विमलेश त्रिपाठी
बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म (7 अप्रैल 1979 मूल तिथि)। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
सम्मान
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान।
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार, सूत्र सम्मान, राजीव गांधी एक्सिलेंट अवार्ड
पुस्तकें
“हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
एक देश और मरे हुए लोग (कविता संग्रह) बोधि प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य
2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
देश के विभिन्न शहरों में कहानी एवं कविता पाठ
कोलकाता में रहनवारी।
परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद पर कार्यरत।
विमलेश त्रिपाठी युवा रचनाकारों में एक ऐसा नाम है जिन्होंने प्रायः कई विधाओं में समान अधिकार से लेखन किया है। इन दिनों एक उपन्यास 'कैनवास पर प्रेम' लिखने में लगे हैं। पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है इस उपन्यास का एक अंश।
कैनवास पर प्रेम –
(उपन्यास अंश)
कथा का वन और अंतहीन रास्ते का सफर
आंख खुली तो सुबह चुचुहिया बोल रही थी। मैं पुआल पर अकेला था। उपर मेरे पिता का गमछा था। मैंने एक बार गमछे को देखा – वह जले हुए हाथ के फफोले में चिपक गया था। मैंने कोशिश की उसे छुड़ाने की लेकिन दर्द इतना हो रहा था कि मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी। मेरे हाथ मजबूत थे, पीठ मजबूत थी। गाल मजबूत थे। पीठ ने सैकड़ों सोटे की मार सही थी। गाल ने तमाचे सहे थे। हाथ ने घास काटे थे, चारा काटा था और खेत की खूंटिया साफ की थी फावड़े से।
पर यह दर्द पहली बार महसूस हो रहा था। ऐसा लगता था मानों मेरे हाथ में सैकड़ों विषैली सूइयां एक साथ चुभाई जा रही हैं। मुझे कुछ समझ में नहीं आया – मेरे आस-पास कोई नहीं था। मुझे पता नहीं कब मैं दर्द की छटपटाहट में उस कमरे की ओर बदहवास भागा जहां मैंने कोयले से मां की तस्वीर बनाई थी।
दीवार पर रोशनी के कतरे उपर की छोटी खिड़की से छनकर आ गए थे। मैंने देखा जिस जगह मैने मां की तस्वीर बनाई थी वहां एक स्याह और गहरा काला निशान था। उसपर किसी ने खूब गुस्से में कालिख पोती होगी। मां के चित्र के साथ ही मयना की तस्वीर थी। उसे किसी तेज धार वाले चाकू से किसी ने खुरचकर मिटा दिया होगा।
मैं धम्म से बैठ गया। मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था – मैंने मां को पुकारा। वह नहीं आई। उसका दूसरी बार कत्ल किया जा चुका था।
मेरे आस-पास गोबर के बने उपले थे, कोयले के टुकड़े थे और अंधेरा था जिसके बीच मैं अपने लिए जमीन का एक टुकड़ा खोज रहा था। अचानक किसी के कदमों की आहट मेरे कानों के भीतर बजने लगी। मैंने आंखें उठाकर देखा - मेरे सामने धवल वस्त्र में सफेद दाढी से भरे चेहरे वाला एक साधु खड़ा था। साधु स्थिर नदी की तरह चुप था। चुप और गंभीर।
मैं एक गहरी दृष्टि से उस साधु की ओर देखे जा रहा था। दादा ने बचपन में एक कथा सुनाई थी उस कथा में इसी तरह का एक बूढ़ा साधु प्रकट हुआ था और चारों ओर उजाला फैल गया था – गड़ेरिए का बच्चा उसे देखता रह गया था। साधु ने उसे वरदान मांगने को कहा था – उसने अपनी मां को वापिस करने की इच्छा व्यक्त की। साधु ने मां को तो वापिस करने में असमर्थता जाहिर की, लेकिन गड़ेरिए के बच्चे को ऐसा वरदान दिया कि उसके सारे कष्ट दूर हो गए थे। फिर वह कथा वन में चली गई थी और सत्यदेव सोचता रह गया था अपने मन में। बाद के दिनों में वह साधु हर रात सपने में आने लगा था – लेकिन धीरे-धीरे उसके आने के बाद का उजाला कम होता गया था और मयना के सपने में आना शुरू होने के बाद वह फिर से वन में कहीं लौट गया था।
वन से चलकर कथा का साधु यहां, इस वक्त किसलिए प्रकट हुआ था? – मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैं उससे बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन हलक से एक भी शब्द बाहर नहीं निकल रहे थे। वह धीरे-धीरे मेरे नजदीक आता जा रहा था। उसके प्रकाश से मेरी आंखे मिचमिचा गई थीं। मैने अपनी आंखें बंद कर लीं। कुछ पल बाद उसकी आवाज आई – उठो वत्स। अब यहां का जीवन समाप्त हुआ।
मैंने घबरा कर आंखें खोल दीं। देखा उसके हाथ आगे की ओर बढ़े हुए थे।
दादा – मैंने पहचान लिया था।
मैंने अपना एक हाथ उनकी ओर आगे कर दिया था।
किरण फूटने लगी थी। आगे-आगे एक बूढ़ा साधु और पीछे-पीछे तेरह साल का एक किशोर खेतों की पगडंडियों पर चल रहे थे। शीत पड़ी घास पैरों को सहला रही थी – हम लागातार चलते जा रहे थे। बहुत दूर कहीं किसी खोह से कोई एक मद्धिम तान कानों से टकरा रही थी – पिया मोर गवनवा कइलें जालें बदरी में...। ( मेरे पिया गौना कराकर मुझे बादलों में लिए जा रहे हैं..।)
भोर का उजास आहिस्ता-आहिस्ता पूरी धरती पर फैल रहा था और किसी पागल बूढ़े फकीर की वह तान धीरे-धीरे पीछे छूटती जा रही थी। दो और दो चार कदम एक नई यात्रा पर लागातर आगे बढ़ते जा रहे थे।
पूरी तरह होश में आने के बाद मैंने फिल्मों की तरह यह नहीं पूछा था कि मैं कहां हूं।
वह एक झोपड़ी थी जो बहुत साफ-सुथरी थी। गंगा का एक किनारा था जो खिड़की से दिखता था। मैंने अजनबी आंखों से चारों ओर देखा। बाहर कोई बहुत मधुर स्वर में मंत्रों का पाठ कर रहा था। आवाज पहचानी हुई लग रही थी। मेरे हाथ का दर्द कम था। उसपर एक सफेद पट्टी बंधी हुई थी। मेरे शरीर का ताप कम हो गया था।
मुझे धीरे-धीरे सारी बातें याद आ रही थीं। लगता था कि एक भयानक यातना शिविर से मुक्त होकर यहां किसी देवदूत ने मुझे पहुंचा दिया है।
मैं बाहर निकला। सामने एक पत्थर का चबुतरा था जिसपर बैठकर एक बूढ़ा आदमी मंत्र पढ़ रहा था।
दादा – मैं उस बूढ़े को पहचान गया था।
मंत्र पढ़ते हुए ही उन्होने मेरी ओर देखा और फिर अपने पूजा में लीन हो गए। उनकी आंखों में एक सकून था एक आग्रह जिसे देखकर मैं वहीं मिट्टी पर बैठ गया। और उनकी पूजा के खत्म होने का इंतजार करने लगा।
दादा की पूजा खत्म हो गई थी। वे अक्सर कम ही बोलते थे। बहुत कुछ जो वे नहीं कहते उनकी आंखें कहती थीं। उनकी आंखों की भाषा वह सब कहती थीं जिसे वो शब्दों में नहीं कह पाते थे।
कथाकार चुपचाप है। सत्यदेव पता नहीं और क्या-क्या बड़बड़ाते जा रहे हैं। मुझे फिकर हो रही है। मैं बार-बार एक पुरानी घड़ी की तरफ देख रहा हूं जिसका समय पता नहीं कितने समय से रूका हुआ है। छत के टपकने से उसके अंदर तक सीलन भर गई है। मुझे पता है कि वह घड़ी रूकी हुई है सदियों से। सत्यदेव भी वहीं कहीं उसी के साथ ठहर गए हैं।
और मैं...?
कथाकार जानता है यह सब। लेकिन फिर भी इतना जिद्दी कि वह मुझे भटकाए जा रहा है – मेरी पत्नी की तीखी बहसों के बीच वह कहीं गायब हो जाता है और रात के एकांत में प्रकट होता है - मुझे आवारा की तरह भटकाता हुआ।
पूछो सत्यदेव से आगे क्या हुआ। - वह गंभीर स्वर में कहता है।
उसके बाद क्या हुआ? – मैं सत्यदेव से पूछता हूं। उनका चेहरा बेचारगी से भरा हुआ है। वे अचानक उद्विग्न हो जाते हैं। एकदम बेचैन जैसे उनके भीतर कुछ रासायनिक परिवर्तन जैसा घटित हो रहा हो।
देखिए विमल बाबू मेरे नाक में जले हुए मोर के पंख की एक चिरायंध जैसा कुछ घुस रहा है। एक इंसान के जलते हुए शरीर की गंध आ रही है। आप गए हैं कभी भूतनाथ? वहां लाशों के जलने से जैसी गंध आती है – बिल्कुल वैसी ही।
मैं देखता हूं- उनकी सांसें तेज-तेज चलने लगी हैं। वे उठकर इघर-उधर उस छोटे से कमरे में टहलना शुरू कर चुके हैं। खिड़कियां धड़-धड़ बंद करना शुरू कर देते हैं। चौकी पर बिखरे समान और कुछ अधूरे चित्रों को सम्हालना शुरू करते हैं।
मैं परेशान-हैरान सत्यदेव को देख रहा हूं। कथाकार अविचलित है –निर्विकार।
अब? – मैं कथाकार की ओर देखता हूं। उसके अगले आदेश की प्रतीक्षा में।
विचलित न होओ कवि महोदय। अब कथा के असली जड़ों तक की यात्रा का वक्त आ रहा है। धीरज रखो।
यह तो पूरा पागल और सनकी आदमी है। क्या तुम्हें ऐसी कोई गंध आ रही है?
हां, आ रही है।
आ रही है? क्या वकवास कर रहे हो। मुझे तो कोई गंध नहीं आ रही है।
तुम अब तक सत्यदेव की कथा में प्रवेश नहीं कर पाए हो वत्स। शायद इस वजह से। जिस दिन तुम सत्यदेव को समझ लोगे और उनकी आत्मा में प्रवेश कर जाओगे, उस दिन तुम्हें भी वह गंध महसूस होगी। तब शायद मेरी जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम अकेले ही इस कथा को लिख पाओगे।
सत्यदेव एक फटा हुआ गमछा अपने टिनहे संदूक से निकालते हैं। नहीं, वह गमछा नहीं है। वह दुपट्टा जैसा कुछ है। अपने पुरानेपन में एकदम जर्जर।
निकलो, चलो विमल बाबू। - सत्यदेव की विवश आवाज है। ऐसी विवश और फटी हुई उनकी आवाज मैं पहली बार सुन रहा हूं।
कहां?
बाहर। निकलो इस कमरे से। बाहर निकलो अब बर्दाश्त नहीं हो रहा है।
चलो। उनकी बात सुनो। - कथाकार वैसे ही कहता है जैसे बीमार के सामने एक डॉक्टर बोलता है।
हम बाहर निकल आते हैं। आगे-आगे सत्यदेव। पीछे-पीछे मैं और मेरे साथ वह कथाकार जिसे देख कर अब मुझे कोफ्त हो रही है। आखिर यह चाहता क्या है मुझसे। ठीक है कि कभी मैंने सोचा था कि सत्यदेव पर कोई कहानी लिखूंगा। लेकिन यह बहुत पहले की बात है। नहीं भी लिखता तो क्या फर्क पड़ जाता। इस सनकी आदमी की कथा को पढ़ेगा कौन? कथाकार मेरी एक-एक सोच से जैसे वाकिफ है। वह मेरी ओर देखता हुआ शरारत से मुस्कुरा रहा है। मैं चिढ़ जाता हूं।
पूरे रास्ते सत्यदेव कुछ नहीं बोलते। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं जैसे कि उनके साथ मैं भी चल रहा हूं।
टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुजरते हुए वे उसी जगह पहुंचते हैं – उसी पेड़ के नीचे जहां पहली बार उन्हें मैंने बारिश में भीगते हुए देखा था। वह पेड़ बहुत पुराना है। पेड़ के सामने एक खुला मैदान है जहां काली मां का एक मंदिर है। सत्यदेव मंदिर के चबुतरे पर बैठ जाते हैं।
कथाकार की ओर देख रहा मैं पूछता हूं – अब?
इंतजार करो। तुम्हारे अंदर बिल्कुल धैर्य नहीं है। एक लेखक के लिए धैर्य सबसे बड़ी पूंजी है।
मुझे इस तरह लेखक नहीं बनना। मेरी पत्नी मेरा खाना बंद कर देगी। आप नहीं जानते कि किस तरह के तनाव से मैं गुजर रहा हूं। मेरे एक-एक शब्द उसके जीवन के लिए अभिशाप की तरह हैं- वह ऐसा ही समझती है।
ऐसा नहीं है। यह तुम्हारा भ्रम है। वह तुम्हें प्यार करती है।
यह कैसा प्यार है? क्या प्यार करने वाले इस तरह किसी के कला का गला घोंट सकते हैं। मेरा लिखना उसके लिए असहनीय है। वह मेरी कॉंपियां फाड़ चुकी है खूब गुस्से में। मेरी कविताओं को शाप दे चुकी है। अगर इस तरह मैं रात में घर से बाहर घूमता रहा तो वह जरूर घर छोड़कर चली जाएगी। मुझे जाने दो – अभी भी सुबह होने में बहुत वक्त है।
बैठो। शान्त होओ। हम इस मुद्दे पर बात करेंगे। फिलहाल सत्यदेव पर ध्यान केन्द्रित करो। कथा पर। कथा से भी अधिक सत्यदेव पर...।
मैं अपनी उद्विग्नता में सत्यदेव की ओर देखता हूं। वे अपनी नाक पर दुपट्टा लिए रो रहे हैं। मैं कथाकार की ओर आश्चर्य से देखता हूं। वह गंभीर है।
रोने दो इन्हें।
लेकिन ये रो क्यों रहे हैं?
पूछो इनसे। मुझसे क्यों पूछ रहे हो?
कथाकार तटस्थ है और कोई एक है जो रोए जा रहा है। इस तरह इसे कभी नहीं देखा। मुझे खुद पर ग्लानिबोध जैसा कुछ होता है।
साधुजी..!! शर्मा जी!!! साधु खान!!!
……
सुनिए, देखिए आप प्लीज रोइए मत।
लोग मुझे सोने नहीं देते। कोई एक आता है और मेरे सीने के अंदर घुस जाता है। फिर वह मेरे अंदर रात भर टहलता रहता है। विमल बाबू...। ढेर सारे लोग हैं जो मेरे कमरे में घूस आते हैं। वे कहां से आते हैं मुझे पता नहीं चलता। घर में घुसने के बाद मैं तुरंत दरवाजे की कुंडी लगा देता हूं। घर की एक अकेली खिड़की को मजबूती से बंद कर देता हूं। फिर भी.....।
वे धीरे-धीरे संयत हो रहे हैं। बहुत देर की चुप्पी के बाद उनकी यह मुखरता उस सन्नाटे में इतिहास से आती हुई किसी मंद्धिम रोशनी की तरह लगती है। कथाकार सक्रिय हो जाता है और वैसे ही उछल-कुद करना शुरू करता है जैसे फिल्म का कोई निर्देशक किसी लंबे दृश्य को शुट करने के पहले करता है। लाईट..कैमरा....एक्शन..... कैनवास..कैनवास....। ....।।
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साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
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