मंगलेश डबराल का आलेख बचाने और बदलने के बीच राग संगीत

मंगलेश डबराल



भारतीय गायन परम्परा में रागो और धुनो का अपना एक पारम्परिक स्थान एवम महत्व रहा है. गायक इस परम्परा का प्रतिबद्धता से पालन करते रहे हैं. लेकिन समय के साथ सब कुछ बदलता है. राग और धुन में भी कुछ साहसी लोगो ने प्रयोग किये और उसे एक नया रुप प्रदान करने की सार्थक कोशिश की. जाने माने कवि मंगलेश डबराल संगीत के भी बेहतर ग्याता रहे हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत है मंगलेश जी का आलेख 'बचाने और बदलने के बीच राग संगीत'. यह आलेख आजकल के हालिया अंक में प्रकशित हुआ है.

        

बचाने और बदलने के बीच राग संगीत
 


मंगलेश डबराल 


कहते हैं कि संगीत और नृत्य में बदलाव बहुत कम होता है या बहुत देर बाद होता है जब दूसरी ज़्यादातर चीज़ें बदल जाती हैं. ध्रुपद गायन की हज़ारों वर्ष पुरानी परंपरा या चौदहवीं सदी में अमीर खुसरो से शुरू हुए ख़याल गायन में बहुत कम परिवर्तन हुए हैं. लोक गायन में भी पुरानी धुनें उसी तरह जीवित हैं और फिल्म संगीत में वह सुरीला, अक्सर शास्त्रीय रागों या लोक धुनों पर आधारित दौर चार दशक तक चलता रहा जिसे ‘सुनहरा दौर कहा जाता है और जिसका सम्मोहन आज भी काफी कुछ बरकरार है हालांकि फिल्म संगीत से पश्चिम के प्रभाव के नतीजे में ‘मेलोडी की लगभग विदाई हो चुकी है और उसमें पॉप, रॉक आदि का प्रवेश हो गया है. जीवन के दूसरे क्षेत्रों में ‘परम्परा’ अब भले ही अप्रासंगिक मान ली गयी हो, शास्त्रीय संगीत उससे अब भी बंधा हुआ है. उत्तर भारतीय या हिन्दुस्तानी संगीत में अलग-अलग घरानों के प्रचलन से संगीत की कई शैलियाँ और शाखाएं उभर कर आयीं जिनसे गायन-वादन में काफी  विविधता पैदा हुई, लेकिन कर्नाटक संगीत में परंपरा की जकडबंदी इस हद तक बनी रही है कि उसमें किसी तरह की छेड़छाड़ या कुछ भी प्रयोगशील करना हिमाकत माना जाता है. इसका एक उदाहरण कर्नाटक संगीत की अद्वितीय प्रतिभा टी एम कृष्णा हैं जिन्होंने इस संगीत पर ब्राहमणवादी वर्चस्व पर कई सवाल उठाये और अपने संगीत में क्राइस्ट और खुदा की इबादत को भी शामिल करके कर्नाटक संगीत के प्रतिष्ठान को इस हद तक नाराज़ कर दिया कि हिन्दुत्ववादी जगह-जगह उनका बहिष्कार करने लगे.


  लेकिन ऐसा नहीं है कि बदलती हुई हवाओं ने उत्तर भारतीय राग संगीत के सात सुरों में कोई उद्वेलन या विचलन न पैदा किया हो. कई वर्ष पहले जब पंडित रविशंकर ने विभिन्न देशों की यात्राओं के दौरान जॉर्ज हैरिसन जैसे बीटल गायकों, फिलिप ग्लास और येहुदी मेनुहिन जैसे जाने-माने संगीतकारों के साथ सितार के प्रयोग शुरू किये थे और सरोद वादक उस्ताद अली अकबर खान को भी इसके लिए प्रेरित किया था तो संगीत-प्रेमियों को यह कोशिश बहुत अटपटी लगी, उसे कला की शुद्धता पर आघात माना गया. उन्ही दिनों रविशंकर ने इस कथन पर भी विवाद हुआ कि ‘लम्बे रागों को दस या पांच मिनट में भी प्रस्तुत किया जा सकता है.’ रविशंकर और अली अकबर का ज़्यादातर समय विदेशों में ही बीता जहां उन्होंने उनके शिष्यों की संख्या बढ़ती रही. रविशंकर की पहली पत्नी और उस्ताद अलाउद्दीन खान की शिष्य-पुत्री अन्नपूर्णा देवी (जिनका हाल ही में निधन हुआ है) और रविशंकर के अलगाव की एक वजह यह भी रही कि रविशंकर विदेश जा कर नए प्रयोग करना चाहते थे जबकि सुरबहार की उस्ताद अन्नपूर्णा अपने गुरु-पिता बाबा अलाउद्दीन की दी हुई कला की विशिष्टता और शुद्धता में कोई फेर-बदल करने या उसे दूसरे संगीतों से जोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं. लेकिन यह भी सच है कि रविशंकर और अली अकबर जैसे उस्तादों के ‘अटपटे, वर्णसंकर और समझौतावादी फ्यूज़न’ कहे जाने वाले प्रयोगों के कारण हमारा पारंपरिक संगीत विदेशों में फैला और आज बहुत से संगीतकार, गायक और वादक विभिन्न देशों में जा कर वर्कशॉप आदि के माध्यम से संगीत का प्रशिक्षण दे रहे हैं. तबला वादक उस्ताद जाकिर हुसैन, डागर खानदान के जाने-माने ध्रुपद गायक वसीफुद्दीन डागर, गुंदेचा बंधू और उदय भवालकर, पंडित राजन-साजन मिश्र आदि नाम इस सिलसिले में उल्लेखनीय हैं.


   भूमंडलीकरण और बाज़ार के इस समय में, जिसे कुल मिला कर अमेरिकीकरण कहा जाता है, संगीत की पंहुच और प्रस्तुति में बहुत से बदलाव आये हैं. हमारे यहाँ गिटार, ड्रम, सिंथेसाइज़र और दूसरे विदेशी वाद्यों के ऑर्केस्ट्रा का प्रचलन बेहद बढ गया है, युवा संगीतकार बैंड का गठन करके पॉप, रॉक, हार्ड रॉक, शीट म्यूजिक आदि विधाओं में प्रयोग कर रहे हैं. कुछ वर्ष पहले रेमो फर्नान्दिस जैसे पॉप संगीतकारों के इक्का-दुक्का बैंड थे, लेकिन अब बड़े शहरों में उनकी बाढ़ सी आ गयी है और वे स्वतन्त्र प्रस्तुतियों से ले कर होटलों-रेस्तराओं, विभिन्न उत्सवों और विवाह समारोहों तक में संगीत पेश कर रहे हैं. इस बैंड संस्कृति को देखकर एक शास्त्रीय संगीतकार ने अफसोस और आशंका के साथ कहा था कि ‘वह दिन दूर नहीं जब भारतीय संगीत के नाम पर बैंड संगीत ही जाना जायेगा और शास्त्रीय संगीत कहीं पीछे छूट जायेगा.’ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में कोक स्टूडियो जैसे नए मंच भी खुले हैं जहां रिकॉर्डिंग की आधुनिक सुविधाओं के बीच शास्त्रीय और आधुनिक गायक-वादक अपनी रचनाएँ पेश करते हैं. पाकिस्तान के दो बड़े गायकों आबिदा परवीन और राहत फ़तह अली ने कोक स्टूडियो में काफी गाया है.


  लेकिन ये परिवर्तन संगीत की प्रस्तुतियों और प्रचार-प्रसार से, उसकी बाहरी दुनिया से जुड़े हैं. संगीत के भीतर जो प्रयोग और परिवर्तन हुए हैं वे भी कम रोमांचक नहीं हैं. मसलन, बीसवी सदी के उत्तरार्ध में संगीत में गुरु-शिष्य परंपरा टूटनी शुरू हुई और इसी के साथ संगीत के घरानों की रूढ़ियाँ और वर्जनाएं भी ढीली पड़ने लगीं. एक ज़माना था जब एक घराने के शिष्य को अपनी इच्छा या परिस्थिति के अनुसार अपना गुरु बदलने की अनुमति नहीं थी और इसके लिए गुरू की सहमति ज़रूरी थी. ग्वालियर, श्याम चौरासी, भेंडी बाज़ार, जयपुर, आगरा, किराना, रामपुर-सहसवान आदि घरानों के उस्ताद और पंडित अपनी कला की बारीकियां और हुनर सिर्फ अपने वारिसों या बहुत करीबी शागिर्दों को ही सिखाते थे और अपने घराने को सबसे ऊपर मानते थे. ऐसे कई प्रसंग हैं जब एक घराने के उस्ताद एक दूसरे घराने के शिष्य को इस शर्त पर अपने संगीत की शिक्षा देने पर राजी हुए जब वह पिछले घराने की पूरी शिक्षा को भूलकर, ‘अनसीखा करके आये. समय के साथ दूसरे घरानों से परहेज़ के दुराग्रह का ख़त्म होना संगीत के भीतर एक बड़ा बदलाव था.


  इस बदलाव को बड़े संगीतकारों का समर्थन भी मिला. सन २००२ में कोलकाता के पास बेल्लूर मठ में रामकृष्ण मिशन की ओर से किराना घराने पर एक परिसंवाद का आयोजन हुआ था जिसमें इस घराने के सबसे प्रसिद्ध गायक भीमसेन जोशी ने कहा था, ‘मेरे गले पर कई लोगों का असर है. आप इसे तभी जानेंगे जब मैं बताऊंगा. हमारे समय में जो दूसरे लोग हैं, उनका कोई न कोई असर न चाहते हुए भी हो जाता है--कि ज़रा देखें, दूसरे घराने में इस सुर को कैसे लगाते हैं. मेरे गले पर केसर बाई केरकर और अमीर खान का बहुत असर है.’ एक और बातचीत में भीमसेन जोशी ने कहा, ‘मैं संगीत का सबसे बड़ा चोर हूँ, लेकिन आप बता नहीं सकते कि मैंने कहाँ से क्या लिया है.’ भीमेन जोशी किराना से प्रमुख आधुनिक संगीतकार थे, लेकिन उनके संगीत को शुद्ध किराना कहना कठिन है.


   इस आतंरिक परिवर्तन के अग्रणी उस्ताद अमीर खान थे जिन्होंने भेंडीबाज़ार, किराना और देवास घरानों की शैली से गुज़रते हुए अपना एक अनोखा ख़याल गायन विकसित किया, जिसे बाद में इंदौर घराना का नाम दिया गया. उन्होंने ध्रुपद के खंड मेरु शिल्प को फिर से आविष्कृत किया और अमीर खुसरो, सिराज और सादी जैसे महान सूफी कवियों की शायरी को अपने तरानों में शामिल किया. उनके संगीत में कविता के शब्दों को जैसे नया जीवन मिला. अमीर खान ने घिसी-पिटी, श्रृंगारिक बंदिशों की जगह सौन्दर्यपरक और दार्शनिक बंदिशें अपनायीं और बड़े-छोटे ख़याल और तरानों में सरगम की तानों को भी प्रमुखता से जगह दी. घरानों की घेरेबंदी के समर्थकों के बीच उनके संगीत पर विवाद होते रहे और उन्हें कई घरानों में रखने की कोशिशें हुईं, लेकिन लीक से हट कर चलने वाले उनके गायन का व्यापक असर अब भी बना हुआ है.   


  कुमार गन्धर्व ने भी कई परिवर्तन संभव किये. उन्हें  ग्वालियर घराने की तालीम मिली थी, लेकिन एक फेफड़े के ऑपरेशन के कारण उन्होंने जो शैली विकसित की, वह भी किसी घराने में नहीं अंट पायी. उन्होंने कबीर, सूर, मीरा, गोरखनाथ और तुलसी के पदों-चौपाइयों, मालवा की लोक-धुनों को भी शास्त्रीय रूप में गाया और कई नयी रचनाएं कीं, जिन्हें ‘धुन-उमग राग कहा गया. शास्त्रीय गायन आम तौर पर शब्द-प्रधान नहीं होता और बंदिश के बोलों के अर्थ को महत्व नहीं दिया जाता, लेकिन कुमार गन्धर्व ने क्लासिकी काव्य के शब्दों को उभार कर उनके अर्थों का विस्तार किया. अमीर खान की ही तरह उनके गायन में भी कविता को एक सम्मानित जगह हासिल हुई. एक बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘संगीत में विचार—यहीं मैं दूसरे गायकों से अलग होता हूँ.’ उनके सांगीतिक नयेपन की एक बानगी उस वक़्त के  प्रसिद्ध पत्रकार और उनके घनिष्ठ मित्र राहुल बारपुते के एक संस्मरण में मिलती है जिसमें वे कहते हैं: ‘एक संगीत सभा में कुमार जी का भूप चल रहा था. चल क्या रहा था जैसे कोई राजा चल रहा हो. तभी अचानक मध्यम का एक कण उसे छू गया. कुमार जी बोले, मध्यम आ रहा था तो मैंने कहा, आने दो इसे भी, अपना ही भाई है.’ उल्लेखनीय है कि भूप या भोपाली में पांच स्वरों स रे ग प ध का इस्तेमाल होता है और उसमें मध्यम वर्जित है.
  

अब ऐसे संगीतकार ज्यादा नहीं हैं जो घरानों की शुद्धता के अनुसार गाते हों. संगीत संस्थानों में दी जाने वाली शिक्षा ने कई घरानों को आपस में घुला-मिला दिया है, शिक्षण में भी पारम्परिक और आधुनिक तरीकों का मेल हो चला है और अब घरानों की अद्वीतीयता के दावे करना कठिन है. मसलन, रामपुर-सहसवान घराने के उस्ताद राशिद खान के गायन में इंदौर घराने के अमीर खान की छाया आसानी से दिख जाती है. पहले की तरह उस्तादों-गुरुओं के घरों में रहकर या जाकर उनकी सेवा करते हुए राग सीखने का चलन भी लगभग समाप्त है. आधुनिक दौर की सबसे प्रतिष्ठित गायिका किशोरी अमोनकर ने अपनी मा मोगूबाई कुर्डीकर से शिक्षा ग्रहण की थी जो जयपुर-अतरौली घराने की थीं, लेकिन किशोरी की शैली पर बहुत से घरानों का प्रभाव पड़ा. इसी तरह, बेहद परम्परावादी जयपुर घराने के उतने ही परम्परावादी संगीतकार  मल्लिकार्जुन मंसूर से एक बार किसी ने पूछा कि आप फलां  राग में जिस तरह स्वर लगाते हैं, आपके उस्ताद वैसे नहीं लगाते थे. मंसूर ने जवाब दिया, ‘हम क्या उनके मुंशी हैं?


   किराना घराने की एक प्रमुख गायिका और विदुषी डॉ प्रभा अत्रे भी शास्त्रीय संगीत में परिवर्तन की समर्थक रही हैं. उनके विचार से, ‘मुझे जो कुछ भी अच्छा लगता है, उसे ग्रहण करती हूँ और अपने संगीत में शामिल कर लेती हूँ. यह अपने आप होता है, जिसका मुझे एहसास भी नहीं होता. मुझे  सुनते हुए आपको यह नहीं लगेगा कि मैं आगरा या जयपुर की गायकी प्रस्तुत कर रही हैं—मैं पूरी तरह अपना किराना घराना ही गाती हूँ, लेकिन दूसरे संगीतों से संपर्क ने मेरे संगीत को बदला है. इतने सारे संपर्कों के बीच आज सिर्फ अपने घराने को गाना संभव नहीं रह गया है. मुझे कर्नाटक संगीत भी बहुत पसंद है और मुझ पर उसने भी काफी असर डाला है. संगीत को जड़ीभूत नहीं बनना चाहिए. अगर बदलाव नहीं होगा तो वह मर जाएगा. ऐसा नहीं है कि क्लासिकल होने के कारण वह परिवर्तन से परे हो. श्रोता बदल गए हैं, उनकी उम्मीदें बदल गयी हैं तो प्रस्तुतियां भी बदलनी चाहिए.’


   राग-संगीत में समयबद्धता अनिवार्य मानी गयी है. यानी सुबह, दोपहर, शाम और रात के रागों का विभाजन पुराने समय से चला आ रहा है. यहाँ तक कि अलग-अलग प्रहरों के राग भी अलग-अलग हैं. भैरवी एकदम भोर का राग है जिसे दिन या रात में नहीं गाया-बजाया जाता और मालकौंस या यमन को सुबह प्रस्तुत करना या सुनना भी वर्जित है. मारवा जैसे कुछ राग संधि-प्रकाश के समय के लिए बने हैं और आसावरी या तोडी के विविध प्रकार सुबह के लिए. लेकिन प्रभा अत्रे इस शास्त्रीय विभाजन को भी अप्रासंगिक मानती हैं. उनके अनुसार, ‘यह कहना कठिन है कि समय या रस का सिद्धांत सब पर लागू होता है. सभी लोग यह नहीं मानते होंगे कि सुबह का राग सिर्फ सुबह गाने-बजाने के लिए है. मेरे ख़याल से संगीत में दो ही कोटियाँ हैं—वह या तो अच्छा होता है या खराब.’ ज़ाहिर है, परम्परावादियों के लिए प्रभा अत्रे की इन मान्यताओं को गले से उतारना बहुत मुश्किल होगा.


   यह सवाल इन दिनों अक्सर पूछा जाता है कि राग संगीत का भविष्य क्या है. क्या वह पहले की तरह जीवंत बना रहेगा और फलता-फूलता रहेगा या बैंडों, गिटारों और ड्रमों का तेज और शोर-भरा सगीत उसके सुरों को दबा देगा? वैश्वीकरण की संस्कृति युवा पीढ़ी को तेज़ी से अपने रंग में रंग रही है, खाने से लेकर सुनने तक की उसकी रुचियों को अपने अनुरूप ढाल रही है. शायद इसीलिये कठोर व्याकरण में बंधे राग संगीत को नए ज़माने के संगीत से कुछ तालमेल और समझौते करने और अभिव्यक्ति की नयी राहें खोजनी पडी हैं. संगीत को बचाने के कुछ दिलचस्प प्रसंग फिल्मकार यूसुफ़ सईद के वृत्तचित्र ‘ख़याल दर्पण’ में चित्रित किए गए हैं, जिसे सईद ने पाकिस्तान में फिल्माया था. भारत के विभाजन के बाद पकिस्तान के फ़ौजी-गैर-फ़ौजी शासकों ने राग संगीत को कोई तरजीह नहीं दी, उसके विकास के लिए कुछ नहीं किया. विभाजन से पहले लाहौर शास्त्रीय संगीत का बड़ा केंद्र था और खयाल-ठुमरी आदि में पंजाब अंग की अलग हैसियत थी. श्याम चौरासी जैसे घरानों का जन्म वहीं हुआ था इसलिए उनके उत्तराधिकारियों के सामने वजूद का संकट पैदा हो गया. इसका नतीजा यह हुआ कि बहुत से गायकों ने—मेहदी हसन, गुलाम अली आदि—ग़ज़लों या कव्वालियों का रुख किया हालांकि उनकी बुनियाद शास्त्रीय बनी रही. आबिदा परवीन का सूफी गायन इसका एक और उदाहरण है. घरानेदारी पर टिके रहने वालों ने काफी अभावों के बीच भी अपने संगीत को जिंदा रखने की कोशिश की. फिल्म के एक दृश्य में एक संगीत समीक्षक कहते हैं, ‘पाकिस्तान में संगीतकारों को भारतीय शास्त्रीय संगीत के हिन्दू नाम वाले रागों को पेश करने में दिक्कतें आयीं तो उन्होंने उनके नाम कुछ बदलकर ऐसे नाम रख लिए जो इस्लाम के हिसाब से दुरुस्त हों. मसलन, शैव कल्याण को शिया कल्याण के नाम से गाया-बजाया जाने लगा या राग सरस्वती को सुरसती बना दिया गया.’ फिल्म में दो गायक राग अडाना और शहाना की पेशबंदी के बीच कहते हैं, ‘असल चीज़ें तो हमारे घराने के पास हैं.’


   यानी कभी-कभी राग संगीत इस तरीके से भी बचा रहता है!
    







टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (18-03-2019) को "उभरे पूँजीदार" (चर्चा अंक-3278) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर पोस्ट।
    होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
    नयी पोस्ट: मंदिर वहीं बनाएंगे।
    iwillrocknow.com

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  3. आप सभी को होली की शुभकामनाएँ !
    समूचा वर्ष हर्ष-उल्लास से बीते और आप उतरोत्तर प्रगति प्राप्त करेंगे। इसी आशा के साथ
    -मनोहर चमोली मनु

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