प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताएँ
प्रद्युम्न कुमार सिंह |
युवा कवि प्रद्युम्न कुमार सिंह ने कविता की राह पर चलना
अभी शुरू ही किया है। पहले भी मैंने उनकी कविताएँ देखी थीं। तब उबड़-खाबड़ पन ज्यादा था लेकिन अब एक तरतीब उनकी कविताओं में दिखाई पड़ रही
है। इन कविताओं को देख कर अब एक आश्वस्ति है कि उनके अन्दर एक बेहतर कवि के अंकुर
फूट चले हैं। उनकी एक कविता है ‘हत्यारा मुस्कुरा रहा’ – इस कविता की पंक्तियाँ देखिए : ‘चोट दे कर/ लहा
लोट हो कर/ जीवन राग के बीच/ जीवन
गीत हो कर/ हत्यारा मुस्कुरा रहा’। यह खुशी की बात है कि प्रद्युम्न में एक विचार है, विचारों को व्यक्त करने
वाला एक भाव है और भाव को कविता में तब्दील करने वाला हुनर भी उनमें है। कविता की दुनिया में इस नवागत का स्वागत करते हुए
हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रद्युम्न की बिल्कुल टटकी कुछ कविताएँ।
प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताएँ
तुम बार-बार कहते हो
तुम बार-बार कहते हो
बदल कर रहूंगा
कब आयेगा वह
समय
जब बदल जायेगी
हकीकत की
चहलकदमी
और बदल जायेगी
फितरत
दुःख के सायों की
पगडंडियां भी हो जायेंगी
तब्दील
मुख्य रास्तों में
कब मुक्त हो
सकेंगे
सिकन भरे
चेहरे
भय की सिकन से
बदल कर रहूंगा
कब आयेगा वह
समय
जब बदल जायेगी
हकीकत की
चहलकदमी
और बदल जायेगी
फितरत
दुःख के सायों की
पगडंडियां भी हो जायेंगी
तब्दील
मुख्य रास्तों में
कब मुक्त हो
सकेंगे
सिकन भरे
चेहरे
भय की सिकन से
सपने जब मरते है
सपने जब मरते हैं
खत्म हो जाता है
सब कुछ
भूत और भविष्य का
सब कुछ
भूत और भविष्य का
खत्म हो जाते है
वो सुनहरे पल
जिन्हे याद कर
कभी होंठ मुस्काये थे
डबडबा गईं थी
सुर्ख सी आँखें
खुशी के अश्रुओं से
झनझना गया था
तन बदन
तड़ित विद्युत के
प्रभाव सा
मिट गया था अंधेरी
राहों का
स्याह अंधेरा
सपने जब मरते हैं
खत्म हो जाता है
बहुत कुछ
अस्तित्व को अपने ही
अस्तित्व को अपने ही
चीख रही थी
थमी हुई गुमनाम
आवाजें
कैद की
चीख रही थी
थमी हुई गुमनाम
आवाजें
कैद की
शिकन की धारियां
जो मौजूद थीं
ललाट पर
दे रही थीं
गवाही
परेशानियों के सबब का
जो मौजूद थीं
ललाट पर
दे रही थीं
गवाही
परेशानियों के सबब का
आ रही रह रह कर जो
सिसकियाँ
खो जाती हैं
जो चाहारदीवारियों के
कैदखाने में
टूटकर बिखर चुके
सपने जो बुने गए
और उनमें तिरोहित होती
गुमनाम आत्मायें!
जो एक अनाम
अँधेरे में
धूमिल हो जाती है
जहां से आवाजें
निकल जाती हैं
सपने जो बुने गए
और उनमें तिरोहित होती
गुमनाम आत्मायें!
जो एक अनाम
अँधेरे में
धूमिल हो जाती है
जहां से आवाजें
निकल जाती हैं
शान से ताव देते हुये
मूछों पर
कई रसूखदार
और समाज के तथाकथित
ठेकेदार
जो बात बात पर झाड़ देते हैं
लच्छेदार व्याख्यान!
रंगजमी महफिलों में
और बुझ जाते हैं
उम्मीदों के
धूमिल चराग भी
तिरोहित होने लगा है
तिरोहित होने लगा है
अंधेरा
भीगने लगी है रात की
चादर
और टूटने लगे हैं
झालरों के
मोती
अंधेरा
भीगने लगी है रात की
चादर
और टूटने लगे हैं
झालरों के
मोती
सूनी होने लगी है
महफिलें
मिटने लगी हैं
खद्योतो की हस्तियाँ
बजने लगी हैं
प्रकाश की घंटियों की
रूनझुन
विहाग गाने लगा है
भोर का पक्षी
तिरोहित होने लगा है
रात का अंधेरा
रात का घना अंधेरा
रात का घना अंधेरा
अपना स्याह चेहरा ले कर
सामने जब खड़ा हो जाता है
बढने लगता है डर
और सियारों और ऊदविलावों की
आवाज के बीच
झांकने लगते हैं
बहुत से अनजाने अनपहिचाने चेहरे
जिन्हें पहले कभी देखा था
ठीक से याद नहीं आ रहा
फिर भी यह एहसास होता है
इनसे पहले कभी मुलाकात हो चुकी है
ये डरे सहमे लोग
जिनकी हड्डिया ही शेष हैं
चेहरे की रंगत पूरी तरह से
बिगड़ चुकी है
इन सब के बावजूद अभी भी शेष
एक जिजीविषा
जिन्दा रहने की और जीवित है
संघर्ष का दरिया
जो मानो सियारों और बिडालों की
आवाज का प्रतिकार कर रहा है।
सामने जब खड़ा हो जाता है
बढने लगता है डर
और सियारों और ऊदविलावों की
आवाज के बीच
झांकने लगते हैं
बहुत से अनजाने अनपहिचाने चेहरे
जिन्हें पहले कभी देखा था
ठीक से याद नहीं आ रहा
फिर भी यह एहसास होता है
इनसे पहले कभी मुलाकात हो चुकी है
ये डरे सहमे लोग
जिनकी हड्डिया ही शेष हैं
चेहरे की रंगत पूरी तरह से
बिगड़ चुकी है
इन सब के बावजूद अभी भी शेष
एक जिजीविषा
जिन्दा रहने की और जीवित है
संघर्ष का दरिया
जो मानो सियारों और बिडालों की
आवाज का प्रतिकार कर रहा है।
उन्होंने बदल लिये हैं
उन्होंने बदल लिए है
रास्ते
जीने के
हंसने
उत्सव मनाने के
लूट के
मृत्युदण्ड देने के
खाने के
पीने पिलाने के
खिलाने के
चीन्हने के
चीन्हने के चिन्हों के
चिन्हवाने
चिन्हवाने के नियमों के
नहीं बदला तो
इन सबके मध्य नहीं बदला तो
अपना इरादा अपनी नियति
रास्ते
जीने के
हंसने
उत्सव मनाने के
लूट के
मृत्युदण्ड देने के
खाने के
पीने पिलाने के
खिलाने के
चीन्हने के
चीन्हने के चिन्हों के
चिन्हवाने
चिन्हवाने के नियमों के
नहीं बदला तो
इन सबके मध्य नहीं बदला तो
अपना इरादा अपनी नियति
नीली फ्राक वाली लड़की
नीली फ्राक वाली
लड़की एक
खिलखिलाती धूप सी
झांक रही थी
वातायनों से बार-बार
बच गया हो जैसे कोई
नवल पत्ता
आखिरी अवशेष
रह गया जो झड़ने से
पतझर में शेष
करता हो जैसे अब भी
इंतजार वह
खुद की बारी का
धूप के महीन
कतरन सी
चिलक रही वह
शाख के बीच
भटके राही सा
अलमस्त अटका
उसके पथ का रथ
चिपका हो जैसे
मकड़ी के जालों सा
दीवारों का जर्जरपन
टूट चुकी है उसके ख्वाबों की
पगडंडी
स्वर विश्रंखलित हुये
राहों की उसके
भग्न हुये जागृत उसके
स्वप्न
भारित यात्राओं के फूल
दे रहे उसके मन को शूल
विचलित हुआ है मन
उसका आज
पर आशाओं के हरसिंगार
खिले
ठोकरों से मरहम ले
खिल उठे जीवन के राग
कर रहे वे जीवन में
सुख का संचार
लड़की एक
खिलखिलाती धूप सी
झांक रही थी
वातायनों से बार-बार
बच गया हो जैसे कोई
नवल पत्ता
आखिरी अवशेष
रह गया जो झड़ने से
पतझर में शेष
करता हो जैसे अब भी
इंतजार वह
खुद की बारी का
धूप के महीन
कतरन सी
चिलक रही वह
शाख के बीच
भटके राही सा
अलमस्त अटका
उसके पथ का रथ
चिपका हो जैसे
मकड़ी के जालों सा
दीवारों का जर्जरपन
टूट चुकी है उसके ख्वाबों की
पगडंडी
स्वर विश्रंखलित हुये
राहों की उसके
भग्न हुये जागृत उसके
स्वप्न
भारित यात्राओं के फूल
दे रहे उसके मन को शूल
विचलित हुआ है मन
उसका आज
पर आशाओं के हरसिंगार
खिले
ठोकरों से मरहम ले
खिल उठे जीवन के राग
कर रहे वे जीवन में
सुख का संचार
चिलमन की अलगनी में
अलगनी में
कर ताक झांक
देता संकेत साफ
राहों की कुंजी है
अभी भी है पास
भ्रम के पर्दे को ढांप
मिटा देते हो
राहों के निशान
बातों के बहुटों बीच
रोक लेते हो अधीर बन
भूल चूक के मसाईल
करते तुम
जिद से पूर्ण
भूल रहे शायद तुम
सागर से मजबूत
होता है
सागर का तट
लोट पोट हो
चाहे जितना शोर
मचाये
वापस के अतिरिक्त
उसके राह नहीं कोई
टूट फूट बन्दूक की बट
हो जायेगी
एक दिन बेकार सब
मुंह चिढ़ायेगी तब यही
चिलमन की अलगनी
हो चुकी होगी
देर तब बहुत
चाह कर भी नहीं
अलग कर पायेगा
तू खुद को
खिड़की, अलगनी
और राहों की
डरावनी सूरत से
कर ताक झांक
देता संकेत साफ
राहों की कुंजी है
अभी भी है पास
भ्रम के पर्दे को ढांप
मिटा देते हो
राहों के निशान
बातों के बहुटों बीच
रोक लेते हो अधीर बन
भूल चूक के मसाईल
करते तुम
जिद से पूर्ण
भूल रहे शायद तुम
सागर से मजबूत
होता है
सागर का तट
लोट पोट हो
चाहे जितना शोर
मचाये
वापस के अतिरिक्त
उसके राह नहीं कोई
टूट फूट बन्दूक की बट
हो जायेगी
एक दिन बेकार सब
मुंह चिढ़ायेगी तब यही
चिलमन की अलगनी
हो चुकी होगी
देर तब बहुत
चाह कर भी नहीं
अलग कर पायेगा
तू खुद को
खिड़की, अलगनी
और राहों की
डरावनी सूरत से
हत्यारा मुस्कुरा रहा
हत्यारा मुस्कुरा रहा
अपनी काबिलियत पर
अपनी हूकूमत पर
अपनी नियति पर
और अपने नुमाइन्दों की
मौकापरस्ती पर
बहते लहू के कतरों से
खुद को तोल कर
विषबुझे बचनों को बोल कर
हत्यारा मुस्कुरा रहा
चोट दे कर
लहा लोट हो कर
जीवन राग के बीच
जीवन गीत हो कर
हत्यारा मुस्कुरा रहा
लाशों पर लाश देख कर
गमों के साथ हो कर
मौत की खोज कर के
खुद से बात कर के
आसन्न खतरों के अंदाज देख कर
चेहरों के फैले भाव देख कर
हत्यारा मुस्कुरा रहा
सम्पर्क –
मोबाईल - 08858172741
ई-मेल : pksingh1895@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
कविताओं पर एक अहम टिप्पड़ी देकर अग्रज सन्तोष चतुर्वेदी भैया मेरी कविताओं को अपने ब्लाग पहली बार में स्थान दिया इसके लिए उनका ह्रदय से आभार
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर 1-12-2016 को चर्चा - 2543 में दिया जाएगा ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
dhanyvad dilbag vrik ji
जवाब देंहटाएंस्वागत है प्रद्युम्न जी की कविताओं का। अच्छी कविताएं हैं। बधाई उन्हें।
जवाब देंहटाएं