भाविनी त्रिपाठी की कहानी 'नेवले'
भाविनी त्रिपाठी |
भाविनी त्रिपाठी बी टेक द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं। उनमें गहरे साहित्यिक संस्कार भरे हुए हैं। उनकी कहानियाँ पढ़ कर आप सहज ही इसका अंदाजा लगा सकते हैं कि भाविनी में भविष्य का एक संभावनाशील रचनाकार संचित है। 'नेवले' कहानी के माध्यम से भाविनी ने उन तत्वों को उजागर करने की कोशिश किया है जो छुपे रुस्तम होते हैं। ऐसे लोग मौके की ताक में रहते हैं और अवसर मिलते ही अपनी क्रूरता दिखाने से नहीं चूकते। 'पहली बार' पर आप पहले भी भाविनी की कहानियाँ पढ़ चुके हैं। आइए आज हम पढ़ते हैं उनकी एक और नयी कहानी 'नेवले'।
नेवले
भाविनी त्रिपाठी
तुम्हारा प्रथम स्पर्श अब
भी स्मृति-पटल पर अंकित है... सर्वथा सुरक्षित। कैसे भुला सकती हूँ मैं उस दिन को, उस सुबह को, जब तुम आई थी, मेरे घर से अधिक
मेरे दिल में। याद है मुझे जेठ की वह सुबह। आसमान साफ था। सूर्य, किसी गाँव के
सबसे बूढ़े व्यक्ति की तरह, अपना तेज सब पर बरसाता, प्रकृति के कण-कण के क्रिया-कलापों का निरीक्षण कर रहा था। हवा अपने हाथों के
कंगन बजाती कभी किसी पेड़ को छेड़ती तो कभी किसी पुष्प के सिर पर हाथ फेर कर उसे
तृप्त करती। प्रकृति अपने चिर किन्तु नित-नूतन खेल में व्यस्त थी।
मैं बरामदे में बैठी कुछ लिख
रही थी। तब मुझे नहीं मालूम था कि दूर कहीं बैठा सृष्टि का वो सू़त्रधार अनोखी
लीलाएं रच रहा है। एक आवाज़ ने मेरी सरपट भागती हुई कलम की गति पर सहसा विराम
लगाया। नज़रें उठीं तो तुम्हारे गिरने का साक्षी बनीं। हाँ, मुझे हवा देने वाले उसी
पंखे ने तुम्हारे कोमल परों को कतर कर तुम्हें धरोन्मुख कर दिया था। पंख तो
तुम्हारे कट ही गए थे, पर न जाने क्यों मैने उठकर सर्वप्रथम पंखा बंद
कर दिया। मुझे अपने भय का कारण अब भी ज्ञात नहीं पर तुम्हारी ओर बढ़ता हुआ मेरा हर
कदम नपा और सहमा हुआ सा था। मैंने देखा, कैसे तुम अपने कटे हुए
पंखों में अदम्य इच्छाशक्ति भर कर फिर आकाश नापना चाहती थी। कैसे तुम उन आधे पंखों
को फड़़़फड़ाती, ज़मीन से कुछ उठती, पर फिर गिर जाती
थी। तुम्हारे प्रयास, तुम्हारी जिजीविषा आज भी मेरे कठिन क्षणों में
मेरी प्रेरणा बना करते हैं।
मेरा अपनी ओर बढ़ना जैसे तुमने भाँप लिया। तुम्हारी छटपटाहट और भी
बढ़ गयी। कैसे ज़मीन पर घिसट कर ही तुमने मुझ से दूर जाने की यात्रा प्रारम्भ की थी।
यह देख कर मैं ठिठक कर रुक भी गयी थी।
फिर स्थापित हुआ तुम्हारी
आँखों का मेरी आँखों से संवाद। यह भाषा हम दोनों के लिए ही नई थी पर जिस कुशलता से
संवाद हो रहा था, उसे देख कर यह तनिक भी नहीं लग रहा था कि हम में से कोई भी इस भाषा के लिए नया
है। तुम्हारी आज तक की यात्रा किसी मंद बयार सी सीधे मेरे हृदय की ओर बह चली।
मैंने देखा कि कैसे अभी हाल ही की बात थी कि तुम अपने घोंसले में अपनी माँ के
पंखों के नीचे अपने छोटे से स्वर्ग में रहा करती थी। उस समय माँ की चोंच से खाया
दाना और उसके पंखों के नीचे की नरमी ही तुम्हारा संसार था। फिर एक दिन आया जब उसी
माँ ने तुम्हें हल्का सा धक्का दे दिया। माँ की इस कठोरता का रहस्य तुम्हे तब तक
पता न चला जब तक गिरने के डर से ही तुम ने अपने पंख नहीं फैला दिये। फिर माँ के
मौन आशीर्वाद और अपनी आकांक्षाओं का सहारा ले कर, चल दी तुम अपने
सपनों का आकाश नापने। एक वह दिन था और एक आज का अभागा दिन है।
सिर्फ़ इसी मौन संवाद ने
लाडली, मुझे तुम्हारी
झिझक के बावजूद तुम्हारे पास आने की शक्ति दी। भले ही मेरा प्रथम स्पर्श तुम्हारे
लिए भय को वास्तविकता का आकार देता प्रतीत हुआ हो पर मेरे लिए तुम्हारा स्पर्श आज
भी कोमलता की मिसाल है। मैंने जैसे तुम्हें उठाने की कोशिश की तुम दूर छिटक गयी।
दो बार असफल होने पर भी तीसरी बार मैंने तुम्हें हाथ में उठा कर तुम्हारे सिर पर
हाथ फेरा। उस समय तुम्हारी विस्मय युक्त दृष्टि कैसे भूल सकती हूँ। तुम ने मुझे
ऐसे देखा मानो मेरे होने पर विश्वास न हो। मैं तुम्हें सहलाती रही और न जाने क्या
सोच कर तुमने फड़़फड़ाना छोड़ कर स्वयं को मेरे हाथों में सौंप दिया। अब मुझे
तुम्हारे पंखों पर दवा लगाने की सुध आई।
एक हाथ में तुम्हें लिए, तुम्हारी साँसों
का स्पन्दन महसूस करते हुए ही मैं रूई और दवा इत्यादि ले आई। दवा लगाते वक्त जब-जब
तुम खुद को मेरी अँगुलियों से दूर खींचने का प्रयास करती थी जब-जब तुम दर्द से
अपनी आँखें भींच लिया करती थी, तो सच मानो मुझे भी उतनी ही पीड़ा होती थी।
घर की सब से बड़ी टोकरी
खोल कर मैंने उसपर रूई का बिस्तर बिछाया। आह! वो क्षण रह-रह कर याद आता है जब मैं
तुम्हें बिस्तर पर सुला रही थी और तुम मेरे हाथ छोड़ कर कहीं और जाने को तैयार नहीं
थी। अत्यधिक कम समय में ही हम ने कैसा अटूट रिश्ता स्थापित कर लिया था।
शाम को तुमने पानी पीया
था। अगले दिन सुबह मैंने तुम्हें अपने हाथों से लाई खिलाई थी। सोचती हूँ, न जाने कैसे, तुम्हें कब प्यास
लगी है, कब भूख, मुझे समझ आने लगा
था। घंटों हम साथ बैठा करते। घर के लोगों को आश्चर्य होता पर हमें पता था कि कितनी
ही मौन बातें कर डाली थी हमने। नियमित दवा लगाने का असर दिखने लगा था। मेरे आह्लाद
का ठिकाना न था जिस दिन तुमने पंख फैलाए थे।
मुझे बहुत अच्छा लगता था
लाडली! जब तुम मेरे अलावा किसी और के हाथों से दाना लेने को मना करती थी। जब मेरे
भाई-बहनों में से कोई तुम्हें उठाना चाहता तो कैसे तुम भाग कर मेरे हाथों में आकर
सिमट गयी थी।
तुम्हें सदा बिल्ली की
लालची निगाहों से बचाया था। उस दिन जब तुम्हें बाग में खुला छोड़ा था, कैसे तुम्हारे
पीछे-पीछे घूमी थी। अब तुम थोड़ा-थोड़ा उड़ने भी लगी थी। मैं तुम्हें तब तक अन्दर
नहीं लाई थी जब तक तुम खु़द अपनी टोकरी में वापस नहीं आ गयी थी।
उस दिन मुझे लग गया था कि
अब वह दिन दूर नहीं जब तुम पूर्ण रूप से ठीक होकर फ़िर उड़ जाओगी। मुझे दुःख तो हुआ
था इस ख्याल से कि तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी। परन्तु सच्चा प्रेम कभी बाँधता नहीं, यह सोच कर मैंने
खुद को समझा लिया था।
मुझे क्या पता था कि अगली
सुबह ने हम दोनों के लिए कुछ अलग ही सोच रखा है।
रोज़ की तरह उस दिन भी
मैंने बाहर खुली हवा खाने के लिए तुम्हें आँगन में रख दिया था। थोड़ी दूर पर मैं
कुछ कर रही थी। फ़िर जो इन आँखों ने देखा उसे शब्दों में उकेरने का बस प्रयत्न ही
कर सकती हूँ। न जाने कहाँ से एक नेवला आया। उसने तुम्हारी टोकरी का ढक्कन हटाया।
जब तक मैं पहुँचती, वह क्रूर तुम्हें अपने दाँतों में दबा कर न
जाने कहाँ ले गया। मैं बदहवास दौड़ी, तुम्हें छुड़ाने के लिए जी-ज़ान से और तेज़ी से
दौड़ी, पर वह पलक झपकते ही पता नहीं कहाँ निकल गया। मैं लुटी सी बैठ गयी। तुम्हारे
साथ ही दुलारी! मेरे कितने सपने दम तोड़ रहे थे। तुम्हें फ़िर अंजुलि में ले कर
प्यार करने को तड़प गयी। कहाँ तुम्हें कुछ दिनों में खुला उजला आसमान मिलने वाला था
और किसी क्रूर की हवस ने तुम्हारे नसीब में दातों के बीच की संकीर्ण काली जगह ही
लिख दी। मैंने बिल्लियों से तो हमेशा बचाया था परन्तु नेवलों पर ध्यान क्यों नहीं
गया? मैं कुछ नहीं कर पायी लाडली! मैं कुछ नहीं कर पायी। मेरा प्यार हार गया। तुम
चली गयी और तुम्हारे साथ ही जैसे मैंने अपना भी एक हिस्सा हमेशा के लिए खो दिया।
मैं अश्रु बहाती रही। पर
अचानक एक विचार ने उन्हें रोक दिया। मेरा तुमसे नाता तो सिर्फ़ पन्द्रह-सोलह दिनों
का था, और तब तुम्हारे अन्त पर मुझे इतनी पीड़ा हो रही थी। उन माँओं के दर्द की थाह
कौन लेगा जिनकी नन्ही कलियों सी ‘चिड़ियाओं’ को ऐसे ही ‘नेवलों’ की हवस का शिकार
बनना पड़ता है। पन्द्रह दिनों से जो सपने बुन डाले थे, जब उनके मसल दिए
जाने पर मेरी यह गति हो सकती है तो उनकी गति कैसी होगी? उनकी गति कैसी
होगी?
सम्पर्क –
ई-मेल : jntripathi@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
It's beautiful. Subtle and beautiful.
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