अष्टभुजा शुक्ल की कविता 'चैत के बादल'।
अष्टभुजा शुक्ल |
हिन्दू
पंचांग की शुरुआत चैत के महीने से होती है। चैत का यह महीना किसानों के
लिए नई फसलों की सौगात ले कर आता है। सरसों, गेहूँ जैसी रब्बी की फसलें
पूरी तरह पक जाती हैं। किसान इन्हें जल्द से जल्द काट कर अनाज और भूसा घर
में रख देना चाहते हैं। साल भर के अपने भोजन छाजन का उन्हें इंतज़ाम जो करना
होता है। अपने मवेशियों के लिए भूसे का स्टॉक बनाना होता है। लेकिन सब कुछ
मन के अनुरूप कहाँ हो पाता है। जब वे अपने खेतों में पकी फसल देख कर
उल्लसित होने को होते हैं आसमान पर घिर आते हैं काले कजरारे चैत के बादल।
इनका बरसना किसानों के लिए त्रासदी की तरह होता है। बारिश इन फसलों के अन्न
को सड़ाने लगती है। किसानों को अपनी मेहनत पर पानी फिरता हुआ सा दिखता है।
वे हताश हो इन बादलों को कोसने लगते हैं। वे उन्हें इस बात के लिए भी कोसते
हैं कि जब सिंचाई के लिए पानी की जरूरत थी तब आसमान में ये बादल कहीं नहीं
दिखते। और जब जरूरत नहीं तब तबाही फैलाने के लिए आ गए। किसानों के इन
सूक्ष्म मनोभावों को गँवई कवि अष्टभुजा शुक्ल ने अपनी कविता 'चैत के बादल'
में करीने से संजोया है। अपने आप में यह कविता उत्तर भारत के किसानों की
आपबीती जैसी है। इस कविता को कोई किसान मन कवि ही लिख सकता था। अनुभवजन्यता
ऐसी ही होती है जो किसी भी कविता को सार्वभौमिक अर्थ प्रदान करती है। इस
कविता में ठेठ अवधी के कई एक शब्द आए हैं लेकिन वे कहीं पर भी रंच मात्र का
भी अवरोध पैदा नहीं करते बल्कि कविता को एक अलग किस्म की धार और तेवर
प्रदान करते हैं। आज पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है कवि अष्टभुजा
शुक्ल की कविता 'चैत के बादल'।
अष्टभुजा शुक्ल
चैत के बादल
मुँह अन्हारे
सन्न मारे
गाँव में माया पसारे
कहाँ से उपरा गये
भड़ुए, अघी ये चैत के बादल!
बालियों से झुकी-झपकी-पकी
धरती सम्पदा का
गेहूँआई आंचल
इनकी कृपा पर छोड़ कर आश्वस्त होना
भूल होगी
इनका, कौन थाया, क्या ठिकाना?
बिदबिदाएंगे
या पाथर छरछराएंगे
छिनगाएँगे पल्लव
बालियों से अन्न झारेंगे
या करेंगे कुदिन
पशु-परानी के लिए पितकोप
रोग फैलाएँगे
बौर लसियाएंगे
लगने नहीं देंगे टिकोरे
उखमजी व्यवहार से
माघ में
जब सींचना था
तब नहीं लौके
जब बयाना हो गई घर की मसूर
जब फ़सल पक कर हुई तैयार
तब फूँकने खलिहान
आये हैं
राशि की राशि सड़ाने, गड़गड़ाने
चौधराहट दिखाने
चैत के
इन गीदड़रोएँ बादलों को देख कर
याद आते हैं
भाद्रपद के वे घने काले मतंगों की तरह
मेल्हते, एंडते, मुड़ियाए चले जाते
सघन-घन, पनिगर और बतधर
खन-खन बदलते रंग
चैत के
इन नाटकी, मोघी, छछन्नी बादलों को देख कर
याद आते हैं
वर्ष-वर्षों से तृषित
चातकों को
दो बूँद पानी
हाथ से अपने पिलाते
शरद के शुभ्राभ्र वे सितकेश
पितृव्य जैसे
स्नेह से भीगे नयन, करुना अयन
भरे परसंताप से
ये मिटाने पर उतारू
गरल जैसा जल उगलने को विकल
चैत के
इन कामरूपी बादलों को देख कर
याद आते हैं
पौष के पीयूषवर्षी मेघ
जिनका एक लहरा ही
फ़सल की डीभियों को
फुन्न रखने के लिए
सींक में सद्भाव भरने के लिए
दूध से भी अधिक लगता है
वैसे, चैत के इन बादलों का
जन्म, इनका कर्म
बनना या बिगड़ना, घिरना या घराना
निर्भर हवा पर, हवा के रुख़ पर
हवा की प्रकृति पर
कभी पुरुवा चली
तो चढ़ गये दोखी
लगे बढ़ने, घुमड़ने, घेरने आकाश
क्षण में छा गये
थोबड़ा दिखाने आ गये
किन्तु उल्टे खींच कर पछुआ चली
तो लगे छँटने, छनमनाने
मुँह बनाने
इधर आने, उधर जाने
जैसे ओसाई जा रही हो राशि
और भूसा उड़ रहा हो दूर जा कर
कहीं पूरब के क्षितिज पर
द्वादशी का चाँद
चाँदी की नई सेई बना
रख उठा आकाश के खलिहान में
और तारे मटर के दानों सरीखे
छितरा गये खलिहान में
कट गये
ये चैत के बादल
हट गये
ये चैत के बादल
छँट गये
ये चैत के बादल!
सम्पर्क
मोबाईल - 8795594931
चित्र सौजन्य : सुधीर सिंह की फेसबुक वाल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-03-2019) को दोहे "पनप रहा षडयन्त्र" (चर्चा अंक-3289) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदयस्पर्शी........, किसानों की व्यथा प्रकट करते उद्गार ।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी। पढ़कर मन विभोर हो गया।
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