अमीर चन्द वैश्य
आज बीस अगस्त को कवि त्रिलोचन का जन्म दिन है। त्रिलोचन जी ने हिन्दी में सॉनेट लिखने की परम्परा की शुरुआत की। त्रिलोचन के इस सॉनेट विधा पर वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द जी ने एक आलेख लिखा है जो पहली बार के पाठकों के लिए त्रिलोचन के जन्मदिन पर विशेष रूप से प्रस्तुत है।
त्रिलोचन के कपोत-कपोती
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‘हिन्दी की प्रगतिशील कविता की बृहत् त्रयी' केदारनाथ अग्रवाल- नागार्जुन-त्रिलोचन से सभी हिन्दी काव्य-प्रेमी परिचित हैं। लेकिन आज भी बहुत से हिन्दी अध्यापक और नई पीढ़ी के कवि त्रिलोचन के साहित्यिक योगदान से शायद पूर्णतया सुपरिचित नहीं होंगे।
यदि त्रिलोचन शास्त्री (20 अगस्त, 1917- 09 दिसम्बर 2007) आज हमारे बीच होते तो वह अपने जीवन के सक्रिय 96 साल पूरे कर लिए होते। उनका सबसे महान योगदान यह है कि उन्होंने स्वयं भारतीय काव्य-परम्परा से जोड़ कर स्वदेशी आधुनिकता का वरण किया। उन्होंने अँग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध काव्य-रूप सॉनेट को अपना कर उसे स्वदेशी अन्तर्वस्तु और जनपदीयता की गंध से युक्त सहज बोधगम्य भाषा का कलात्मक प्रयोग किया है। लेकिन हिन्दी के नासमझ आलोचकों ने उनकी उपेक्षा की। इसीलिए उन्हें खीझ कर कहना पड़ा-
प्रगतिशील कवियों की लिस्ट निकली है
त्रिलोचन का उसमें नाम नहीं है।
इसका कारण? यह है कि त्रिलोचन ने प्रगतिशील आन्दोलन के दौर में राजनैतिक कविताएँ लगभग नहीं लिखीं। अपनी कविताओं में संघर्षशील लोक के जीवन और प्राकृतिक परिवेश का वर्णन-चित्रण करके हिन्दी की ‘नई कविता’ के उबाऊपन से हिन्दी कविता को बचाया और अपनी लोकधर्मिता से प्रगतिशील कविता को सम्पन्न किया। सन् 1970 के मध्य तक मैं भी त्रिलोचन के काव्य से अपरिचित था।
आधुनिक हिन्दी-काव्य को निराला के बाद त्रिलोचन ने भी सॉनेट काव्य से उसे श्री-सम्पन्न किया है। जिस प्रकार मुक्तिबोध ने ‘लम्बी कविता’ का काव्य-रूप अपना कर अपने संघर्षशील व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की, उसी प्रकार उनके मित्र त्रिलोचन ने ‘सॉनेट’ काव्य-रूप को भारतीयता के रंग में रँग दिया है। विपुल सॉनेट-स्रष्टा त्रिलोचन के एक उत्कृष्ट सॉनेट की व्याख्या के माध्यम से उन्हें याद कर रहा हूँ।
अपने जनपद एवं लगभग सम्पूर्ण भारत को अपने चरणों से नापने वाले त्रिलोचन ने जितना ध्यान कर्मशील एवं संघर्षशील जन पर केन्द्रित करके उसे कविता का रूप प्रदान किया है, उतना ही पशु-पक्षियों एवं प्रकृति के विपुल परिदृश्यों को भी। वह ‘जन’ के साथ-साथ वनस्पतियों, पेड-पौधों, पशुओं, पक्षियों, संध्या, प्रातः, वर्षाकालीन बादलों के विभिन्न रूप आदि को अवधानपूर्वक देखते थे। निरीक्षण-परीक्षण-पर्यवेक्षण करते थे। इस सन्दर्भ में उनके ‘शब्द’ संकलन का एक सॉनेट (सं0 113) विचारणीय है, जो अधोलिखित है-
दोपहरी है, कूज रहे हैं उधर कपोती
और कपोत अधीर, चोंच से चोंच मिलाते,
चुग्गा लेकर सानुरोध चुपचाप खिलाते
एक दूसरे को, न कभी थकान कुछ होती
है उनको, उपहार-वृत्ति प्राणों में बोती
है जीवन के बीज, सटाते पंख हिलाते
बढ़ते हैं इस ओर और उस ओर, जिलाते
हैं जगती के स्वप्न स्वप्न हैं मन के मोती,
ग्रीवा प्रायः मोड़ मोड़ कर मिला मिला कर
हिलते डुलते और काल की मौन चाल को
देख देख कर भाव भरे हैं, इन को चिन्ता
कभी किसी की रंच भर नहीं, यहाँ जिला कर
जी कर जीवन बिता रहे हैं, किसी डाल को
अपना लिया, हुलास कहीं है घडि़याँ गिनता।
यह सॉनेट पढ़ने के बाद बिहारी का प्रसिद्ध अधोलिखित दोहा याद आ रहा है-
पट पाँखैं, भखु काँकरै; सपर परेई संग।
सुखी, परेवा, पुहुमि मैं एकै तुही बिहंग।। (बि0र0पृ0 256)
इस दोहे में ‘परेई’ और ‘परेवा’ के सुखी जीवन का कथन किया गया है। दोनों के संतोष और साथ-साथ रहने का भी। लेकिन उनके क्रियाशील जीवन का यहाँ अभाव है। छन्द की सीमा में जितना समाया, उतना ही व्यक्त कर दिया गया है। लेकिन त्रिलोचन के सामने 14 पंक्तियों वाला सॉनेट रूप हे। मिल्टनी पैटर्न का सॉनेट। इसमें अष्टपदी स्वतः पूर्ण है। और षट्पदी भी अर्थ की दृष्टि से परिपूर्ण है। सॉनेट के उक्त दोनों अंश सम्मिलित रूप से कपोत-कपोती के प्रेमपूर्ण क्रियाशील जीवन के अनेक रूप प्रत्यक्ष कर रहे हैं। अष्टपदी में छह और षट्पदी में चार वाक्य हैं; जो लघु और दीर्घ दोनों प्रकार के हैं। पाठक को प्रत्येक वाक्य-रचना पर रूक कर एवं अर्थ समझते हुए सम्पूर्ण रचना का पाठ करना चाहिए। तभी काव्यत्व से साक्षात्कार होगा।
पहला वाक्य है: ‘दोपहरी है।’ दो पदों का छोटा वाक्य, जो भीषण ग्रीष्म ऋतु की ओर संकेत कर रही है। बिहारी ने ग्रीष्म का वर्णन करते हुए लिखा है-
देखि दुपहरी जेठ की, छाँहौं चहति छाँह।’’ (वही पृ0 28)
जेठ मास की ऐसी झुलसाने वाली गरमी में प्रत्येक प्राणी पेड़ की छाया तलाशता है। ए0सी0 वाले भवनों की बात भूल जाइए। महाकवि निराला ने भट्टी के समान तपती दोपहरी का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है-
‘‘वह तोड़ती पत्थर।
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।’’
‘‘कोई न छायादार
पेड़, वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार।’’
x x x x x
‘‘चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गईं
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर।’’ (नि0र0ख0 1 पृ0 323, 324)
तो, आपको बता रहा हूँ कि सॉनेट का पहला लघु वाक्य लिखते समय त्रिलोचन के ध्यान में निराला का उपर्युक्त वर्णन अवश्य रहा होगा। उन्होंने अपने एक वाक्य से ही भीषण ग्रीष्म ऋतु की ओर संकेत किया है। लेकिन ऐसे गरम मौसम में भी अधीर कपोत और कपोती, प्रेम के वशीभूत होकर, चोंच से चोंच मिला रहे हैं। बिना छके अनुरोधपूर्वक परस्पर चुग्गा खिला रहे हैं।
और उपरोक्त क्रियाओं के बाद, जीवन-अनुभवों से प्रसूत सुक्ति वाक्य-
‘उपहार वृत्ति प्राणों में बोती
है जीवन के बीज।’
आशय यह है कि प्रेम से पूरित उपहार देने की प्रवृत्ति प्रेमास्वद की प्राण-शक्ति बढ़ाती है। वह ऐसा सम्बन्ध रूपी ‘बीज’ बोती है, जो जीवन पाकर पल्लवित-पुष्पित होता है। प्रेम से जीवन भाव-सम्पन्न होता है। सार्थक भी।
अष्टपदी का छठा वाक्य किंचित् लम्बा है, जो कपोत-कपोती की कई क्रियाओं की ओर संकेत कर रहा है। देखा गया है कि कबूतर का जोड़ा क्रीड़ा करता रहता है। दोनों अपनी क्रियाशीलता जगत् के जनों को आशान्वित करके उन्हें मांगलिक सपने दिखाते हैं। आखिरकार स्वप्न ही तो जीने के लिए प्रेरित करता है। अतएव त्रिलोचन एक और सूक्ति प्रस्तुत करते हैं- ‘स्वप्न हैं मन के मोती।’ रूपक के रूप में। बेहतर दुनिया का सपना व्यष्टि और समष्टि मानव के मन की सीपी का अमूल्य मोती है। मुक्तिबोध कहते हैं-
‘‘जो कुछ है, उससे बेहतर चाहिए
सारी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।’’
सम्पूर्ण दुनिया में जो आर्थिक विषमता की गन्दगी है, उसे साफ करने के लिए मेहतर अर्थात् महत्तर श्रमिकों के संगठन की आवश्यकता। तभी तो दुनिया बेहतर बनेगी। सुषमा से युक्त। समानता-स्वतंत्रता-बंधुता से अन्वित। वर्तमान दुनिया तो आवारा पूँजी का खेला खेल रही हे। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण ने असंख्य किसानों को आत्महत्या के लिए विवश कर दिया। अतः समतामूलक समाज का मोती अपनी चमक न खोए। व्यक्ति-मन की सीपी में यह मोती सुरक्षित रहे। तुलसी ने भी तो रामराज्य का सपना देखा था। यह दूसरी बात हे कि उनके सपने की वर्ण-व्यवस्था अब अप्रासंगिक हो गई है। शीलहीन ब्राह्मण अब ‘पूज्य’ नहीं मना जाता है। यदि वह अपराध करता है, तो उसे भी दण्डित किया जाता है।
आज के कवि का स्वप्न दूसरा है और वह है समतामूलक लोकतान्त्रिक व्यवस्था। इसी की स्थापना के लिए वैश्विक लोक-शक्ति प्रयास कर रही है।
त्रिलोचन के योग्य शिष्य और आज के वरिष्ठ कवि विजेन्द्र भविष्णु स्वप्न इस प्रकार देखते हैं-
‘‘इसी अँधेरे में उगेंगे
पंखधारी प्रकाश कण
जो दिखाएँगे मुझे मेरा जीवन-पथ।
देंगे प्रकाश वे ही मुझे
जो आए हैं चीरकर
अँधेरे को मर्म को।
भले ही भ्रमित करता रहे
दिव्य आलोक वलय आकाश में
लेकिन जब तक
नहीं देखूँगा
उगते बीजों को
धरती की कोख से
कैसे चीन्ह पाऊँगा
तुम्हें प्रकाश में।’’ (‘आशा’ शीर्षक कविता, नया पथ,)
उपर्युक्त सॉनेट में अष्टपदी में ‘जीवन का बीज’ पद बंध आया है। विजेन्द्र भी किसान कवि के समान ‘उगते बीजों को’ ‘धरती की कोख’ से देखने की बात कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उगते बीजों के समान ही समाज में अभिनव जीवन-मूल्य अस्तित्व में आएँ।
सॉनेट की षट्पदी में चार पूर्ण वाक्य है। अरुद्वान्त गति से आगे बढ़ते हैं। पंक्ति के मध्य में समाप्त होते हैं। षट्पदी में कबूतरों के जोड़े की अनेक स्वाभाविक क्रीड़ाएँ बिम्बात्मक रूप में प्रत्यक्ष हैं। दोनों संतोषी स्वभाव वाले हैं। तभी तो ‘‘काल की मौन चाल को देख देख कर भाव भरे हैं।’’ आशय यह है कि वर्तमान का वक्र काल उनके लिए मौन है। उनके मन प्रेम-भाव से भरे हुए हैं। समय की वक्रता उनके लिए मुखर नहीं है। इसीलिए वे निश्चिन्त हैं; जबकि संसार का हर आदमी चिन्तित परेशान है। बेचैन है। निराश है। तनाव से ग्रस्त है। लेकिन कपोत-कपोती स्वयं तो सहर्ष जी रहे हैं और दूसरों को भी मृत होने से बचा रहे हैं। लोग बड़े-बड़े भवनों में रहते हैं। लेकिन कपोत-कपोती तो आश्रम के लिए किसी भी पेड़ की डाल का आश्रय लेकर विश्राम करने लगते हैं। उनके उल्लास की घडि़याँ क्रीड़ा करते हुए बीत जाती है। सॉनेट के अन्त में सूक्ति की आवृत्ति पुनः हुई है-
‘‘हुलास कहीं है घडि़याँ गिनता।’’
इस सम्पूर्ण सॉनेट की भाषिक संरचना समास-रहित है। एक समस्त पद ‘उपहार-वृत्ति’ आया है। जहाँ समास सम्भव है, वहाँ उसका प्रयोग नहीं किया गया है। यथा- ‘मोड़ मोड़ कर’; ‘मिला मिला कर’, ‘हिलते डुलते’, ‘देख देख कर भाव भरे हैं।’ ध्यान रहे कि मंथर गति से पाठ करते हुए सम्पूर्ण वर्णन का चित्र प्रत्यक्ष होगा और अर्थ की व्यंजना समझ में आएगी।
सवाल खड़ा होता है कि आपाधापी वाले अंध समाज में क्या दम्पत्ति कपोत-कपोती के समान जीवन बिता पाएँगे। जिनमें 36 का आँकड़ा है, वे 63 कैसे हो सकते हैं। इस सवाल का दूसरा जवाब यह है कि यदि पति त्रिलोचन हों और उनकी पत्नी श्रीमती जयमूर्ति देवी हों तो 63 का आँकड़ा 36 कभी नहीं होगा। '
इसी सॉनेट के सन्दर्भ में विष्णु चन्द्र शर्मा ने मुझसे कहा- ‘‘पूछिए वे कपोत-कपोती आपने कहाँ देखे थे।’’
प्रत्युत्पन्नमति त्रिलोचन ने मुस्कराते हुए कहा था- ‘‘बनारस में देखे थे; एक तो शर्मा को (अर्थात् विष्णु चन्द्र शर्मा) और दूसरे शर्माणी को (अर्थात् विचंश की पत्नी श्रीमती पुष्पा शर्मा।’’) (त्रिलोचन की याद, पृ0 32)
ऐसे दम्पत्ति और भी हो सकते हैं। नागार्जुन और उनकी पत्नी श्रीमती अपराजिता देवी। केदार नाथ अग्रवाल और श्रीमती पार्वती देवी। राम विलास शर्मा और उनकी मालकिन। विजेन्द्र और श्रीमती ऊषा रानी। यह सॉनेट दिलफेक राजेन्द्र यादव जैसे नामवर लेखक पर व्यंग्य भी हैं।
इस रचना में प्रस्तुत वर्णन द्वारा अप्रस्तुत की प्रतीति करवाई गई है। अतः समासोक्ति अलंकार स्वतः आ गया है। कपोत-कपोती का वर्णन प्रत्यक्षवत् किया गया हे। अतएव यहाँ ‘भाविक’ भी है।
सादगी-भरा कपोत-कपोती का प्रेम एवं संतोष से परिपूर्ण जीवन तभी सम्भव होगा, जब समाज-व्यवस्था बदले। अतः हम मनोकामना कर सकते हैं-
‘‘मानव के तन केतन लहरे
विजय तुम्हारी नभ में लहरे।
छल के बल-सम्बल सब हारें
तुम पर जन तन-मन-धन वारें
असुरों को जी जीकर पारें
अंधकार का मानस घहरे।’’ (नि0र0ख0 2. 423)
सॉनेट में तुक-विधान अर्थ के अनुरूप है। अष्टपदी में पंक्तियों का तुक-विधान इस प्रकार है- ।
ABBA, ABBA और CDE, CDE षट्पदी का है-
कपोती-होती, मिलाते-खिलाते, बोती-मोती, हिलाते-जिलाते; मिलाकर - जिलाकर, चाल को - डाल को, चिन्ता - गिनता तुकान्त पद वाक्य-विन्यास में स्वयं आए हैं। यही इनका सौन्दर्य है, जो अकृत्रिम है। और इस सौन्दर्य का आधार है त्रिलोचन का सावधान पर्यवेक्षण। यह साॅनेट निरायास शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है। और काव्यानुशासन भी।
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(अमीर चन्द वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
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बहुत बढ़िया आलेख | आभार
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