सोनी पाण्डेय के कविता संग्रह पर राहुल देव की समीक्षा
युवा कवयित्री सोनी की कविताएँ लोक संवेदनाओं से जुड़ी हुईं हैं। उनकी कविताओं में अनुभवजनित जीवन दिखायी पड़ता है। यही नहीं सोनी समकालीन समय के विडम्बनाओं से रु-ब-रु होते हुए उसे अपनी कविता का विषय बनाने का साहस भी करती हैं। 'बदनाम औरतें' इसी तरह की कविता है जो इस समय के तमाम सवालों से टकराने का साहस करती है। सोनी पाण्डेय का पहला कविता संग्रह 'स्त्री मन की खुलती गिरहें' पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है युवा कवि राहुल देव ने। तो आइए पढ़ते हैं राहुल देव की यह समीक्षा।
स्त्री मन की खुलती गिरहें
राहुल देव
समकालीन कविता समय में कई सारे स्त्री स्वर एक साथ सृजनरत हैं। डॉ सोनी पाण्डेय भी उनमें शामिल हो रही हैं। वह एक सक्रिय युवा कवयित्री और संपादक हैं। ‘मन की खुलती गिरहें’ उनके पहला कविता संग्रह का नाम है जिसमें उनकी कुल 61 कविताएँ संग्रहित हैं। संग्रह की पहली कविता से ही कवयित्री अपने पक्ष को स्पष्ट कर देती है। चार भागों में लिखित ‘बदनाम औरतें’ शीर्षक यह कविता अपने तेवरों में खास है। बदनाम औरतों का सच बयां करते हुए वह लिखती हैं–
“कैसी होती हैं ये औरतें
क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती
हैं
क्या इनका कुल-गोत्र भिन्न होता है
क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैं या
मनुष्य होती ही नहीं?”
इस कविता के दूसरे भाग में वह स्पष्ट कहती है कि –
इस कविता के दूसरे भाग में वह स्पष्ट कहती है कि –
“बेटियां कभी बदनाम होती ही नहीं
बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें”
कविता के तीसरे भाग में कवयित्री अपने
स्वानुभूत अनुभव के माध्यम से विषय को खोलकर हमारे सामने रख देती है। और अंत में
वह बदनाम होने के लिए सिर्फ और सिर्फ दृष्टि को उत्तरदायी ठहराती है।
अगली कविता ‘तीसरी बेटी का हलफनामा’ भी एक
लम्बी कविता है। इस कविता का अंतिम भाग सबसे सशक्त है। उम्र के चालीसवें पायदान
पर बैठ कर जब कोई संवेदनशील स्त्री अपने जीवन के मध्य का इतिहास लिखती है तब ‘उम्र
के चालीसवें पायदान पर’ जैसी कविताएँ लिखी जाती हैं। इस चालीस साला इतिहास को
साहित्य के कई कवयित्रियों ने अपने अपने तरीके से देखने की कोशिश की है। अगली
कविता ‘चौराहा’ भी थोड़ी लम्बी है। इसे मैं एक औसत कविता कहूँगा। अपने कथ्य के
बनिस्पत कई कविताएँ थोड़ा ज्यादा फैलाव का शिकार हो गयी हैं ऐसा लगने लगता है। इसी
तरह की ही कविताएँ ‘मृत्यु’ और ‘रात भर रोते हैं कतारबद्ध लोग’ भी है। कविता में
शब्द व्यय अधिक होने से भाव सांद्रण कम होने का अंदेशा बना रहता है। इस लिहाज से ‘चौराहे
पर स्त्री विमर्श’ और ‘औरत’ शीर्षक कविताएँ ज्यादा बेहतर कविताएँ हैं। स्त्री
विमर्श को देह विमर्श में रिड्यूस करने की साजिश को लेकर वह पूछती भी है-
`औरत
तुम कब तक लिखी जाओगी जिस्म?”
तो वहीँ पुरुष सत्ता के छल को उसके पौरुष
की हार बताते हुए उसके असली चेहरे को पहचाने जाने की बात उठाती है ‘छल’ शीर्षक एक
छोटी सी कविता। स्त्री मन के कोने-अतरे तक इनकी कविता जाती है। वह शोषण की नहीं
प्रेम की आकांक्षी है। इसी अतिशयता में अपनी ‘दुधारू गाय’ शीर्षक कविता में वह कह
उठती है –
“मैं भी पुरुष की मुक्ति कामना का
प्रतीक बन
टांक दी गयी हूँ
खजुराहो के शिल्प में
सुबह से आधी रात तक
मैं केवल एक मशीन हूँ
काश पड़ोसी की गैराज में खड़ी
सुन्दर गाड़ी होती
या अल्मारी में सजा टेडी होती”
इनके यहाँ शताब्दियों की पीड़ा आक्रोश का
रूप धरकर पाठक को आंदोलित करती है और व्यापक स्त्री विमर्श करती हुई कविता के
माध्यम से अपनी अभी व्यक्ति करती है। उसकी अभिव्यक्ति की यह तो महज एक शुरूआत है
हो सकता है इस लड़ाई में उसके औजार अभी उतने पैने नहीं हैं लेकिन जिस तरह वह तमाम
वर्जनाओं को तहस-नहस करते हुए आगे बढ़ती है वह निश्चित रूप से नयी उम्मीदें जगाता
है।
क्या
जीवन में ‘रोटी’ का होना ही सबकुछ है? इस प्रश्न को कभी अर्थपूर्ण तो कभी अर्थहीन
लगते हुए संवाद स्थापित करने की कोशिश के द्वन्द्ध में कविता आती है और लगता है कि
‘अभी शेष है’ ऐसी कविता लिख पाना जिसमें जीवन और मृत्यु की तमाम पहेलियों के हल
मिल सकें। जीवन की कही-अनकही ‘अकथ’ कहानी के उजले और स्याह दोनों पन्नों को देखते
हुए ये जो पर्दा है’ शीर्षक कविता में उसका साहस के साथ पूछना बहुत सारे प्रश्न
पीछे छोड़ जाता है कि –
“तुम क्यों नहीं रखते
कल्याण कामना के लिए
असंख्य निर्जला व्रत?
क्या ये सारे ठेके औरत के हिस्से हैं?”
संग्रह में कुछ छोटी छोटी लेकिन सशक्त
कविताएँ भी हैं। जैसे ‘एक खुला पत्र मां के नाम’ शीर्षक कविता। इनकी कविता में
‘अम्मा’ बार-बार आती है; उसकी स्मृतियाँ और संघर्ष कवयित्री को स्त्री के भावी रूप
और जीवन के पन्नों की इबारत लिखने में प्रेरक बनते हैं। ‘मां और चाँद’ भी ऐसी ही
एक मार्मिक कविता है। ‘समर्पित स्त्री की व्यथा’ एक पारिवारिक स्त्री की कहानी सी
कविता है जिसमें 11 छोटे-छोटे भाग हैं। इसकी 10वीं कविता मुझे सबसे अच्छी और
प्रभावी लगी। कुछेक शब्दों के हेर-फेर के साथ बिलकुल उसी कविता की पुनरावृत्ति भी
संग्रह में देखने को मिली जिसे (देखें पृष्ठ 54 और पृष्ठ 68) अच्छा नहीं माना जाता। अन्य छोटी लेकिन उल्लेखनीय कविताओं में ‘सीमारेखा’, ’प्रेम’, ‘मौन’, ‘नए मूल्य’,
‘आशा’ और ‘हँसती हुई लड़कियां’ जैसी कविताओं को रखा जा सकता है। श्रम सौन्दर्य की
कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ दृष्टव्य है –
“खुली हुई धूप की तरह
खिलखिला कर हँसती हुई लड़कियां
अब खेतों में रोपते हुए धान
सिर पर लादे हुए बोझ
निपटा कर घर का पूरा काम
निकाल ही लेती हैं समय
हँसने के लिए
चुरा ही लेती है कुछ पल अपने लिए”
भावातिरेक में कुछेक कविताएँ असंगत कथनों
का भी शिकार हो गयी हैं जैसे कि ‘पिता’ शीर्षक कविता तो कुछ कविताएँ इसके साथ साथ बेहद
सपाट हो गयी हैं जैसे ‘तर्जनी की नोंक’ और ‘हाँ मैं एक प्रश्नचिन्ह हूँ’ शीर्षक
कविताएँ। फिर भी अपने ईमानदार कथ्य के कारण यह कवितायेँ पाठक का ध्यान आकृष्ट
करने में सफ़ल सिद्ध होती हैं।
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए
कवयित्री की प्रखर विचार दृष्टि और भाव सम्पन्नता का पर्याप्त परिचय मिल जाता है।
कवयित्री के पास सधी हुई अच्छी भाषा और शिल्प है। संग्रह की अधिकांश कवितायेँ
स्त्री मन की कसक को लिए हुए समाज को प्रश्नांकित करती हैं जहाँ प्रेम, ममता और
मानवता का सुन्दर संसार बनाये जाने की परिकल्पना मूर्त होती दिखाई पड़ती है। कुल
मिलाकर यह एक विचारणीय और उल्लेखनीय कविता संग्रह है।
* मन की खुलती गिरहें/ कविता संग्रह/ डॉ सोनी पाण्डेय/ 2015/ किताबनामा प्रकाशन, नयी दिल्ली/ पृष्ठ 112/ मूल्य 120/-
* मन की खुलती गिरहें/ कविता संग्रह/ डॉ सोनी पाण्डेय/ 2015/ किताबनामा प्रकाशन, नयी दिल्ली/ पृष्ठ 112/ मूल्य 120/-
राहुल देव |
राहुल देव
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग,
महमूदाबाद (अवध), सीतापुर 261203 उ.प्र.
मो. 09454112975
ईमेल – rahuldev.bly@gmail.com
kaafi savendansheel kavita hai .aur rochak dhang se likhi gayi hai
जवाब देंहटाएंNEW YEAR WISHES 4 YOU