शर्मिला जालान के कहानी संग्रह ‘साख’ पर संजय गौतम की समीक्षा ‘अनुभव का विस्तृत संसार'

 




लेखन को जितना आसान काम समझा जाता है, उतना वह होता नहीं। खुद को शब्दों के जरिए अभिव्यक्त करने की कला एक साधना की तरह होती है। इसमें हर पल परिमार्जन की जरूरत पड़ती है। आंगन कुटी छवाय कर निन्दा सुनने के लिए तैयार होना होता है। आलोचना को बर्दाश्त करने की क्षमता विकसित करनी होती है। इन कंटीले राहों पर चल कर ही एक रचनाकार परिपक्व होता है। उसकी जब भी कोई किताब आती है तो उसमें उसके अनुभव का विस्तृत संसार होता है। शर्मिला जालान एक चर्चित रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं में आस पास की दुनिया का दुःख दर्द दिखाई पड़ता है। हाल ही में उनका कहानी संग्रह साख प्रकाशित हुआ है। संजय गौतम ने इस संग्रह का अवलोकन करते हुए समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शर्मिला जालान के कहानी संग्रह ‘साख’ पर संजय गौतम की समीक्षा ‘अनुभव का विस्तृत संसार'।



‘अनुभव का विस्तृत संसार’ 


संजय गौतम 


शर्मिला जालान की रचनाएं रूचि से पढ़ता रहा हूँ और उनकी आने वाली रचना के प्रति उत्‍सुकता भी बनी रहती है। पहला कारण तो यही है कि कोलकता में जब मैंने नौकरी की शुरूआत की थी तो वहीं हम सबके श्रद्धेय अशोक सेकसरिया जी के यहाँ उनसे परिचय हुआ था। उनकी कहानी हस्‍तलिखित रूप में अशोक जी ने मुझे पढ़ने को दी और उसका केंद्रीय तत्‍व मेरे दिमाग में अटका रह गया। अशोक जी के पास बैठ कर उनसे सब कुछ सीखने की ललक में कोलकता के बहुत से युवा आते थे, उनमें शर्मिला जी भी थीं। कहने की जरूरत नहीं कि उन्‍होंने न केवल उनसे बहुत कुछ सीखा, संभाला बल्कि उसे पल्‍लवित भी किया। उन्‍होंने धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए अपना विशिष्‍ट रचना संसार खड़ा किया। 2001 में छपे ‘शादी से पेश्‍तर’ उपन्‍यास में उन्होंने स्त्री मन के अनछुए पहलुओं को ताजगी के साथ व्यक्त किया, आगे चल कर वह अपने अनुभव विस्‍तार के साथ ‘उन्‍नीसवीं बारिश’ (2022) उपन्‍यास में स्‍त्री मन के विरेचन के रूप में विकसित हुआ। कहानियों में ‘बूढ़ा चाँद’ में अपने पुरखे रचनाकार से जैसी बाता-कहनी है, वह आगे भी अन्‍य रचनाकारों के साथ आत्‍मीय संवाद में बदलती रही।


उनका अभी-अभी आया कहानी संग्रह ‘साख’ पढ़ते हुए लगता रहा कि उन्‍होंने अपना अनुभव ही विस्‍तृत नहीं किया है, बल्कि आत्‍यंतिक अनुभूतियों को व्‍यक्‍त करने के लिए कई बार जटिल शिल्‍प का प्रयोग भी किया है। हालाँकि उनकी ज्‍यादातर कहानियां धागे के भीतर धागा पिरोती हुई ही लिखी गई हैं। बातचीत करती हुई, गपियाती हुई, राह चलते सूचनाओं को दर्ज करती हुई, कोलकाता के भूगोल को खंगालती हुई, उसके इतिहास को स्‍पर्श करती हुई, अखबारी घटनाओं को, टीवी के समाचारों को सही स्‍थल पर दर्ज करती हुई, उसे मार्मिक संस्पर्श देती हुई वह अपनी कहानियों को बुनती हैं। उन्‍हें स्‍त्री विमर्श का रचनाकार नहीं बल्कि स्‍त्री मन का रचनाकार कहना उचित लगता है। इस स्‍त्री मन में सारा संसार आ जाता है। पुरूष संसार भी अपने पाखंड, ऐतिहासिक दुर्विनय और कभी-कभी तो अपने कंधे पर अपने पुरूष होने का बोझ ढोने की लाचारी के साथ आ जाता है।


संग्रह की कहानियां पढ़ते हुए उनके पुराने संग्रहों, उपन्‍यासों की स्थितियों एवं चरित्रों की याद भी आती रहती है। शर्मिला जी के मन में किशोरियों एवं युवा होती लड़कियों के जीवन का वह मन आघाती अनुभव बहुत गहराई एवं विस्‍तार से बसा हुआ है, जो उन्हें अपने निकट के रिश्तेदारों, बसों, ट्रेनों मे झेलना पड़ता है। इसे तरह-तरह से व्‍यक्‍त करने की पीड़ा से वह बार-बार गुजरती हैं। बिना आक्रोश के, बिना अधिक मुखरता के इतने मर्म स्‍पर्शी ढंग से वह इस पीड़ा को व्‍यक्‍त करती हैं कि पुरूष होने पर ग्‍लानि होने लगे। संग्रह की कहानी ‘अंधेरों के अवशेष’ में फूफा जैसे रिश्‍ते के साथ के बुरे अनुभव को बहुत ही कौशल के साथ बुना गया है, जहाँ बुआ की लाचारी भी ऐसे समय व्‍यक्‍त हुई है, जब फूफा नहीं रहे। यह स्‍थल पाठक को आघात  पहुंचाता है, स्‍त्री की लाचारी को व्‍यक्‍त करता है और पुरूष को ग्‍लानि से भर भी देता है। कई बार कहानी में व्‍याप्‍त मौन ज्‍यादा झिंझोड़ने वाला साबित होता है। शर्मिला के रचना संसार में लड़कियों का यह अनुभव कई रूपों में व्‍यक्‍त हुआ है और हर बार नई मार्मिकता के साथ। ऐसी कहानियों का पाठ ज्‍यादा से ज्‍यादा होना चाहिए।


शर्मिला की कहानियां किसी भी बात से शुरू होती हैं, फिर बात से बात निकालती हुई मानव जीवन के कई आयामों की मार्मिकता को मन के भीतर की उथल-पुथल और घटनाओं के संदर्भों के साथ व्‍यक्‍त करती हैं। इन कहानियों में स्‍त्री के अनेक रूप, अनेक छवियां कहीं परंपरागत परिवार में दम घुटती स्‍त्री के संघर्ष के रूप में, कहीं वृद्ध पिता की बीमारी के साथ जूझती हुई युवा लड़की के रूप में, कहीं निर्धन ग्रामीण परिवार की माँ बेटी के रूप में, कहीं दाई का काम करने वाली संघर्षशील युवती के रूप में, कहीं संतानहीन स्‍त्री के संघर्ष के रूप में, कहीं एक अदद अटेंडेंट या नौकर की तलाश में जीवन के साथ जूझती हुई स्‍त्री के रूप में, कहीं दाई के रूप में दिखाई पड़ती है। इन कहानियों से स्‍त्री का बड़ा और विविध संसार उभरता है, जिनमें अपना समय भी करीने से आ कर बैठ जाता है। वृद्ध पुरूषों का अकेलापन, पीढ़ियों का परस्‍पर द्वंद्व, एकांत का दुख और उससे निकलने की छटपटाहट इन कहानियों के अनुभव संसार को विस्‍तार देता है। लेखक का सरोकार कहानी के विषय में नहीं, बल्कि कहानी की परतों में छिपी हुई व्‍यंजना में व्‍यक्‍त होता है। कई बार कहानी प्रचलित ढांचा से अलग गल्‍प की एक नई संरचना में अभिव्‍यक्ति की राह तलाशती है।


शर्मिला जालान



‘ग्रीफ’ कहानी में उनकी कौतुक वृत्ति और कल्पना शक्ति का विरल संयोग बना है। दुख को विषय बना कर, चेखव की कहानी का संदर्भ प्रस्तुत कर उन्होंने अभिव्यक्ति का नया धरातल तलाशने का सफल प्रयास किया है। कोलकता की बारिश, नेशनल लाइब्रेरी के रहस्यमय वातावरण के बीच श्यामा के माध्यम से वह ऐसे लेखक की तलाश में हैं जो दुख को सुन रहा है, जो चेखव की ‘ग्रीफ’ जैसी एक मुकम्मल कहानी लिखना चाहता है, जिसे रोशनी की तरफ जाती हुई श्यामा देखती है, देखती रह जाती है। जाने क्यों इस कहानी में दुख सुनते लेखक के रूप में मुझे अशोक जी की याद आती रही। उनके भीतर भी मुकम्मल रचना की गहरी और छटपटाहट भरी तलाश थी।  


‘साख’ शीर्षक कहानी स्‍वार्थांध समय में घर-परिवार के साथ रिश्‍ते की टूटन के बीच एक बुजुर्ग के अपनी ‘साख’ को फिर से स्‍थापित करने की कथा है। कहानी एक प्रभावी व्‍यावहारिक निर्णय की ओर बढ़ती हुई अपने कथ्‍य में सफलता अर्जित करती है, लेकिन उन छायाओं से वंचित रह जाती है, जिनके कारण समाज में स्‍वार्थ का अवगुंठन बढ़ता जा रहा है।


शर्मिला के चित में कोलकाता का भूगोल, ऐतिहासिक संस्‍पर्श के साथ उपस्थित है। रवींद्र नाथ के गान अपनी आत्‍यंतिक अनुभूति से साथ मन में रचे-बसे हैं। साहित्यिक पुरखे आवाजाही करते रहते हैं। सामाजिक त्रासदियां चित्त को आलोड़ित-विलोड़ित करती हैं। सरोकारी वैचारिक परंपरा का उद्वेलन बना रहता है। उनके पात्र इन्हीं रसायनों के साथ चलते फिरते रहते हैं। कहानीपन के साथ काव्‍यात्‍मक संवेग मन की अनुभूतियों को संघनित करता है।


कहानियां पढ़ते हुए पात्रों के मन के आकाश को जानने समझने की उत्‍सुकता तो रहती ही है, मन में समांतर सर्जनात्‍मक भाव का उद्वेलन भी होता है। यह जानने की उत्‍सुकता भी होती है कि किन क्षणों में कहानी कौंधी होगी और रचनाकार ने इसे किस तरह अपने अपने भीतर रचा बसाकर आकार दिया होगा।


अलग-अलग कहानियों के कथ्‍य को बताने का मन नहीं होता क्‍योंकि कहानी सिर्फ घटना और कथ्‍य में नहीं, वातावरण के रचाव और पंक्तियों के बीच की उन व्‍यंजनाओं में है, जिसे स्‍वयं पढ़े बिना महसूस नहीं किया जा सकता। हर कहानी एक स्वतंत्र पाठ है और हर पाठक अपनी काल्‍पनिकता के अनुसार उसका अलग आस्‍वाद ले सकता है।


शर्मिला जालान ने धीरे-धीरे अपना जो रचना संसार बनाया है, यह किताब उसे और विस्‍तृत, और व्‍यंजक, और विशिष्‍ट बनाती है। उनके रचना संसार की विशिष्‍टताओं को, उनके अनुभव जगत को, उनकी अभिव्‍यक्ति भंगिमाओं को अलग से पहचाना और उसका आस्‍वाद लिया जा सकता है। उन्‍हें पढ़ते हुए मेरा मन नए इलाके में घूम आने के संतोष से भरता है और समृद्ध होता है।




सम्पर्क


मोबाइल : 9454219233


मेल : -sanjaygautam1569@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन समीक्षा। ऐसी समीक्षा संग्रह को और भी मूल्यवान बनाती है ।

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  2. समीक्षा रचना के शिल्प एवं तथ्य के साथ पूरा न्याय करती है। साथ ही पाठक को पुस्तक पढने के लिए प्रेरित करती है।

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