वैभव सिंह का आलेख 'अंधेरे मेः आत्मसंघर्ष के निहितार्थ'
हिन्दी की कालजयी कविताओं की जब भी बात की जायेगी ‘अँधेरे
में’ कविता की चर्चा जरुर की जाएगी। इस कविता का वितान महाकाव्यात्मक है। काफी लम्बी कविता होने के बावजूद जब
हम इसमें प्रवेश करते हैं तो प्रायः वही स्थितियां पाते हैं, मुक्तिबोध जिसके भुक्तभोगी
थे। हमारे यहाँ आज भी वही दुरभि-संधियाँ होती हैं। देश की सर्वसाधारण जनता ‘अँधेरे में’ जीने-रहने
के लिए आज भी अभिशप्त है। अपने को जनता का सेवक कहने वाले नेता और नौकरशाह कैसे
उसी सामन्तवादी दृष्टिकोण का परिचय देने लगते हैं यह कहने-बताने की बात नहीं। आज मुक्तिबोध
का जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस विशेष अवसर पर मुक्तिबोध को नमन करते हुए युवा आलोचक वैभव
सिंह का आलेख 'अँधेरे में : आत्मसंघर्ष के निहितार्थ' हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
अंधेरे में : आत्मसंघर्ष
के निहितार्थ
वैभव सिंह
मुक्तिबोध
की लंबी कविता ‘अंधेरे
में’ हिन्दी में क्लासिकल कविता का दर्जा प्राप्त कर चुकी है। विडंबना यह
कि इस कविता का प्रकाशन मुक्तिबोध के जीवन काल में नहीं हो सका। इसका प्रकाशन 1964
में उनकी मृत्यु के कुछ समयोपरांत हैदराबाद से बद्री विशाल पित्ती के संपादन में
छपने वाली हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका 'कल्पना' में हुआ। तब यह ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में’ नाम से प्रकाशित हुई थी पर बाद में यह ‘अंधेरे में’ नाम से ही चर्चित हुई। अशोक वाजपेयी के अनुसार
इस कविता का सबसे पहले पाठ 16 नवंबर 1959 को सागर में मुक्तिबोध ने किया था और तब
अशोक वाजपेयी स्वयं बीए के छात्र थे। 6 सितंबर 1914 के ‘हिंदुस्तान’ अखबार के अंक में उन्होंने लिखा - ‘हमने ऐसी विचलित करने वाली कविता पहले कभी नहीं
सुनी थी, न ही पढी थी। उनमें नियमित छंद नहीं था पर उसकी संरचना में लय के कई रूप
थे और वे कई अप्रत्याशित मोड़ों पर आ कर चकित करते थे। हमारे समय का अंधेरा उस
दोपहर मानो उस कविता के माध्यम से उस कमरे में छा गया था और कविता हमारे सामने उसे
रोशन कर रही थी। हमें तब यह पता तक न था कि हमारे समय का एक क्लैसिक हमारे सामने
पढ़ा जा रहा है।’ बाद में आपात काल के दौरान चित्र श्रृंखलाओं की
आधार रचना के रूप में इस कविता का प्रयोग किया गया था।
हिन्दी
में तानाशाहों व तानाशाही के खिलाफ सार्थक अभिव्यक्ति को तलाशने के विषय पर ‘अंधेरे में’ जैसी उदात्त रचना दूसरी नहीं लिखी गई है। आजादी के बाद का ईमानदार बुद्धिजीवी उस संभावित आतंक को
भांप रहा था जो उसके खिलाफ कभी दबे-छिपे और कभी खुल कर निर्मित हो रहा था। लोकतांत्रिक
राजसत्ता या तो बुद्धिजीवियों को पालतू बना लेने या फिर उनके दमन के फार्मूले पर
चलती है। असहिष्णुता का जो विराट तांडव शुरू हुआ है, उसके विकास की अपनी ऐतिहासिक
प्रक्रिया है। आज जिस दाहक माहौल से आज का बुद्धिजीवी गुजर रहा है और उसकी जुबान
पर ताला जड़ने की तैयारी चल रही है, आजादी के ठीक बाद वैसा ही आतंक मुक्तिबोध के
अनुभव जगत का भी हिस्सा बन गया था। मुक्तिबोध नेहरू के प्रशंसक थे और ‘दून घाटी में नेहरू’ नामक निबंध में उन्होंने नेहरू के आराम और
स्वास्थ्य के बारे में अपनी चिंता प्रकट की थी। पर फिर भी वे भारतीय गणतन्त्र में
पनपती फासीवादी प्रवृत्तियों के प्रति संवेदनशील हो गए थे। उन्होंने अपने अस्तित्व
को ओर लपकती अग्नि-शिखाओं से संघर्ष की नियति को पहचान लिया था और उसे ‘अंधेरे में’ व्यक्त किया। शमशेर ने इसीलिए इस कविता को ‘दहकता इस्पाती दस्तावेज’ कहा था। उन्होंने मुक्तिबोध की ताकत को पहचान
लिया था। मुक्तिबोध जब मृत्य-शैय्या पर पड़े थे तो शमशेर उनके पहले काव्य संग्रह ‘चांद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका में यह बात लिख रहे थे- ‘एकाएक क्यों सन 64 के मध्य में गजानन माधव
मुक्तिबोध विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो उठे।’ आगे वह लिखते हैं- ‘मुक्तिबोध एकाएक हिन्दी संसार की घटना बन गए। कुछ
ऐसी घटना जिसकी ओर से आंख मूंद लेना असंभव था। उनकी एकनिष्ठ तपस्या और संघर्ष, उनकी
अटूट सचाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावना के केंद्रीय मंच पर सामने आ
गए। और अब हमने उनके कवि और विचारक-रूप को एक नयी आश्चर्य-दृष्टि से देखा।’
पूंजीवाद
की बढ़ती ताकत के कारण गहरा घना अंधकार फैल रहा है और यही घुटन भरा हत्यारा अंधकार
उन की ‘अंधेरे में’ कविता का मुख्य वातावरण है। रात के पक्षी की चीख
है और जंगल से आते सियारों का शोर है जो सूने अंधकार को और आतंककारी बना देता है।
इसी अंधकार में कोई उससे बार-बार मिलने आता है तो उसकी खोई हुई ‘परम अभिव्यक्ति’ है। इस ‘परम अभिव्यक्ति’ को स्वतन्त्रता के बाद शिक्षित-ईमानदार मध्य वर्ग
द्वारा समाज में विचारधारात्मक हस्तक्षेप की बौद्धिक आकांक्षा के रूपक के तौर पर
भी देखा जा सकता है। लेकिन ताज्जुब की बात है अंधकार से ज्यादा कविता में प्रकाश
के बिंब उभरते हैं। मशाल, मणि तेज, तेजस्क्रिय बिंब, स्वर्णिम लाल चिनगियों,
वस्तुओं का निज निज आलोक, जलते जंगल, भड़की आग, दियासलाई की लौ, रेडियोएक्टिव
रत्न, नीली गैसलाइट, द्युतिमान मणियां वहां जगमगाती हैं। प्रकाश के बिंब उभारने की
तल्लीनता तो ऐसी है कि कहीं बंदूक चलती है तो भी कवि को आलोक पैदा होता दिखता है
और मकान के ऊपर गेरुआ प्रकाश सा छा जाता है। वेदना भी दहकती और जलती हुई लगती है।
यानी, अंधकार व्यंजित करती कविता में रोशनी के उदाहरणों की अलग से सूची बनाई जा
सकती है। न तो यह विरोधाभास है, न असंगति। न ही किसी काव्य-रूढि का पालन करने की
कृत्रिम कोशिश जैसा कि पुरानी कविताओं में हमें दिखता था। अंधकार के ऐसे भयावह
प्रकोप, जो सामान्य अंधकार नहीं बल्कि विचार व मनुष्यता के अभाव के कारण छाया
अंधकार है, को उभारने के लिए प्रकाश-बिंब पैदा किए गए हैं ताकि अंधकार की एकरसता
भंग हो और अंधकार अधिक प्राकृतिक लगे। ऐसा न लगे कि कवि अपनी संवेदना को किसी
दिखावे के अंधकार के हवाले कर चुका है या वह किसी छटपटाहट की बीमारी की गिरफ्त में
है जिसे आत्मसंघर्ष नहीं माना जा सकता है। रोशनी के लक्षण या उदाहरण उसके गहरे आत्मसंघर्ष
को व्यक्त करने में सहायक सिद्ध होते हैं। आत्म-संघर्ष की मुख्य विशेषता यह होती
है कि वह परस्पर विरोधी मनोदशाओं के मध्य स्वयं को पाता है और अपनी उन मनोदशाओं के
बीच नैतिक मूल्य व निर्णय को भी जन्म देता है। सामान्य रूप से व्यक्ति अपने भीतरी
विचारों के बारे में उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक, उत्कृष्ट-निकृष्ट आदि का तेजी से
निर्णय नहीं करता है पर आत्म-संघर्ष में यह एक विशेष तीव्रता के साथ घटित होता है।
इसी आत्मसंघर्ष में आलोक व अंधकार के विरोधी चित्र साथ आते हैं और उनके सहारे जो
नाटकीयता पैदा होती है वह वास्तविकता के तीखेपन को व्यक्त कर देती है। इस
आत्मसंघर्ष का एक पक्ष ज्ञान व अनुसंधान की नयी मध्यवर्गीय स्थितियों से भी जुड़ता
प्रतीत होता है। भारतेंदु युग से लेकर छायावाद तक निरंतर ज्ञान-अनुसंधान की
चेष्टाएं साहित्यिकों के भीतर विकसित होती दिखती है पर स्वतन्त्रता के बाद सहज ही
उनका उद्देश्य बदल गया। न्याय, समानता, शांति व मुक्ति के उद्देश्य व्यक्ति की
अनुसंधानी वृत्ति का अभिन्न अंग बन गए। अनुसंधानी वृत्ति के सहज बौद्धिक दबाव के
कारण वह अपने परिवेश से ठोस मूर्तगत व भौतिक परिचय कायम करने की तरफ तेजी से बढ़ता
है। नयी स्थितियों का सामना करने की चेष्टा उसके अहं को सहलाती है तो झकझोरती भी
है। मुक्तिबोध की कविताओं की तरह ही उनकी कथाओं में ऐसे पात्र बहुत हैं जो शहर की
गलियों, छोटे चायखानों, रेल पटरियों, मजदूर बस्तियों आदि को रहस्यमय भाव से देखते
हैं और उनसे जुड़ने की ललक उनमें जाहिर होने लगती है। सड़क पर पैदल चलते या सड़क
पर भागते पात्र कई स्थानों पर आते हैं जो अपने शहरों को किसी खोजी निगाहों से
निहार रहे हैं। उनकी ‘अंधेरे में’ नाम से
कहानी भी है। वैसे ‘अंधेरा’ शब्द का प्रयोग कर हिन्दी में ही कई महान रचनाएं
लिखी गई हैं। अंधकार शब्द ने आत्मभ्रम से लेकर सत्ता के खिलाफ इंसानी भावभंगिमा तक
को उभारने में सहायता की है। भारतेंदु का ‘अंधेर नगरी’, मोहन राकेश का ‘अंधेरे बंद कमरे’, निर्मल वर्मा
की कहानी ‘अंधेरे में’ आदि ऐसी ही रचनाएं है। दुष्यंत ने गजल में बेपनाह अंधेरे की
बात करते हुए कहा –
‘मैं इन
बेपनाह अंधेरों को कैसे सुबह कह दूं
मैं इन
नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।’
मुक्तिबोध
ने ‘अंधेरे में’ शीर्षक से कहानी भी लिखी और कविता भी। मुक्तिबोध
की ‘अंधेरे में’ नामक कहानी का पात्र शहर की गलियों और संरचना से
सहानुभूति का भाव प्रकट करता चलता है। उनकी ‘अंधेरे में’ कविता में भी आत्म-विस्तार की बेचैनी दिखती है
जीवन-जगत से संबंधों को लेकर वैसा ही दुविधामय संघर्ष। पूरी कविता किसी शहर के ऊपर
छाए डर, हादसे व आतंक को व्यक्त करते हुए उस शहर के यथार्थ का अनुसंधान कर रही है
और प्रकारांतर में यह कवि मन की दशा है कि वह अपनी आत्मा का सूक्ष्म निरीक्षण करता
चल रहा है। ‘अंधेरे में’ कहानी का युवक पात्र अपने ही मध्यवर्ग के
ढीले-ढाले, सुस्त, आत्मसंतोषियों के जीवन के पाप के बारे में चिंतित हो रहा है तो ‘अंधेरे में’ कविता में भी वही आत्मधिक्कार का भाव जगह-जगह
छलकता दिखता है। उससे पैदा होने वाले असहनीय दर्द की लहर पूरी कविता में निरंतर
उठती और गिरती रहती है।
क्या
कहूं
मस्तक
कुंड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई
व गलती
मस्तक
शिराओं में तनाव दिन-रात
यानी
अगर उनकी रचना प्रक्रिया को ध्यान से देखें तो उनकी कहानियां और कविताएँ शिल्प में
भिन्न हैं लेकिन रचना प्रक्रिया के स्तर पर उनमें समानता है। भीतरी वेदना, बेचैनी,
अपराध बोध और संघर्ष को रचनात्मक की दोनों ही ही विधाओं में एक साथ व्यक्त कर रहे
थे। कहानियां और कविताएँ विधाओं के बंटवारे को नहीं बल्कि पूरक होने के तथ्य को
सिद्ध करती हैं। ‘अंधेरे
में’ कविता का शीर्षक
लेखक के साथ-साथ पूरे समाज की मनोदशा और संघर्ष की बेबाक बयानी करने वाला शीर्षक
था और कविता का पूरा विन्यास और उसकी अर्थसंकुलता में निजी-सामाजिक,
राजनीतिक-घरेलू, भीतरी-बाहरी जैसे समस्त पारंपरिक द्वैत निरर्थक हो गए थे और ऐसा
प्रतीत होता है जैसे एक अंधकार हर जगह उतर आया है। उस अंधकार से संघर्ष की
व्याकुलता भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है। जीवन की सारी मौज-मस्ती और बेफिक्री
कहीं हवा हो चुकी है। बहुत सारी सामाजिक विकृतियों का उपहास उड़ा कर बच निकलने के
बजाय उनके सबसे खतरनाक रूपों का सामना करने की मजबूरी दरपेश है। ऐसे जटिल दुष्ट
समय में समाज के आततायी वर्गों से संघर्ष का मोर्चा केवल जनांदोलन, क्रांति या
सामूहिक संघर्ष के जरिए नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के स्तर पर उसकी दुर्लभ ईमानदारी
के कारण आत्म-संघर्ष के माध्यम से भी समृद्ध हो रहा है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए
कि मुक्तिबोध के लेखन में आत्मसंघर्ष है पर उनके लेखन को तथा ‘अंधेरे में’ कविता को केवल आत्म-संघर्ष
की कसौटी पर कसना एक सीमा तक हीठीक है क्योंकि उनका लेखन आत्म-संघर्ष के साथ-साथ
समाज में जो विभिन्न स्तरों पर उठापठक, स्वार्थ-संघर्ष, नेपथ्य में चलते
षडयंत्र हैं, उन्हें भी उजागर करता हैं। कई बार तो लगता है कि आत्म-संघर्ष केवल
रचनात्मक प्रयोग की तरह है। वह सुचिंतित पद्धति या माध्यम का भी रूप ले लेता है और
इस तरह आत्म-संघर्ष समाज के जटिल संघर्षों का आईना बन जाता है।
मुक्तिबोध का एक दुर्लभ चित्र |
यह
कविता मुख्य रूप से किसी लेखक कीगहरे निजी आवेग में लिखी डायरी की तरह भी लगती है।
ऐसी डायरी जिसमें कोई अपनी उलझनों को व्यक्त कर रहा है। उसके भय, आशंकाएं, हौसला
और संभावना सब चित्रित हो रहे हैं और गद्य के कई दिलचस्प उदाहरण काव्य-सौंदर्य को
भी जन्म दे रहे हैं। कविता का शिल्प निःसंदेह प्रयोगशील है और नामवर सिंह ने नयी
समीक्षा की शब्दावली का प्रयोग कर उसका विश्लेषण पहले ही कर दिया है। पर मुख्य बात
यह है कि इसमें किन्हीं लंबे प्रसंगों में आए सामान्य कथन बहुअर्थी ध्वनियों के
रूप में प्रकट होते हैं और विडंबना की सृष्टि करते हैं। कोई कथन किसी एक अर्थ में
समाप्त नहीं होता है बल्कि वह मौलिक अर्थ-संधानों को आमंत्रित करता प्रतीत होता
है। जैसे कि कविता में आती है यह पंक्ति-
मेरे ही
विक्षोभ-मणियों को लिए वे
मेरे ही
विवेक-रत्नों को ले कर
बढ़ रहे
लोग अंधेरे में सोत्साह
किंतु
मैं अकेला
बौद्धिक
जुगाली में अपने से दुकेला।
यहाँ
बौद्धिक जुगाली में व्यस्त विद्वान वर्ग के तनाव, विवशता और स्वार्थ के बारे में
मुक्तिबोध बार-बार किसी विवेचन की मांग करने लगते हैं। इस में मुक्तिबोध की अपनी
दिक्कतें भी शामिल हैं क्योंकि ‘जन’ की बात करने वाले मुक्तिबोध खुद भी देश के
करोड़ों किसानों की संवेदनाओं से कटे हुए थे। फिर भी मुक्तिबोध जानते हैं कि प्रश्न
पूछने की कला से भी बड़ी होती है बार-बार अपने लिए सही प्रश्न तलाशने की कला। ‘अंधेरे
में’ कविता भी उत्तर से अधिक प्रश्न की साधना करने वाली लंबी कविता है। कविता में छायावादी
कविता खासकर निराला ने ‘सरोज स्मृति’ व ‘राम की शक्तिपूजा’ लिख कर लंबी कविता की संरचना में आत्मसंघर्ष की
संवेदना को व्यक्त करने की जो परंपरा डाली, उसका प्रभाव भी इस पर दिखता है।
छायावाद की ये कविताएँ या मुक्तिबोध की लंबी कविताएँ इस दावे को मिथ्या साबित करती
थीं कि लंबी कविता का ढांचा प्रायः किसी सामाजिक, मिथकीय या कथात्मक विषयवस्तु के
ज्यादा अनुकूल है। पर मुक्तिबोध को खासतौर पर इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि
उन्होंने लंबी कविता के शिल्प का इस्तेमाल आत्मसंघर्ष और सामाजिक चेतना के सह-संबंधों को उभारने में किया है, न कि उन्हें परस्पर विरोधी दिखाने के लिए।
आलोचकों
को मुक्तिबोध के शिल्प से काफी शिकायत रही हैं। जैसे कि मुक्तिबोध के ‘अयथार्थवादी शिल्प’ के प्रति नामवर सिंह ने अपना आकर्षण व्यक्त
किया। इसके बावजूद नामवर सिंह को लगा था कि मुक्तिबोध के पास गहरी चिंतन शक्ति तथा
बड़ा विषय लेने का सामर्थ्य तो है पर उसे वहन करने लायक कलात्मक सामर्थ्य नहीं है।
उन्हें यह भी लगा था कि मुक्तिबोध न तो दूसरे प्रयोगशील कवियों की तरह लय में कोई
प्रयोग करते हैं और वे बिंबों को भी अनायास ज्यादा खींचते हैं जिससे एकरसता पैदा
होती है। विरोधी बिंबों का ज्यादा ही प्रयोग करते हैं और कोमल चित्रों को प्रस्तुत
करते हुए अचानक कोई कठोर चित्र रखते हैं जिससे उनकी कविता का पाठक सकपका जाता है
और उसकी संवेदना झकझोरने का कवि-उद्देश्य पूरा हो जाता है। उनका मानना था कि यह
शिल्प अब पुराना हो गया है। ये सारी शिकायतें एक तरफ। मुख्य बात यह है कि
मुक्तिबोध के पास जो गहरी अनुभूति तथा उसे व्यक्त करने की दुर्लभ कशमकश है, वह
उनके शिल्प के ऊबड़ खाबड़पन को भी आकर्षक बना देती है। अनुभूतियों की तीव्रता थोड़े
मुश्किल, चक्करदार या न तराशे गए शिल्प में भी स्निग्धता भर देती हैं। उनके चिंतन
की ‘इंटेनसिटी’ स्वयं में काव्य-शिल्प का रूप ले लेती है और उस चिंतन की गहनता के
सामने कविता के लय संबंधी दोष तथा बिंबों की असंगतता के सवाल जरूरी होते हुए भी
बेमानी लगने लगते हैं। विचाराकुल मन का जो स्थापत्य कविता में ढल कर आता है, वह
कला के स्थापत्य को अप्रासंगिक बना देता है।
मुक्तिबोध
को हमेशा लगता था कि व्यक्ति के भीतर सचाई के पक्ष में खड़े होने और साहसपूर्ण
अभिव्यक्ति की जो अपार संभावनाएं हैं, उसका उसे उपयोग नहीं करने दिया जाता है। वह
बौद्धिकता को अपनी ईमानदारी से अर्जित तो करना चाहता है पर शीघ्र ही उसे अहसास
होने लगता है कि वर्तमान समाज का जैसा रूप व गठन है उसमें उस ईमानदार बौद्धिकता के
लिए स्वीकृति का अभाव है। इस कारण वह उस बौद्धिकता के बोझ को उठाने से खुद ही
इनकार कर देता है। उसका नैतिकता बोध कुछ दूर तक सही राह दिखाता है पर नैतिकता के
रास्ते पर चलने के जोखम उसे समाज के दूसरे लोगों जैसा बन जाने के लिए विवश कर देते
हैं। वह रोज समाज से अपने संबंधों पर विचार करता है और यह महसूस करता है कि समाज
से वैचारिक संबंध के स्थान पर स्वार्थपूर्ण संबंध बनाने की चेष्टा ही ज्यादा हितकर
साबित हो सकती है। यथार्थ को पहचानने, उसकी समस्याओं पर विचार करने और उसे बदलने
के लिए वह जागरूक होता है तो उस जागरूकता को वह स्वयं ही नष्ट भी कर देता है।
लेकिन नष्ट कर देने के बावजूद वह किसी अपराध बोध का शिकार होता चला जाता है। अंधेरे
में कविता में पंक्ति आती है-
पाता
हूं निज की खोज के भीतर
विलुब्ध
नेत्रों से देखता हूं द्युतियां
मणि
तेजस्क्रिय हाथों में लेकर
विभोर
आंखों से देखता हूं उनको
पाता
हूं अकस्मात
दीप्ति
से वलयित रत्न वे नहीं हैं
अनुभव,
वेदना, विवेक निष्कर्ष
मेरे ही
अपने यहाँ पड़े हुए हैं
कविता
के इस खंड में बाहरी चेतन मन और अवचेतन के झगड़े का चित्र उभरता है। बाहरी सामाजिक
चेतन मन बहुत सारी ईमानदारी व ईमानदारी से जुड़े संकल्प व विचारों को मन के किसी
भीतरी कोने में दबा देता है और उसका मुखौटा ही उसका कवच बन जाता है। इस सत्य को वह
अपनी कहानी ‘क्लाड ईथरली’ में भी लिखते हैं। यह कहानी उन्होंने 1959 के
आसपास लिखी थी। कथानायक क्लाड ईथरली वह व्यक्ति था जिसने दूसरे महायुद्ध में जापान
के हिरोशिमा नगर में ऐटम बम बरसाए थे और, कथावस्तु के अनुसार, वह इस पाप का
प्रायश्चित करना चाहता था लेकिन उसे पागलखाने में डाल दिया गया। इस कहानी में
पंक्ति आती है- ‘हमारे अपने-अपने मन-ह्रदय-मस्तिष्क में
ऐसा ही एक पागलखाना है जहां हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को
फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य,
भद्र हो जाएं, यानी दुरुस्त हो जाएं या उस पागलखाने में पड़े रहें।’ सहज ही समझा जा सकता है कि काव्य और कथा, दोनों
में मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष निरंतर तीव्र होता जा रहा था और वे जितने प्रश्न
संसार व समाज से पूछते थे, उतने ही प्रश्न मानव-मन से भी पूछते थे। जितना उन्हें
बाहरी बेईमानियां चिंतित करती थीं, उतना ही उन बेईमानियों के साथ सामंजस्य कायम कर
लेने की मानव-चेतना की प्रवृत्ति उन्हें परेशान करती थी। उन्हें मनुष्य अंतिम तौर
पर पशुवत, मक्कार या धूर्त नहीं लगता था बल्कि ऐसा प्राणी लगता था जिसमें बेहतर
होने की हमेशा संभावनाएं हैं और उन संभावनाओं के बारे में मनुष्य को स्मरण कराना
जरूरी है। इसीलिए उसके मन के उन कोनों में भी प्रवेश करना होगा जहां उसने अपने ही
उदात्त आदर्शों को दबा कर, कैद कर के रखा है। वे कवियों की उस महान परंपरा का ही
विस्तार करते हैं जिन्होंने वेदना को गरिमापूर्ण भाव समझा और सार्थक जीवन व
रचनात्मकता के लिए संचालक शक्ति के रूप में वेदना के महत्त्व को समझा।
‘अंधेरे में’ कविता बहुत सारे सामाजिक, वैश्विक और
विचारधारात्मक प्रसंगों को विस्तृत फलक पर उठाती है। यह करते हुए वह सधे हुए
व्यंग्य का सहारा लेती है और प्रायः वे जिस ‘कुलीन आभिजात्यता’ के बारे में जीवन भर लिखते रहे, उसके खिलाफ कई
सार्थक वक्तव्य देती है। यह व्यंग्य उस व्यक्ति का नहीं है जो बड़ी सरलता से,
तटस्थ हो कर व्यंग्य की चोट कर रहा है बल्कि उसका व्यंग्य है जो घात-प्रतिघात तथा
त्रासदियों के बीच है और उसके मुँह से निकले व्यंग्य में पीड़ा के सीधे
साक्षात्कार का सच प्रकट हो रहा है। इस स्तर पर उनकी कविता व कहानियों में अदभुत
एकता नजर आती है। जैसे कि ‘अंधेरे में’ वे कई स्थान पर महानगरीय बौद्धिकता पर प्रहार
करते हैं और वहां घूमते-टहलते अवसरवादियों पर निशाना कसते हैं। यह तत्कालीन भारत
के छोटे शहरों के आदर्शवाद का महानगरों के खिलाफ प्रतिरोध है। उन्हें साहित्यिक,
चिंतक, नर्तक, शिल्पकार आदि की चुप्पी खटकती है और अक्सर तो फासीवादी जुलूस में
कवियों व आलोचकों का शामिल होना घनघोर आश्चर्य में डाल देता है। आश्चर्य के भाव के
सहारे वे यथार्थ को व्यक्त करने की शैली अपनाते हैं और उसमें सफल भी हो जाते हैं। ‘क्लाड
ईथरली’ का पात्र कहता है- ‘तुमने
लाल ओठ वाली चमकदार, गोरी-सुनहली औरतें नहीं देखीं, उनके कीमती कपड़े नहीं देखे।
शानदार मोटरों में घूमने वाले अतिशिक्षित लोग नहीं देखे? नफीस किस्म की
वेश्यावृत्ति नहीं देखी? सेमिनार नहीं देखे?’ यह पात्र यह बताना चाहता
है कि भारत के भीतर एक अमेरिका बसा हुआ है। ‘अंधेरे में’ कविता में भी बौद्धिकों
और अय्याश उच्चवर्ग की भ्रष्ट हमजोली उन्हें दिखती है। रचनाकारों का वर्ग लोकतन्त्र
विरोधी शक्तियों के गुट में शामिल हो गया है और मूल्य-निष्ठाएं किन्हीं वर्गीय
निष्ठाओं के आगे दम तोड़ चुकी हैं। वे सब एक साथ एक जुलूस में शामिल होकर किसी
खूंखार उद्देश्य को पूरा करने के लिए निकले हैं।
भाई वाह!
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कवि गण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्धान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
बनता है बलवन
हाय, हाय!!
कुल मिला कर कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की कहानियां हों
या उनकी कविताएँ, मध्य वर्ग की सच्ची बौद्धिक स्वतन्त्रता की खोज करने वाली रचनाएं
हैं। वे हमें इस सचाई से रूबरू कराती हैं कि मध्य वर्ग बौद्धिक आजादी तो चाहता है
पर वह बौद्धिक जोखम लेने से बचता है। खुद को बुद्धिजीवी कहलाना पसंद करने वाले लोग
अपनी बौद्धिकता का निर्मम परीक्षण करने से बचना चाहते थे। कविता का मकसद उन भ्रमों
को तोड़ना भी है जिसके अंतर्गत मान लिया जाता है स्वतन्त्रता को लेकर चिंता करना
व्यर्थ है जब वह औपचारिक रूपों में मिली हुई है। पर वही स्वतन्त्रता निरंतर
निगरानी, सौदेबाजी, समझौते या कांट-छांट के अधीन रहती है और मुक्तिबोध हमें इसी
दिशा में सचेत करना चाहते हैं। यह भी कह सकते हैं कि उनका लेखन वस्तुतः समाज के
संघर्षों के केवल असंबद्ध टुकड़े या ध्यानाकर्षक चित्र नहीं निर्मित करता है बल्कि
उसे सैद्धांतिक आधार भी प्रदान करता है। लेखन से हमें पूंजीवाद, मध्य वर्ग की
बनावट, निम्नवर्ग के रोजाना के संघर्ष, राजनीतिक तानाशाही आदि के बारे में केवल
सृजनात्मक विवरण नहीं बल्कि स्पष्ट वैचारिक तथा विचारधारात्मक अंतर्दृष्टि भी
प्राप्त होती है।
वैभव सिंह |
सम्पर्क –
मोबाईल - 09711312374
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