से उपर उठ कर दुनिया को देखता है और उसे छोटा, बहुत छोटा, एक गोलाकार भर मान सकता है! गोले को अपने पैर के नाखून से ठेल देने की बात भी कह सकता है! इसी गोले को उधाड़ उधाड़ कर उसके वस्तुगत यथार्थ को खोल भी सकता है! जिगरा है भई, उसी का-!- ?
मैं तो इसी ग्लोब के भीतर, इसी में लुढ़कती हुई, अपने को स्थिर करने के लिए कितना बल लगाती हॅू। दम साधे, जी जान से जुटी हूँ कि कोई हिला दे तो न हिलने की हिम्मत में रहॅू, पैर न डिगें, मन के झील की हिलोरें फेन उगलती सिंधु की प्रलयंकारी लहरों की तरह पछाड़ खा खा कर गिरने को न हो जायें! मेरी संभाल से बाहर। मेरी मुट्ठी से फिसलती हुई।
‘‘शचीन्द्र। शचीन्द्र। ओह शचीन्द्र।’’
मैंने कैसे बार बार तुम्हारी छाती के भीतर तक मुँह गड़ा कर कहा है। किस गहरे समंदर से उफन कर यह स्वर उपर उठ आया है।
कितने पहले की बात है ये। लगता नहीं! लगता है बस, अभी सब होता हुआ गुजरा है। एकदम अभी।
तुम्हारे साथ का यह थोड़ा सा वक्त, बस, खत्म हो जाने के लिए था। घड़ी की सुई मेरे लिए नहीं रूक सकती थी।
‘‘बिट्टो! बिट्टो, तुम हो ही ऐसी। मक्खन की तरह।’’
यह क्या! किसी खाने की चीज से तुलना? कोई और वक्त होता तो मैं बहुत धक्का खा जाती। मुझे यह हद दर्जे नापसंद है। लेकिन अभी जब तुमने कहा, ऐसे सघन क्षण में कहा, तो इसे मैंने कुछ और तरह से पढ़ लिया। मानो यह सिर्फ मिठास का, मन की अतल गहराइयों में खो जाने का पर्याय भर हो। इसका कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता।
‘‘मुझे किसी रजिस्ट्रेशन की जरूरत नहीं है।’’
तुमने कह दिया था।
मैंने मान लिया था।
इससे ज्यादा और क्या कहा जाता!
इससे ज्यादा और क्या सुनने को बेचैन हुआ जाता!
‘‘जो सुनना है, बोलो, मैं कह दूं।’’ तुमने पूरा का पूरा ढक दिया था। मैं अलग से कुछ रह ही नहीं गई। तुम भी नहीं रह गए होगे। कम से कम उस क्षण तो बिल्कुल नहीं। अपनी सारी तर्क शक्ति के बावजूद उस क्षण तो बिल्कुल नहीं।
तुम्हें तो ध्यान भी नहीं होगा। कैसे मैं तुम्हें अपलक रात भर देखती रहती हॅू! तुम आँख बंद कर लेते हो। सोने लगते हो। मैं नहीं सो पाती। जाने कौन से अचरज से मेरी आँखें खुली रहती हैं। तुम्हें ताकती, निहारती, तुम्हें छूती। आँखों की इस छुअन को तुम जान पाते होगे ? जैसे लगता है कि जान कर ही अचानक अपनी बाँह उठा कर मुझे लपेट लेते हो। मुड़ते हो जरा सा और मुझे एकदम सीने में चिपका लेते हो। जान जाते होगे तभी तो बीच में कह देते हो -‘‘ सोओ। सो जाओ।’’ मैं फिर भी नहीं सो पाती। ऐसा पल सो जाने के लिए नहीं है। सो कर बिता देने के लिए नहीं है। ऐसा पल जीती जागती आँखों में भर लेने के लिए, रोम रोम में समा लेने के लिए है। पता नहीं किस जन्म में मिलेगा ऐसा पल। और तुम हो कि सो रहे हो आँख बंद किए।
‘‘आज न सोओ।’’ मन करता है कि तुम्हें कह दूँ। जगा दूँ। एक रात न सोओ। एक रात अपनी नींद की रातों में से कम कर दो। एक रात कम कर देने से तमाम तुम्हारी नींद की रातों का ऐसा क्या घाटा हो जाएगा?
‘‘आज की रात न सोओ।’’ नहीं कह पाती।
तुम्हें जगाने के लिए उठा हाथ तुम्हें थपकने लगता है, सहलाने लगता है।
दुलरा कर चूम चूम लेती हॅू तुम्हें।
चूमती हॅू इतने धीरे से कि तुम्हारी नींद को पता भी न चले।
तुम्हें छू लूं और तुम जागने भी न पाओ।
नींद से किसी को जगाना पाप है, ऐसा सुना था। पता नहीं किससे? ऐसी सुंदर सी नींद आती ही किसे होगी ! ऐसे जमाने में ऐसी नींद। सचमुच पाप ही लग जाए जो ऐसी नींद वाले को जगा दे कोई। नहीं, नहीं जगाउंगी। तुम्हें सोते हुए देखूंगी। ‘आज मत सोओ।’ यह कहना बचा लूंगी। किसी और रात के लिए सजो लूंगी। तब कहूँगी। इस आस में कहॅूगी कि तुम मान लोगे मेरी बात। कौन से प्रेमी ने अपनी प्रेमिका की ऐसी बात नहीं मानी, बताओ। इतिहास उठा कर दिखाओ।
चलो छोड़ो! ये दुनीयाबी बातें! यही कहोगे न! यही कह कर हॅसोगे न! अभी तो सो लो। और ऐसे सोता है कोई, मुस्कराते हुए। स्वर्ग का राज मिल गया हो जैसे। कोई गड़ा खजाना हाथ आ गया हो। ऐसे, इस अभिमान से मुस्करा रहे हो। आँखें बंद हैं और चेहरा प्रसन्नता से भरा है। तुम्हारे इन मुस्कराते होंठों को चूमने का दिल कर आता है। बार बार। नींद में डॅूबे किसी आदमी की मुस्कराहट को ऐसे चाहना में छलक कर चूमा है कभी किसी ने! मैंने कहीं नहीं पढ़ा। सुना भी नहीं।
मैं तुम्हारे सीने में लिपटी हुई अपनी चाहना में छलक पड़ी हॅू।
थोड़ा सा हिल कर इतनी जगह बना लेती हॅू कि एकदम से इस क्षण को पकड़ लूँ। तुम्हारी मुस्कान को भर लूँ अपनी सासों में, धमनियों में, रक्त में......
छलकती हुई मैं तुम्हारे होंठों पर बिखर गई हूँ।
आखिर छलका हुआ जल कहीं तो गिरेगा।
कोई तो उसकी इच्छित भूमि होगी।
मेरी यही है। तुम्हारी जगर मगर करती मुस्कराहट.....
सोते हुए तुम कुनमुना कर जग गए हो। अपनी विशाल देह की एक चादर ओढा दी है मुझे। मैं छिप गयी हॅू इसमें। समा गयी हॅू इसमें। एकाकार हो गयी हॅू इसमें। कुछ दूसरा बचा ही नहीं है। न अलग, न थलग। कुछ भी नहीं।
ऐसे जब तुम छिपा लेते हो मुझे, तो मैं खुद को कितना कितना सुरक्षित महसूस करती हॅू। तुम्हारा हाथ, हथेलियाँ - बड़ी, चौड़ी, मेरा हाथ, हथेलियाँ- छोटी, पतली, तुम्हारी हथेलियों में समा जाती हैं। जैसे मेरी छोटी सी देह तुम्हारी देह में छिप जाती है।
प्रेम की अगर सचमुच कोई अलग सी भाषा होती होगी तो वह ऐसी ही होगी - तुम्हारी मुस्कराहट जैसी। कोई रंग होता होगा तो ऐसा ही होगा - इस समय तुम्हारे चेहरे पर पसरा है जो.....
‘‘तुम्हारी छाती पर चढ़ कर कहा रहा हॅू आई लव यू। कभी किसी ने कहा है ऐसे - दुनिया में किसी को? बताओ।’’ तुम दुलरा कर कहते हो।
पता नहीं कौन कौन से फूलों के पराग महक उठते हैं। पता नहीं कौन कौन से रंग खिल उठते हैं।
तुमने कह दिया था। मैंने मान लिया था।
इतना ही सच था।
इसके आर पार मैं नहीं गई।
कोशिश भी नहीं किया।
तुमने कह दिया, इतना जो कह दिया तो भला कौन सी मुझे ही परवाह रह गई इस दुनिया के नियमों, बंधनों की। मैं तो बिल्कुल नहीं जाना चाहती थी रीति रिवाजों के क्रूर संसार में। जहाँ सजा धजा कर औरत को बलिबेदी पर बैठा दिया जाता है। मैं झेल चुकी थी यह सब। मेरी झोली में ऐसे अनुभव अपनी पूरी तीव्रता का अहसास कराते ठूंसे पड़े थे। पूरी सदी भर अनुभव।
पता नहीं वह कौन सा क्षण होता है जहाँ मैं रूक जाती हूँ और कुछ और ही तरह से देखने लगती हॅू। शंका करने लगती हॅू। कुछ और हो जाती हूँ। तुम्हें नहीं बता पाती। हर बार जब तुम तक आती हॅू तो अपने साथ एक भारी भरकम पिटारा लिए आती हूँ। वही, मेरी अनुभवों की झोली, दुख, अपमान, तिरस्कार, पीड़ा या और जो भी शब्द दिए गए हों इसके लिए, वे सब के सब इसमें भरे पड़े हैं। उपर तक ठूंसे। हर बार सोचती हॅू कि तुम्हारे आगे खोल दूंगी इसे। हर बार रह जाता है। वापस, वैसा ही। जानते हो इतनी भारी भरकम गठरी ढो कर लाने और फिर ढो कर वापस ले जाने में मैं कितना थक जाती हूँ। बड़ी भारी थकान है यह। एक सदी से भी भारी। युग कल्प से भी भारी। अब तुम्हें क्या बताउं कि हर बार की तरह इस बार भी तुम इसे अगली बार सुनने को कह दोगे। फिर ऐसी अलमस्त नींद तुम्हारी। यह बोझ वाला पिटारा खलल ही तो होगा।
छोड़ो, सचमुच फिर कभी।
फिर ले जाती हॅू वापस।
तो जो मैं नहीं कह पायी, पर तुम्हीं से जो कहने को आकुल व्याकुल होती रही, वही मैं आज अपने आप से कहती हॅू कि अगर कोई दिन और रात में गिनती करने बैठे तो कह सकता है कि मैं कोई डेढ़ साल रही उस संसार में, जिसे शादी शुदा जिंदगी कहते हैं। मैं इसे डेढ़ साल में अटा नहीं पाती हॅू। मुझे यह बड़ा लगता है। बहुत बड़ा। जिंदगी की सारी गिनतियों से बड़ा। सौ, हजार, लाख, करोड़, शंख, महाशंख........ मतलब कुल मिला कर तब तक, जब तक कि वहाँ मैं रहती चली गई। तब तक, जब तक कि इस हद तक मुझमें भय नहीं भर गया कि अब नहीं भागी तो आगे नहीं बच पाउंगी! जीने की इच्छा से फूटी आखिरी हद पार कर जाने वाली हिम्मत भी इसे कहा जा सकता है।
मैं कोई पहली लड़की तो थी नहीं, जो ससुराल से भाग आई थी। मुझसे पहले जो लड़कियाँ भागी थीं, उनका कोई उपलब्ध रिकार्ड भी मेरे पास नहीं था। पर एक नाम मेरे पास था। अपनी ही बड़ी बहन का। दीदी। हाँ, दीदी मुझसे पहले भाग आई थीं। मुझसे पहले वे लड़ कर, भिड़ कर, चीख कर देख चुकी थीं। मुझसे पहले उन्होंने मायके वाले परिवार को अपना परिवार कहने की जुर्रत कर डाली थी। मुझसे पहले उन्हें मायके के लोग बेगाने दिखाई पड़े थे। मुझसे पहले वे माँ की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देख चुकी थीं। मुझसे पहले वे माँ की समझाइश की सारी चालाकियाँ, सारे ताने और अवमानना के सारे दंश तहा तहा कर रख चुकी थीं। मुझसे पहले वे माँ पर सामंती मानसिकता की पुतली होने का आरोप लगा चुकी थीं। मुझसे पहले माँ से उनकी ठन चुकी थी। दुनिया से भी। मेरे सामने वे हार रही थीं। मेरे सामने उनके हथियार भोथरे हो रहे थे। मेरा काम उनके अजमाये तरीके से नहीं चल सकता था। ‘वित्त विहीन आदमी हार जाता है’ यह पाठ मेरे आगे खुल रहा था। रोज ऐसे अनुभवों का कुएं भर जल आता और मेरे आगे पसर कर नदी की तरह रास्ता बना लेने की जिद करने लगता। मैं रोज इसे पढ़ती, बाँचती, गुनती। मैं रोज निर्णय करती कि उन दिशाओं को जानना है, जिधर से वित्त आता है। उसी तरफ जाना है। लेकिन समस्या सम्मानित वित्त की थी। माने क्वालिटी धन। इसके लिए पढ़ना और नौकरी करना ही सूझा था। मैं दीदी की तरह नहीं लड़ सकती थी। मैं कुछ और तरह से लड़ना चाहती थी। इस लड़ाई की पूरी सामरिकी स्पष्ट नहीं हो पाती थी तो बड़ी बेचैनी होती थी। तमाम किताबों की तरफ इसीलिए जाती थी, चाहे वे कितनी ही बोरिंग हों, मैं पूरी कोशिश करती थी। तमाम लोगों से, जो दूसरों के हक की बात करते थे, इसलिए मिलने को उतावली हो उठती थी। इसी क्रम में लोगों के हक की बात करने वाले शचीन्द्र से भी मिली थी। शचीन्द्र से मिल कर बहुत राहत मिली थी। उसकी बातें मुझे सारे दिन याद रहतीं। सारी रात मैं उन पर सोचती। तमाम प्रश्न उठते तो मैं उन्हें तब तक संभाले रखती, जब तक कि शचीन्द्र से दुबारा मुलाकात न हो जाए। शचीन्द्र मेरे तहाए प्रश्नों को बड़ी गंभीरता से उठा लेता, फिर भारतीय पारिवारिक ढाँचे को समझाता, बेहद सैद्धान्तिक तरीके से। व्यावहारिक अनुभव से वह नहीं बोलता था। सिद्धांतों को कभी परखता भी नहीं था। यह भी मैंने कितने बाद में जाना। सिद्धांतों पर अंधविश्वास करना, अंध श्रद्धा ही उसके लिए पहली और आखिरी शर्त थी। मैं चकित सी उसका मुँह देखती। देखती इस तरह कि उसका मुँह देखते देखते बहुत प्यारा लगने लगता। मैं भूल जाती कि वह जो कह रहा है, वह किस विषय पर है? पता चलता कि उसका प्रवचन था शिक्षा व्यवस्था पर और मैं बता बैठी कुछ और। वह नाराज हो जाता।
‘‘तुममें लगन तो है। पर ध्यान भटकाती रहती हो। ये लो दो किताबें। ध्यान से पढ़ना।’’
किताबें मैं ले लेती। मैं भी समझना चाहती थी कि आखिर यह सब परिवार, समाज, वर्ग, जाति, लिंग और अंततः इन सब में स्त्री की स्थिति क्या है? लेकिन प्रवचन रूक जाता। शचीन्द्र का भाषण देता चेहरा दूसरी तरफ मुड़ जाता। वह उठ खड़ा होता। यह मुझे अच्छा नहीं लगता। लेकिन यह भी ठीक न लगता कि मैं उसे बोलते रहने के लिए रोक लूं। फिर सब दोस्त मित्र इधर उधर घूमते। इधर उधर घूमते जोर जोर से बतियाते, बहसते, चाय पीते। किसी के पास कुछ पैसे होते तो पकौड़े खा लेते। और ज्यादा होते तो दारू पी लेते। मैं इससे बाहर हो जाती। अॅधेरा होते मुझे लौटना होता। इसके लिए तुम्हीं सब मुझे डरपोक, कायर, स्वतंत्रता के हसीन सपनें देखने वाली शेखचिल्ली आदि आदि कहते और यह भी कि ‘ऐसे दुनिया नहीं बदलती ’ जैसे जुमले सुना का टांट कसते। दुखी करते। पहले मुझे लगता था कि मैं बेहद कमजोर और डरपोक हॅू। थी ही। लेकिन मुझे तुम सबका यह तरीका, इससे भी दुनिया बदल जाएगी, यकीन करने लायक न लगता। पर मैं यकीन करती। बाकी कोई तो इतना भी नहीं बोल रहा था। यहाँ इतना तो था। लड़कियाँ इनके गोल में बोल बतिया पाती थीं। ढाबे पर चाय पी लेती थीं। थोड़ा हॅस भी लेती ही थीं। इससे ज्यादा नहीं। पर इतना तो था ही।
‘‘अपने हक की लड़ाई को ऐसे सबके हक की लड़ाई में बदल कर लड़ना, बड़ा लड़ना है।’’
शचीन्द्र ने यही कहा था। पहली ही मुलाकात में। बात एकदम पते की थी। किसे इंकार हो सकता था भला! मैंने भी इसे ही पकड़ा था। अपनी तरफ से एक बड़ी लड़ाई की तरफ जाने की कोशिश भी की थी।
‘‘शचीन्द्र , आज मैंने एक फासला तय कर लिया। नौकरी। नौकरी मिल गई आखिरकार।’’ मैंने सबसे पहले शचीन्द्र को ही यह खबर दी थी। हाथ में कागज पकड़े दौड़ी चली आई थी। सोचा ही नहीं था कि जरा थिर हो लूं। बस, दौड़ पड़ी। कागज आगे कर दिया। मन हुआ आज पहली बार कि शचीन्द्र के गले लग कर रो पड़ूं। बस, डर से गले नहीं लगी और रोई भी नहीं। कहीं हॅस न पड़े, मजाक न उड़ा दे, यही सोच कर रूक गई।
‘‘वाह! वाह! यह तो गजब की खबर है। अरे मेरी बिट्टो! बिट्टो।’’
फिर कुछ और बल दे कर कहा-‘‘ बिट्टो रे, जीत की तरफ है तू तो। गुड, वेरीगुड।’’ और न जाने किस पल में उसने मुझे गले से लगा लिया। उसी आवेश में भींच लिया।
मैं खड़ी रह गयी। अपने को भूली हुई। रोना, हॅसना सब इस अपनेपन में बहने लगा।
‘‘तुझे नौकरी मिल गयी तो जैसे मुझे मिल गयी। मैं बहुत खुश हूँ। बहुत। बहुत। सच में।’’ यह उद्गार हृदय से ऐसे फूटे थे, जैसे कहीं कोई झरना गड़ा था, जिसका पता किसी को नहीं था। पर जो था ही। वही, आज उमग कर बह निकला था। वह मुझे थामे कितने चक्कर मुड़ मुड़ कर कहता रहा। न जाने क्या क्या कहता रहा। मैं चकित खिचीं उसी के बहाव में बहती रही।
‘‘आज निश्चिंत हो गया मैं। खर्चा तो अब चल ही जायेगा हमारा। दोनों में से एक के पास खर्चा उठाने का रास्ता होना चाहिए। लो अब हो गया। हो गया न। बोलो। बोलो।’’ वह मुझे हिला हिला कर कहता रहा।
‘‘मैं यौन शुचिता को नहीं मानता। तू पवित्र है मेरे लिए। उतनी ही पवित्र जितनी हमेशा से थी।’’ उसने मुझे कंधे से पकड़ कर धीरे से कहा।
‘‘क्या कह रहे हो? कहने की क्या जरूरत है? मैं जानती हॅू तभी तो तुम पर भरोसा कर रही हॅू। और मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं कहीं से अपवित्र भी हो सकती हॅू? मैं हमेशा से पवित्र हॅू। बोलो। है न?’’ मैंने आवाज में बहुत भरोसा भर कर कहा। मानो उसके इस उद्गार में जो कुछ ऐसा था, जो कुछ मुझे ठीक सा नहीं लगा था, उसे भरोसे के इस जल से धो कर निर्मल कर दूंगी।
वह मेरे कंधे पर झुक आया। कितनी ही रात तक हम बैठे रहे। सरिता का सैकत कूल हमारा गवाह रहा। नदी का तट हमें दुलराता रहा। नदी का जल हमें शीतल करता रहा। नदी तट के पल्लव - पाखी हमारे लिए मंगल गान गाते रहे। मंद सुगंधित हवाएं श्रृंगार करती टहलती रही।
वह कहता रहा। मैं न जाने क्या सुनती रही! न जाने किस रस में भीगती रही! न जाने कौन से समंदर की अतल गहराई में तैरने लगी! मैं कुछ भी न समझने की तरह सिर हिलाती रही! भूली, भूली, ठहरी ठहरी, चुपचाप! जब तक कि शचीन्द्र ने मेरा पूरा चेहरा अपने हाथों में भर न लिया। मैं थोड़ा सा कुनमुनाई थी। मुझे याद है। तुमने थपका था। कोई मीटी, गुलगुले सी लोरी थी जैसे, मैं बेहोश सी थी। किसी जादू के वशीभूत। जादू ही था।
‘‘बोल कि लव आजाद हैं तेरे, बोल कि जुबाँ अब तक तेरी है........’’
किस बात का कौल भरवा रहा था वह मुझसे ? मैं तो कब की थकी, आज उसी की बाहों में लम्बा आराम पाना चाहती थी।
मैंने आँखें बंद कर लीं। अपना सिर तुम्हारे कंधे पर टिका दिया। तुम्हारी हथेलियों में अपनी हथेली रख दी।
‘‘हाँ। तुम्हीं हो। तुम्हीं रहोगे। और कोई नहीं।’’ मैंने कहा था। पूरे मन, वचन, कर्म से।
इससे अधिक भी क्या कहा जाता!
इससे अधिक सुनने को भी क्या होना था!
हमारी गवाह नदी थी। पेड़ पल्लव थे। पाखी के मंगल गान थे। हवाएं भी थीं ही।
तुमने माना था। प्रकृति को साक्षी रख कर। मैंने माना था। बाकी सब आडम्बर था।
‘‘तो चलो, सालाना चंदा भरो पहले।’’ तुमने हॅस कर मुझे खींचा था।
मैं भी हॅसी थी। ऐसे समय ऐसी बात! तुम्हें सूझ सकती थी! तुम हो ही ऐसे!
छात्र हित के लिए चंदा मांग सकते हो, कभी भी!
‘‘चंदा। हाँ, हाँ, क्यों नहीं।’’ मैंने एक दूसरी दुनिया से निकल कर कहा।
मुझे थोड़ा वक्त लगा था। मैं चेत गई थी। लजा उठी थी। यह क्या कर रही थी। इतने खुले आम। तुम मेरे लजा जाने पर हॅसे थे। हॅस कर मुझे खींचा था। मैं खिंच आई थी। तुम्हारे माथे की सलवटें कितनी सुंदर, मनोहर, भव्य, रमणीय.... या जो भी शब्द सटीक बैठता हो, बस, वैसी लग रही थीं। तुम्हें देख कर मुझे यकीन होने लगता था कि यह दुनिया बदल जाएगी एक दिन जरूर। एक दिन औरतें खुली हवा में सांस लेने लगेंगी। एक दिन मेरी माँ भी डरना भूल जाएगी। बहुत डरती है मेरी माँ, मैं तुम्हें एक दिन कहूंगी। डरती है इसलिए लड़कियों को और भी ज्यादा कड़ाई से चारदीवारी के अंदर रखना चाहती है। वह सबको खुश देखना चाहती है। सबको, मतलब जो घर में ताकतवर हैं, उन सबको। बाकी सब खुश रहने के दायरे से बहुत पीछे हैं, बहुत पीछे। हाशिए के कोर पर लटके हुए। उसके पास सहानुभूति से नहीं जाया जा सकता। वह इसे सहानुभति की बजाय अपना काम कुछ पूरा हुआ सा मान कर कब्जे की स्थिति को और बढ़ा देती है। हे प्रभु! सचमुच यह दुनिया बदले और सारी माएं भय मुक्त हो जाएं। मैं दुआ करती हॅू। किसी ईश्वर को नहीं जानती मैं। बस, दुआ जानती हूँ।
मैं तुमसे अपना सब सपना सांझा करना चाहती हॅू।
मैं तुम्हारे साथ मिल कर अपनी पुरानी, वही सदियों पुरानी लड़ाई में मजबूत होना चाहती हॅू।
दुनिया की मरम्मत करना चाहती हॅू।
चाहती हॅू कि मेरा यह सब तुम जान लो।
मेरा वह सब, जो अतीत से टूट टूट कर वर्तमान में भर भर आता है, वह सब।
कोई सुंदर शब्द आएं और छलछला कर तुम्हारे आगे बिखर जाएं। तुम उन्हें समेटो, सहेजो, रख लो अपने अन्तरमन की संदूकची में।
मैं कुछ न कहॅूं। सीधे शब्दों में कहना जितना मुश्किल है, यह बताना भी उतना ही। अब ऐसा क्या रह गया कि शब्दों की एक अलग छतरी तानी जाएं, तब कहीं हम भावनाओं के ताप, शीत और बरसात से बच जाएं। अंधड़ हमें बहा न ले जाएं, इसके जतन में लगे रहें? अरे नहीं, मैं हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ाउं तो सब बढ़ आएगा तुम्हारी ही ओर। पूरा का पूरा जीवन।
‘‘चाय।’’ तुमने धीरे से चाय का कुल्हड़ मुझे थमाया है।
कब ले आए मुझे इस ढाबे तक?
देखो, कैसे नींद में चली जा रही हॅू !
बादलों में तैरती सतरंगी पंखों वाली परी हो गयी हूँ!
‘‘संभालो अपने को। माथे का टेंशन पोंछो। नौकरी की खुशी में चाय का तो पेमेंट करो।’’
मैं शर्मिन्दा हो उठी। सचमुच कैसे भूल बैठी हूँ जग - अग सब!
तुम्हारा हाथ थामें चली आई हॅू निणर्य की इस डगर पर।
एक भविष्य भरा- पूरा, मेरे आगे आगे चल रहा है।
तुम्हारा पैनापन पानी की तरह बह रहा है। तुम्हारे तर्क चमचमाते हुए खिल रहे हैं। सूरज का ताप जैसे शीतल हो उठा है। मैं हूँ तुम्हारे अहसास के समंदर में बिछलती और तुम हो अपनी बलिष्ठ देह में चमचमाते सुनहरे। अपने स्पर्श से दुलराते, सहलाते, झुकते, चूमते, छाते हुए.......
फिर, फिर, यह क्या ? इतने परेशान हो उठे हो? इतना संघर्ष कर रहे हो अपने आप से! अपने छोटे से अंग को इतना रगड़ रहे हो, पर वह है कि अपनी सुप्तावस्था से बाहर ही नहीं आता। भय से सिकुड़ कर बैठे किसी केचुए सा.... या शायद छिपकली के छू जाने से पैदा हुए अहसास जैसा.... या शायद..... मुझे सूझ नहीं रहा कि क्या कहूँ? कि क्या करूं?
सारा आलोड़न विलोड़न रूक गया है!
सारा शोर थम गया है!
तुम अपनी असमर्थता में काँप रहे हो!
अपनी जान भर जूझ रहे हो। आखिरकार थक कर गिर गए हो। हारे हुए भी और पस्त भी।
मैं न हारी, न थकी। फिर क्यो लग रहा है कि जैसे ढह गयी हॅू!
कोई रेत का टीला अभी अभी भरभरा कर गिर गया है!
कितनी ही देर तक कोई शब्द नहीं आया। आ ही नहीं पाया!
कुछ कहने को होती तो कहना रह जाता।
कैसे कहा जाए? यही संकट था।
कैसे सुना जाएगा? यही चिंता थी।
‘‘कब से?’’ बड़ी मुश्किल से मेरे मुंह से निकला है।
‘‘कुछ दिन से, कुछ महीनों से.... पता नहीं.....’’ तुम कह नहीं पा रहे हो। शब्द किसी अज्ञात लोक से चल कर आए लग रहे हैं। थके, परेशान, बेचारे शब्द।
‘‘तुमने बताया क्यों नहीं? अपना नहीं माना मुझे?’’ मैं इतनी कमजोर सी आवाज में कह रही हॅू जैसे दूर किसी खाई में खड़ी हॅू। जहाँ से बोलूंगी तो आवाज गूंज कर कई टुकड़ों में बिखर जाएगी। पता नहीं उस तक पहुँचेगी भी कि नहीं, जिसे सुनाना था?
तुम्हारे कंधे पर सिर रख कर सो रही हॅू। सो रही हॅू या केवल सोने का अभिनय कर रही हॅू। तुम भी, शायद तुम भी सोने का अभिनय कर रहे हो। मुझे ऐसा ही लग रहा है। पता नहीं किस सागर तट पर तूफान तट बंध तोड़ आया था, पता नहीं किस नदी ने करवट ली थी कि सारा जल उमड़ा चला आ रहा था। इधर, इधर, मेरी आॅखों की खाली पड़ी जगह में। तुम्हारी आँखों की खाली पड़ी जगह में।
‘‘रो क्यो रही हो?’’ तुमने कहा नहीं था। बस, मैंने जान लिया था।
‘‘सब ठीक हो जाएगा।’’ यह भी नहीं कहा गया था।
कहीं हमारा आप, दूसरे में इस तरह मिल जाता है कि बहुत अनकहा भी कहा हो जाता है। बहुत कुछ हम जान लेते हैं। बिना किसी प्रयत्न के हम तक कितना कुछ पॅहुच जाता है। तुम तक भी पॅहुचता होगा?
तुमने मुझे खींच कर अपनी तरफ कर लिया है। अपने सीने में दुबका लिया है। सारी दुनिया से अलग कर के छिपा लिया है। तुम्हारे नयनों के नीर को मैंने स्नेह से पोंछा है। तुम्हें दुलराया है। यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है। देह के छोटे से सुख के लिए आदमी का इतना बड़ा प्रेम ठुकराया नहीं जा सकता।
मैंने उस रात, जितनी जितनी गहराई से तुम्हें प्यार कर सकती थी, किया था।
पूरी नदी कल कल छल छल बह रही थी और तुम किनारे खड़े थे।
मैं दया से, सहानुभूति से भर उठी हूँ।
‘‘ठीक हो जाएगा। आजकल इतना तो इलाज है। दुनिया भर के तेल और दवाएं....’’ यह भी मैंने मुश्किल से कहा था। डरते हुए कि कहीं तुम्हें हर्ट न कर दूँ।
‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ अचानक तुम नींद से जागे थे। चकित से, हैरान से!
‘‘पढ़ा था कहीं?’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘शायद किसी अखबार में।’’
‘‘ये सब पढ़ने की क्या जरूरत है?’’
यह मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। इसमें इतना क्या चौंकना! रोज अखबार ऐसे विज्ञापनों से भरे रहते हैं। कोई भी पढ़ सकता है। मुझे कभी नहीं लगा कि इस पर नजर जाए तो नजर बचा ली जाए। जीवन की असलियत से तो नजर मिलाना होता है। बचाना नहीं। यही जानती थी। यही जीवन ने सिखाया था। सो पढ़ा हुआ जब तब का, अभी याद आ गया था और कह दिया गया था। शायद तुम्हें अच्छा नहीं लगा था। शायद तुम यह सुनना नहीं चाहते थे कि कोई लड़की यह सब भी पढ़ लेती है और पढ़ ही ली है, तो इस पर ज्ञान बघारे, यह तो अशोभन है, यही सोचा होगा। एकदम मेरी माँ की तरह।
मैंने करवट कर लिया।
‘‘ऐसे ही कह दिया था।’’
तुमने समझ लिया कि कुछ है जो मुझे नहीं भाया है।
पर इतने बुझे हुए! तुम्हारी चहक! मैं उसे वापस पाना चाहती हॅू।
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स्वर्णमृग और झील मन की हलचल
(आत्मकथा - 4)
(आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य अल्पना मिश्र के उपन्यास - ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ का एक अंश)
शचीन्द्र! हर दिन तुम लौटते हो। तुम नहीं लौटते! तुम्हारा साया लौटता है। तुम्हारा हमशक्ल कोई! तुम्हारी तरह मुस्काराने की कोशिश करता। तुम्हारी तरह बहस करने का मूड बनाता। पर तुम्हारी तरह नहीं, कुछ छूटा हुआ, कुछ रूका हुआ, कुछ बीता हुआ सा.... उस साये से कुछ छूटा हुआ ......! मैं इंतजार में रूकी, इंतजार में ही रह जाती हॅू। मेरा इंतजार नहीं टूटता, खत्म ही नहीं होता!
तुम लौटते हो। थके हुए से! लौटते ही मुझ पर टूट पड़ते हो। अपने को अजमाते, अपने से संघर्ष करते। अपने से निराश होते। अपने से खीजते। अशक्त और कमजोर। पहले से ज्यादा। किसी भी तर्क से अलग। अपना तर्क गढ़ते। अपने बचाव का तर्क गढ़ते।
‘‘कमजोर हो गया हॅू। शायद इसी से। अब से फल फूल, दूध दही नियम से खाउंगा तो देखना सब ठीक हो जाएगा।’’
तुम्हारा ध्यान अपने पुरूषार्थ पर केन्द्रित हो कर रह गया है! तुम कुछ और सोच ही नहीं पाते। जब मन करता है, रहते हो, जब मन करता है, कहीं के लिए निकल पड़ते हो। कहाँ के लिए? कोई बता नहीं सकता। ठीक ठीक दोस्त मित्र भी नहीं बता पाते!
मैं ‘‘हाँ। ठीक है।‘‘ कहती हॅू और फल फूल के इंतजाम के लिए बैंक से पैसे निकालने लगती हॅू।
‘‘फिर भी एक बार डॉक्टर के पास चले जाते। मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ।‘‘ मैं सोचती हॅू कि तुम झिझक रहे होगे। मुझे भी साथ चलना चाहिए।
‘‘अच्छा, चला जाऊँगा।’’ तुम टालते हुए कहते हो।
‘‘कब? क्यों टाल रहे हो?’’ मैं सचमुच पीछे पड़ती हॅू।
‘‘क्यों मेरी जान खा रही हो! खा तो रहा हूँ फल, सब्जियाँ। थोड़ी कमजोरी है, कह तो दिया। थोड़ा इंतजार नहीं कर सकती।’’ तुमने झल्ला कर कहा है। और भी बहुत कुछ कहा है। मुझे सेक्स के लिए तड़पती औरत की तरह व्याख्यायित कर दिया है। मुझे किस हद तक हर्ट करना चाहते हो? समझ में नहीं आता। जानती हॅू, तुम नाराज हो। मुझसे नाराज हो। अपने आप से नाराज हो।
हाँ, मुझमें भी अतृप्ति की सागरिकाएं हिलोरे लेती हैं। देह जगती है मेरी भी। तुम्हारा छूना, सहलाना, चूमना बेचैन बनाता है मुझे भी। हाड़ मांस की बनी हॅू मैं भी। प्रेम के नाम पर कुर्बान होती हॅू। सहती हॅू। तुम्हें भी सहती हॅू। तुम यह जानते ही कहाँ हो! तुम इसे जानना चाहते ही कहाँ हो?
एक दिन और लौटते हो तुम। हाथ में थैला लिए। इससे पहले कभी कुछ लाए नहीं। कुछ तुम अपने लिए ही लाए होगे। थैला मेरी ओर फेंक कर मुँह हाथ धोने चले गए हो। थैला मेरी ओर आया है तो मैं उसे खोल देती हॅू। बीयर कैन! नमकीन!
हैरानी मेरी आँखों में उतर आती है! हो सकता है दोस्तों के लिए हो।
‘‘क्या पार्टी का इरादा है?’’ हैरानी मेरे शब्दों से झर रही है।
‘‘कुछ बना सकोगी? पकौड़े या और कुछ तल लेती, जो आसानी से बन जाए।’’ मेरी बात पर तुम्हारा ध्यान नहीं है। तुम मॅुह हाथ धो कर निकल आए हो।
‘‘कोई आएगा? मतलब कुछ मित्रगण?’’
‘‘नहीं बाबा, ये मेरे और तुम्हारे लिए। आज हमारा दिन होगा।’’ तुम दुलरा कर कहते हो। खुश दिखने की कोशिश कर रहे हो। जल्दी जल्दी बिस्तर की चादर ठीक कर रहे हो।
‘‘तुम्हारी यह कंचन काया! किसी जादूगरनी की तरह बांधती है! उफ! मैं इसे पूरा.....’’
‘‘बहुत रोमांटिक हो रहे हो। इस सबसे कुछ नहीं होता। यह ठीक तरीका नहीं है। अपने को भूल कर अपने को पाने का यह तरीका ठीक नहीं लग रहा है।’’
‘‘तुम भी! हर समय बहस करती हो। लेकिन बहस करती हो तो भी कितनी अच्छी लगती हो। छोटी सी फुदकती, चंचल सी, हिरनी सी। कौन इस मर न मिटेगा मेरी जान!’’ तुम्हारा ध्यान मेरी बातों पर नहीं है।
‘‘लेकिन मैं तो नहीं पीती हॅू। तुम जानते हो।’’ मैं अब तक हैरान हॅू। अब तक परेशान हॅू। अब तक समझ में ठीक ठीक नहीं आ रहा कि क्या होने होने को है?
‘‘तो आज पी लेना। मेरे साथ।’’ तुम हतोत्साहित नहीं हो रहे हो।
‘‘आज क्यो? जब मैंने कहा कि....’’
‘‘हर बात का बतंगड़ बनाना जरूरी है? अपने तर्क बाद में देना। अभी तो इधर आओ। आज तुम्हें सजा कर यहाँ बैठाऊँगा। मैं करूंगा सब कुछ आज। समझी मेरी सोने की हिरनी।’’
तुमने तकिए किनारे रख दिए हैं। एक अखबार बीच में रखा है। अपने हाथ से दो स्टील की गिलास उठा लाए हो। शीशे की होती तो शीशे की लाते। जो है, उससे काम चला रहे हो।
‘‘तुम अकेले ही करो यह सब। प्लीज मुझे छोड़ दो।’’ मैं डर गयी हॅू। डर गयी हॅू कि अब आगे न जाने क्या झेलना पड़े?
‘‘तुम्हारे नखरे से मैं तंग आ गया हॅू। हर बात में तमाशा करती हो।’’ तुम गुस्सा गए हो।
‘‘किसी ने बताया है कि ड्रिंक करने से एकदम असर पड़ता है। आज देखना तुम।’’ तुम मेरे पास आ कर खड़े हो। तुम नहीं कहते यह, शैतान की आवाज आती है! कहीं और से! दूर से! मुझसे कोसों दूर!
‘‘नहीं।’’ मैं डर जाती हॅू। कितने हिंसक होते जा रहे हो तुम! और अब यह ड्रिंक कर के तो न जाने कितने पाशविक हो उठोगे? मैं यह नहीं झेल सकती। मेरी देह पर उभरी नीली चित्रकारी मुझे भय से हिला रही है।
‘‘चलो आओ।’’ तुम मुझे बांहों से घेर कर ले जाना चाहते हो। उधर, जिधर तुमने अपना कामना महल सजाया है।
तुम्हारा बाँहों से घेरना अच्छा लगता है। हर बार इसी भूल में चली जाती हॅू तुम्हारे लाक्षा गृह में। वहाँ से जली हुई मेरी लाश निकलती है। न जाने कितने दिन तक काँपती मैं काम धाम कर पाने में असमर्थ अपने आप पर रोती हॅू और तुम अपने आप में त्रस्त- पस्त। मुझसे नजरें बचाते, छिपते, जाने कहाँ के लिए निकल पड़ते हो।
‘नहीं, मृगतृष्णा है। मैं इससे अधिक में नहीं जा सकती। प्रयोगों के लिए मेरी देह नहीं बनी है। मैं अपने आप में कितनी छोटी होती जा रही हॅू।’
‘‘क्या सोचने लगी? आज तुम्हें निराश नहीं करूंगा।’’ तुम खींच रहे हो। मैं हिल भी नहीं रही।
‘‘नहीं। रहने दो। मेरा मन नहीं है। इतना तो समझो।’’ मैं अपने को छुड़ाने की कोशिश करती हॅू।
‘‘नहीं क्या? एक मौका इसके लिए भी सही। तुम सपोर्ट नहीं करती, यही दिक्कत है।’’
तुम बहुत दयनीय हो उठे हो। इस दयनीयता के बावजूद मुझे कह रहे हो कि मैं सपोर्ट नहीं करती। मरती हॅू हर रात एक अलग मौत, जीने की किसी उम्मीद में ही तो।
‘‘तुम्हारे अनुभवों का लाभ नहीं ले पा रहा हॅू। आज बताओ? कैसा था पहलेवाला? बोलो? ’’ तुमने मुझे धक्का दे कर गिरा दिया है।
‘‘तुम बैठोगी यहाँ तब तक, जब तक कि मैं पीउंगा। समझी।’’
तुम किसी पाषाण से भी ज्यादा मिर्मम हो उठे हो। इस क्षण, तुम वो हो ही नहीं, जिसे मैंने चाहा था। तुम कुछ और हो। मेरे पिछले अनुभवों को जानने की भयानक इच्छा रखने वाले। यह तुम्हारा मनोरंजन हो सकता है! यह तुम्हें उकसा सकता है! पर क्या सचमुच ही तुम जानना चाहते हो कि कैसा था मेरा पति? कब से मैं तुम्हें बताना चाहती थी, पर अब इसलिए, बिल्कुल नहीं। मेरा दुख इस काम आए, मैं मर ही न जाउं, इससे पहले। मेरा प्रिय यह कह दे कि...... तो जीते जी मर जाउं मैं! हे प्रभु! मैं यह दिन देखने के लिए बची ही क्यों रह गयी? इसीलिए इतना जोखिम उठा कर भाग आई थी? इसीलिए एक नई जिंदगी जीने का साहस कर रही थी?
नहीं, मेरी आँखों से एक भी मोती नहीं टपकेगा! नहीं रोउंगी मैं! नहीं। जीऊँगी मैं। नहीं करूंगी, जो मैं नहीं चाहती। मैं उठ कर बैठ गयी हूँ।
‘‘मुझसे नहीं हो सकेगा।’’ मैंने अपनी तरह की निरीहता में कहा है। आखिरी प्रार्थना की तरह।
‘‘मैं तुम्हें जिबह तो करने जा नहीं रहा। ऐसे कह रही हो।’’ तुम मुझे खींच कर अपनी जाँघों पर लिटाना चाहते हो।
तुम्हारी गोद, जिसमें चैन से सोने का सपना मेरा, बस, सपना ही है। इसे अब मैं पूरा नहीं करना चाहती।
‘‘उठो, गुड गर्ल। लो, नमकीन लो। मूड ठीक करो।’’
नमकीन की प्लेट उठा कर तुम मेरी तरफ करते हो। तुम्हारा इस तरह बीयर पीना मुझे बड़ा बेशर्म सा लगता है। इससे पहले कभी जब तुम्हें दोस्तों के साथ पीते देखा तो ऐसा खराब नहीं लगा था।
‘‘अच्छा, छोड़ो तो। लाती हॅू।’’ बचने का कोई उपाय सोचते हुए मैं कहती हॅू।
मैं छूटती हॅू तुमसे। कुछ लाने के लिए रसोई तक जाती हॅू। कोई डिब्बा उठा कर खोलती रखती हॅू। कुछ सोचती हॅू पल भर। फिर एकाएक अपना पर्स उठाती हॅू और निकल जाती हॅू घर से, पता नहीं कहाँ के लिए!
तुम मुझे ढूंढ लोगे, मुझे पता था। लेने आ जाओगे, मुझे पता था। वही हुआ। वही किया तुमने। मेरी सहेली सुरभि के घर चले आए। रात के दो बजे, बदहवास से जैसे तुम्हारा कोई जिगर का टुकड़ा खो गया हो। आँखों से गंगा जमुना उमड़ी चली आ रही हैं। सुरभि की आँखों में तुम नहीं, मैं दोषी बन गयी हॅू। निष्ठुर, निर्मम। तुम भावुक प्रेमी के प्रतीक हो! तुम हो ही ऐसे! सारे सिक्के अपने हक में भुनाने की कला वाले।
‘‘तुम शचीन्द्र को समझने की कोशिश करो बिट्टो। भागने से समस्या हल नहीं होती।’’ सुरभि मुझे समझा रही है। मैंने सोचा था वह शचीन्द्र को समझायेगी!
‘‘तुम उसके साथ जाओ, उसे प्यार दो। मेरा पति अगर भूल कर भी मेरे लिए एक आॅसू टपका देता तो समझो मैं तो बिना मोल बिक जाती। मगर कमबख्त, उसने आज तक प्यार का इजहार तक न किया। तुम तो भाग्य शाली हो। ऐसा प्यार करने वाला मिला है।’’ सुरभि मुझ पर नाराज हो रही है। मुझे शचीन्द्र के साथ जाने के लिए समझा रही है।
‘‘अगर मुझसे परेशान हो तो मुझे छोड़ क्यों नहीं देते।’’ मैं दुखी हो कर कहती हॅू।
तुम तड़प उठे हो। तुम्हारी आँखें कह रही हैं। मैं इसके आगे हारती हॅू हर बार। तुम्हें मनाती हूँ। सोचती थी कि तुम मनाओगे। पर अब सोचती हॅू कि यह मनाना भी एक कोशिश ही थी। जीवन के मरम्मत की। मनाती हूँ और जैसे -तैसे प्रयत्नपूर्वक डॉक्टर के पास ले जाती हॅू। देखो, मैंने खुद को ही कैसे एक और खर्चे में झोंक दिया है! प्रेम के नाम पर। जीने की इच्छा के नाम पर।
मैं तुम्हें वापस जीवन में देखना चाहती हॅू। इसीलिए बार बार कोशिश करती हॅू। प्यार से तुम्हारे कंधे पर टिक कर कहती हॅू कि ‘‘ जीवन भर भागते रहे हो, दौड़ते रहे हो, लड़ते की कोशिश में लगे रहे हो, पर लड़ाई वैसी नहीं बनी, जैसा कि तुम चाहते थे। है न!’’
तुम आकाश को देख रहे हो। मुझसे इतने अलग होते हुए। दूर होते हुए। देखो कि मैं फिर कोशिश करती हूँ।
कहना जहाँ छोड़ा था, वहीं से पकड़ती हॅू-‘‘ तुम सोचते हो कि आज तक जो भी कोशिश तुमने किया, उसका कुछ भी हासिल नहीं। छात्र राजनीति के साथ जुड़े तो वहाँ भी बहुत कुछ कर पाना संभव आज नहीं रह गया। लेकिन जीवन को ऐसे देखना ठीक तो नहीं है। जो सही काम होते हैं, उनका असर कहीं न कहीं तक जाता है। वह एकदम खत्म नहीं होता। आज जरूर देश में ऐसे हालात बन गए हैं कि बड़ी लड़ाइयाँ नहीं बन पा रही हैं पर लगातार चलती छोटी लड़ाइयाँ भी बड़ी लड़ाई की संभावना को बचाए रखती हैं। और तुम, सुनो, उस अपने छात्र हित वाले काम से क्यों विरत हो रहे हो? वहीं तो तुम हो! कुछ बदलने, कुछ ठीक ठाक कर पाने की कोशिश के साथ हो! तुम उससे अलग नहीं हो सकते। तुम फिर जाओ! फिर से ठीक करो। फिर से शुरू करो। फिर से संगठित करो। यही एक तरीका है हमारे पास, तुम्हारे पास.....’’
मेरी आवाज, मेरी सब ध्वनियाँ किसी बंद दरवाजे से टकरा कर लौट रही हैं।
‘‘हो गया उपदेश! परेशान कर के रख दिया है। चैन से दो घड़ी बैठ भी नहीं सकता!’’
तुमने मुझे जोर का धक्का दिया। मैं गिरते गिरते बची।
‘‘क्या समझ रही हो अपने को? हाँ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्जी बोलोगी? हाँ ! मैं कुछ नहीं हॅू न! यही साबित करना चाहती हो!’’ तुम तैश में खुद को भूल गए हो। एक साथ मुझे हिलाते हुए, न जाने कितने झापड़, घूसे, लात जमा रहे हो। मैं बैठी हुई, गिरती हुई, रोकती हुई, रोती हुई......
तुम गुस्से में चले गए हो। कहीं, उस जगह की तलाश में शायद, जहाँ सुकून हो!
मुझे इसका भरोसा नहीं है। सुकून का भरोसा!
सचमुच मैं यह कहाँ आ पहुँची हॅू! नरक क्या यही है?
नरक! जिसके लिए मेरी माँ हर वक्त चेताती रहती थी! जिसका एक हिस्सा झेल कर मैं भाग आई थी। जिसका दूसरा हिस्सा झेलती मैं यहाँ बैठी हॅू! जिसका कोई तीसरा, चौथा हिस्सा भी होगा!
मैं भय से काँप रही हॅू।
मैं चोट से काँप रही हॅू।
धीरे धीरे उठती हॅू और कभी एक हाथ से अपना बाल ठीक करते, कभी एक हाथ से अपना पेट, बाँह, छाती सहलाते, डॉक्टर के पास चली गयी हॅू।
डॉक्टर से कहूंगी कि सीढि़यों से फिर आज गिर गयी हॅू।
.....................
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शचीन्द्र! तुम लौटते हो। फल खाते हो। अपनी दवा समयानुसार लेते हो। तमाम चेकअप कराते हो। फिर प्रयोग करते हो।
डॉक्टर, दवा, प्रयोग.... यही रह गया है तुम्हारे जीवन का केन्द्र!
मित्रता का हल्का सा तंतु भी नहीं बचा!
यह क्या, मशीन बनते जा रहे हो तुम!
यही, इतना भर तो जीवन नहीं होता। तुम्हें समझा नहीं पाती हॅू।
ठीक है मैंने कहा था कि तुम मुझे संपूर्णता में चाहिए। पर यही इतना भर छूट जाए तो ..... देह के पार भी चाह लेती तुम्हें। पर तुम! तुम हो कि इस देह से पार जाना ही नहीं चाहते! यहीं अटक गए हो! यहीं साबित करना है तुम्हें अपने आप को!
मैं सुखी हॅू कि दुखी हूँ? बीमार हॅू कि आराम में हॅू? मेरे पास पैसा है कि नहीं है? एक छोटी सी स्टेनो की नौकरी में पैसा होता ही कितना है? मैं अपने लिए कपड़े, किताबें खरीद पाती हॅू कि नहीं? मैं फल फूल, दूध, दही खाती हॅू कि नहीं?
मैं तुम्हारे मायने के किसी दायरे में हॅू भी ?
एक बार फिर मेरी लड़ाई मेरी माँ से ठन गई है। उनसे कहूंगी तो हॅसेंगी, मजाक उड़ायेंगी।
‘‘गई थी न मनमानी करने, अब भोगो।’’ ऐसा कुछ कह सकती थीं। पर भीतर से कहीं कराह उठेंगी। आखिर जो वे नहीं चाहती थीं, वही हुआ। उन्होंने ही कहा था कि औरत कमाए तो क्या? पैसा तो उसी के अधिकार में चला जाता है, जिसके कब्जे में औरत होती है। तो क्या मैं....?
नहीं, कब्जा नहीं, मैं वश में नहीं हूँ किसी के।
अरे, मैं मान क्यों नहीं रही कि मैं वश में हो गयी हॅू।
शचीन्द्र के वश में! - ?
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(सभी पेंटिंग्स गूगल के सौजन्य से।)
संपर्क-
55, कादम्बरी अपार्टमेंट
सेक्टर - 9 रोहिणी, दिल्ली - 85
ई-मेल : alpana.mishra@yahoo.co.in
achha ansh hai, poora upanyas padhne ki utsukta jaga raha hai, badhai aur shubhkamnaayen, upanyas ka intazar hai
जवाब देंहटाएंupanyas ki jhalki ne pure upanyas ko padhne ki utkantha jaga di............abhar !!
जवाब देंहटाएंअल्पना मिश्र के उपन्यास अंश पर मुझे यह कहना है कि निश्चित ही इसमें जीवन की हलचल है. देह यहाँ पर यथार्थपरक रूप में अपनी मानवीय भूमिका खोजते हुए है. उम्मीद है उपन्यास अपनी पूर्णता में बेहतर होगा. मेरी शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंबुद्धि लाल पाल
Alana jee haardik badhai...
जवाब देंहटाएंAlpana jee haardik badhai..
हटाएंजिन्दगी की लकीरें कैसे-कैसे चलती हैं इसकी समझ बहुत ही अच्छी है अल्पना जी का। बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं