सरिता कुमारी की कहानी 'इंद्रधनुष'

सरिता कुमारी

नाम -  सरिता कुमारी
जन्मतिथि - अक्तूबर 1975
शिक्षा- एम. ए. (संस्कृत), इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

कृतियाँ -
कहानी संग्रह - कहानी संग्रह 'उजालों के रंग' (वर्ष 2018), में अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित तथा  'महेन्द्र रत्न साहित्य सम्मान-2019' से पुरस्कृत।
कविता संग्रह- 'अनुभूति' (वर्ष 2014), 'एक टुकड़ा धूप का' (वर्ष 2015) में प्रकाशित


कई कहानियाँ, 'साहित्य अमृत', कथाक्रम', 'परिकथा', 'वागर्थ', 'कथादेश',' इंद्रप्रस्थ भारती',' पाखी',' नया ज्ञानोदय', 'निकट', 'आधुनिक साहित्य',' हिन्दी चेतना',' वार्षिक पुनर्नवा',' वार्षिक लोकमत विशेषांक', समाचारपत्र 'दैनिक जागरण',' जनसत्ता', 'दैनिक भास्कर', प्रतिलिपि. कॉम की ई पत्रिका 'प्रतिलिपि लेखनी' आदि में प्रकाशित।



किसी भी समय का रचनाकार जीवन के पक्ष में खड़ा होता है। धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, भाषा आदि मानवजनित सीमाओं की जगह उसके लिए जीवन महत्वपूर्ण होता है। नील जो अपनी पुरुष देह में एक महिला को महसूस करता है, चारो तरफ अपने लिए प्रतिकूल स्थितियाँ पाता है। वह पाता है कि उसे अपनी तरह से अपना जीवन जी सकने की आज़ादी नहीं है। एक पुरूष के तौर पर घर, परिवार, समाज ने उससे कई आकांक्षाएं पाल रखी हैं। दूसरी तरफ नील इन आकांक्षाओं में घुटन महसूस करता है और अंततः नीला बन कर अपने जीवन का नया इंद्रधनुषी सफर शुरू करता है। हालांकि यह सफर काफी दिक्कतों से भरा होता है। सरिता कुमारी ने अपनी कहानी  इन्द्रधनुष के जरिए ऐसे मुद्दे को विषय बनाया है जो साहित्य में भी अभी तक लगभग उपेक्षित रहा है। आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। इस अवसर पर पहली बार पर हम अपने पाठकों के लिए विशेष तौर पर सरिता कुमारी की कहानी 'इंद्रधनुष' प्रस्तुत कर रहे हैं। हालांकि यह कहानी कथादेश में प्रकाशित हो चुकी है लेकिन प्रकाशन के बाद लेखिका ने इस कहानी को कुछ जगहों पर संशोधित भी किया है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सरिता कुमारी की कहानी 'इंद्रधनुष'

इंद्रधनुष 


सरिता कुमारी 

  

वह छत पर खड़ी थी। बंद कमरे की घुटन से, सीढ़ियाँ चढ़ते ही, वह एकदम ही खुले आसमान के ताजगी भरे आलिंगन में थी। सामने क्षितिज के आर-पार, रंगों का अद्भुत शामियाना तना था। कितने सारे रंग एक साथ, कहीं एक-दूसरे में घुले-मिले तो कहीं बिखरे-बिखरे, दूर-दूर, अपने अलहदा वजूद के घमण्ड में चूर। वह मुस्करा दी, इस अद्भुत रंगों से सराबोर दृश्य को देख कर, कौन यकीन करेगा कि बस चार घण्टे पहले ही यही आसमान, यही क्षितिज चटकीले रंगों से शून्य, केवल धूसर-स्लेटी रंग के बादलों में आकण्ठ डूबा, उदास था। पर झमाझम, चार घण्टे की लगातार, जोरदार बारिश के बाद, अब एक झटके में छोटे बालक सी सारी उदासी झाड़ कर, अनन्त शोख रंगों में डूबा, खिलखिला रहा था। इतना कि आँखों से दो-चार बूँद आँसू, अनजाने ही टपक पड़ रहे थे।

 

चार घण्टे में मौसम कैसे अचानक ही बदल गया था? बरसात के दिनों में मौसम की आँखमिचौली उसे सदा ही हैरान करती रही थी । आज कुछ घण्टे पहले जब वह बेचैनी से छत पर चहलकदमी कर रही थी तो आसमान में अचानक बादलों की आवक से अचम्भित रह गई थी। गुस्साए से सूरज को अचानक ही चारों ओर से बादलों ने घेर लिया और पल में ऐसे लील लिया जैसे उसका अस्तित्व कभी था ही नहीं। आसमान में सदा से ही ये बादल ही थे बस। पर अब आसमान साफ था, शीशे सा स्वच्छ। शाम ढलने को थी और डूबते सूरज की अनन्त रश्मियाँ जादुई चित्रकारी करने में मशगूल थीं। इस वक्त यही लग रहा था कि बस यही सच था, सब कुछ धुला-धुला, कलात्मक, सुन्दर और इसके पहले न बरसात थी, न उसके पहले असमय आसमान में सूरज का अवसान और न उसके पहले तेज उमस भरी गर्मी।


नीला, मादक मौसम की अठखेलियों में खुल कर साँस लेती, कुछ पलों को सब कुछ भूल चुकी थी। जीवन के कड़वे-मीठे घूँट। कुछ पलों के लिए अपने वजूद को भूल, अपने आस-पास के माहौल में गुम हो जाना, कितना सुकून देता है, कोई इस पल नीला से पूछे? वह चाहती थी, समय बस यहीं रुका रहे और रंगों के अद्भुत खेल में, वह भी रंग का एक कतरा बन, आसमान के किसी अद्भुत दृश्य में गुम हो जाए, हमेशा, हमेशा के लिए। न किसी के सवाल हों, न कोई जवाब। न उससे, उसके ही वजूद पर मँडराते अजनबी शंकाओं का समाधान पूछा जाए। कहाँ समझ पाई वह खुद भी अब तक कुछ भी? हाँ, बस पिछले दो-तीन बरस में, न जाने कहाँ से साहस जुटा पाने में सफल रही थी। पत्थर पर लकीर सा फैसला लिया और उस पर किसी मजबूत पहाड़ सी अटल हो गई थी। नील से नीला बनने का सफर आसान कहाँ रहा था अब तक पर रात-दिन की जानलेवा घुटन से तो बेहतर ही था। यह तो सिर्फ नीला ही जानती थी।



तभी वही मिश्री की डली सी क्षीण पुकार, कानों में मिठास भर गई। मम्मी की मीठी पुकार... आजकल मम्मा कुछ ज्यादा ही मिठास भर कर उसे पुकारती थीं, शायद अन्दर-बाहर हर मोर्चे पर लड़ते घायल उसके मन पर हर पल मलहम रखने का उपाय ढ़ूढ़ती रहती थीं।


'नील कहाँ हो बेटा, मीरा मौसी आईं है, कब से बुला रही हैं तुम्हें! दो मिनट मिल लो उनसे!


छत की चौकोर जाली जो घर के बड़े से आँगन पर पड़ी है से, छन-छन कर आवाज़ आई तो नीला की तंद्रा भंग हुई। वह मौसी के सामने पड़ने में झिझक रही थी। फोन पर बात करते रहना दूसरी बात थी और आसान भी। उनकी भी चुभती, उन्हीं नजरों का सामना, वह कहाँ कर पाएगी? पर न माँ मानेंगी न मौसी? दो बरस बाद आई थीं मौसी, मिलना तो पड़ेगा ही, रहेंगी भी दो-चार दिन घर पर अभी। माँ कह रही थीं, छुट्टी लेकर आई थीं, खास उसी से मिलने के लिए, फोन पर बातें कर के, उसकी उतनी मदद नहीं कर पा रहीं, जितना वह करना चाहती थीं। नहीं तो एक सफल मनोचिकित्सक मौसी के पास इतना समय कहाँ? नीला मिलना चाहती भी थी और नहीं भी। जो भी बहुत समय बाद मिलता था, बस अवाक् घूरता रह जाता था उसे। उसका दम घुटता था । कब से इस घुटन के साथ जी रही थी वह। अब और कब तक जीती रहेगी


'उफ्फ... क्या मुसीबत है!' नीला ने गहरी सांस छोड़ी।


वह सहज रहने का भरसक प्रयास करती थी। अगले सप्ताह ही उसका अंतिम ऑपरेशन होना था। पिछले तीन साल से हार्मोन थेरेपी और कई ऑपरेशन होने के बाद वह अपने ही तन के उस रूप में आ पाई थी, जिसमें वह खुद को सहज पाती थी। जब से उसने होश सँभाला था, उसकी खुद से लगातार जंग चलती रही थी। पहले तो वह खुद ही नहीं समझती थी कि क्या, आखिर क्या था वह जो उसका जीवन कठिन बनाए हुआ था?

 
वह जन्म से थी तो लड़का पर आम लड़कों वाली कोई बात उसे पसंद नहीं थी। उससे पाँच साल बड़े भाई रोहित की तरह न उसे कारों का शौक था, न मार-कुटाई वाले खेल भाते थे। उसे गुड़ियों से खेलना अच्छा लगता और खूब सजना सँवरना भी। बचपन में, माँ के मेकअप के सामान पर उसकी नजर जमी रहती और मौका मिलते ही वह हर सामान खुद पर आजमा कर कार्टून बन जाती। 


'तू पागल है क्या?'
भाई रोहित हँस-हँस कर दोहरा हो जाता।
'क्यों पागल क्यों...?' वह मतलब नन्हा नील हैरान हो कर पूछता।
'लिपस्टिक, बिन्दी, पाउडर और नेलपालिश क्यों लगाया है?' वह चिढ़ कर पूछता।
'बहुत अच्छा लगता है, देखो न भइय्या कितना सुन्दर लग रहा हूँ!' वह आइने के सामने इठलाता हुआ बोलता।
'नहीं रे नील... सुन्दर नहीं फनी लग रहा है... ये सब मत किया कर!'
'पर मम्मी तो करती हैं, उन्हें कोई कुछ नहीं कहता...!' 'मम्मी लड़की है न, लड़कियों को मेकअप करना अच्छा लगता है।'


'आपको मेकअप करना अच्छा नहीं लगता क्या भइय्या?' उसने बड़ी आशा से पूछा था।
'नहीं, बिल्कुल भी नहीं...लड़के मेकअप नहीं करते! तू भी मत किया कर, बहुत गंदा लगता है...समझे !' रोहित भइय्या ने बुरा सा मुँह बना कर कहा था।
'भइय्या मैं लड़की बनना चाहता हूँ!' उसने भोलेपन से कहा था। 


'मेकअप करने के लिए तू लड़की बनना चाहता है...? बेकार की बातें मत किया कर और लड़कियों की तरह हर चीज पिंक कलर की लेना बंद कर अब! तेरी इन बातों से सब मेरा भी मजाक उड़ाते हैं।' रोहित भइय्या ने परेशान स्वर में कहा था। 


'पिंक कलर मुझे अच्छा लगता है और पिंक क्या बस लड़कियों का कलर है? कोई भी कलर किसी को भी पसंद हो सकता है।' उसने फिर पूरी दृढ़ता से भोला जवाब दिया था। 


'छोड़ ये सब, चल बाहर लॉन में क्रिकेट खेलते हैं... और पहले ये सब फालतू का ताम-झाम साफ कर नहीं तो मम्मी बहुत डाटेंगी, समझे। 


'अच्छा..., करता हूँ!' तब सोलह साल पहले, छ: साल के नील ने दुखी होकर कहा था।
बड़े भाई की किसी भी समझाइश का उस पर कोई असर नहीं पड़ता था, उल्टे वह बहुत परेशान हो जाता था कि उसे वही सब क्यों अच्छा लगता था जो सब कहते थे कि लड़कियों का काम था और वह तो लड़का था। स्कूल में वह लड़कों के बजाय लड़कियों के बीच खुद को ज्यादा सहज पाता था। लड़के उस पर हँसते, उसका खूब मजाक उड़ाते, अक्सर वह घबरा कर रोने लगता। लड़कियां उसकी दोस्त थीं और वही बीच - बचाव करतीं। उसकी मदद करतीं। 


उसके अन्दर हर समय घमासान चलता रहता था। गड़बड़ कहाँ थी, उसे कुछ समझ में नहीं आता था। उसे लगता, वह लड़का क्यों पैदा हुआ, लड़की क्यों नहीं? जब वह लगभग बारह साल का था तब उसने अपनी माँ से अपने मन की हर वक्त की उथल -पुथल साझा की थी। पहले तो माँ हैरान हुई थीं कि वह क्या बेकार की बात कर रहा था और उसकी बात सिरे से खारिज करने की कोशिश की थी। उसका चेहरा माँ की झिड़की से फक् पड़ गया था। कितनी जद्दोजहद के बाद वह माँ से यह बात कहने का साहस जुटा पाया था और माँ थीं कि समझने के बजाय नाराज़ हो रही थीं। उसकी आँखों में आँसू डबडबा आए थे। उसकी निर्दोष आँखों में झिलमिलाते मोतियों ने माँ के मन के जाने किस कोने में कौंध की कि वह कुछ सोचते हुए चिन्तित स्वर में धीरे से बोली थीं


'हर बात पर ऐसे भावुक मत हुआ करो नील। तुम कभी-कभी कुछ भी बोलने लग जाते हो। अच्छा, ऐसी रोनी सूरत मत बनाओ अब। कल ही डाक्टर मेहरा के पास चलते हैं, हो सकता है वह कुछ मदद कर सकें।' माँ ने बेमन से कहा था।
 
उसने फीकी मुस्कराहट के साथ हामी में सिर हिला दिया था।

 
अगले दिन वह उसे उनके पारिवारिक डॉक्टर के पास लेकर गई थीं। डॉक्टर ने उसकी पूरी जाँच के बाद उसे पूरी तरह से स्वस्थ बताया था। उसे प्यार से दिलासा दिया था कि परेशान होने की कोई बात नहीं, सब ठीक था । फिर माँ की तरफ मुखातिब होकर बोले थे, 'माशाअल्लाह, क्या मजबूत फिजीक है इसकी? बेटा, खूब खेल-कूद में हिस्सा लो, बहुत अच्छा करोगे।' उसकी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने गर्व से कहा था।


माँ ने तो राहत की साँस ली थी पर नील और भी उद्विग्न हो गया था। सब ठीक था तो उसे हर वक्त परेशानी क्यों होती थी। वह जिस लड़ाई में हलकान हो रहा था, जिस भीषण आग में हर पल झुलस रहा था, उसका धुआँ तक किसी को नहीं दिख रहा था, कैसे? ये कैसे सम्भव था? मन की दुनिया और तन की दुनिया इतनी जुदा-जुदा कैसे हो सकती थी? जब मन से वह पूरी तरह लड़की था तो एक लड़के के शरीर में हर पल कैसे जी सकता था। कोई उसकी हालत, उसकी तकलीफ समझ क्यों नहीं रहा था? कैसे समझाए सबको कि यह हँसी-मजाक की बात नहीं थी, एक बेहद गम्भीर स्थिति थी। माँ से फिर वह साफ-साफ कुछ कहने का साहस नहीं जुटा सका।

 

समय के साथ स्थिति बद से बदतर होती गई। वह दिनोंदिन गहरे अवसाद से घिरता जा रहा था। वह अपने ही तन के भीतर हर पल अजनबी महसूस करता था। हर कोई उसके तन के अनुरूप व्यवहार और उम्मीद करते थे। उसके मन की, उसकी वास्तविक पहचान किसी को नहीं दिखती थी।

 
बारहवीं पास करने के बाद उसने अपनी रुचि के अनुसार फैशन डिजाइनिंग के कोर्स के लिए शहर के मशहूर कॉलेज में एडमिशन ले लिया था। प्रवेश परीक्षा में उसने टॉप किया था। पड़ोस में रहने वाले वर्मा अंकल ने उस शाम पिताजी से मजाक करते हुए कहा था, 'क्या भाई साहब, लड़के फैशन डिजाइनिंग में टॉप करते अच्छे लगते हैं क्या? इंजीनियरिंग, एन. डी. ए. या मेडिकल के एण्ट्रेस में टॉप करता तो समझ में भी आता। लड़का है, लड़कों वाले काम करने चाहिए। क्या लड़कियों की तरह फैशन-फूशन के काम करेगा।


पिताजी हँस कर बोले थे, 'अरे, मनीष मल्होत्रा जैसों को देखिए, इस क्षेत्र में कितना बड़ा नाम हैं!' पिताजी ने अपने मन की तपिश पर अपने ही शब्दों का ठण्डा जल बरसाते हुए कहा था। वर्मा जी की बात उनके मन में भी कहीं गहरे कचोटती तो थी पर आजकल के बच्चों का कुछ हिसाब-किताब उन्हें समझ में नहीं आता था। ज्यादा कुछ कहने से भी मन घबराता था, कहीं कुछ उल्टा-सीधा कर बैठे। छोटी-छोटी बातों पर तो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते थे।

 
'पर कर तो रहे लड़कियों वाला काम ही न... आप भी भाई साहब, बिगाड़ लिया है अपने बेटे को आपने, बचपन से इसीलिए इसकी आदतें नहीं सुधरीं। लड़कियों की तरह बाल बढ़ाए, पोनी टेल किए घूमता रहता है। क्या है ये सब? आप लोग इसे कुछ कहते भी नहीं।'


'चाय पिएँगे या कॉफी, भाई साहब?' कहते हुए पापा ने झट से बात बदल दी थी। वह जानते थे बहस से कोई फायदा नहीं था। पसंद तो उन्हें भी नहीं था। उन्होंने कई बार नील को इन बातों पर टोका तो था पर फिर उन्हें लगा कि आजकल का फैशन है ये सब... बच्चों को हर बात पर बार-बार क्या टोकना? नील वैसे तो एक सीधा, सरल, शर्मीला लड़का था पर इन बातों पर वह बार-बार टोकने पर सुना-अनसुना कर देता था। वैसे भी वह और उनकी पत्नी हमेशा से बच्चों पर बहुत टोका-टाकी के हक में नहीं थे। जो बच्चों को करने में खुशी मिलती थी और जो वह अपनी मर्जी से अच्छा करते थे, उस पर क्यों टोकन? रोहित इंजीनियर बनना चाहता था तो उन्होंने उसे खुशी-खुशी अपनी राह चुनने दी थी। तो अब नील को क्यों रोकना? वह फैशन डिजाइनर बनना चाहता था और इन सबमें बहुत अच्छा था भी तो खास पसंद होने पर भी वह उसे रोकना नहीं चाहते थे। वैसे भी नील बहुत अन्तर्मुखी था। उसके मन में हर वक्त क्या उथल - पुथल चलती रहती थी, उन्हें समझ में नहीं आता था। बहुत पूछने पर भी वह कुछ बताता नहीं था। अधिकांशत: वह अपनी ही दुनिया में मग्न रहता था। कलाकार था, कलाकार ऐसे ही होते हैं, विचित्र से, यह सोच कर, वह अपने मन की रस्साकशी को विराम दे देते थे।

 
उस दिन नील ने सब कुछ सुन लिया था और हताशा से भर गया था। ऐसा क्यों था कि जो भी उसे सहज और अच्छा लगता था, वह बाकी सब लोगों की नजर में विचित्र था? लोग अजीब थे या वह खुद? वह आज तक किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाया था रात में डिनर के समय उसने झिझकते हुए पापा से पूछा था कि क्या वह फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करके कुछ गलत कर रहा था


पापा कुछ पल चुप हो गये थे उनके चेहरे पर आते-जाते भाव, वह सांस रोक कर बड़ी बारीकी से पढ़ रहा था। पापा शायद समझ गये थे कि उनका हर शब्द या तो उसके कोमल मन पर मलहम का काम करेगा या जहरबुझे बाण का। वह भरसक अपने मनोभाव दबा कर, सँभल कर, मानो एक-एक शब्द चुन-चुन कर बोल रहे थे,


'बेटा वर्मा जी की बातें सुन कर अगर तुम ये सब सोच रहे हो तो कभी कुछ ढ़ंग का नहीं कर पाओगे। कुछ भी करोगे, कोई न कोई, कुछ न कुछ तो कहेगा ही, तो दूसरों की सुन-सुन कर, अपने मन की करना छोड़ दोगे क्या? जो अच्छा लगता है, जिसमें खुशी मिलती है, वह करो! तुम्हारी ज़िन्दगी है अपने हिसाब से जिओ। दूसरों के हिसाब से तो एक पल भी नहीं जी पाओगे। 


अब ये सब भूल कर, खाना खाओ।'


उसने राहत की साँस ली थी। वह जानता था उसकी बहुत सी बातें माँ-पापा को बिल्कुल पसंद नहीं थीं। कई बार वह उसके आचार-व्यवहार से शर्मिंदा महसूस करते थे और कई बार वह अपनी नाराजगी गाहे-बगाहे जता भी देते थे। उसका मन ऐसी स्थिति में बहुत दुःखता था पर वह भी करे तो क्या करे? उसने जब से होश सँभाला था, हर सुबह आँख खुलते ही इस तन और मन की लड़ाई से खुद को दो-चार पाया था। वह क्यों रहे इस शरीर में जो उसके वास्तविक रूप से अलग है? एक फाँस हमेशा उसके वजूद को टीसती रहती थी। लेकिन आज मन में चुभती ठण्डी, कठोर, इस्पाती फाँस कुछ क्षणों के लिए, पल में पापा के शब्दों की गर्माहट से मोम सी पिघल कर बह गई थी। 






नील बहुत मेहनती था। बचपन से ही उसे जीवन का यह मूल मंत्र समझ में गया था कि 'कड़ी मेहनत का कोई दूसरा विकल्प नहीं है', जीवन में कुछ हासिल करना है तो कठोर परिश्रम करना ही पड़ेगा। इस मूलमंत्र को उसने अपने स्वभाव के धागों में बड़ी बारीकी से बुन लिया था। कॉलेज में वह आश्चर्यजनक रूप से अच्छा कर रहा था। अध्यापक उसके डिजाइन देख कर हैरान रह जाते थे। उसके अध्यापकों की नजर में उसके व्यवहार का अटपटापन उसके काम की उत्कृष्टता में दब कर रह जाता था।

   

उसकी क्लास में मुख्यतः लड़किया ही थीं। वह उनके बीच बहुत लोकप्रिय, बिल्कुल सहज और बहुत खुश था। लड़कों के लिए वह चलता-फिरता मनोरंजन था। वह उसे छेड़ते, परेशान करते और वह उनसे बचने की भरसक कोशिश में लगा रहता। बचपन से यही सब तो झेल रहा था, इसमें कुछ नया क्या था? पर सहने की भी एक हद होती है और एक दिन वह हद पार हो गई। वह क्लास छूटने के बाद अपने क्लासमेटस् के साथ कॉलेज से बाहर जा रहा था। गेट के पास मनचले लड़कों का झुण्ड, लड़कियाँ देखते ही अश्लील फब्तियां कसने लगा था। उस दिन न जाने क्यों उसे बर्दाश्त नहीं हुआ था और वह विरोध का स्वर लिए डट कर खड़ा हो गया था। बस, उन बदमाश लड़कों को मौका मिल गया था।

 
उसका कॉलर खींचते हुए एक लड़के ने उसे झिझोड़ कर कहा, 'क्यों बे, क्यों कन्फ्यूज है साले? लड़कियों के बीच में घुसा रहेगा तो लड़की बन जाएगा, क्या बे? या कुछ और चक्कर है तेरा... बता? बता क्या चक्कर है? हमारी भी सेटिंग करा कुछ।


नील बरदाश्त नहीं कर सका और एक मजबूत मुक्का उसके चेहरे पर जड़ दिया। ये तो फूस में चिन्गारी देने की देर थी बस। उन गुण्डों ने उसे घेर कर खासी मरम्मत कर दी। बीच - बचाव, पुलिस... तब तक नील के तन से अधिक मन पर गहरी खरोंचे पड़ चुकी थी। उसका बचा - खुचा आत्मविश्वास चिन्दी-चिन्दी हो, वहीं कुचल कर मिट्टी हो गया।



गहरे अवसाद से घिरा वह कई दिन खुद से लड़ता रहा, अकेला, चुपचाप। कोई था भी तो नहीं जिससे इस लड़ाई में उसे कोई सहारा मिलता। उसकी हर समय दुखती रग कभी माँ समझ पाईं, पिताजी और ही बड़ा भाई। दुनिया से तो वह क्या ही उम्मीद करता ? किसी से कुछ कहना मतलब अपना ही तमाशा बना देना। अपने आप से निरन्तर चलती इस लड़ाई में वह बुरी तरह हारने लगा था। और एक मनहूस रात एक झोंक में उसने खुद को उस काली भयावह परछाईं को सौंप दिया जो बरसों से उसके आस-पास, चुपचाप, घुटी-घुटी डोलती रहती थी। उस रात वह इतनी मुखर हो गई कि नील के सारे तर्क धुँधला गये और उसी काली भयावह परछाईं ने पुचकार कर ब्लैकहोल सी अनजान दुनिया में उसे बलपूर्वक खींच लिया था। गनीमत थी कि उस रात उसके बाथरूम में रखी फिनाइल की शीशी बस एक चौथाई ही बची हुई थी। ये भी इत्तेफाक ही था कि बड़े भाई रोहित से पिछले दो दिनों से उसकी बात नहीं हो पाई थी और न जाने कैसे बार-बार, एक-दूसरे को की गई उनकी कॉल छूट जा रही थी। उस रात रोहित ने उसे रात साढ़े ग्यारह बजे के आस-पास फोन किया था कि अब तो बात हो ही जाएगी। पर जब उसका फोन लगातार अगले पंद्रह मिनट तक स्विच ऑफ आता रहा तो न जाने किस घबराहट में उसने माँ को फोन लगा कर जिद की थी कि उसकी नील से तुरन्त बात कराई जाए। माँ ने समझाना चाहा था कि सुबह बात कर लेना तो रोहित ने लगभग चीखते हुए कहा था, 'समझती क्यों नहीं आप? वह इस समय अपना फोन कभी स्विच ऑफ नहीं करता! हमारी अक्सर रात के इसी समय बात हो पाती है। दो दिन से कॉल मिस हो रही है, वह जानता है कि मैं इस समय फोन करूँगा ही उसे। वह फोन ऐसे-कैसे स्विच ऑफ कर सकता है?


रोहित की इस झल्लाहट से वह थोड़ा घबरा कर, छत पर उसके कमरे की ओर भागी थीं। कमरा खुला था, बाथरूम का दरवाजा भी। रात की निस्तब्धता में उनकी चीख शहर का सीना चीरती अनन्त में विलीन हो गई थी। 


अगले दिन सुबह नील की आँखें खुलीं तो वह अपने आस-पास डोलती स्याह परछाईं के जानलेवा चंगुल से मुक्त था। सामने माँ-पापा का तरल चेहरा, उसे निरीह नजरों से ताक रहा था। माँ की डबडबाई आँखों में सागर में हिचकोले खाती कश्ती सा सवाल झिलमिला रहा था, 'नील, क्यों बेटा? कम से कम एक बार तो हमारे बारे में भी सोचते!


उसने घबरा कर आँखें बंद कर ली और थरथराते शरीर में पत्थर बने मन पर निश्चय की छेनी से एक मजबूत निर्णय के टाँके, भरे आत्मविश्वास से टाँकने लगा। 


कुछ दिनों बाद, जब उसने अपने भविष्य का खाका परिवार के सामने खींचा तो पाया कि वे शायद अनुमान लगा चुके थे कि उसके जीवन की धुरी आगे किस नाम पर घूमना चाहती थीवह इस सबसे खुश नहीं थे, वह जानता था। 'दुनिया को, समाज को वह क्या मुँह दिखाएँगे?' इस सवाल का जवाब उन्हें ढूँढे नहीं मिल रहा था, यह भी वह बखूबी जानता था। पापा के चेहरे पर तनाव की गहरी, धूसर परतें, माँ की बेचैन छलकती आँखें इसकी गवाह थी। नील अपने निर्णय पर अडिग था। पूरा जीवन ऐसे घुट - घुट कर वह नहीं जा सकता था। उसके पास अब दूसरा और कोई विकल्प नहीं था सिवाय अपने मन की सुनने और गुनने की।

 
उनके लिए आसान नहीं था नील के निर्णय को सहजता से स्वीकार कर पाना। बच्चे के जन्म से ही, बेटी या बेटे के रूप में समाज में उसके जीवन का एक नियत खाका तय हो जाता है। माँ-बाप के कितने ही अरमान, कितने ही सपने बेटे के जन्म के साथ ही जन्म ले लेते हैं। समाज में पुत्रमोह किसी से छुपा नहीं। इस सबके बावजूद नील के माता-पिता, न चाहते हुए भी उसकी सलामती के लिए, उसकी खुशी के लिए, उसके इस निर्णय में उसके साथ हो लिए थे। उनकी औलाद जीवित रहे, माँ-बाप के लिए इससे बढ़ कर क्या हो सकता था। नील के इस अप्रत्याशित कदम ने उन्हें बुरी तरह डरा दिया था। स्थिति की गम्भीरता उन्हें इसके पहले समझ में ही नहीं आई थी।

 
'नील या नीला, कोई खास फर्क नहीं पड़ता... माँ-बाप के लिए इससे अधिक जरूरी है औलाद की सलामती, उसकी खुशियाँ, उसका उज्ज्वल भविष्य... तुम्हारे पापा, भइय्या और मैं बस यही चाहते हैं बेटा... तुम नजरों के सामने रहो... खुश रहो... तुम्हारे हर फैसले में हम साथ हैं, हमेशा।' मम्मी ने जब उसकी पीठ सहलाते हुए, छलकते आँसुओं को पलकों के कोर में जब्त करते हुए कहा तो नील को लगा कि जैस बरसों से चलती जिन्दगी की भीषण जंग, उसने पहली बार, उसी पल फतह कर ली थी। हार्मोनल ट्रीटमेंट, कई छोटे-बड़े ऑपरेशन तो बस इस जंग के छोटे-बड़े पड़ाव थे। 


मुश्किल तो उस घनी, अँधेरी सुरंग को पार करना था जिसके हर कदम पर व्यंग्य और तिरस्कार की तीखी, जहरीली बरछियों से लैस लोगों की भीड़ थी, जो उसके वजूद को चिथड़े-चिथड़े कर डालना चाहते थे, शायद, सिर्फ इस कारण कि वह उनकी स्थापित, समझी-बूझी दुनिया को नए तरीके से देखने के लिए विवश कर रहा था। उनकी नजरों में वह था ही कौन जो उन्हें स्थापित मूल्यों, जीवन और समाज से इतर जीवन के सत्य का बोध कराए। 


आसान था उसे कुचल डालना, रौंद कर समाज की मुख्यधारा से नोंच कर फेंक देना। नील समझता था ये सब, समाज के बनाए बेरहम उसूल जिसमें कई बार मानवता के लिए कोई जगह नहीं थी। 


उसे वह घटना कभी नहीं भूलती जब वह ट्रेन से मीरा मौसी के घर मुम्बई जा रहे थे। तब वह नौ-दस बरस का रहा होगा। रास्ते में ट्रेन एक स्टेशन पर जैसे ही रुकी चार-पाँच औरतें उनकी कोच में चढ़ आईं। वह सकपकाया उन्हें देखता ही रह गया था। चटकीले, लाल-पीले कपड़ों में सजी, सस्ते मेकअप से लिपी-पुती, उनकी वेश-भूषा, विचित्र से व्यवहार ने उसके बाल-मन में एक साथ सैकड़ों प्रश्नों की फुलझड़ियाँ सुलगा दी थी। जो लगातार चटचटा रही थीं। उनका हर बात पर अजीब तरह से तालियाँ बजाना, हाय-हाय बोलना, बेढ़ग इशारे करना, उसके लिए बेहद अजीब अनुभव था। इनमें कुछ तो अलग है पर क्या? वह समझ नहीं पा रहा था। आखिर चटचटाती फुलझड़ी सा एक सवाल उसका कोमल मन झुलसाता, उसके मासूम होठों से झड़ गया।
'मम्मा ये कौन हैं इतनी अजीब सी?' उसने उत्तेजना में सवाल इतनी जोर से पूछा था कि वे औरतें 'हाय-हाय' करती, तालियाँ पीटती उसके बिल्कुल पास ही आ गई थीं। वह घबरा गया था। 


'अजीब तो सारी दुनिया है, बबुआ!'
एक ने उसी विशेष ढ़ंग से ताली पीटते हुए कहा था।
दूसरी उसे पुचकारते हुए बोली,
'डरो नहीं बबुआ, अपनी अम्मा से बोलो कुछ दे दें हमको, हाय-हाय कुछ खा लेंगे, सुबह से पेट की आग में झुलस रहे लल्ला... देखो कैसा चाँद सा लल्ला दिया है भगवान ने तुम्हारी अम्मा को!'
तीसरी उसके सिर पर हाथ फेरती, आशीर्वचनों की कलियाँ उड़ेलती जा रही थी।
'खूब बड़े अफसर बनो लल्ला... दूध-घी की नदी बहे तुम्हारे द्वार... तुम्हारी अम्मा की गोद में  ढ़ेरों पोते-पोतियाँ खेलें!'


वह न जाने क्यों बहुत घबरा गया और डर कर मम्मी के पीछे दुबक गया था। जब तक ट्रेन रुकी रही एक तमाशा सा चलता रहा। हर यात्री से उलझती, किसी को असीसती, किसी को हाथ चमका-चमका कर कोसती, बहस करती, वे औरतें जब तक कोच में रहीं एक अजीब सा तनाव व्याप्त रहा। कुछ उन्हें घूर रहे थे, कुछ निर्विकार होने का अभिनय कर रहे थे तो कुछ ऐसे भी थे जो उनका उपहास उड़ाते हुए फब्तियाँ कस रहे थे। 


यह सारा घटनाक्रम नील के कोमल मन पर चाबुक सा पड़ा। कितने सारे चुभते सवाल उसके मन में भटकटैया से चिपक गए। वह छुड़ाने की भरसक कोशिश करता पर उनकी चुभन नहीं गई कभी। वह पूछता रहा कई दिनों तक, पापा से, मम्मी से, भाई से, मुम्बई में मीरा मौसी से, मौसा से पर उसे एक भी जवाब ऐसा नहीं मिला जो उनकी चुभन से उसे पूरी तरह निजात दिलाता। ये कौन थीं? ये ऐसी क्यों थीं? ऐसे अजीब कपड़े पहन कर, मेकअप करके इन्हें नाचने-गाने, अजीब-अजीब हरकतें करने की क्या जरूरत थी? ये भी क्यों टीचर, डॉक्टर जैसा कुछ क्यों नहीं बन जातीं? इतनी हट्टी-कट्टी हो कर भीख क्यों माँगती हैं? इतनी अजीब बन कर क्यों घूमती हैं? बाकी लोगों जैसे क्यों नहीं रहतीं? सवाल... सवाल... बस सवाल, सुरसा से हर वक्त मुँह बाए, उसके दिमाग के द्वार पर खड़े रहते।





दुनिया आखिर इतनी अजीब क्यों है? वह सोचता रहता, जो जैसा है, उसे, उसी रूप में सम्मानपूर्वक लोग स्वीकार क्यों नहीं करते? क्यों जीते-जागते इंसानों को तमाशा बना कर रख देते हैं
'हुँह... कुछ सवालों के कोई जवाब होते ही नहीं शायद...!' उसने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
'किन सवालों के जवाब नहीं होते भी?'
उसने चौंक कर देखा, उसके ठीक पीछे मीरा मौसी खड़ी थीं। नीला, छत की रेलिंग छोड़ कर मौसी के सामने खड़ी हो गई। 
'आप छत पर कब आईं मौसी?' नीला ने झेंपते हुए पूछा।
'बस, अभी–अभी, मेरी जान!' कहते हुए उन्होंने अपनी बाहें फैला कर उसे अपने आगोश में ले लिया। 


'बेटा भागते हुए आ कर मिलता था, बेटी देखकर भी अनदेखा कर रही।' उन्होंने वही पुराने सहज अंदाज में शिकायत की तो नीला भी हँस पड़ी।
'माशा अल्लाह बहुत खूबसूरत हो गई हो, बिल्कुल बीस बरस वाली अपनी मीरा मौसी जैसी।'
नीला फिर हँस पड़ी वही पहाड़ी निर्झर सी निर्दोष हँसी जो कानों में तरल सुकून की लहरें बन हिचकोले लेती रहती है देर तक। 


नीला के मन में चलती सारी ऊहापोह पल भर में कपूर सी छू हो गई। फिर तो बातों का पिटारा खुला तो बस खुला ही रह गया। आसमान रंगों में खेल रहा था और वे बातों की गेंदें उछाल रही थीं। मन की कितनी गाँठें खुलती जा रही थीं और नीला गैस भरे गुब्बारे सी हल्की हो कर शांति और सुख के खुले आसमान में उड़ती जा रही थी।
अचानक नीला ने वही बचपन वाले भोले अंदाज में मीरा से कहा, 'मौसी इन्द्रधनुष नहीं देखा, न जाने कब से? दिल्ली के गगनतले इन्द्रधनुष नहीं दिखते अब!


'मुम्बई आ जाओ जल्दी से...खूब इन्द्रधनुष देखेंगे दोनों मिल कर, मुम्बई के गगन तले, समन्दर पर तैरते, खूब दिखते हैं इन्द्रधनुष, अब भी!'


'ईश्वर ने चाहा तो बहुत जल्द ही मौसी... कैम्पस सेलेक्शन में मुझे मुम्बई की एक बहुत बड़ी ड्रेस डिजाइनिंग कम्पनी से ऑफर मिलने की पूरी उम्मीद लग रही। सेलेक्शन बोर्ड के सदस्य मेरे डिजाइन्स देख कर बेहद हैरान थे।' नीला ने खुलासा किया तो मीरा खुशी से विह्वल हो गई।
'चल इस बात की पार्टी आज मेरी ओर से...!'
'अभी से...?'
'हाँ अभी से...!'


आज नीला खुश... बहुत खुश थी। पिछले तीन-चार सालों में यह बीसवाँ फैशन शो था और जो उसकी उम्मीद से कहीं अधिक सफल हुआ था। शो शुरू होने के पहले उसकी साँसें बाँसूरी में फूँक मारते नौसिखिए सी अटक-अटक कर चल रही थीं। क्या होगा...कैसा होगा... लोगों की प्रतिक्रिया उत्साहवर्धक और सकारात्मक रहेगी कि नहीं...ऐसी कितनी शंकाएँ उसके दिलोदिमाग की हरी-नीली शैवाल पर फिसल रही थीं। यह फैशन शो उसके सपनों का फैशन शो था। 


चार साल पहले जब उसने फैशन डिजाइनिंग की इस प्रतिष्ठित कम्पनी में ज्वॉइन किया था तो जहाँ सपनों के उजले-उजले अनगिनत बादल उसके मन के आकाश में ऊँचे बहुत ऊँचे तैर रहे थे तो आशंकाओं के स्याह साँप-बिच्छू भी मन के अँधेरे कोने में कुलबुलाते रहते थे। अपने वजूद पर उठती नकारात्मक निगाहों को सकारात्मक सोच से सराबोर करने का कोई जरिया था तो बस उसकी योग्यता, उसकी अनोखी कलात्मक सोच और उसके हाथों का हुनर। इस कम्पनी में काम करने का अवसर पाना, उसकी काबिलियत का पहला प्रमाण था। नीला खूब जानती थी और इसीलिए वह अपने काम में पहले ही दिन से पूरे समर्पण और मनोयोग से जुट गई थी। लोगों की व्यंग्यपूर्ण और मखौल उड़ाती नज़रों का सामना करना उसके लिए कभी सहज नहीं रहा था, यहाँ भी नहीं था। यहाँ भी लोग उसके हाव-भाव पर दबी जबान में हँसते, फब्तियां कसते, नीला बहुत कोशिशों के बाद भी मन ही मन सहमी रहती, डरी और घबराई रहती थी शुरू के कुछ महीने उसके लिये बहुत कठिन थे। उसका संघर्ष बाकी लोगों से दोहरा था। उसे अपने काम ही नहीं बल्कि अपने वजूद की सार्थकता भी साबित करनी थी। उसे साबित करना था कि उसे भी उतना ही सामान्य जीवन जीने का हक था जैसे बाकी हर किसी को सहज ही हासिल था।

 
उसे कभी नहीं भूलता जब कॉलेज में टॉपर होने के बावजूद, कैम्पस सेलेक्शन में उसे लगातार दस छोटी-बड़ी कम्पनियों ने सिर्फ इसलिए रिजेक्ट कर दिया था कि वह नील से नीला बन चुकी थी। वह अपमान और दु: का प्याला चुपचाप पी कर रह गई थी। समाज उसे सहजता से स्वीकार नहीं करेगा, सरलता से अवसर भी नहीं देगा, यह वह बखूबी जानती थी। नीला के वह कुछ दिन गहरी हताशा और अनिश्चितता में बीते थे। परेशान से पापा कई बार झल्लाते हुए कहते,


'इन कम्पनियों पर तो केस कर देना चाहिए, ये तो सरासर मूलाधिकारों का उल्लंघन है।' फिर परेशान से नीला पर ही निशाना साध देते।
'ये ठीक नहीं किया नील तुमने, पूरी ज़िन्दगी का संघर्ष मोल ले लिया है। कैसे कटेगी आखिर तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी, सोचा है कभी?'
पापा की झल्लाहट पर नीला चुप्पी साधे रह जाती। उसे पूरा यकीन था कि ये अँधेरा भी, कभी तो छँटेगा, आखिर यह उस अँधेरे से घना तो नहीं था जिसमें वह अब तक हर पल छटपटाती-घुटती, भटकती रही थी।

 
और फिर हिमालय सा अटल विश्वास और समन्दर की गहराई सी उसकी काबिलियत कब तक रिजेक्ट होती रहती। उसकी उम्मीद के विपरीत इस कम्पनी ने केवल उसका अच्छे पैकेज पर चयन किया था बल्कि ज्वॉइन करते ही महत्वपूर्ण असाइनमेंट भी सौंप दिया था। नीला ने इस असाइनमेंट को 'डूबते को तिनके का सहारा' की तर्ज पर मजबूती से पकड़ लिया था। खुद को साबित करने का यह अवसर, वह किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहती थी। इस असाइनमेंट को पूरा करने में उसने रात-दिन  एक कर दिया था।


वैसे भी कोई काम जब जुनून की हद तक प्रिय हो तो फिर वह काम नहीं रहता, वह हर दर्द का मलहम बन जाता है, हर सुख का परम स्रोत। वह मगन रहती रात-दिन अपने सपने, अपने जुनून में जिसे बाकी दुनिया काम कहती थी। तरह-तरह के डिजाइन, रंग-बिरंगी तितलियों से हर वक्त उसके दिमाग में आँखमिचौली खेलते रहते। वह उन्हें पकड़ - पकड़ कर अमूर्त से मूर्त रूप देने में भरसक लगी रहती।


नतीजा, बहुत ही कम समय में वह उस मुकाम पर थी, जहाँ तक पहुँचने में लोगों को दशकों लग जाते थे। कम्पनी में उसकी गहरी पैठ बन चुकी थी और अपने काम पर पैनी पकड़। उसे मिले हर अवसर को नीला ने जी-जान से भुनाया था। मेहनत और कड़ी मेहनत, इस बेरहम दुनिया में खुद को साबित करने का उसे बस यही ब्रम्हास्त्र दिखता था। जिसका सही जगह और सही अवसर पर वह लगातार सफलतापूर्वक इस्तेमाल करती रही थी। नतीजा बहुत कम समय में वह कम्पनी में अपना विशेष स्थान बनाने में सफल रही थी। वह नील या नीला से परे कम्पनी की एक विश्वसनीय एम्प्लॉई बन चुकी थी वरिष्ठ उसकी बात सिर्फ सुनते ही नहीं थे बल्कि हर महत्वपूर्ण बात पर उससे परामर्श भी लेते थे। कुछ सालों में ही लोगों का नजरिया उसके प्रति पूरी तरह से बदल चुका था। कई सफल फैशन शो वह सँभाल चुकी थी। उसके कई नए प्रयोग बेहद सफल रहे थे। 



इन सबके बीच भटकटैया से सालों पहले चिपके उसके जेहन में वे कुछ सवाल, आज तक नहीं छूट पाए थे। नीला उनके जवाब चाहती थी। उन कुछ सवालों के जवाबों के सूत्र उसे जल्द ही मिल भी गए। एक बेहद सफल शो के बाद उसके बॉस अनिकेत ने प्रशंसा के सुर में जब बधाई देते हुए उससे पूछा


'तो मिस नीला अब अगला प्रयोग क्या करने वाली हैं आप? फिर किसी अप्रत्याशित सरप्राइज का इंतजार होगा आपके अगले शो में लोगों को...!


नीला ने अवसर देख अपने मन में कई दिनों से चिड़िया के नन्हे बच्चे के कोमल-कोमल अधपके पंखों से फड़फड़ाते विचारों को मुक्त गगन में उड़ने को छोड़ दिए। 




'ओह्ह... ओह्ह आर यू श्योर नीला... तुम्हारे अगले शो की कुछ मॉडल...?? आई मीन... आर यू सीरियस?' 


अनिकेत को ऐसे प्रस्ताव की उम्मीद नहीं थी, वह एकबारगी समझ ही नहीं पाए कि नीला को क्या जवाब दें, इसलिए उस पर ही प्रश्नों की बौछार कर बैठे। नीला इसके लिए तैयार थी। उसने थोड़ा झिझक के साथ अपनी बात रखते हुए कह ही दिया


'मेरी बरसों की तमन्ना है सर... एक ख्वाहिश... और जहाँ तक मैं समझती हूँ डिजाइनर कपड़े ये भेद नहीं समझते, सर, ये बेमतलब के जाले तो हमारे सभ्य समाज ने बुन रखे हैं ... शोषण के, तिरस्कार के नए-नए धागे... जिसमें कस कर न जाने कितने निर्दोष घुटते रहते हैं, तड़पते रहते हैं। हम क्यों न एक नई राह चुनें, जहाँ भी मौका मिले इन्हें सम्मान दें, खुशी दें...और...और वैसे भी सर मुझ से बेहतर यह कौन समझ...! ' नीला जानती है अनिकेत उसकी बात कभी नहीं टालेंगे,  


मैनेजमेंट को भी वह मना ही लेंगे, तभी तो वह भी यह कहने का साहस जुटा पाई थी।
नीला के अंतिम वाक्य पर अनिकेत असहज हो उठे और उसकी बात काटते हुए बोल पड़े,
'बात तो ठीक है नीला... पर मॉडल कहाँ से लाओगी...? तुम जानती हो अगला शो बहुत बड़े पैमाने पर होने वाला है...हम क्या इतना बड़ा रिस्क ले सकते हैं?' 



नीला के पास इसका भी जवाब था। उसके हौसलों की उड़ान तैयारी के मजबूत पंखों पर टिकी थी। 


'मॉडल हैं सर, यहीं मुम्बई में... मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानती हूँ। अक्सर उनसे मिलने जाती हूँ... उनकी मदद करने की कोशिश करती हूँ... उनकी ज़िंदगी बहुत कठिन है... ठीक है कि प्रोफेशनल नहीं हैं, अनगढ़ हैं पर आप अगर मुझ पर भरोसा करें तो उन पत्थरों को तराश कर हीरा बनाने की कोशिश मैं कर सकती हूँ...उन में पोटेन्शिएल है सर... अवसर नहीं है बस उनके पास... तन से ही तो थोड़ा अलग हैं? दिमाग में तो वो किसी से कम नहीं ...न ही सुन्दरता में।'
फिर कुछ सोचते हुए नीला ने आगे जोड़ा। 



'ये एक नेक काम है सर... एक तरह से समाज की सच्ची सेवा... आप चाहें तो इसे कम्पनी के प्रचार-प्रसार के लिए भी बुद्धिमानी से प्रयोग कर सकते हैं...इससे हो सकता है उन्हें भी और तमाम तरह की मदद मिल जाए।'


अनिकेत प्रगतिशील और नेक विचारों के इंसान थे, यह बात, नीला इस कम्पनी में काम के शुरुआती दिनों में ही समझ गई थी। व्यवसायिक बुद्धि और सह्रदयता का अद्भुत संगम था उनमें। नीला की प्रतिभा को तराशने में उनका अमूल्य योगदान रहा था। उन्होंने उस पर आँख बंद करके भरोसा किया था और नीला ने इस भरोसे को सफलताओं के नए मुकाम पर पहुँचा दिया था। नीला को उन्हें देख कर हमेशा यही महसूस होता था कि दुनिया में अगर नकारात्मक लोग हैं तो उतने ही सकारात्मक लोग भी हैं ही। यिन है तो यांग भी है। और दुनिया इन्हीं पर टिकी है सदियों से। 


अनिकेत की हरी झण्डी मिलते ही, नीला जी-जान से जुट गई थी, मिट्टी में लिबड़ी सी अपनी मॉडल्स को साफ कर, सँवारने, चमकाने में। आसान कहाँ था? पहले तो इन्हें समझाना, मनाना ही बड़ा मुश्किल था पर नीला भी हार मानने वाली कहाँ थी? कुछ तो उनमें उत्साही भी थीं ही। उसने अपनी समझ से हीरा बाई, मन्नी, लता, रोशनी को चुन कर प्रशिक्षित करना शुरू किया, चलना, उठना, बैठना, बोलना... हर पहलू पर बहुत बारीकी से मेहनत की। नतीजा उसकी मॉडल्स जब रैम्प पर उतरीं तो देखने वाले अवाक् रह गए। 


शो के अंत में तालियों की गड़गड़ाहट हॉल का सीना चीरे दे रही थी और नीला डबडबाई आँखों से स्टेज के कोने में सुन्न खड़ी थी। ऐसी उम्मीद तो सच में उसने भी नहीं की थी। बधाइयों का ताँता लगा हुआ था। उसका फोन लगातार बज रहा था, नोटिफिकेशनस् की टोन पर टोन बज रही थी। 



दूर खड़े अनिकेत सर उसे देख रहे थे। नजर मिलते ही उन्होंने थम्स अप का इशारा करते हुए उसे बधाई दी। एक सुकून, एक राहत उनके भव्य चेहरे पर तारी था। नीला मुस्करा दी... इस एक कोशिश ने, कितने नए द्वार खोल दिए थे। वह जानती थी कि यह तो बस एक शुरुआत हुई थी। 


रात बड़ी देर तक उसकी भाई रोहित और फिर माँ-पापा से बात होती रही थी। उनकी खुशी फोन पर छलकी पड़ रही थी। टी. वी. पर पूरा लाइव कवरेज देखा था, उन सबने। 


अगले दिन वह दोपहर तक बेसुध सोती रही। कई दिनों की थकान ने मानो नींद की गोली सा असर दिखाया था। मोबाइल की रिंग से उसकी नींद टूटी तो देखा मीरा मौसी की कॉल थी। दस मिस्ड कॉल और उसे सुनाई तक नहीं दी


'हैलो... मौसी! आ गईं आप! आपका सेमिनार कैसा रहा?' उसने अलसाई आवाज में कहा। 


'आ गई...बस एक घण्टे पहले फ्लाइट से उतरी हूँ। टैक्सी में बैठी हूँ... आज का अखबार हाथ में है और... और... देख रही हूँ कि किसी की खबर हर खबर पर भारी है...!'
'मौसी...!' नीला खिलखिला पड़ी।
'चल सेलिब्रेट करते हैं, हम और तुम, 'बीच' के पास वाले रेस्टोरेंट में डिनर करेंगे और उसके पहले समन्दर में डूबता सूरज निहारेंगे और विस्तार से शो की हर बात सुनेंगे... बोल, डन!'
'डन...!'


'शाम को चार बजे मैं तुझे पिक कर लूँगी... अभी समय है, चल सो जा फिर से...!'
शाम को मीरा मौसी जब उसके फ्लैट पर आईं तो मूसलाधार बारिश हो कर हटी थी। जब वे 'बीच' पर पहुँचीं तो बादल छँट चुके थे। ढलता सूरज बादलों को चीर कर समन्दर के पानी में न जाने कितने रंग घोलता जा रहा था। गीली रेत पर चहलकदमी करते, कई जोड़ी पैरों के निशान बिखरे पड़े था। नीला और उसकी मौसी भी समन्दर के तट की ठण्डी रेत पर नंगे पैर टहलने लगीं।


'ये तो एक अच्छी शुरुआत हो गई नीला...!'
'हाँ मौसी... वाकई अच्छी शुरुआत हो गई।'
'तो अब आगे क्या सोचा है...!'
'सोचा तो बहुत कुछ है पर सबसे पहले इन्हें ढ़ंग का कोई रोजगार मिल सके, उसके लिए कुछ ढ़ंग के काम और स्किल सीख सकें, उस ओर कुछ करने की सोच रही हूँ। ऐसा कुछ, जिससे दूसरों पर निर्भर रहने के बजाए ये खुद अपनी मदद कर सकें...!'
'हाँ... हर किसी को तो तुम मॉडल नहीं बना सकती न...!'
मौसी ने जिस तरह कहा नीला हँस पड़ी।
'आप, अब भी कल के शो के नशे में हैं मौसी...!'
'हूँ तो सही... पर गलत कह रही क्या?'


'नहीं गलत नहीं, बिल्कुल सच कह रही हैं आप मौसी... इसीलिए कुछ भी, हाथ का कोई ऐसा हुनर सीख जाएँ, जो इज्जत की रोटी का जरिया बन सके, थोड़ा पढ़-लिख सकें, इन्हीं सब सुविधाओं वाला एक स्कूल जैसा खोलने का विचार कर रही...ये आइडिया इन्हीं सब का है, मैं मददगार का रोल अदा करना चाहती हूँ। इनकी सोच बदल रही है, अभी तो मुझे यही सबसे बड़ी उपलब्धि लग रही है... इतना हुआ है तो कोई साफ, मजबूत राह भी खुलेगी ही!'


नीला गहरी सोच में डूबी धीरे-धीरे बोलती जा रही थी, जैसे खुली आँखों से सामने कोई मोहक सपनों में भीगा चलचित्र देख रही थी।


'मुझे भी इस राह का मददगार समझा जाए...!' जब मीरा ने मुस्करा कर नीला की आँखों में झांकते हुए कहा तो नीला बरबस ही हँस पड़ी।


'और क्या सोचा है...!'
' अभी तो बस इतना ही... बाकी आगे जैसा जो आएगा, जो विचार सूझेगा... उसी के हिसाब से करते जाएँगे.!'
'हूँ...बस !' मीरा के इस जवाब पर नीला ठिठक गई।
'और क्या मौसी...?'
'अनिकेत...अनिकेत ने कुछ कहा तुमसे?' 


मीरा मौसी की इस बात पर नीला चौंक गई। वह जानती थी कि अनिकेत सर, मीरा मौसी से बहुत खुले हुए थे। जब नीला ने उन्हें पहली बार मौसी से मिलवाया था, तबसे ही वे बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे। मौसी ने अनिकेत से बहुत कुछ उसके जानने के पहले ही निकाल लिया होगा। 


'तो आपको सब पहले से ही पता है !' नीला सहज ही मुस्करा दी।
'हाँ, अब तुम खुद कुछ बता ही नहीं रही तो क्या करें?'
मौसी भी हँस पड़ी। 


'अनिकेत सर ने इस शो के ठीक एक दिन पहले प्रपोज़ किया है!'
'हाँ.. ये तो पता है... इसके आगे ?'
'सोच रही हूँ, मौसी! अनिकेत तो सब जानते हैं... सब समझते हैं, फिर भी ऐसा निर्णय ले रहे हैं? क्या ये ठीक है?'


'क्यों नहीं ठीक है? तुम्हीं साफ मन से सोचो कि इसमें गलत क्या है नीला? अनिकेत सब कुछ जानते-समझते, यह निर्णय ले रहा है क्योंकि वह जीवन के हर सुख-दु:ख तुम्हारे साथ बाँटते हुए जीना चाहता है! तुम्हारा साथ उसे सुख और सुकून देता है... तुम्हें भी वह बहुत अच्छा लगता है, ये सच तो किसी से छुपा नहीं है। फिर इसमें गलत क्या है? मुझे तो इसमें कोई बुराई नहीं लगती!'


'हाँ, मौसी, गलत तो नहीं है ... और इसमें ऐसी कोई बुराई भी नहीं...अनिकेत बहुत अच्छे इंसान हैं, एक बेहतर ज़िन्दगी और हर खुशी के हकदार हैं। मेरा साथ पा कर हर खुशी तो उन्हें नहीं मिल पाएगी, यह, वह अच्छी तरह जानते हैं फिर भी इस निर्णय पर अडिग हैं... मैं...मैं उन्हें उन  खुशियाँ से कैसे वंचित रख सकती हूँ !' नीला ने झिझकते हुए अपने मन की गाँठें खोलकर रख दी। 


'खुशियों के अनन्त विकल्प हैं नीला... सोच कर तो देखो... सामान्य जोड़े भी तो बच्चे गोद ले लेते हैं... जहाँ प्यार हो, अपनापन हो, वहाँ हर खुशी के असंख्य खूबसूरत विकल्प निकल आते हैं!


मौसी ने जब छलकते विश्वास से कहा तो नीला किसी गहरी सोच में डूबती-उतरती धीरे से बस इतना ही बोल पाई


'मौसी, आप तो सारे के सारे अनिकेत सर के डायलॉग बोलती जा रहीं...! कहना जितना आसान है, करना उतना आसान कहाँ? मेरी ज़िन्दगी आसान नहीं है मौसी, मेरे साथ जुड़ने वालों की ज़िन्दगी पर भी कदम-कदम पर कठिनाई के बादल तैरतै ही रहेंगे, ये मैं बिलकुल नहीं चाहती, मौसी। सामान्य जीवन जीने का अधिकार सबको है, मौसी। मेरे साथ वह सम्भव नहीं है।'


कहती हुई नीला हिचकोले खाते, सतरंगी, समन्दर की ओर देखने लगी। उसके चेहरे पर बरबस ही एक अपूर्व मुस्कान बिखर गई। सामने क्षितिज के आर-पार, समन्दर के एक छोर से दूसरी छोर तक, विशाल चमकीला इन्द्रधनुष तना हुआ था। 


'इतना खूबसूरत, ऐसा चमकीला इन्द्रधनुष, मैंने कभी नहीं देखा मौसी!' निहाल नीला बोल रही थी।
'मैंने भी नीला...!'
उसके चेहरे पर झिलमिलाते एक दूसरे ही इन्द्रधनुष को मुग्ध निहारती मौसी बोल पड़ीं।
'इस इंद्रधनुष को अपनी मुट्ठी में कैद कर लो नीला... बार-बार ऐसा इंद्रधनुष नहीं दिखता।' नीला  पल भर उन्हें देखती रही फिर बोली,
' हाँ, मौसी, आप सच कह रही हैं! पर ऐसे इन्द्रधनुष मुट्ठी में कहाँ कैद होता है? और वैसे भी मेरे हिस्से का इन्द्रधनुष है कहाँ?'
कहते हुए नीला ने झुककर, झिलमिलाते सतरंगी समन्दर के पानी और तट की रेत को अपनी मुट्ठी में भर लिया। 


मीरा मौसी भी चमकीले सतरंगी पानी और रेत को मुट्ठी में कैद करते हुए नीला से स्नेह से पगे स्वर में बोलीं, 'अपना-अपना इन्द्रधनुष तो हर किसी के हिस्से मे होता है नीला! जिनमें हिम्मत होती है, हौसला होता है, वो हर हाल में अपने हिस्से का इन्द्रधनुष पा ही लेते हैं। तुम में वह हिम्मत भी है और हौसला भी, एक बार कोशिश कर के तो देखो।


नीला, मौसी की इस बात पर मुसकरा पड़ी, आत्मविश्वास और हौसले से भीगी एक सतरंगी मुस्कान। 



(कथादेश पत्रिका के मार्च 2019 अंक में प्रकाशित।)




पता -
सरिता कुमारी,
202, टावर - 3, 
कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज, 
दिल्ली - 49


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)

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