रणविजय सिंह सत्यकेतु की कहानी 'सुबह के गीत'
14 नवंबर को शहर में साहित्यिक हलचल रही।
अवसर था मीरा स्मृति सम्मान और पुरस्कार समारोह का। खुशी की बात है कि इस बार मीरा स्मृति पुरस्कार शहर के ही कथाकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को उनकी
पांडुलिपि 'मंडी का महाजाल' के लिए दिया गया। मीरा स्मृति सम्मान जिन पांच मनीषियों को
दिया गया उनमें प्रो. सैयद अकील रिजवी भी इलाहाबाद के
हैं। इनके अलावा मृदुला गर्ग, सुधा अरोड़ा, प्रो. यदुनाथ प्रसाद दुबे को सम्मानित किया गया। पांचवें
मनीषी अग्निशेखर किसी कारणवश समारोह में शामिल
नहीं हो सके।
मीरा फाउंडेशन और साहित्य भंडार के संयुक्त
तत्वावधान में एन.सी.जेड.सी.सी. सभागार में आयोजित समारोह के पहले सत्र में मुख्य अतिथि सुधा अरोड़ा, अध्यक्ष प्रो. राजेन्द्र कुमार और सतीश चन्द्र अग्रवाल ने सत्यकेतु
को ‘मीरा स्मृति पुरस्कार’ प्रदान किया। इसके
तहत उन्हें स्मृति चिह्न, शॉल, श्रीफल और 25 हजार रुपये का चेक प्रदान किया गया। युवा आलोचक आशीष
त्रिपाठी और ने सत्यकेतु के कथा लेखन, वैचारिकी और सामाजिक सरोकार का विश्लेषण
किया। दामोदर दीक्षित ने संग्रह की कहानियों की
व्याख्या की। इस मौके पर शहर और बाहर के तमाम लेखक, संस्कृतिकर्मी मौजूद रहे।
उल्लेखनीय है कि इस बार मीरा स्मृति
पुरस्कार के निर्णायकों में दूधनाथ सिंह, चित्रा मुदगल, राजेश जोशी, डॉ. विजय अग्रवाल और अशोक त्रिपाठी शामिल थे। यह पुरस्कार
एक वर्ष कहानी और दूसरे वर्ष कविता के लिए
दिया जाता है।
पुरस्कृत संग्रह में
शामिल कहानी 'सुबह के गीत' 2005 में 'इंद्रप्रस्थ
भारती' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह दो सहेलियों की कहानी बेहद खूबसूरत कहानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले ग्यारह
सालों में स्त्रियों की वैचारिकता
ज्यादा प्रखर हुई है लेकिन यह भी सच है कि उनकी पारिवारिक और सामाजिक हालत और खराब हुई है। बेहद शालीनता से अपनी बात कहती कहानी 'सुबह के गीत' आलोचकों और विमर्शकारों की नजरों से प्रायः ओझल ही रही। लेकिन अपनी अस्मिता के लिए लड़ रही स्त्रियों को यह सुकून और साहस जरूर देगी। कथाकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को मीरा सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह कहानी।
सुबह के गीत
रणविजय सिंह सत्यकेतु
वेटिंग रूम में रोमी के बताए टेबल पर कुली ने सामान रख दिया। सामान के ऊपर पर्स फेंककर रोमी धम्म से कुर्सी पर बैठ गई। एक कठिन यात्रा पूरी कर लेने के बाद की तसल्ली महसूस की।
केशू उसकी गोद
में बैठना चाहा तो उसने मना किया, ‘अभी रुको बेटा, थोड़ा सुस्ता
लेने दो।’
बैठने के लिए
सामने वाली कुर्सी को रूमाल से पोछ रहे रॉकी ने केशू को अपने पास बुलाया, ‘आ जाओ केशू मेरे
पास, मेरी गोद में बैठो।’
रॉकी की तरफ
केशू बढ़ गया तो रोमी को राहत मिली, ‘हां, ठीक है बेटा, अभी उसी के पास
जाओ। मैं थक गई हूँ।’
थोड़ी देर चुप रहकर लंबी सांस छोड़ते हुए बोली, ‘उफ्, कोई टाइम टेबल
नहीं है ट्रेनों का। बताओ, रात नौ बजे पहुंचने का समय नियत है
और ट्रेन अभी आई है..सुबह तीन बजे..श्शिट। ऊपर से
इतनी गर्मी में इतने लोग चढ़ जाते हैं। पता नहीं क्या समझते
हैं अपने आपको। रिजर्वेशन का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। जनरल बॉगी बना दिया चोट्टों ने।’
‘अरे गाली क्यों दे रही हैं! मजबूरी में क्या करेंगे लोग, जनरल बॉगी में
पिसने से तो बढ़िया है कि स्लीपर में बैठ कर जाएं।’ रॉकी
मुस्कुराया।
‘बॉगी में चार-छह लोग बैठ जाएं तो कोई बात नहीं, चल जाएगा। नहीं, हर बर्थ पर चार-छह बैठेंगे, वह भी रौब के साथ। ये मजबूरी में नहीं, सीट को बपौती
मान कर बैठते हैं।’
‘ऐसा नहीं है।’
‘ऐसा ही है।’ रोमी थोड़ी तेज आवाज में बोली, ‘उनमें से आधे तो
बिना टिकट के होते हैं। देखा नहीं, पूरे टाइम
उन्हीं लोगों से उलझा रहा टीटीई। सौ-पचास वसूला और बैठा दिया।’
‘मम्मी...
पेप्सी!’ कैशू ऊबा हुआ लग रहा था।
‘रुको यार’ रोमी झल्लाई हुई
थी।
‘हां हो जाए
एक-एक। बहुत गर्मी है।’ रॉकी को केशू का पस्ताव विषय
परिवर्तन के लिहाज से अच्छा लगा। पूछा, ‘चलें?’
‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी
तुम ले आओ।’ रोमी वाकई थक चुकी थी।
‘मैं भी जाऊंगा।’ केशू पहले से
तैयार बैठा था।
‘हां, इसे भी
प्लेटफॉर्म पर हवा खिला दो।’ रोमी राहत चाहती
थी।
रॉकी केशू का हाथ पकड़े वेटिंग रूम से निकल गया। रोमी सामने वाली दीवार को ताकती सुस्ताने लगी। थोड़ी देर में सीधी हुई और पर्स खोलकर कंघी निकाल ली। बाईं तरफ की दीवार पर बड़ा-सा आईना लगा हुआ था। उसके सामने खड़ी होकर बालों को सीधा करने लगी।
दाएं-बाएं एंगिल
से चेहरे को निहारते हुए उसने देखा कि उसकी हमउम्र एक महिला पीठ तरफ की दीवार से सटी सीट पर बैठी उसी को निहारे जा रही है। उसने गौर से देखा, जब आशंका पक्की हो गई तो उसके आसपास की चीजों और व्यक्तियों का मुआयना किया। उसके सामने दो अटैची और एक बैग थे। अगल-बगल दो बच्चियां सोई हुई थीं। आसपास कोई मर्द नहीं दिखा।
रोमी भी बालों
में कंघी करने के बहाने उसे ही घूरती रही। उसके जैसे चेहरे-मोहरे वाली किसी परिचित महिला को याद करने लगी। इसी उलझन में फंसी थी रोमी कि वह महिला उसकी तरफ आती दिखाई दी। उसके माथे पर बल पड़ गए। फिर सोचा, शायद बाथरूम जा
रही होगी। लेकिन जब वह ठीक उसके पीछे आ गई तो रोमी तुरंत पलट गई।
‘रोमी.. तुम रोमी
ही हो न?’ बिलकुल सामने खड़ी महिला ने सवाल किया।
अचरज में थी रोमी। सोचने लगी कि कौन हो सकती है यह जो बिलकुल ठीक-ठीक पहचान रही है उसे। फिर जैसे कुछ-कुछ याद आ रहा हो, उसने अपनी
स्मृति पर जोर डाला।
‘नहीं पहचाना?’ सामने वाली
मुस्कुरा रही थी।
एक हद तक
पहचानते हुए उसकी तरफ उंगली दिखाते हुए फुसफुसाई ‘..आ..आम्ना!’
‘ओ येस।’ रोमी से लिपट गई
आम्ना खुशी से झूमती हुई गोया इतना करीबी इंसान पहले कभी नहीं मिला हो।
रोमी को भी उतनी ही खुशी का अहसास हो रहा था। साथ ही झेंप भी हो रही थी कि उसने आम्ना को पहचानने में इतनी देर लगा दी। लेकिन यूनिवर्सिटी वाली और आज की आम्ना में बहुत फर्क आ गया था। थुलथुल नहीं कही जा सकती, लेकिन देह पूरी तरह भर आया था। चेहरे पर वह ताजगी नहीं थी, आंखों के नीचे
काले धब्बे उभर आए थे।
‘रोमी, वाकई दस साल बाद
भी तुम जस-की-तस हो यार।’ बहुत खुश थी आम्ना। बोली, ‘वही डील-डौल, चेहरे पर वैसी ही ताजगी। हां, आंखों से शक्की जरूर हो गई हो।’
दोनों के ठहाके
लगे तो वेटिंग रूम में आराम फरमा रहे कई लोग उचककर उनकी ओर देखने लगे। वे दोनों
झेंप गईं।
रोमी उसे अपनी
कुर्सी पर बैठाने लगी तो आम्ना ने कहा, ‘बेटियों को नहीं
देखोगी?’
‘हां, क्यों नहीं।
बच्चियों को देखकर लगा कि वे तुम्हारी ही होंगी।’
‘मगर अभी वे सोई
हुई हैं।’
‘कोई बात नहीं, अभी निहार ही
लेंगे। परिचय बाद में कर लेंगे। और ..तुम्हारे मियां?’
‘बताएंगे भई, उसके बारे में भी बताएंगे। मगर वो तुम्हारे शौहर जैसा हैंडसम नहीं है।’ आम्ना का इशारा प्लेटफार्म की तरफ गएरॉकी की ओर था।
रोमी को आम्ना
का इशारा समझने में देर नहीं लगी। उसके चेहरे पर एक ठहराव सा आ गया। बोली, ‘आम्ना, वो मेरा हसबैंड
नहीं है।’
‘ओ..सॉरी यार।’ आम्ना सकुचा गई।
‘कोई बात नहीं, आओ बैठते हैं।’ रोमी ने हाथ
पकड़ कर आम्ना को बैठा लिया। फिर पूछी, ‘इधर कैसे आना
हुआ, कोई रिलेशन है या ..?’
‘नहीं, कोई रिलेशन नहीं
है। बस, बच्चों को घुमाने ले आई थी। अब छुट्टियां खत्म हो गईं, सो वापस जा रही हूँ।’
अभी रहना कहां
हो रहा है?
‘पटना में।’
‘कहां-कहां घूमी?’
‘पहाड़ों की ओर निकल गई थी। नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत हो आई।’ आम्ना ने बताया, ‘देर रात लौटी हूँ।
किसी होटल में रुकने से बेहतर समझी कि वेटिंग रूम में ही टिक लें ताकि
सुबह-सुबह पटना के लिए ट्रेन पकड़ी जा सके। लेकिन बेकार हो गया। ब्रह्मपुत्र मेल और मगध एक्सप्रेस दोनों चार से पांच घंटे लेट चल रही हैं।’
‘ट्रेन लेट होने
से मैं खुद बहुत परेशान थी, लेकिन अब लगता
है अच्छा ही हुआ।’ तसल्ली से बोली आम्ना, ‘मेरी ट्रेन समय से आ
जाती तो रात में ही मैं घर चली गई होती। और तुमसे भेंंट नहीं हो पाती।’
‘हां ये तो है।’ रोमी की
आशावादिता पर मुस्कुराई आम्ना। फिर पूछा ‘तुम गई कहां थी?’
‘हिमाचल गई थी’, रोमी ने जवाब
दिया, ‘जम्मू भी जाने का मन था लेकिन संयोग बन नहीं सका। और छुट्टियां भी खत्म हो रही
थीं।’
‘हो यहीं?’
‘हां, फिलहाल यहीं हूँ
शादी के बाद से। अगले दो-चार दिन तुम भी अब यहीं रहोगी, मेरे साथ।’
‘अरे नहीं, फिर कभी रुक
लूंगी।’
‘वो दिन फिर कब
लौटेगा, कौन जानता है। तुम्हें तो रुकना ही पड़ेगा।’ भावुक हो गई
रोमी।
आम्ना ने हाथ बढ़ा कर उसका गाल छुआ, ‘जिद न करो रोमी।
घर पर कई काम निपटाने हैं। पंद्रह दिनों से
बाहर हूँ। फिर मेरी ट्रेन आने में अभी बहुत लेट है, मन भर बातें तो यहीं बैठे-बैठे कर लेंगे।’
‘ये कोई बात नहीं हुई आम्ना।’ चेहरा उतर आया
रोमी का, ‘मुझे अच्छा नहीं लगेगा अगर यहां तक आने
के बावजूद तुम मेरे मकान तक नहीं जा सकोगी तो।’
‘अहमियत मिलने की है रोमी।’ आम्ना ने समझाने की कोशिश की, ‘बाकी सारी
जिंदगी पड़ी है एक-दूसरे के यहां आने-जाने के लिए। सोचो, दस साल बाद बिना
पता-ठिकाना के हमारी मुलाकात हो गई...अब तो होती
ही रहेगी। आगे हम एक-दूसरे के संपर्क में रहेंगे।’
‘जरूर रहेंगे
आम्ना, जरूर रहेंगे।’ रोमी ने आम्ना का दोनों हाथ अपनी हथेलियों में दबा लिया। बोली, ‘उन दिनों को कैसे भूल सकती हूँ कि हमारा साथ उठने-बैठने, खाने-पीने, घूमने-फिरने तक
ही नहीं था, जीवन की कई अहम बातें, जाती परेशानियां हमने आपस में शेयर की हैं।’
‘वाकई रोमी’, आम्ना ने
स्वीकार किया, ‘जिंदगी के सबसे हसीन वक्त गुजारे हैं हमने साथ-साथ।
बंदिशों से आजाद वे लम्हे कभी लौट कर वापस नहीं आ सकते। सही मायने में वो हमारी आजादी के दिन थे। अपने मन की करने की पूरी छूट थी तब। बहुत याद आता है वो
गुजरा हुआ जमाना।’
थोड़ी देर दोनों के बीच चुप्पी रही। पहल आम्ना ने की। अपनी अन्य सहेलियों, सहपाठियों के
बारे में रोमी से पूछा, ‘और किसी से मुलाकात होती है? कविता, वैशाली, रितु, जस्सी, मेहानी, कुलसुम से? और वो, क्या नाम था
उसका नीली आंखों वाली का?’
‘कौन?’
‘अरे वही...जो
याकूब के साथ गुटरगूं किया करती थी हर वक्त!’
‘ओ...नीरू?’ याद आ गया रोमी
को।
‘हां-हांं, नीरू...नीरू
चौधरी।’ आम्ना ने तस्दीक की।
‘इंटीरियर
डेकोरेटर हो गई है। हसबैंड पुणे में एक्साइज ऑफीसर है। एक बार मिली थी। बता रही थी
कि हसबैंड उसे बहुत मानता है।’
‘वेरी लकी गर्ल
शी इज’, खुशी जताते हुए आम्ना ने पूछा, ‘हसबैंड मतलब
याकूब न?’
‘नहीं यार, वो तो बस ऐसे
ही...टाइम पास था।’
आम्ना ने अचरज
में कंधे उचका दिए।
मुस्कुराते हुए अपने चेहरे को एक तरफ झटका रोमी ने, फिर बताने लगी, ‘और का तो पता नहीं। वैशाली कभी-कभार मिल जाती है पार्लर में। उसने शादी नहीं की और जस्सी जैसे-तैसे परिवार की गाड़ी खींच रही है।’
‘वैशाली ने शादी
क्यों नहीं की?’ आम्ना की जिज्ञासा बढ़ गई।
‘बस ऐसे ही। कहती
है किसी मर्द को चौबीसों घंटे ढोना मुश्किल है उसके लिए।’ रोमी के कहने का
अंदाज बिलकुल सपाट था।
आम्ना को इस खबर
पर जैसे विश्वास नहीं हुआ, ‘..लेकिन उसने तो तीन-चार लड़कों से
दोस्ती बना रखी थी!’
‘हां, वही तो। फिर पता
नहीं क्या हुआ। हो सकता है उन्हीं लड़कों की सोहबत से मिले अनुभव से मन फिर गया हो।’ चिंतित स्वर था
रोमी का, ‘बताती भी तो नहीं है खुलकर। यह जरूर
कहती है बार-बार कि मरने के पहले अपनी आत्मकथा लिख छोड़ेगी।’
‘तब तो जरूर दिल
पर चोट खाई है उसने, शर्तिया।’ आम्ना ने अपनी बात पर जोर डाला।
‘लगता तो ऐसा ही
है।’ रोमी भी इसे सच मान रही थी।
‘और जस्सी?’
‘वह अपने हसबैंड के पीने से परेशान है। बहुत पीता है। इतना कि पीने के बाद देह के कपड़ों का भी खयाल नहीं रहता।’ सहेली के लिए
अफसोस कर रही थी रोमी, ‘सूख कर कांटा हो गई
है बेचारी। यूं समझो कि बस जीए जा रही है।’
चुप हो गई दोनों। कोई ट्रेन सामने वाले प्लेटफार्म पर लग रही थी। कुलियों की आवाजाही और वेंडरों की आवाज तेज हो गई। निस्पृह भाव से दोनों उधर देखने लगी।
‘मैं तो बिलकुुल
कट गई सब से। किसी के बारे में कोई जानकारी नहीं
मुझे’, धीमे-धीमे शब्दों पर जोर देते हुए बोली आम्ना।
फिर जैसे याद आया, रोमी से पूछ बैठी, ‘अच्छा ये तो बताओं.. तुम क्या कर रही हो?’
‘सीएमएस कॉलेज में
लेक्चरर हूँ।’
‘अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई’, खुशी में आम्ना
ने रोमी का हाथ पकड़ लिया, ‘चलो हमने न सही, तुमने तो
पढ़ाई-लिखाई को सार्थक किया। तुम्हारे हसबैंड क्या
करते हैं?’
‘पत्रकार हैं..’ पथराई आवाज थी
रोमी की।
‘बहुत खूब।
बुद्धिजीवियों का मिलन.. बड़ा मजा आता होगा न?’
‘मम्मी...’ केशू ने आम्ना
की जिज्ञासा को अधबीच छोड़ दिया।
रोमी को केशू की
एंट्री पसंद आई। वह अपने पति की चर्चा से शायद बचना चाह रही थी।
रॉकी का हाथ छुड़ा कर केशू रोमी के पास चला आया। वह कुछ बोलना चाहता था लेकिन सामने अपरिचित महिला को देख कर सकुचा गया और रोमी के पीछे जा कर खड़ा हो गया।
रोमी और आम्ना
हंसने लगीं।
‘केशू बेटे, आइए सामने आइए। अपनी आंटी से मिलिए। ये मेरी दोस्त हैं। कॉलेज में मेरे साथ पढ़ती थीं। जैसे बिट्टू, बेबो, जोजो तुम्हारे
साथ पढ़ते हैं।’ रोमी ने हाथ पकड़कर केशू को सामने किया।
केशू ने आम्ना
को नमस्ते किया। आम्ना उसे अपने पास खींचते हुए बोली, ‘महज नमस्ते से
काम नहीं चलेगा। आंटी से दोस्ती भी करनी होगी।’
केशू के गालों
पर लाज गुलाबी हो गई। होंठ मुस्कुरा उठे। बिना कुछ बोले वह लगातार अपनी मां को
देखे जा रहा था।
रोमी ने रॉकी का परिचय कराया, ‘ये हैं रॉकी, हमारे
रिश्तेदार...फिलहाल जे.आर.एफ. के तहत पी-एच.डी.
में लगे हैं। वैसे इनका अच्छा-खासा बिजनेस है कागजों का।’
आम्ना और रॉकी
ने एक-दूसरे को नमस्ते किया।
पेप्सी की एक ही
बोतल लाया था रॉकी। बोला, ‘अभी दूसरा ले आता हूँ।’
आम्ना ने रोका, ‘नहीं, रहने दीजिए। इसी
में हम दोनों पी लेंगे। सालों बाद यह मौका मिला है।’
‘नहीं, अब हम दोनों
चलेंगे न प्लेटफार्म की तरफ। वहीं ले लेंगे।’ रोमी इस मौके का पूरा लुत्फ उठाना चाहती थी। वह केशू से बोली, ‘आप तो घूम आए, अब हमलोग जाएंगे घूमने। तब तक आप शांति से बैठिएगा।’
केशू ने
स्वीकृति में सिर हिला दिया।
रोमी को लेकर आम्ना अपनी टेबल की तरफ आई। दोनों बच्चियां अभी भी सोई हुई थीं। रोमी ने प्यार से बच्चियों को निहारा। हल्के हाथ से उनके बालों को सहलाती हुूई बोली, ‘बहुत प्यारी बच्चियां हैं...फूल सी कोमल और खूबसूरत।’
‘बड़ी का नाम नूरी
है और छोटी का जूही।’ आम्ना ने परिचय देना उचित समझा।
‘क्या बात है।
जैसी सूरत वैसा नाम।’ प्रशंसा के भाव से बोली रोमी।
‘सीरत भी इनकी
उतनी ही अच्छी है।’ आम्ना खुद मुग्ध थी।
‘जरूर होगी। जगने
पर खूब बातें करूंगी दोनों से।’ रोमी ने आम्ना
का हाथ दबाया।
रॉकी से नूरी और
जूही का खयाल रखने और उनके जागने पर तुरंत बुला लाने को कहकर रोमी आम्ना के साथ
वेटिंग रूम से बाहर निकल आई।
‘बाकी बातें छोड़ो, अपने बारे में
कुछ बताओ’, रोमी ने एक तरफ चलने का इशारा किया।
‘क्या बताऊं अपने बारे में। कुछ भी अच्छा नहीं है। सुनकर मन खट्टा हो जाएगा तुम्हारा।’ आम्ना के चेहरे से लग रहा था कि बीती बातों को याद कर उसका जख्म फिर से हरा हो जाएगा।
‘फिर भी..दुुख-दर्द बांट नहीं सकते, लेकिन आपस में
चर्चा करके अपने मन को हल्का तो कर ही सकते
हैं।’ रोमी को इतना समझ में आ गया कि आम्ना खुश नहीं है अपनी पारिवारिक जिंदगी से।
‘तय नहीं कर पा रही कि कहां से शुरू करूं अपनी कहानी।’ आइसक्रीम स्टॉल
की ओर बढ़ते हुए आम्ना ने कहा, ‘टुकड़ों में बता
रही हूँ, पूरी कहानी के लिए ढेर सारा वक्त चाहिए। और एक-एक
बात को याद भी नहीं करना चाहती।’
स्ट्रॉबरी के दो
कप लेकर वे दोनों प्लेटफार्म के आखिरी छोर पर एक खाली बेंच पर जाकर बैठ गईं।
‘रोमी, औरत की आजादी और
अधिकारों की बातें जोर-शोर से की जा रही हैं। सभाएं, गोष्ठियां, रैलियां, नेतागीरी और पता
नहीं क्या हो रहे हैं इसके नाम पर। लेकिन समाज के
बंधन और घरों की दीवारें कितनी कठोर और मारक हैं औरतों के लिए, इसका अंदाजा हम खुद नहीं लगा सकतीं।’ आम्ना का स्वर
अवसाद ढो रहा था।
रोमी ने स्वीकृति में सिर हिलाया, होंठों पर
दांतों का दबाव बनाया। आम्ना के शब्द उसे अपने
लग रहे थे। लेकिन वह कुछ बोली नहीं। वास्तव में अभी बस आम्ना को सुनना चाहती थी।
‘मेरा सारा आदर्श, सारी हेकड़ी मेरे घरवालों की वजह से ही टूट गई।’ धरती पर नजर
टिकाए बोल रही थी आम्ना, ‘छोटी थी तो लगता ही नहीं था कि कभी
अब्बू-अम्मी का साथ छूटेगा। थोड़ी
सयानी हुई तो समझने लगी कि हर लड़की तरह मेरे लिए भी एक अलग घर तलाशा जाएगा। लेकिन यह नहीं समझती थी कि अब्बू-अम्मी से सालों-साल के लिए अलग हो जाऊंगी।
निकाह के बाद नए
घर में जा बसी। कई तरह की खुशियां, कई तरह के सपने
साथ ले गई थी। लेकिन जल्द ही अहसास हो गया
कि वह अब्बू-अम्मी के घर जैसा नहीं है। मायके में कम-से-कम अपने मन से हंस-बोल तो सकती थी। ससुराल के नियम-कायदों में जल्द ही घुटन महसूस करने लगी थी। मेरे घर में पर्दा न के बराबर था। इसके उलट ससुराल में बेमुरौव्वत पर्दा था।
हमारी भौजाइयां आई थीं तो इतना जरूर जान गई कि बहुओं को बेटियों की बनिस्बत अधिक खबरदार रहना होता है। लेकिन कभी खयाल भी नहीं आया था कि ससुराल में हंसने-रोने पर भी अपना काबू नहीं रहेगा। हालत यह हो गई कि अगर अपने मन से कभी हंस पड़ी तो गुनाह माना गया और उनके हंसे में साथ नहीं दिया तो आफत आ पड़ी। मेरे आंसुओं तक की पहरेदारी की जाती रही।
हर काम में खोट निकाला जाता, हर घड़ी पहरे जैसी हालत होती। मेरी
सुंदरता, मेरी पढ़ाई, मेरी अक्लमंदी दो कौड़ी की होकर रह गई। दिन भर महरी की तरह खटना और रात तो शौहर के लिए सज-धज कर तैयार हो जाना ही कायदा था। पर यह सब हमसे अधिक दिनों तक नहीं हो सका। घर में कामकाज तो करती रही लेकिन रात को सजने-संवरने में मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। शायद वह भी कर जाती अगर इरफान उस लायक होता। मगर उसके पास तो कोई तमीज ही नहीं थी। बात करने, पुकारने और बाकी
व्यवहार का उसका तरीका बड़ा ही बर्बर था। वैसा कोई अपनी रखैल या फिर गुलाम के साथ ही कर सकता है।
परफेक्शन होता तो औरत को लेकर इरफान की निहायत घटिया सोच को फिर भी बर्दाश्त कर जाती। लेकिन उसके दिल-दिमाग का कोई कोना रोशन न था। पढ़-लिखकर भी जाहिल था।’
‘कैसे मुलाकात
हुई इरफान से तुम्हारी?’ रोमी ने पूछा।
पहले नकार में सिर हिलाया फिर बोली आम्ना, ‘मुलाकात नहीं, महज इत्तेफाक कह
सकती हो उसे। लखनऊ में हमारी बड़ी खाला की मंझली लड़की सकीना आपा की ससुराल है। एमए की परीक्षा के बाद कुछ महीने मैं उनके पास रही थी। वहां इरफान का आना-जाना था। वहीं रहते रिश्ते की बात पक्की हो गई।’
‘निकाह से पहले उससे बात नहीं की थी, जिंदगी के बारे
में उसके विचारों को जानने की कोशिश नहीं
की थी?’ रोमी का प्रश्न सहानुभूति से लबरेज था।
‘अब क्या बताऊं...’ अफसोस कर रही थी आम्ना, ‘पीछे मुड़ कर
देखती हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है खुद पर कि उस इंसान
को पहचानने में इतनी लापरवाही क्यों कर गई जिससे रिश्ते
की बात चल रही थी। उस दरम्यान मुझसे मिलने, बातें करने और सिर्फ मुझे देखने के बहाने हफ्ते-दस दिन में सकीना आपा के घर आ पहुंचता था इरफान। सकीना आपा और उनके शौहर इन मामलों में पूरी तरह शहराती थे, बावजूद इसके उन्होंने मुझे कभी भी इरफान के सामने आने, उससे बात करने
की जिद नहीं की। यहीं उनसे भूल हुई और यहीं मैं
चूक गई। एक-आध दफा चाय-नाश्ता रख आने के सिवा शायद ही
कभी मैं उसके पास बैठी या बातें की। इसलिए चिकनी-चुपड़ी बातों से सकीना आपा को बरगलाने वाले उनके शौहर के दूर के रिश्तेदार को निकाह से पहले परखने से रह गई। खामियाजा सालों तक भुगतना पड़ा।’
आम्ना थोड़ी देर
के लिए चुप हो गई, लेकिन अबकी रोमी ने कोई प्रश्न नहीं किया।
आम्ना ने फिर कहना शुरू किया, ‘निकाह के तकरीबन
तीन साल बाद नूरी पैदा हुईं, पांचवें साल
जूही। नूरी के वक्त ससुुराल वालों को लगा कि चलो बहू का बांझपन तो टूटा, लेकिन जूही के आने पर तो उनके सब्र का बांध ही टूट गया। लानतों की बौछार होने लगी हम पर। कोई कुछ बोलता, उससे ज्यादा
फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जब इरफान के ताने बढ़ने लगे तो बहुत तकलीफ होने लगी। फिर मैंने फैसला कर लिया कि ज्यादा सहूँगी नहीं।
एक दिन इरफान जैसे मूड बना कर आया था। कोई सस्ती शराब पी कर। शायद देसी या ठर्रा। आते ही लगा बकने। जोर-जोर से गालियां देने। बेटा न पैदा कर सकने के लिए। जब तक इरफान बोलता रहा, घर के सभी लोग चुप थे। लेकिन जब
मैं पलट गई तो सभी अपनी खोहों से
निकल-निकल कर आ जमे। उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि सिर्फ बेटियां पैदा करने वाली औरत उनके खानदान के चिराग से बतकही करे। उनकी आंखें गुर्रा रही थीं, होंठ बुदबुदा रहे थे। लेकिन मैंने
भी किसी की परवाह नहीं की और चीख पड़ी, ‘तुम जो पैदा कर
सकते हो, वही पैदा हो रहा है। अलहदा अरमान हैं तो
डॉक्टरों से जांच करवा कर तसल्ली कर लो।’
‘फिर?’ रोमी रोक नहीं
पाई खुद को मानो वह परिणाम से वाकिफ हो।
‘फिर क्या...इरफान समेत तमाम लोगों को जैसे काठ मार गया। अपनी खीझ मिटाने के लिए इरफान मारने दौड़ा, बाकी सब उसे ललकारने लगे। इरफान
नशे में था या उसका ईमान जवाब दे
गया था, कह नहीं सकती, लेकिन डंडा खोजने के बहाने पलंग के नीचे झुका तो
पौवे से टकरा कर गिर पड़ा और फिर उठ न सका। थोड़ी देर में बाकी लोग भी खिसक लिए।
मैंने इरफान को
किसी तरह उठा कर बिछौने पर लिटा दिया। चीख-चिल्लाहट सुन कर नूरी और जूही जाग गई थीं। बेहद डरी-सहमी बच्चियों को छाती से लगाकर वहीं जमीन बैठ गई मैं। फिर हम तीनों कब सो गए, पता ही नहीं चला। सुबह नींद खुली
तो इरफान वैसे ही बेसुध पलंग पर पड़ा हुआ था। मैं घर
के कामों में लग गई।’
‘मेल-मिलाप कर
लिया होगा उसने?’ रोमी ने संभावना जताई।
‘नहीं, हमारे बीच तनाव
बढ़ते ही चले गए।’ आम्ना की आवाज सख्त थी, ‘बाद में मेरे चाल-चलन को लेकर फब्तियां कसी जाने लगीं। इसके लिए इरफान ने योजना बना ली थी। वो कई दोस्तों को ले आता। वक्त-बेवक्त चाय-नाश्ते का आर्डर दे देता। दोस्तों की खातिरदारी का पूरा खयाल रखने की हिदायत देता। बाद में परिवार वालों के सामने कहता, ‘वे लड़के इसकी वजह से ही यहां आते
हैं। यह जानबूझकर उनके सामने जाती है, मटकती है।’ परिवार वाले भी
बुरा-सा मुंह बनाते और चबा-चबा कर
अल्फाज निकालते, ‘अब तो सबर ही करो बेटा। हमारी ही गलती थी। ठोक-बजाकर
जांच-परख लिया होता तो आज बाईजी के नखरे न उठाने पड़ते। जानते कि ब्याह कर तवायफ ही लानी है तो ढूंढकर कोई ढंग की लाते।’
अब तुम्हीं बताओ
रोमी, कैसे बर्दाश्त कर पाती मैं यह सब। क्या तुम कर पाती?’ आम्ना का प्रश्न
आवेग भरा था।
रोमी ने नकार
में सिर हिलाया और अपने होंठ भींच लिए।
‘मैं अपने ईमान और शख्सियत को लेकर कितनी चौकन्नी रही हूँ, तुमने तो देखा
है। बावजूद इसके कि अपनी खूबसूरती को मजे में भुना सकती थी। यूनिवर्सिटी में देवू, सलीम और सरवन ने कौन-कौन से जतन नहीं किए अपनी बात मनवाने के लिए, लेकिन सबको मेरी
झिड़की ही मिली। वे सभी पढ़े-लिखे थे, खाते-पीते घरों
के थे और सबसे ज्यादा..मेरी खातिर हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार थे। अब सोचती हूँ कि जब पाक साफ रहते हुए भी लानत-मलामत ही झेलनी थी तो एक ही आदमी से निभाने की जिद क्यों पकड़े रही।’
थोड़ा रुकी, फिर एक लंबी सांस लेने के बाद आम्ना बोली, ‘तीसरी औलाद न हो, इसके लिए मैं पूरी तरह चौकन्ना थी। चुपके से गोलियां ले लेती। लेकिन जब दो साल यूं ही खाली गुजर गए जूही के आने के बाद तो मेरी सास ने इरफान से अपना शक जताया। इरफान ने मुझसे बात की। मैंने साफ कह दिया, तीसरी औलाद की
दरकार नहीं है मुझे और जल्द ही मैं नसबंदी कराने वाली हूूं। बस फिर क्या था, इरफान ने मेरी
वो पिटाई की कि मैं सह नहीं पाई। जब होश आया तो खुद को हॉस्पिटल में पाया।’
‘फिर?’ रोमी सिमट कर और
करीब आ गई। बहुत दुख हो रहा था उसे आम्ना का जिंदगीनामा सुनकर।
‘दस दिन तक अकेली हॉस्पिटल में बेड पर पड़ी रही।’ आम्ना के होंठों
पर तिक्त हंसी उभर आई, ‘न ससुराल से कोई देखने आया न मायके से। घर लौटी तो बच्चियां सूखकर कांटा हो गई थीं। रोते-रोते और मार खाते उनका बुरा हाल था।’
‘तुमने कुछ नहीं
कहा?’ रोमी को गुस्सा आ रहा था।
‘वहां कहने-सुनने
जैसी हालत नहीं थी।’ आम्ना संयत थी। बोली, ‘उसके अगल ही महीने इरफान ने मुझे
तलाक दे दिया।’
‘सच कह रही हो?’ रोमी को वाकई
विश्वास नहीं हो रहा था। वह सोच रही थी कि अधिक से अधिक दोनों के बीच तकरार और बढ़
गया होगा।
‘हां रोमी, इन्हीं दो
बच्चियों तक मेरी दुनिया आबाद है।’ एक खालीपन लिए
हुए थे आम्ना के बोल।
‘गुजारे के लिए
कुछ दिया उसने?’ रोमी कुछ ज्यादा ही चिंतित हो उठी थी।
‘उसकी मैंने परवाह नहीं की।’ भावुकता पर काबू रखने की कोशिश
करती बोली आम्ना, ‘मैं नहीं चाहती थी उन पचड़ों में पड़ना। बेटियों को अपने दम पर पालना चाहती थी, वही कर रही हूँ। मेरे पास अब्बू-अम्मी के दिए जेवरात थे ठीक-ठाक। उनमें से कुछ के बदले बैंक से लोन ले लिया पचास हजार रुपये।’
‘घर के किसी
मेंबर ने साथ नहीं दिया तुम्हारा?’
‘इरफान से अलगाव के पहले एक बार मैं गई थी उसके बपौती गांव रहमतगंज कि शायद कोई इंसाफ पसंद हो खानदान में। कोई तो होगा जो इंसानियत का पक्ष लेगा। लेकिन किसी ने मेरी बातों पर कान नहीं दिया, उल्टे कुछ अटपटा
ही सुना दिया। यहां तक कि देवर
रिजवान ने भी, जिसे मैंने ससुराल रहते खूब प्यार और इज्जत दी। एक बार पूछा तक
नहीं कि आगे कहां और कैसे रहूँगी।
सकीना आपा और उनके शौहर हमसे सहानुभूति रखते थे, मगर उनकी भी
अपनी दुनिया थी, अपने मुश्किलात थे। फिर उनके प्रति एक तरह की नाराजगी घर कर गई थी मेरे भीतर, इरफान से रिश्ता जुड़ने के तईं।’
‘मायके लौट जाती?’
‘मायके मैं लौटना नहीं चाहती थी। अब्बू-अम्मी होते तो फिर भी हिम्मत कर लेती, लेकिन भाइयों की
तंग दुनिया में मेरा गुजारा आसान न था। वहां जाकर अपना स्वाभिमान खोना मुझे गवारा न था।’
‘इरफान कभी पलट
कर नहीं आया?’
‘आया, कई बार आया।’ पटरी पार झगड़ते
कुत्तों पर नजर गड़ाए बोली आम्ना, ‘..लेकिन दर्द सहलाने नहीं, बल्कि जिंदगी में और भी ज्यादा जहर
घोलने के लिए। कई बार खुद आया
डराने-धमकाने के लिए, कई बार दूसरों को भेजा।’
‘वो क्यों भला?’
‘बस यूं ही, परेशान करने के लिए। मुझसे या मेरी बेटियों से कोई हमदर्दी तो थी नहीं उसे। बस, दिखाना चाहता था कि उसके बगैर स्टैब्लिश करना आसान नहीं होगा मेरे लिए। हुंह..!’ हिकारत से कंधे को एक झटका दिया
आम्ना ने। बोतल से दो घूंट पानी हलक
के नीचे डालने के बाद बोली, ‘मेरे संघर्ष के
दिनों में उसने बेहयाई का नंगा नाच किया। जिसे
अपनी बेटियों की आबरू का भी खयाल न हो, उसकी बेहूदगी के बारे में सोचकर ही घिन आती है। फिर भी बताती हूँ तुम्हें।
तलाक के बाद शुरू में हमने सड़क किनारे ही एक कमरा ले लिया था किराए पर। उसी में परचून की दुकान चलाती और तीनों मां-बेटियां रहती भी थीं। गुसलखाना अंदर कॉमन था। कई परिवार रहते थे। तीन तल्ला बड़े मकान में जन्मी-बढ़ी आम्ना कैसे एक छोटे से कमरे में बेटियों सहित रहती-कमाती थी...काश, तुम अपनी आंखों
से देख पाती!
दो पुलिस वाले
अक्सर मेरी दुकान पर आते और बिस्कुट, दालमोट या टॉफी
लेने के बहाने घूरते रहते। उनकी बातें भी बेहयाई
से भरी होतीं। हालांकि वे अपने में बतियाते लेकिन इशारा हमारी तरफ ही होता। खैर, लड़कियों-औरतों
के लिए फिकरेबाजी कोई नई बात नहीं है। सब समझते
हुए अनजान बनी रही।
एक दिन उन हरामजादों ने मेरे अलावा नूरी और जूही को समेटते हुए ऐसी बात कह डाली कि मैं सावन-भादों की नदी की तरह उफना गई। खूब चीखी-चिल्लाई, गंवार औरत की तरह उन दोनों को भद्दी-भद्दी गालियां दी। आस-पड़ोस और सड़क पर आ-जा रहे सैकड़ों लोग जमा हो गए। अपनी फजीहत होते देख वे दोनों वहां से खिसक लिए। उसके बहुत बाद तक मैं बोलती-चीखती उनकी करनी लोगों को बताती रही। बाकी लोगों ने तो अपनी राह पकड़ी, लेकिन पड़ोसियों
ने हमारी परेशानी जरूर समझी।
कोई घंटे भर बाद सब कुछ शांत हो गया। लेकिन मैं भीतर ही भीतर खौलती रही। रात को जल्दी दुकान समेट कर सो गई। करीब दो बजे रात को किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया। पहले तो मैं समझी कि हवा के झोंके से दरवाजा हिल रहा होगा। लेकिन बार-बार खट-खट होने और उसकी लय से समझ गई कि कोई खटखटा रहा है। मेरा तो सर्वांग सिहर उठा। अकेली औरत...आधी रात...और बाहर किसी अजनबी की उपस्थिति। मेरी धड़कनें तेज हो गईं... धौंकनी हुई छाती को काबू में करने के लिए मैंने अपने होंठ भींच लिए। नूरी और जूही को छाती से जकड़ लिया। कई बार खटखटाने के बावजूद जब हमने कोई आवाज नहीं दो तो बाहरवाले ने किवाड़ जोर से भड़भड़ाना शुरू कर दिया। तेज-तेज आवाज में गालियां बकते हुुए दरवाजा खोलने के लिए कहने लगा। उसकी आवाज की लड़खड़ाहट से स्पष्ट था कि उस पर शराब चढ़ी हुई थी।
मुझे लगा कि आज मेरा सारा सत नाश होकर रहेगा। रात के अंधेरे में कोई मेरा दरवाजा भड़भड़ाए तो मोहल्ले वाले क्या सोचेंगे-कहेंगे। कितनों को मैं समझा पाऊंगी कि बाहर कौन था, मुझे पता नहीं।
इतना तो तब होगा जब सुबह होगी। उसके पहले ही बाहर
खड़ा शैतान दरवाजा तोड़कर भीतर घुस आए तो मैं क्या करूंगी। अकेली जान उससे मुकाबला करूंगी या दो नन्हीं जान की हिफाजत।
मैं बुरी तरह
कांप रही थी। मेरी आंखों से जार-जार आंसू निकल रहे थे। अब्बू-अम्मी की बेतहाशा याद
आ रही थी।
कयामत की रात थी
वह। मैं जीना चाहती थी और बाहर खड़ी हैवानियत मेरा दरवाजा खटखटा रही थी। एक-एक
लम्हा मौत बन गया था।’
आम्ना की
व्यथा-कथा से सकते में थी रोमी। चेहरे को हथेलियों से दबाया और दुख में डूबी सहेली
को टुकुर-टुकुर ताकने लगी।
आम्ना बोलती रही, ‘बच्चियां उठ न जाएं, इसलिए मैं दम साध कर रो रही थी
लेकिन दरवाजा पीटे जाने से बच्चियां जाग गईं और मुझे रोती देख खुद जोर-जोर से रोने लगीं।
यह अच्छा ही
हुआ। अड़ोसी-पड़ोसी जो अब तक जाग गए थे और शायद हालात का मन-ही-मन जायजा ले रहे थे, बच्चियों के बेतहाशा रोने से बाहर निकल आए। बाहर कौन है.. क्या बात है.. पूछने वाली कई आवाजें आने लगीं तो मुझे तसल्ली हुई। मैंने अपनी उखड़ती सांस को काबू किया और साहस बटोरकर दरवाजा खोल दिया।
वही दोनों पुलिस वाले थे। शराब के नशे में धुत अंट-शंट बक रहे थे। अपनी ही आवाज पर उनका वश नहीं था। जुबान और शरीर दोनों से लड़खड़ाते हुए मेरे मकान मालिक को हड़का रहे थे, ‘रंडी को घर में रखते हो? धंधा करवाते हो? अभी...और इसी वक्त अंदर कर दूंगा।’
मकान मालिक को काटो तो खून नहीं। आग बबूला होकर दोनों सिपाहियों को जुबान संभालने की हिदायत दे रहे थे। दूसरे पड़ोसी भी उन्हें दुत्कार रहे थे। लेकिन वो बदजात अपनी खीझ मिटाने के लिए जोर-जोर से गालियां बके जा रहे थे।
इसी बीच किसी ने फोन से थाने पर सूचना दे दी। दस मिनट के भीतर पुलिस की एक जीप वहां आ लगी। दरोगा के कड़ाई से पूछने पर उन सिपाहियों ने सच उगल दिया। हम मां-बेटियों को परेशान करने के लिए इरफान ने उन्हें पैसे दिए थे।’
‘ओह नो...!!’ रोमी का मुंह
खुला रह गया। आंखें फैल गईं। उसने अपने मुंह पर हाथ रख लिया।
‘हां रोमी, यही सच है।’ आम्ना के होठों
पर हंसी विकृत हो गई।
‘आदमी इतना घटिया
हो सकता है, विश्वास नहीं होता।’ अवसादग्रस्त थी रोमी।
‘फिर भी मैं
मानती हूँ कि सब वैसे नहीं होते। हां, उस घटना के बाद
से इरफान नामक शख्स के बारे में सोचती भी नहीं।’
‘लेकिन उसका हुआ
क्या?’
‘बेहूदों को
शर्मो-हया तो होती नहीं। सुना है तीसरी शादी करने जा रहा है।’
‘और दूसरी?’
‘दूसरी उम्र में
बहुत छोटी थी। मारपीट से आजिज होकर कहीं भाग गई।’
‘अरे, कितनी शादियां
करेगा। किसी को तो दिल से अपनाए?’
‘देह उसका आखिरी मुकाम है। वहीं से शुरू होकर वहीं खत्म होता है। देह की सीमा जो पार नहीं कर सका वो दिल की भाषा कैसे समझ सकता है भला।’ दार्शनिक अंदाज में अपनी बात खत्म कर चुप हो गई आम्ना।
बेंच पर सिर टिका कर आंखें मूंद ली रोमी ने। सोचने लगी कि कैसे बताऊं आम्ना से कि उसने भी कम जलालत नहीं झेली है। कि वह खुद अपने हसबैंड से अलग रहती है। आखिरी सवाल पूछने के लिए वह आम्ना की ओर मुखातिब हुई, ‘आगे क्या अकेले
रहने का इरादा है?’
आम्ना को इस
सवाल का जैसे पहले से इलहाम था। छूटते ही बोली, ‘किसी और पर
विश्वास करने का दांव अब नहीं खेलना
चाहती। वैसे भी अकेली हूँ कहां। दो-दो बेटियां हैं साथ में। उनकी और अपनी जिम्मेदारी निभाते जिंदगी कट जाएगी।’
‘हमारी तकदीर किसी लिजलिजे और डरपोक किस्म के देवता ने लिखी होगी आम्ना!’ गंभीर हो उठी थी रोमी। बोली, ‘इसलिए तमाम काबिलियत और खूबियों के
बावजूद हम जिंदगी की दौड़ में मर्दों के हाथों पिट जाती हैं।’
रोमी को गौर से
देखने लगी आम्ना। मुस्कुरा कर पूछा, ‘क्या बात है, पत्रकार महोदय
से पटरी नहीं बैठ रही?’
‘पटरी बैठने का सवाल ही नहीं उठता।’ तेज बोल रही थी
रोमी, ‘जिसकी कथनी-करनी में मेल नहीं हो, जो दिखावे की
जिंदगी जी रहा हो। जो अपनी कमियां ढंकने के लिए दूसरों के
चरित्र पर कीचड़ उछालता हो, उसके साथ पटरी कोई धर्मभीरू और पतिपरायण महिला ही बैठा सकती है। मुझसे संभव नहीं था, सो दोनों
अलग-अलग हो गए।’
‘अरे, पत्रकार हैं तो
इंटेलेक्चुअल होंगे यार!’ आम धारणा के तहत अपना मंतव्य रखा
आम्ना ने।
‘सुअर की नेड़ी हैं।’ फनफना उठी रोमी, ‘शो तो ऐसा करता है जैसे बहुत बड़ा इंटेलेक्चुअल हो
लेकिन उसकी हकीकत मैं जानती हूँ। वे सब जानते हैं जो उसके करीब रह चुके हैं। छंटा हुआ बदमाश है। सफेदपोश।’
‘क्या हो गया?’ बुजुर्ग की तरह
पूछ रही थी आम्ना, ‘क्या नाम है उनका?
‘नागों का
इंद्र...नागेन्द्र’ बुरा सा मुंह बनाया रोमी ने।
‘अरेंज थी या लव
मैरिज?’ आम्ना जड़ से ही तकरार के सूत्र पकड़ना चाह रही थी।
‘अफसोस इसी बात
का है कि लव मैरिज की थी मैंने’ रोमी भुनभुनाई, ‘जिंदगी की सबसे
बड़ी भूल थी।’
‘मैं तो चलो अरेंज मैरिज की वजह से समझ नहीं सकी इरफान को। शादी से पहले हमने इसकी कोशिश भी नहीं की, मगर तुम्हें तो
जांचने-परखने का मौका मिला था यार?’ आम्ना ने टहोका।
‘अब क्या बताऊं आम्ना। गलती पर महज अफसोस ही कर सकती हूूं।’ बहुत दुखी हो गई
रोमी, ‘दरअसल हम लड़कियां अपनी भावुकता की वजह से कदम-कदम पर ठोकरें खाती हैं। किसी ने चिकनी-चुपड़ी बातें की नहीं कि हम सपनों के समुुद्र में तैरने लगती हैं। इसका पूरा फायदा मर्द जात उठाती है। तुम्हारा सवाल जायज है आम्ना, हमें उसके नेगेटिव्स को प्वाइंट करना चाहिए था शादी से पहले। उसकी बातचीत और व्यवहार के तरीकों में ही कई संकेत मौजूद थे जिससे खबरदार हुआ जा सकता था। मगर क्या है कि जब किसी से बेइंतहा प्यार करो तो उसके बारे में नेगेटिव प्वाइंट को ढूंढने वाला तंतु पता नहीं कहां गायब हो जाता है या क्षीण हो जाता है।’
एक छोटी सी
चुप्पी के बाद रोमी ने कहना शुरू किया, ‘सेमिनारों, गोष्ठियों में
आते-जाते नागेन्द्र से मेरी मुलाकात
नजदीकी में बदल गई। उसके प्रगतिशील विचारों और औरतों के प्रति खुले सोच पर मैं लट्टू होती चली गई। शहर के एक संपन्न और चर्चित अखबार का फीचर एडीटर शादी का ऑफर कर रहा हो तो कोई अपरिचित लड़की भी शायद ना न करती, मैं तो खैर उसके
प्रेम पाश में जकड़ जुकी थी। बेइंतहा प्यार करने लगी थी उससे। उस झोंके में इतना भी सब्र नहीं रहा कि तसल्ली से उसके घर-परिवार की खोज-खबर ली जाए। मम्मी-पापा को अपने फैसले के बारे में सूचना दे दी जाए। विवेक को ताक पर रख कर उससे शादी कर ली। बाद में मम्मी-पापा को बताया।
मम्मी-पापा की दरियादिली थी कि उन्होंने ज्यादा विरोध नहीं किया। दुख जरूर हुआ उन्हें, लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि चलो बेटी ने लड़का ठीक ही चुन लिया है। नागेन्द्र को बुलाया, उसका उचित सम्मान किया। तब तक
नागेन्द्र का बर्ताव भी ठीक-ठाक ही था।
मुश्किल तब पैदा हुई जब मैंने ससुराल जाने की इच्छा जताई। वह मुझे अपने घर ले जाने से मुकरने लगा, मेरे बार-बार
कहने पर झंुझलाने लगा। उसका यह बर्ताव अखरने वाला
था। मैंने इसकी वजह जानना चाहा तो उसने यह जताने की कोशिश
की कि घरवालों से उसके संबंध अच्छे नहीं हैं। उसने अपने दम पर पढ़ाई पूरी की है और नौकरी पाई है। अब फिर उस जंजाल में लौटना नहीं चाहता है।
उसने अपनी बातों
का झांसा दे कर तत्काल मुझे मना लिया। लेकिन बहुत
जल्द उसकी असलियत पर से पर्दा उठने लगा। उसके कई तरह के
फोन आते। लड़कियों के उलाहने होते, पैसों की वापसी
का तगादा होता। पूछती तो नागेन्द्र कहता कि उसके यार-दोस्त जानबूझकर फोन करते हैं मुझे चिढ़ाने के लिए भाभी के रिश्ते के तईं। लेकिन उसकी बातों से मुझे संतोष नहीं हुआ।
शक तो मुझे हो
ही गया था। उसकी तह तक जाने के लिए मैं उसके फोन पर नजर रखने लगी। कुछ ऐसे फोन सुनने को मिले कि मैं बौखला गई। मैंने पापा को चुपके से उसके गांव भेजा। जब वह लौट कर आए तो तूफान खड़ा हो गया मेरी जिंदगी में। नागेन्द्र पहले से शादीशुदा था। अपनी पहली पत्नी को गांव में ही छोड़ रखा था। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए उसके पास फटकता भी नहीं था।
‘धत् तेरी की..इन
मर्दों की ऐसी की तैसी’ गुस्से में दांत किटकिटाया आम्ना
ने।
‘मेरे दिल पर क्या गुजरी क्या बताऊं आम्ना।’ दिल की गहराइयों
से बोल रही थी रोमी, ‘गलती खुद की थी
मैंने, इसलिए मन-ही-मन घुटने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकती थी। दो-चार
दिन बंद कमरे में जी भर कर रोयी-धोयी।
मुझे समझाने-बरगलाने की खूब कोशिश की नागेन्द्र ने, लेकिन मैं उसे
और मौका देने के पक्ष में कतई नहीं थी। जब उसने
देखा कि मैं अपनी जिद से हटूंगी नहीं तो पलटवार करते हुए
रॉकी को लेकर मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने की कोशिश की।’
‘इस रॉकी को लेकर?’ आम्ना की
जिज्ञासा बढ़ी।
‘हां...इसी रॉकी
को लेकर’, ठंडी सांस ली रोमी ने।
‘क्या रिलेशन है
तुम्हारा इससे?’ स्वाभाविक सवाल था आम्ना का।
‘रॉकी नागेन्द्र का चचेरा भांजा है।’ पहलू बदलते हुए
रोमी ने कहा, ‘लेकिन हमउम्र होने की वजह से दोस्ताना था उनमें।
नागेन्द्र से मेरी दोस्ती को शादी में बदलवाने में
रॉकी का अहम हाथ रहा था। बिलकुल घुले-मिले रहे हम शुरू से। कभी मामी-भांजा रिश्ते को लेकर तो कभी दोस्ताना मजाक हो जाता था हमारे बीच। इसी को आड़ लेकर नागेन्द्र ने उसका नाम मेरे साथ गलत ढंग से जोड़ दिया।’
‘क्या यार!
पढ़ा-बेपढ़ा सबका खयाल बराबर है औरतों के मामले में।’ खीझ गई आम्ना।
‘ऐसोंं की संख्या सौ में नब्बे जरूर होगी’ रोमी ने समर्थन
किया, ‘नागेन्द्र को ही लो। बातचीत में, लेखों में, सभा-गोष्ठियों
में संवेदनशीलता, वैचारिक क्रांति, लैंगिक समानता, मानवतावाद और
पता नहीं कैसे-कैसे गरिष्ठ, शिष्ट शब्दों की जुगाली करता रहता है, लेकिन हकीकत में
जस्ट रिवर्स। कथनी-करनी में कोई मेल
नहीं। ...दुष्चरित्र और बेहूदा।’
‘फिर क्या किया
तुमने?’ आम्ना निर्णय सुनना चाहती थी।
‘नागेन्द्र से सब दिन की खातिर नाता तोड़ लिया।’ रोमी की आवाज
में हिकारत थी, ‘मेरे और उसके बीच किसी तरह का साझा या
अपनापा नहीं है। न आना न जाना, न बातचीत न भेंट-मुलाकात। कुछ भी नहीं।’
‘अच्छा किया’, आम्ना को अपनी ससुराल वाली हालत याद आ गई, ‘घुट-घुट कर जीने
वाली नेक बहू बनने की कोई जरूरत नहीं है। जीने के लिए हम किसी के मोहताज नहीं हैं यार। रोटी-कपड़ा जुटाने की कूव्वत है हममें।...ताली सुननी हो तो दूसरे को भी चोट सहने के लिए बराबर से तैयार रहना होगा।’
‘बिलकुल’, रोमी ने आम्ना
की बातों का समर्थन किया, ‘दो साल भी नहीं टिक सका मेरा और नागेन्द्र का वैवाहिक जीवन। अलग होते वक्त केशू पेट में ही था, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह मेरे साथ है। उसके लिए मुझे कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी। और नागेन्द्र अपनी संतान को पाने के लिए बहुत इच्छुक भी नहीं था। कुछ दिन तो पापा के यहां रही। फिर अपना घर तैयार हो गया तो उसमें शिफ्ट कर गई। जब भी कहीं आना-जाना होता है या कोई बड़ी जरूरत आ पड़ती है तो रॉकी को बुला लेती हूँ। उसकी पत्नी भी आ जाती है। अभी वह गर्भ से है, डॉक्टर ने बड़ी यात्राएं करने से मना किया है, वरना आज उससे भी
तुम्हारी मुलाकात हो जाती।’
‘अच्छा होता, उस खुशनसीब से
भी मिल लेती। मां बनने के लिए मेरी ओर से बधाई देना उसे।’
‘जरूर’, आम्ना को
आश्वस्त किया रोमी ने।
‘देखने से ही रॉकी कायदे का आदमी लगता है।’ यार्ड की तरफ से
आ रहे इंजन को देखते हुए आम्ना ने
कहा, ‘विश्वास बड़ी चीज है उसे चाहे शौहर निभाए या दोस्त।’
रोमी ने आकाश की
ओर देखा। सुबह दस्तक देना चाह रही थी। आम्ना ने कहा, ‘बच्चियां जाग गई
होंगी।’
‘उन्हें अब जाग
ही जाना चाहिए।’ आश्वस्ति से बोली आम्ना।
बेंच छोड़कर दोनों ने अंगड़ाइयां लीं। वेटिंग रूम की तरफ बढ़ीं तो देखा सामने से नूरी, जूही और केशू हमजोली बनाए उनकी तरफ ही चले आ रहे थे मुस्कुराते हुए।
रोमी और आम्ना ने एक-दूसरे को देखा और सुखद अहसास से भर उठीं। कौवे सुबह के गीत गाने लगे, कुत्तों ने भोजन की तलाश शुरू कर दी। प्लेटफॉर्म पर कोई ट्रेन लगने जा रही थी। चाय-पान वालों की आवाजें तेज हो गईं, गमछी झाड़ कर
पगड़ी बनाते कुली बोगियों की तरफ दौड़ने लगे।
एचएमवीएल, शीशमहल टावर,
24/30, महर्षि दयानंद
मार्ग,
सिविल लाइंस, इलाहाबाद-211001.
मोबाइल : 9532617710
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