लाल बहादुर वर्मा का आलेख 'इस्पाती इरादे : निकोलाई ओस्त्रोव्स्की'

 

लाल बहादुर वर्मा 


लेखन वह जगह है जहां लेखक खुद को अभिव्यक्त तो करता ही है, अपने को खोलता भी है। कोई लेखक लाख प्रयास कर ले, लेखन में खुद को छुपा नहीं सकता। उसके विचार के साथ साथ जीवन भी लेखन में आ ही जाता है। 19वीं और बीसवीं सदी के रूसी साहित्य में कई ऐसे नामचीन लेखक दिखाई पड़ते हैं, जिनका लेखन क्लासिकल माना जाता है। इस रूसी साहित्य को दुनिया भर में इसलिए आदर प्राप्त है क्योंकि इसमें मानवीय श्रम को गरिमा प्रदान की गई है। निकोलाई ओस्त्रोव्स्की का एक विश्व विख्यात उपन्यास है 'हाउ द स्टील वाज़ टेम्पर्ड' यानी 'लोहा कैसे तपा'। यह उपन्यास एक तरह से ओस्त्रोव्स्की के जीवन संघर्ष की गाथा ही है। दरअसल यह उस सोवियत युवा की कहानी है जो अपने जीवन में बाधाओं का सामना करने के बाद भी अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए दृढ़ रहता है। ओस्त्रोव्स्की का जन्म 29 सितंबर 1904 को यूक्रेन में हुआ था और 22 दिसंबर 1936 को उनका निधन हो गया। यानी उन्होंने मात्र बत्तीस वर्षों का जीवन पाया लेकिन इस जीवन के एक एक क्षण का सदुपयोग किया।  लाल बहादुर वर्मा की ख्याति एक प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता की रही है। उन्होंने मौखिक इतिहास को इतिहास लेखन में प्रतिष्ठा दिलाई। इसीलिए हम उन्हें एक जन इतिहासकार  के रूप में भी जानते हैं। वर्मा जी मैं यानी स्व को अहमियत तो देते ही थे साथ ही अपने आस पास के लोगों को दोस्त के रूप में अपनाते थे। दुनिया के बेहतरीन साहित्य को सामने लाने में उनका योगदान अहम है। विकास नारायण राय जब अपने पुराने कागज़ों को सहेजने के क्रम में लगे हुए थे तब उन्हें वर्मा जी का यह हस्तलिखित आलेख मिला जो अभी तक अप्रकाशित था। विकास जी ने इसे टाइप कर साहित्य जगत को उपलब्ध कराया। इस आलेख के लिए हम उनके आभारी हैं। बीते 17 मई को  वर्मा जी की पुण्य तिथि थी। उनकी स्मृति को हम नमन करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं लाल बहादुर वर्मा का आलेख 'इस्पाती इरादे : निकोलाई ओस्त्रोव्स्की'।



'इस्पाती इरादे : निकोलाई ओस्त्रोव्स्की'


लाल बहादुर वर्मा


पचासों सालों से निकोलाई ओस्त्रोव्स्की का उपन्यास 'लोहा कैसे तपा' ('हाउ द स्टील वाज़ टेम्पर्ड') पाठकों को उद्वेलित करता रहा है, उन्हें साहस का पाठ पढ़ाता रहा है, बेहतर ज़िन्दगी के लिए लड़ने को ललकारता रहा है। अनेक अनुवाद हो चुके हैं–नाटक और सिनेमा बन चुके हैं। उपन्यास का नायक पावेल कोर्चागिन वैसा ही है जैसे लेखक के समय के दूसरे जवान रहे होंगे। वह सुनहरे आदर्शों और साहसी कारनामों का समय था। 1917 में क्रांति हुई थी और किसानों-मज़दूरों ने रूस के सम्राट का तख्ता पलट दिया था–जमीदारों और धन्‍ना सेठों को उखाड़ फेंक कर शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी। एक नई व्यवस्था शुरू हुई थी जिसमें मेहनत करने वालों की पंचायतें शासन चलाने लगीं, सभी लोगों के बीच समानता स्थापित हुई और कोई आदमी दूसरे आदमी पर अत्याचार न करे, उसका शोषण न करे इसकी व्यवस्था की जाने लगी।


रूस के पराजित शासक और सारी दुनिया के पूँजीपति इस नई व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने मिल कर सशस्त्र वरोध करना शुरू किया और एक गृहयुद्ध शुरू हो गया। रूसी सेना का एक भाग जो पुरानी व्यवस्था का समर्थक था नए गणतंत्र के विरुद्ध लड़ने लगा। नागरिकों को आतंकित किया जाने लगा। चौदह पूँजीवादी देशों ने नए गणतंत्र के विरुद्ध हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। तब गणतंत्र की रक्षा के लिए एक क्रांतिकारी लाल सेना गठित की गई।


लेखक निकोलाई इस समय एक बालक ही था। लाल सेना में भर्ती हो गया। वह कई बार संघर्षों में जूझता हुआ घायल हुआ पर वह थोड़ा ठीक होते ही मोर्चे पर लौट आता। भयानक रूप से घायल होने के बाद ही उसे सैनिक जीवन छोड़ना पड़ा। ठीक होते ही उसने नवजवानों की संस्था कोमसोमोल में काम शुरू कर दिया।


अब युद्ध के घाव भरने लगे थे। नये जीवन का संचार हो रहा था, लोगों के बीच नए सम्बन्ध बनने लगे थे। इन कामों में नव जवानों की सक्रिय भूमिका थी। निकोलाई भी उन में डूबा रहा। पर उसे लगे भयानक घाव अपना असर दिखाने लगे थे। उसके जोड़ों में दर्द शुरू हुआ और बढ़ता गया। आँख में चोट लगी थी। अब रोशनी जाती रही। चौबीस साल की उम्र में वह पंगु हो गया। उसके लिए तो जीवन का अर्थ था कर्म, लोगों के लिए जीना। अब एक ही काम कर सकता था–लिखना, वह भी बहुत मुश्किल से। पर कठिनाई तो उसके लिए चुनौती होती थी। उसने जी जान से यह उपन्यास लिखना शुरू किया जो एक तरह से उसकी अपनी ही कहानी है जिसमें युवा लोगों के क्रांति के लिए किए गए संघर्षों को रचा गया है।


यह उपन्यास 1932 में पहली बार प्रकाशित हुआ और तत्काल लाखों व्यक्तियों में लोकप्रिय हो गया। अपंगता बढ़ती जा रही थी पर ओस्त्रोव्स्की ने उत्साहित हो कर एक नया उपन्यास –‘तूफान के बच्चे’ लिखना शुरू कर दिया। पर उसे वह पूरा नहीं कर सका–अंतिम क्षण तक रोज़ बारह घंटे मेहनत करने के बावजूद।


दिसम्बर 1936 में उसकी मौत हो गई। वह केवल बत्तीस वर्ष का था। उसकी किताबों ने तब से हर पीढ़ी को जगाया है, नयी जान भरी है और वह अमर हो गया है। अंतरिक्ष पर मानव श्रम की पताका फहराने वाले यूरी गगारिन ने लिखा है : ‘देश ऐसे लोगों को कभी नहीं भूलता, निकोलाई का जीवन नव जवानों को प्रकाश स्तंभ की तरह अँधेरे में राह दिखाता रहेगा।’


पावेल कोर्चागिन केवल बारह वर्ष का था जब उसे नौकरी करनी पड़ गई। उसे रेलवे स्टेशन के रेस्त्रां के पीछे किचेन में काम मिला। वहाँ एक औरत ने उससे कहा : तुम्हारा काम है सुबह-सुबह ब्वायलर गर्म करना–याद रखना कि वह लगातार गर्म ही रहता है। तुम्हें ही लकड़ी चीरनी होगी और उन सिगड़ियों को तैयार रखना भी तुम्हारा ही काम है। कांटों-छुरियों को साफ करना और इसी तरह के दूसरे काम तुम्हें ही निपटाना होगा। एक वेटर ने जोड़ दिया : ‘ध्यान रहे सिगड़ियाँ गरमा-गरम रहें वर्ना ठुकाई हो जाएगी–तगड़े में, समझ गए न।’ पावेल की कामकाजी जिन्दगी इस तरह शुरू हुई। बाल्टियाँ और बर्तन ढोते वह थक कर चूर हो जाता और शाबासी के नाम पर कभी-कभार कोई मिठाई का टुकड़ा मिल जाता। बस!


बफीर्ली सर्दी के दिन थे। पावेल की पाली खत्म होने वाली थी पर जिस लड़के की उसके बाद ड‍्यूटी थी वह आया नहीं। वह चौबीस घंटे से काम कर रहा था, थक कर चूर था पर अगली शिफ्ट भी करनी पड़ी। रात तक वह लड़खड़ाने लगा पर तीन बजे रात की गाड़ी के लिए उसे सब कुछ गर्म रखना था। उसने नल खोला। उसमें पानी ही नहीं था। वह उसे बंद करना भूल गया और लुढ़क कर सो गया। थोड़ी देर में पानी आया तो ब्वायलर भरने के बाद ऊपर से बहने लगा। पानी चारों तरफ फैल गया रेस्त्रा में। पावेल की खूब कुटाई हुई और उसे नौकरी से निकाल दिया गया।


पावेल के बड़े भाई आर्तेम ने बिजलीघर में उसे नई नौकरी दिलवा दी। उनके कस्बे शेपेतोवका में खबर पहुँची कि रूस के सम्राट को गद‍्दी से उतार दिया गया है। बर्फ से पटी सड़कों पर दौड़ते हुए सैकड़ों लोग चौक पहुँचे। उत्सुक लोगों को नए शब्द सुनाई पड़े– स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा। उसी साल बरसाती नवम्बर में कुछ नए तरह के लोग रेलवे स्टेशन पर दिखाई पड़ने लगे। वे लोग खाइयों से लौटे सिपाही थे और वोल्शेविक जैसे अजीब नाम से जाने जाते थे। 1918 के बसन्त में क्रांतिकारी सैनिकों की एक टुकड़ी ने नगर में प्रवेश किया।


रूस पर आक्रमण करने वाली दुश्मनों की फौज के आ जाने से इस टुकड़ी को वहाँ से हटना पड़ा। उसके कमांडर ने कहा कि ‘हम अकेले नहीं लड़ सकते जब तक दूसरे साथी उसके नहीं आ जाते। पर जाने से पहले हमें बिजली घर को किसी विश्‍वसनीय साथी को सौंपना पड़ेगा। देखें कौन-कौन उपलब्ध है। कमांडर के सहायक ने कहा : फिओदोर ज़ुखराई, एक तो वह स्थानीय है दूसरे वह फिटर और मेकैनिक है इसलिए बिजलीघर में नौकरी पर जाएगा। उसे किसी ने हमारे साथ देखा भी नहीं है। उसकी खोपड़ी में दिमाग है और वह स्थितियों से अच्छी तरह निपट सकता है।’


दूसरे दिन शाम को पावेल लौटा तो भाई आर्तेम के साथ एक अजनबी बैठा हुआ था। भाई बोला, ‘पावेल तुम कह रहे थे न कि तुम्हारे वहाँ कोई फिटर बीमारी की छुट‍्टी पर गया है? कल पूछना कि उसकी जगह वह लोग किसी जानकार को रखेंगे?’ ‘जरूर रखेंगे। बॉस ढूँढ रहे थे पर कोई मिला ही नहीं।’ अजनबी बोला, ‘तब तो ठीक है। कल मैं तुम्हारे साथ चल कर खुद ही बात कर लूँगा।’ वह फिओदार था।


दुश्मनों की फौज जल्दी ही वहाँ से चली गई पर क्रांति विरोधी डाकुओं ने शहर पर कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने लूट-मार-बलात्कार शुरू कर दी। उन्होंने फिओदार को पकड़ना चाहा। वह कई दिनों तक पावेल के घर में छुपा रहा और उसे देश-दुनिया के बारे में बहुत कुछ बताता रहा। एक दिन पावेल उससे पूछ बैठा, ‘तुम हो कौन, मेरे ख्याल से तुम या तो बोलशेविक हो या कम्युनिस्ट। फिओदाेर सीने पर हाथ रख कर जोर से हँसने लगा। बोला, ‘मेरे जवान! बात तो सही है पर बोलशेविक और कम्युनिस्ट एक ही होते हैं।’


जुखराई एक जरूरी काम से बाहर चला गया और लौटा ही नहीं। एक दिन पावेल ने देखा कि जुखराई को दुश्मनों का एक सिपाही पकड़े लिए जा रहा है। पावेल सिपाही पर कूद पड़ा और उसकी राइफल तेज़ी से एक तरफ मोड़ दी। सिपाही ने राइफल खींचना चाहा। गिरते हुए पावेल ने सिपाही को भी गिरा दिया। इस बीच संभल कर जुखराई ने सिपाही के सिर पर एक झन्‍नाटेदार घूंसा जड़ दिया। वह खाई में गिर पड़ा। पावेल और जुखराई फेन्स कूद कर किसी के अहाते में भाग गए।


उसी शाम पावेल गिर‍़फ्तार हो गया और कमांडर के पास ले जाया गया। पाँच दिनों तक उससे तरह-तरह के सवाल पूछे जाते रहे पर वह कड़ा रहा और कुछ नहीं बताया। सिपाही ने पावेल को पहचान लिया था और उसकी गर्दन टीप देना चाहता था। पर पावेल बस इतना ही कहता, ‘मुझे कुछ नहीं पता। मैंने नहीं छुड़ाया कैदी को।’ कमांडर ने हेड क्‍वार्टर से पूछा कि क्या पावेल को ‘शूट’ कर दिया जाए?


वह संयोग से ही बच गया। दौरे पर उनका कर्नल आया था और उसने जेल की कोठरियों का मोआइना किया। उसने पावेल से उसकी गिर‍़फ्तारी का कारण पूछा। पावेल बोला, ‘मेरे घर दो फौजी टिके थे। मैंने उनकी काठी में से थोड़ा चमड़ा काट लिया था, अपने जूते में सोल लगाने के लिए। और वे मुझे यहाँ पकड़ लाए।’ कर्नल ने घृणा से पावेल को देखा और बोला, ‘भागो यहाँ से, और बोल देना बाप से कि तुम्हें छिपा कर रखे।’ पावेल को अपने कान पर विश्‍वास नहीं हुआ। वह दरवाजे की ओर भागा।


जब दुश्मन भगा दिए गए तो पावेल लाल सेना में भर्ती हो गया। बहुत दिनों तक उसने घर खबर नहीं भेजी। उसकी माँ रोती रहती। एक दिन आर्तेम ने घर लौट कर पावेल की चिट‍्ठी दिखाई। उसने लिखा था, ‘प्यारे आर्तेम! मैं जिन्दा हूँ पर पूरी तरह ठीक नहीं हूँ। मुझे गोली लग गई थी पर अब मैं बहतर हूँ। मैं घुड़सवार टुकड़ी में हूँ। माँ मजे में है न? उन्हें मेरा दिली प्यार कहना। तुम चिंतित होंगे, मुझे माफ करना। तुम्हारा भाई – पावेल।


Nikolai Alekseyevich Ostrovsky



पावेल को युद्ध में लड़ते एक साल हो गया था। इस दौरान उसने भयानक चीजें देखी थीं। हजारों लोगों के साथ मिल कर उस दुनिया की रक्षा करने में जुटा था जिसे मेहनतकश लोग बनाने वाले थे। उसने बस दो बार मोर्चा छोड़ा था–एक बार बीमार पड़ जाने पर और दूसरी बार घाव लग जाने के कारण।


पावेल का तबादला हो गया था। उनकी टुकड़ी एक गाँव में ठहरी हुई थी। एक मजबूत नौजवान तोप के ऊपर बैठा एकॉर्डियन बजा रहा था। वह ताल नहीं दे पा रहा था और नाचने वालों की लय बिगड़ जा रही थी। पावेल उस तक पहुँचा। नवजवान ने पूछा, ‘क्या चाहते हो?’ पावेल ने हाथ बढ़ा कर बाजा माँगा। बोला, ‘मैं ज़रा हाथ आजमाऊँ?’ बेमन से नवजवान ने गले से फीता निकाल कर बाजा उसे सौंप दिया। पावेल ने एकॉर्डियन घुटने पर रखा और सधे हाथ से बजाने लगा। नर्तक ने चिड़िया के पंख की तरह हाथ फैलाए और उसके पाँव ताल पर थिरकने लगे।


क्रांतिकारी लाल सेना विदेशी घुसपैठियों पर हमला कर रही थी। पावेल आगे-आगे था, घोड़े की गर्दन पर झुका दौड़ता हुआ। पावेल की आँखों के सामने ही एक साथी ने एक दुश्मन सिपाही के टुकड़े कर दिए। अचानक उन्होंने दुश्मनों की नीली वर्दी देखी। तीन फौजी मशीनगन पर झुक रहे थे। सुनहरी कालर वाला चौथा अफसर रहा होगा। घुड़सवारों को देखते ही अपनी पिस्तौल तानने लगा। पावेल र‍़फ्तार में था। लगाम लगाना कठिन था। वह सीधे मशीनगन पर चढ़ गया। अफसर ने गोली दाग दी। वह पावेल का गाल छूती निकल गई। दौड़ता घोड़ा अफसर पर चढ़ बैठा। मशीनगन से विस्फोट हुआ। पावेल का घोड़ा उसे ले सीधे दुश्मनों के बीच जा पहुँचा।


एक दिन पावेल को मुहरबंद लिफाफे के साथ रेलवे स्टेशन भेजा गया।


वह इंजिन के बराबर में रुका और पूछा, कमांडर कौन है?’ सिर से पैर तक चमड़े का वस्त्र पहने एक व्यक्ति ने कहा, ‘मैं हूँ।’ पावेल ने लिफाफा निकाला और बोला, ‘तुम्हारे लिए आज्ञा है, दस्तखत कर दो।’ वह दस्तखत करके घूमा ही था कि पावेल घोड़े से कूद पड़ा, ‘आर्तेम भइया!’ ‘अरे पावेल तुम?’ आर्तेम को विश्‍वास ही नहीं हो रहा था।


लड़ते हुए एक दिन पावेल की टोपी उड़ गई। उसने लगाम कसी। साथी लोग दुश्मनों की कतारों में पिल गए थे। अचानक एक झाड़ी से एक सिपाही चिल्लाया : ‘कमांडर मारा गया।’ पावेल गुस्से से उबलने लगा और उसने अपने को झोंक दिया दुश्मनों पर। कमांडर की मौत के गुस्से में उन लोगों ने दुश्मनों की पूरी प्लाटून मार गिराई। भागती फौज को उन्होंने खेतों में खदेड़ दिया। तभी दुश्मनों के तोपखानों ने आग उगली। पावेल की आँखों के सामने एक हरी लौ लपलपाई और उसके कानों में एक दहाड़ गूँजी। वह उछाल दिया गया और घोड़े के सर से टकरा कर जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ा।


महीने भर पावेल अस्पताल में पड़ा रहा। सिर में गंभीर चोट लगी थी और दाहिनी आँख में एक नस फट गई थी। आँख बुरी तरह सूजी हुई थी और ज़हर दूर तक न फैले इसलिए सर्जन उसे निकाल देना चाहता था। बहरहाल, उसने सोचा कि मरीज़ बच गया तो बदसूरत हो जाएगा और उसने आँख नहीं निकाली।


पावेल आखिर ठीक हो गया। दाहिनी आँख तो चली गई थी पर देखने में पता नहीं चलता था। अस्पताल छोड़ते हुए पावेल बोला, ‘अच्छा होता बाईं आँख गई होती, अब मैं निशाना कैसे साधूँगा?’


अस्पताल से पावेल स्वास्थ्य लाभ के लिए कीव चला गया। वहाँ उसने दीवारों पर एक इश्तहार देखा जो रूस में क्रांति के विरोधियों से लड़ने के लिए बनाई गई संस्था ‘चेका’ की ओर से था। उस पर स्थानीय इकाई के अध्यक्ष का दस्तखत था–फिओदोर जुखराई। पावेल का दिल उछलने लगा। फिओदोर ने गृहयुद्ध के दौरान एक बाजू खो दिया था। वह पावेल से मिल कर बहुत खुश हुआ। वे तत्काल काम की बात में लग गए। जुखराई बोला : ‘जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तुम क्रांति विरोधियों को नियंत्रित करने में मेरी मदद कर सकते हो, चाहो तो कल ही से।’


लाल सेना क्रीमिया में क्रांति विरोधियों का अंतिम रूप से सफाया करने में लगी हुई थी। कीव से होकर गाड़ी भर-भर कर सैनिक गुजर रहे थे। ट्रकों में लाद कर ठेले, अस्थाई किचेन और हथियार भेजे जा रहे थे। पावेल चेका के यातायात विभाग में काम कर रहा था। इनके जिम्में वहाँ की दिक्‍कतें हल करना था। लगातार तार आते थे कि अमुक काम के लिए रास्ता साफ रखा जाए। उत्तेजना का माहौल रहता था। कभी-कभी तो किसी यूनिट का कमांडर उनके दफ्तर में तूफ़ान की तरह आता और पिस्तौल निकाल कर धमकाने लगता कि उसकी यूनिट को प्राथमिकता दी जाए। 


इतनी अफरा-तफरी और तनाव में काम करने से पावेल का पहले से ही खराब स्वास्थ्य और बिगड़ गया। दो रात न सो पाने के बाद वह बेहोश हो गया। सम्हलने पर उसने फिओदोर से कहा : ‘फिओदोर! मैं रेलवे में अपने काम पर लौटना चाहता हूँ। मैं यहाँ ठीक नहीं महसूस कर रहा। मेडिकल कमीशन ने कहा है कि मैं सेना के लिए अनफिट हो गया हूँ। पर यहाँ तो मोर्चे से भी खराब स्थिति है।’


युवाओं की संस्था कोमसोमोल ने पावेल को रेलवे वर्कशाप में अपनी कमिटी का उसे सक्रेटरी बना दिया।


दिसम्बर 1920 में वह परिवार से मिलने गया। माँ की आँखें खुशी से बरस पड़ीं। एक बार फिर उनमें चमक आ गई। वह खुशी से फूली नहीं समाई जब तीन दिन बाद रात को आर्तेम भी आ पहुँचा। पावेल दो ही हफ्ते रूक पाया और कीव लौट गया। काम उसका इन्तज़ार कर रहा था।


एक साल बीत गया। नए दुश्मन पीठ पर सवार थे। रेलवे में ईंधन की कमी थी। इसका मतलब था जाड़ों में भुखमरी और भयानक सर्दी। सब कुछ जलावन और रोटी पर निर्भर था। स्थानीय पंचायत के दफ्तर में तेरह लोग नक्शे पर झुके हुए थे। फिओदोर ने कहा, ‘गौर से देखें। यह है स्टेशन और यह रहा लट‍्ठों का गोदाम, छ: किलोमीटर दूर। दस हजार क्यूविक मीटर जलावन को यहाँ स्टेशन तक पहुँचना है। बस एक ही तरीका है–वहाँ से स्टेशन तक नैरोगेज की छोटी रेलवे लाइन बनाई जाए और वह भी बस तीन महीनों में। उसके लिए साढ़े तीन सौ कामगार और दो इंजीनियरों की जरूरत होगी। उनके रहने के लिए बस एक पुराना स्कूल है जो इस्तेमाल में नहीं है। हमें कामगारों को दो-दो हफ्ते के लिए बाँट कर भेजना होगा। वे इससे ज्यादा एक बार में झेल नहीं पाएँगे।’


लोग तूफान की तरह पुश्ता बनाने में जुट गए। बूंदा-बांदी जारी थी। स्कूल का पत्थर का ढांचा दूर से दिखाई पड़ता था। दरवाजों खिड़कियों की जगह बड़े-बड़े सुराख थे और स्टोव की जगहों पर कालख जमा थी। बस फर्श सलामत थी। रात को चार सौ लोग भीगे, कीचड़ सने कपड़ों में ठंड से उबरने के लिए एक-दूसरे से चिपट कर फर्श पर सो जाते थे। कपड़े सूख नहीं पाते थे। खिड़की वाले सुराखों पर टंगे बोरों से रिसकर पानी फर्श पर भी आ जाता और दरवाज़ा न होने से हवा अंदर आती रहती। सुबह वे चाय पी कर काम पर चल पड़ते। दोपहर को लंच में उबली दाल मिलती जिससे वे ऊब चुके थे। रोटी इतनी काली होती जैसे कोयला।





पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था। पावेल ने मुश्किल से कीचड़ से अपना पांव निकाला पर घिसा हुआ जूते का तलवा कीचड़ में ही रह गया। वह बचे हुए जूते के साथ स्कूल वाली इमारत में चला गया। वह चूल्हे के सामने बैठ गया और जम से गए पांव को गर्मी पहुँचाने लगा। वहाँ के लाइनमैन की पत्‍नी ने उससे कहा : ‘लंच जल्दी पाने की उम्मीद मत करो। बच्चू मैं समझ रही हूँ तुम काम से बच कर यहाँ आ गए हो। कहाँ रखा है तुमने पाँव? यह रसोई है बाथरूम नहीं।’ पावेल ने जवाब दिया, ‘मेरे जूते चीथड़ा हो रहे हैं।’ औरत ने देखा और उसे अपने कठोर शब्दों पर बहुत शर्म आई। वह बोली, ‘माफ करना, मैंने तुम्हें कोई लोफर समझ लिया था। अब इन जूतों का कुछ नहीं हो सकता। मैं तुम्हें एक पुराना मोटा मोजा और कुछ कपड़े देती हूँ। उन्हें लपेट लो। पावेल ने चुपचाप उस पर कृतज्ञता की एक नज़र डाली।


रेलवे लाइन के काम का इन्चार्ज बूढ़ा तोकारेव शहर से लौटा तो गुस्से से तमतमा रहा था। उसने कम्युनिस्टों को बुला कर कहा, ‘लड़कों! ईमानदारी की बात तो यह है कि काम हो नहीं पा रहा है। मैं तुम्हारी जगह काम करने आने वाला ग्रुप जुटा नहीं पाया। कभी भी सर्दी बढ़ सकती है और हम जमने लग सकते हैं। उसके पहले हमें इस दलदल को पार कर लेना है–अगर मौत से बचना है तो। हम अपने को क्या कहें? अगर हम कुछ नहीं कर पाते तो कैसे बोल्शेविक हैं? हम आज ही एक मीटिंग करके सारी बात स्पष्ट कर देंगे। सुबह जो लोग पार्टी सदस्य नहीं हैं घर जा सकते हैं, हम काम पर रूकेंगे।


जंगल में गोली की आवाज़ सुनाई दी। एक व्यक्ति घोड़ा दौड़ाता खो गया अंधेरे में। चौखट में एक प्लाईबुड का टुकड़ा ठोका हुआ था। किसी ने दियासलाई जला कर पढ़ा : ‘स्टेशन छोड़ कर वहीं लौट जाओ जहाँ से आए थे। जो रुका वह मरा कुत्ते की मौत। कल रात तक छोड़ दो इलाका।’


कुछ दिनों बाद दर्जन भर घुड़सवार अंधेरे में बैरक तक आए। गोलियाँ चलने की आवाज़ रात के सन्‍नाटे में गूँजी। पावेल जमीन पर झुका अपनी पिस्तौल में गोलिया छूता हुआ तनावग्रस्त हो रहा था। गोली चलना बंद हुआ। उसने सावधानीपूर्वक दरवाजा खोला। कोई नहीं दिखाई पड़ा। लगा कुछ लोग डरा-धमका कर उन्हें भगाना चाहते हैं।


दोपहर को शहर से एक ट्राली आई। उसमें फिओदोर और क्षेत्रीय पार्टी कमिटी के सेक्रेटरी थे। तोकारेव उनसे बोला, ‘डाकुओं के हमले से???? तो संकट आया ही है। बन रहे ट्रैक पर एक भारी ढलान है। हमें इस पर काफी मिट्टी काटनी होगी।’ सेक्रेटरी ने पूछा, ‘काम समय पर खत्म कर पाओगे?’ ‘तुम जानते ही हो। सच तो यह है कि होना असंभव है। पर होना तो है ही। यह दूसरा महीना है और चौथे दल का काम पूरा हो चला है। कोर ग्रुप तो लगातार काम कर रहा है और बस वह झेल ले पा रहे हैं क्योंकि जवान हैं। सोने से तौलने लायक हैं वे सब।’


फिओदाेर ने काम में झुकी पीठों को देखा और धीरे से कहा, ‘ठीक कह रहे हो तोकारेव, उन्हें सोने में ही तोलना चाहिए। यहीं तो लोहा इस्पात में ढल रहा है।’


वे अपने लक्ष्य तक पहुँच रहे थे पर प्रगति बहुत धीमी थी। टाइफाइड से रोज़ दर्जनों ध्वस्त हो रहे थे। पावेल को बहुत दिनों से बुखार आ रहा था। लेकिन आज बुखार काफी तेज था। वह लड़खड़ाता हुआ स्टेशन तक पहुँचा और संतुलन खो गिर पड़ा।


कई घंटे बाद लोगों ने देखा और उसे बैरक में ले आए। वह कठिनाई से साँस ले पा रहा था और लड़खड़ा रहा था। एक सहायक डॉक्टर ही मिला और उसने बताया कि कठिन निमोनिया और टाइफाइड बुखार है। 


जवानी फिर जीत गई। पावेल स्वस्थ होने लगा। ज्यों-ज्यों ताकत लौट रही थी वह देर-देर तक टहलने लगा था। एक दिन वह कब्रिस्तान चला गया। वहीं उसने सोचा, ‘आदमी के पास जीवन से ज्यादा कीमती कुछ नहीं होता। जीवन तो बस एक बार मिलता है और उसे इस तरह जीना चाहिए कि बेकार बीते वर्षों को ले कर कोई अफसोस न हो, एक निकृष्ट और क्षुद्र अतीत के लिए शर्मिन्दा न होना पड़े, ऐसे जिएँ ताकि मरते वक्त कह सकें–मैंने अपना सारा जीवन, सारी शक्ति संसार के सबसे सुन्दर आदर्श–मानव समाज की स्वतंत्रता में लगा दिया। हमें भरपूर जीवन जीना चाहिए क्योंकि एक बेतुकी बीमारी या त्रासद दुर्घटना जीवन को छोटा कर सकती है?


पावेल इलेक्ट्रीशियन के सहयोगी की तरह वर्कशाप में काम पर लौट आया। उसने पार्टी सेक्रेटरी को समझाने की कोशिश की कि फिलहाल उसे कामलोमोल के नेतृत्व से मुक्त कर दिया जाए। उन्होंने कहा, ‘यहाँ पहले ही लोगों की कमी है और तुम वर्कशाप में आराम करना चाहते हो। कह मत देना कि तुम बीमार हो। मैं असली कारण जानना चाहता हूँ।’


‘कारण तो है मैं अध्ययन करना चाहता हूँ।’ ‘अच्छा तो यह बात है। तुम समझते हो मैं नहीं चाहता पढ़ना‍?’ पर अन्त में सेक्रेटरी मान गए।


हर शाम पावेल देर तक लाइब्रेरी में बैठा रहता। उसे हर किताब उलटने की इजाजत मिल गई थी। ऊँची अलमारियों पर सीढ़ी टिका कर वह घंटों अपनी दिलचस्पी की चीजें ढूँढ़ता रहता।


एक दिन पावेल ने पार्टी सदस्यता के लिए तोकारेव से कहा। फार्म में एक कालम था–संस्तुति करने वाला व्यक्ति कब से स्वयं पार्टी में है। तोकारेव ने लिखा 1903 से और संस्तुति में हस्ताक्षर कर दिया। ‘तो यह रहा मेरे बेटे। मैं जानता हूँ तुम मेरे सफेद बालों को कभी अपमानित नहीं करोगे।’


पावेल की योजनाएँ परिस्थिति के अनुसार बदलती रहीं।


जाड़ा आते ही बहते लट‍्ठों ने नदी का रास्ता रोक दिया। पतझड़ में आई बाढ़ ने बांध तोड़ दिया था और जलावन लकड़ी नदी में बही जा रही थी। कामसोमोल के सदस्यों को लकड़ी बचाने के लिए भेजा गया। पावेल ने किसी को नहीं बताया कि उसे भारी सर्दी लग गई है और वह भी काम में जुट गया। हफ्ते भर बाद ही वह फिर गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। दो हफ्ते तक वह गठिया से पीड़ित रहा और जब अस्पताल से छूटा तो उसके लिए काम करना कठिन हो गया।


कई दिनों बाद मेडिकल बोर्ड ने उसे काम के लिए ‘अनफिट’ घोषित कर दिया। उसकी तनख्वाह दे दी गई और चूँकि वह अब काम करने योग्य नहीं रह गया था उसके लिए एक भत्ता तय कर दिया गया जिसे लेने से उसने इन्कार कर दिया।


पावेल को तोड़ पाना आसान नहीं था। तीन ही हफ्ते बाद कोमसोमोल ने उसे एक ग्रामीण इकाई में जरूरी काम दे कर भेजा और साल भर बाद ही वह क्षेत्रीय कामसोमोल कमिटी का सेक्रेटरी चुन लिया गया। गर्मी आई तो पावेल के दोस्त एक-एक कर छुट‍्टी मनाने जाने लगे। वह उनके लिए हेल्थ रिसार्टों पर जगह आरक्षित करवाता। उनके जाने पर उनका भी काम उसे ही देखना पड़ता। उसके दोस्त छुट्टी बाद ताज़ा ऊर्जा और हौंसले के साथ लौटते और दूसरा कोई चल पड़ता छुट्टी पर। गर्मी भर कोई न कोई जाता रहा और वह एक दिन की भी छुट्टी नहीं ले सका। गर्मी बीत गई और पावेल पतझड़ तथा जाड़े को नापसन्द करता था, क्योंकि उन दिनों उसका शरीर कई प्रकार से पीड़ाग्रस्त हो जाता था।


पावेल को अपने सामने भी यह स्वीकार नहीं था कि वह साल-दर-साल कमज़ोर होता जा रहा है। वह दो में से एक काम कर सकता था–या तो अपने को अपंग घोषित कर दे या फिर जितने दिन चल सके काम पर बना रहे। उसने दूसरी ही राह चुनी। एक दिन डॉक्टर ने उससे कहा : पावेल! तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। अच्छा हो तुम ठीक से परीक्षण करवा लो।’


मेडिकल कमीशन ने संस्तुति की, ‘तत्काल छुट्टी। लम्बी देखभाल और गंभीर इलाज। अन्यथा गंभीर परिणाम अनिवार्य।’


पावेल ने सेनीटोरिअम में एक हफ्ता ही बिताया। उसके लिए वहाँ रहना असहृय हो रहा था और बिना इलाज पूरा किए वह चला आया। लौटने पर उसे नई जिम्मेदारी दी गई। उसी पतझड़ में वह जिस कार में यात्रा कर रहा था वह खाई में गिर कर उलट गई।


उसने आर्तेम को लिखा, ‘एक बार फिर चोटों ने मुझे काम से रोक दिया है। मुझे नया काम मिला है–अपंग का। बेहद दर्द हो रहा है और दाहिना घुटना जाम हो गया है। शरीर में तमाम टांके लगे हुए हैं और डॉक्टरों की राय है कि रीढ़ में सात साल पहले लगी चोट महंगी पड़ सकती है। जब तक उम्मीद बची है कि मैं संघर्ष में लौट सकता हूँ, मैं कुछ भी सहने को तैयार हूँ। कल मैं सेनिटोरियम जा रहा हूँ। हौंसला बुलन्द रखना। पावेल।


डॉ. इरीना ने जब पावेल को डिस्चार्ज किया तो अपने पिता प्रसिद्ध सर्जन की राय लेने की सलाह दी। पावेल तत्काल राजी हो गया। बूढ़े डॉक्टर ने अच्छी तरह परीक्षण के बाद बेटी पर पावेल को बताने की ज़िम्मेदारी छोड़ दी। उन्होंने पाया था : ‘इस नवजवान को कभी भी लकवा मार सकता है और हम इस त्रासदी को रोक पाने में असमर्थ हैं।’ इरीना साफ-साफ बताने का साहस नहीं जुटा पाई और सच्चाई का एक ही अंश उसने घुमा-फिरा कर पावेल को बताया। 


सैनीटोरियम में लम्बी चिकित्सा के बाद पावेल खारकोव गया और सीधे जा कर पार्टी की सेन्ट्रल कमिटी से मिला और तत्काल काम की मांग की। हम ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि सेन्ट्रल कमटी के मेडिकल बोर्ड की आज्ञा है : ‘पावेल की गंभीर हालत के नाते उसे तत्काल इलाज के लिए भेजा जाए। काम पर लौटना असंभव है।’ पावेल बोला, ‘जब तक मेरा दिल धड़क रहा है कोई मुझे पार्टी से अलग नहीं कर सकता।’ उन्हें पता था कि ये खोखले शब्द नहीं थे। वे एक घायल सैनिक की आत्मा के पुकार थे। दो दिन बाद पावेल को बताया गया कि अगर वह पत्रकार की योग्यता प्रमाणित कर दे तो वह एक अखबार में काम कर सकता है।


संपादकीय विभाग में पावेल का गर्मजोशी के साथ स्वागत हुआ। उपसंपादक, जो पहले भूमिगत कार्यकर्ता रह चुका था, बोला ‘हम तुम्हें घर पर करने वाले काम दे देंगे। तुम अनुकूल स्थितियों में ही काम करोगे। लेकिन तुम्हें बहुत से विषयों का ज्ञान होना चाहिए–विशेष कर भाषा और साहित्य का।’ उस महिला ने पावेल के लिखे लेख को पढ़ा और लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा : ‘कामरेड पावेल! थोड़ा परिश्रम करो तो एक दिन अच्छा लेखक बन सकोगे। पर फौरन तुम्हारे लेख का इस्तेमाल कठिन है।’ उस दिन से मानो पावेल का जीवन ढलने लगा। काम असंभव हो गया।


‘आखिर’ जीने के लिए बचा क्या है,’ पावेल ने सोचा अगर मैंने अपनी सबसे कीमती चीज़–संघर्ष की क्षमता खो दी है?... जबकि मेरे कामरेड लड़ रहे होंगे मुझे किनारे बैठना होगा? मुझे बोझ बनना पड़ेगा? बस एक गोली दिल के पार और इस सब से मुक्ति।’ उसने धीरे से पिस्तौल निकाली, लगा मन से कोई आवाज़ आ रही है। ‘किसने सोचा होगा तुम्हारे लिए ऐसी नौबत आएगी?’ पावेल ने रपिस्तौल किनारे रख दी। ‘यह तो सबसे आसान और कायरतापूर्ण रास्ता है। तुम्हें जीना सीखना चाहिए–तब भी जब जीवन असहृय हो उठे। जीवन को उपयोगी बनाओ।’





आर्तेम को अपने भाई की चिट्ठियाँ बराबर नहीं मिल रही थीं। जब भी परिचित लिखाई वाला लिफाफा मिलता उसका दिल धड‍़कने लगता। एक दिन पावेल का खत मिला, ‘हालत खराब ही होती जा रही है, बायाँ हाथ उठ ही नहीं रहा। अपने में यह कितना खराब था, पर अब तो पाँवों ने भी जवाब दे दिया है। बड़ी मुश्किल से बिस्तर से मेज़ तक जा पाता हूँ। कौन जानता है कल क्या हो?’


‘जीवन में अब अध्ययन ही बचा है–किताबें, किताबें और किताबें। मैंने सारे क्लासिक्स पढ़ डाले और यूनीवर्सिटी के कॉरेस्पॉन्डेंस कोर्स के पहले साल की परीक्षा भी पास कर ली।’



और फिर तो पावेल के पैरों में लकवा मार गया और बस दाहिना हाथ आज्ञाकारी बना रहा। जल्दी ही दाहिनी आँख में भयानक दर्द शुरू हुआ और फिर बायीं में। उसने जिला पार्टी सेक्रेटरी के पास मिलने के लिए खत लिखा। सेक्रेटरी ने पावेल के साथ दो घंटे बिताए। पावेल ने कहा, ‘मुझे लोगों की, जिन्दा लोगों की जरूरत है–पहले से ज्यादा। मेरे पास कुछ युवा भेजिए।’ सेक्रेटरी ने कहा, ‘भूल जाओ यह सब। तुम्हें आराम की जरूरत है फिर देखना ही कि आँख का क्या होता है। हो सकता है अभी भी कुछ किया जा सके।’


पर पावेल सेक्रेटरी को समझा पाने में कामयाब हो गया और उसके घर में शाम को नौजवानों की आवाज़ें गूँजने लगीं।


डॉ. इरीना जो इसी क्षेत्र में दौरे पर थीं, पावेल से मिलने आईं। पावेल ने उन्हें बताया कि वह काम पर लौटना चाहता है। ‘पर तुम लिखोगे कैसे?’ पावेल ने कहा कल मेरे लिए कार्डबोर्ड स्टेंसिल आ रहा है। मैं उसके बिना नहीं लिख सकता। पहले मुझे उसके इस्तेमाल में, कठिनाई थी पर अब मैं उसकी मदद से ठीक से लिख सकता हूँ।


पावेल ने अपने घुड़सवार ब्रिगेड के बहादुरी के कारनामों के बारे में एक उपन्यास लिखने का निर्णय लिया था। उसका शीर्षक एक दिन कौंध गया–तूफान के बच्चे। उस दिन से सारा जीवन इस किताब के लिखने को समर्पित हो गया।


पावेल जो भी लिखता शब्दश: याद रखना होता। ज़रा भी सूत्र टूटता तो काम धीमा पड़ जाता। पावेल की माँ बेटे की गतिविधि देख कर बुरी तरह डरी हुई थी। कभी-कभी पावेल को पूरा पेज या पूरा अध्याय स्मृति के आधार पर सुनाना पड़ता और तब माँ सोचती बेटे का कहीं दिमाग तो नहीं खराब हो गया। वह लिखते समय उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहती थी पर जब काग़ज गिर जाते तो उन्हें उठाते समय कहती, ‘पावेल! तुम कुछ और क्यों नहीं करते? कौन लिखता है इतना?’ वह माँ की चिंता पर हँसता और उससे बताता कि उसका दिमाग पूरी तरह खराब नहीं हुआ।


एक नौजवान लड़की गाल्या उसकी मदद करने आने लगी। वह उसे बोल कर लिखाता। अब तो किताब दूने र‍़फ्तार से बढ़ने लगी। जब पावेल सोचता तो उसकी पुतलियाँ कांपने लगती, आँखों का रंग बदलने लगता और गाल्या के लिए विश्‍वास करना कठिन हो जाता कि वह देख नहीं सकता। शाम को उसने जो भी लिखा होता पढ़कर सुनाती और देखती कि पावेल की भौंहें तन रही हैं। वह पूछती, ‘गुस्सा क्यों हो रहे हो? अच्छा तो है?’ पावेल कहता, ‘नहीं गाल्या अच्छा नहीं है।’ वह फिर स्वयं उसे लिखना चाहता, धैर्य का अंत होने लगता और वह हार कर छोड़ देने की बात सोचता। ज़िन्दगी पर रोशनी छीन लेने के लिए नाराज़ हो कर पेंसिल तोड़ डालता और होठ तब तक काटता जब तक खून नहीं बहने लगता।


तो अंतिम अध्याय समाप्त हुआ। गई दिनों तक गाल्या पावेल को उसका उपन्यास सुनाती रही। कल पाण्डुलिपि को लेनिनग्राद जाना था। उपन्यास की किस्मत पावेल की भी किस्मत बन गई थी। उपन्यास को अगर पूरी तरह नकारा गया तो फिर उसके जीवन की भी शाम अनिवार्य थी। अगर किसी सुधार का सुझाव आया तो वह फिर तत्काल काम में जुट जाएगा।


पावेल की माँ भारी पैकेट ले कर ऑफिस गई। और दुखदायी इन्तज़ार शुरू हुआ। पावेल का जीवन सुबह और शाम की डाक पर अटका था। पर लेनिनग्राद की चिट्ठी का पता ही नहीं था। 


चुप्पी डराने लगी। पावेल ने अपने मन में स्वीकार लिया कि पूरी तरह नकारे जाने पर जीवन का अंत ही हो जाएगा। ऐसे क्षणों में वह बार-बार अपने से पूछता क्या उसने बुराई की जंजीरें तोड़ने के लिए, संघर्ष में लौटने के लिए, जीवन को उपयोगी बनाने के लिए जो भी संभव था किया? उसे महसूस होता कि उसने किया तो। बहुत दिनों के बाद जब सस्पेंस असहनीय हो गया था उसकी माँ दौड़ती आई और सुनाया, ‘लेनिनग्राद से तार, उपन्यास पूरी तरह स्वीकृत, प्रकाशन शुरू, सफलता पर बधाई।’


पावेल का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसका सपना पूरा हो गया था। ज़जीर टूट गई थी और एक बार फिर एक नए हथियार के साथ वह संघर्ष और जीवन की ओर लौट रहा था।



टिप्पणियाँ

  1. संघर्ष गाथा। ज़िंदा और अपराजेय।लगा जैसे हम तूफान के साथ चल रहे हों।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर. इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद अमृत राय ने किया है। अग्निदीक्षा शीर्ष से. अंग्रेजी और हिंदी अनुवाद मेरे पास है।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं