सिनीवाली की कहानी ‘उस पार’।
सिनीवाली |
मनोविज्ञान से
स्नातकोत्तर, इग्नू से रेडियो प्रसारण में पी जी डी आर पी कोर्स
बचपन से गाँव के साथ साथ विभिन्न शहरों में प्रवास
अभी अभी कहानी संग्रह ' हंस अकेला रोया ' प्रकाशित
परिकथा के 2016 के नवलेखन अंक के लिए चयनित
प्रतिलिपि कथा सम्मान से सम्मानित
परिकथा, लमही, गाथांतर, दैनिक भास्कर, करुणावती, बिंदिया, आदि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित
स्त्रीकाल, लोकविमर्श, लिटरेचर प्वाइंट आदि ब्लॉग पर भी कहानियाँ प्रकाशित
सार्थक इ पत्रिका में कहानी प्रकाशित
अट्टहास एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशित
नोटनल पर ई-बुक प्रकाशित, ' सगुनिया काकी की खरी खरी'
सगुनिया काकी नामक श्रृंखला फेसबुक पर लोकप्रिय
कहानी संग्रह ' हंस अकेला रोया ' की कहानियों का देशी विदेशी भाषाओं में अनुवाद
बचपन से गाँव के साथ साथ विभिन्न शहरों में प्रवास
अभी अभी कहानी संग्रह ' हंस अकेला रोया ' प्रकाशित
परिकथा के 2016 के नवलेखन अंक के लिए चयनित
प्रतिलिपि कथा सम्मान से सम्मानित
परिकथा, लमही, गाथांतर, दैनिक भास्कर, करुणावती, बिंदिया, आदि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित
स्त्रीकाल, लोकविमर्श, लिटरेचर प्वाइंट आदि ब्लॉग पर भी कहानियाँ प्रकाशित
सार्थक इ पत्रिका में कहानी प्रकाशित
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नोटनल पर ई-बुक प्रकाशित, ' सगुनिया काकी की खरी खरी'
सगुनिया काकी नामक श्रृंखला फेसबुक पर लोकप्रिय
कहानी संग्रह ' हंस अकेला रोया ' की कहानियों का देशी विदेशी भाषाओं में अनुवाद
स्त्री जीवन की विडम्बना हमारे समय की त्रासदीपूर्ण
सच्चाई है। एक पुल की भूमिका निभाने के बावजूद स्त्री सामान्य तौर पर जैसे ख़ुद को आधारविहीन
पाती है। सिनीवाली की कहानी ‘उस पार’ इस विडम्बना को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करती
है। यह कहानी उनके पहले संग्रह ‘हँस अकेला रोया’ से ली गयी है। यह सिनीवाली का
पहला कहानी संग्रह है। स्वाभाविक रूप से इसमें पहलेपन की खुशबू देखी-महसूसी जा
सकती है। लेकिन कहानी को पढ़ कर आश्वस्त हुआ जा सकता है कि सिनीवाली साहित्य की
कठिन और दुष्कर राह पर चलने के लिए अपने को बखूबी तैयार कर चुकी हैं। तो आइए आज
‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं सिनीवाली की कहानी ‘उस पार’।
उस पार
सिनीवाली
घाट से थोड़ा हट कर पान की दुकान पर कुछ युवक खड़े थे और
ठहाके लगा रहे थे। उनमें से एक ने कहा, ‘‘अरे,
चार खिल्ली पान
लगाना। तुलसी...तीन सौ...चौंसठ भी।’’
घाट के किनारे
शून्य की ओर निहारती हुई अकेली युवती को देखते हुए फिर बोला, ‘‘और हाँ! पान पर
चूना-कत्था जरा चढ़ा कर लगाना, ताकि मुँह में खिले।’’
उन्होंने फिर ठहाके लगाए।
पनवारी ने चूने पर कत्था चढ़ाना शुरू कर दिया।
सुल्तानगंज घाट। कल-कल बहती गंगा। उसमें नहाते
स्त्री-पुरुष। कुछ लोग अर्घ्य दे रहे थे। वहीं थोड़ा हटकर बच्चे पानी में कूद रहे
थे- छप...छप...छपाक। और तैरने लगते।
बगल की दुकान में चाय खौल रही थी। मूढी-चना वाले दुकान का
चूल्हा, लगता था मानो बुझ
गया हो। नौकर पंखा हौंक-हौंक कर चूल्हा सुलगा रहा था और मालिक की झिड़की सुन-सुन कर
खिखिया भी रहा था।
सामने की दुकान से आवाज आई, ‘हे हो! छही केना पाव? चूड़ा? कय टका किलो,’’
नदी के उस पार जाने की बाट जोह रहे चौकी पर बैठे कुछ लोगों
को उन लड़कों के ठहाके अस्वाभाविक लगे। उससे एक बूढे को पता नहीं, क्या आशंका हुई, बोला, ‘‘अरे! चलते चलो।
नदी के कछेर में ही बैठते हैं। वहीं, जहाँ वह बचिया बैठी है। नाव आने पर पहले सवार हो जाएंगे।’’
लड़कों के झुण्ड से एक ने बूढे की ओर देखा और फिर पनवारी के
हाथ को देखने लगा।
उस अकेली, चिन्तित और शून्य में निहारती युवती की उम्र पैंतीस वर्ष के
आसपास की होगी। अस्त-व्यस्त कपड़े...हवा के झोकों से उड़ते हुए बाल...हाथ में काँ की
दो-चार चूड़ियाँ...बगल में बालू पर रखा एक झोला...युवती की अस्तव्यस्तता का गवाह-सा
प्रतीत हो रहा था। युवती की आँखें भरी थीं, बाकी सब खाली...सब कुछ। नदी के उस पार जाना चाहती थी।
उसके आँसू गंगाजल में टप-टप कर गिर रहे थे और छोटा-छोटा
गोला बना कर विलीन हो जा रहे थे। मन को कई तरह से समझाने के बावजूद आँसू थम नहीं
रहे थे। आँखें सूज-सी गई थीं।
उसे याद आया। माँ उसकी आँखों की प्रशंसा बरबस किया करती थी।
बराबर कहा करती कि पिताजी ने उसकी आँखों को देख कर ही उसका नाम ‘सुनैना’ रखा था।
सुनैना...बदरी बाबू की बड़ी संतान। ईलाके के प्रतिष्ठित
किसान थे बदरी बाबू। चर्चित भी। चर्चित इसलिए कि उस जमाने के मेट्रिक पास थे।
कोई-न-कोई नौकरी मिल ही जाती उस समय में। कुछ नहीं, तो गुरु जी आसानी से बन सकते थे। कइयों ने
समझाया, पर मन चाकरी करने
को तैयार नहीं हुआ। नौकरी ना करी। दस बीघे जमीन, माँ-बाप, पति-पत्नी और दो बच्चे। बिटिया सुनैना और बेटा गौतम।
गुजर-बसर आसानी से हो जाएगी धरती मैया को जो परिश्रम से सींचता है, उसे क्या माता
भूखा रखती है? वह माँ है। फूल, फल, पौधे, वृक्ष, जीवन, सब देती है।
सुनैना के पति वित्त रहित कॉलेज के किरानी थे। भगवान भरोसे
ही लक्ष्मी का दर्शन होता था। बारह-तेरह वर्ष का एक बेटा नजदीक के शहर में साधारण
अंग्रेजी स्कूल में पढता था। घर की आर्थिक स्थिति लोरपोछन जैसी है। कीचड़ से कीचड़ धोने
जैसी। खेती से किसी तरह घर का खर्चा चल रहा था। और उस पर भारी थी बेटे की पढाई।
सुनैना के पति भी मानते थे कि आजकल अंग्रेजी स्कूल मे पढ़े बगैर कोई उपाय ही नहीं
हैं अपने कैरियर की अपेक्षित सफलता में असफल पिता अपने बेटे की शिक्षा-दीक्षा में
कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। इसीलिए सुनैना भी बेटे को अच्छी शिक्षा देना चाहती, ताकि उनका भविष्य संवर सके।
जेठ का तपता महीना। आम पकने लगा। सुनैना को नैहर से बुलावा
आया था। असकी भाभी भी दिल्ली से अपने तीन साल के बेटे को ले कर आई थी। प्रायः हरेक
वर्ष सुनैना को आम के मौसम में मायके बुलाया जाता। भाभी भी आती। उसका भाई गौतम
बी.ए. पास करने के बाद रोजगार खोजते-खोजते दिल्ली में नाइट गार्ड बन गया था। इस बार
गौतम अपनी पत्नी, मंगला और बच्चे
को प्रायः डेढ-दो महीने के लिए गाँव में छोड़ कर दिल्ली वापस चला गया।
आम के मौसम में पिछले साल भी आई थी। पर पिछले साल भाभी का
व्यवहार कुछ अच्छा नहीं देखा। ससुराल
लौटने तक सुनैना ने मन ही मन तय कर लिया कि अगली बार इस मौसम में नहीं आएगी। पर
आना पड़ा। माँ-बाबू जी का आदेश था। आखिर बेटे की पढ़ाई में मदद भी तो ये लोग ही करते
हैं।
सुनैना के आने के बाद उसकी माँ को अपने भतीजे के जनेऊ में
पन्द्रह दिनों के लिए मायके जाना पड़ा। बेटी-बहू को छोड़ कर जाने का मन नहीं करता था
उनका, पर क्या करती? गए तो बदरी भी थे
ससुराल, पर दरवाजे पर खड़ी
गाय की देखभाल किसी दूसरे पर कितना दिन छोड़ते। वे दूसरे दिन ही चले आए।
सास के नहीं रहने पर पड़ोस की ओरतों के पौ बारह हो गए। बहू
की बुद्धि फेरने ओर गुरुमंत्र देने का अवसर मिलने लगा। रोज दोपहर हालचाल पूछने के
बहाने आतीं और गुरुमंत्र दे कर चली जातीं। बार-बार झण्डापुर वाली किसी न किसी तरह
इस बात का जिक्र जरूर करती,
‘‘जानती हो शाहपुर वाली बहुरिया! तुम्हारे नहीं रहने पर खेती से जो चार पैसे आते
हैं, वो कहाँ चले जाते
हैं? सुना है, दिल्ली में
बेचारा गौतम खट-खट कर परेशान रहता है, मुश्किल से पूरा होता है उसे। अकेला है। घर से कुछ-न-कुछ
मदद मिलनी चाहिए। तुम घर की एकमात्र पतोहू हो। तुमको जानकारी रहनी चाहिए।’’
इस तरह की बातें बार-बार सुनते-सुनते मंगला के दिमाग पर
गहरा असर हुआ और हँसते खेलते घर का माहौल जेठ के महीने की तरह गरम होने लगा।
उस दिन मंगना जानबूझ कर किसी काम के बहाने कुछ पैसे अपने
ससुर बदरी बाबू से माँगने आ गई। शायद समय भी अपनी चाल चल रहा था। आज उनके पास फूटी
कौड़ी भी नहीं थी। मंगला कई दिनों से इसी मौके की लताश में थी। ससुर के मुँह से ‘नहीं’ सुनते ही लगा
जैसे उसकी साध पूरी हो गई हो। मौके को भुनाते हुए, भुनभुनाते हुए वहाँ से जाती हुई बोली, ‘‘हाँ, हाँ, पैसा कहाँ से
होगा घर में? मेरे नाक से क्या
दूध गिरता है? मैं क्या समझती
नहीं।’’ बोलती हुई वह
रसोई घर में पीढा पटक कर बैठ गई।
सुनैना भतीजे को गोद में सुला रही थी। बातें तो उसने भी सुनी, उसका मर्म वह उस समय
समझ नहीं पाई।
अगले दिन से सुनैना ने भांपा कि मंगला घर में किसी से कुछ नहीं
बोलती। हमेशा गुस्से से तमतमाती रहती थी। कभी अपना गुस्सा बरतन पर उतारत, तो कभी बेटे पर।
एक-दो दिनों में ही घर अभिशप्त हो गया।
बदरी बाबू के घर आते ही मंगजा जोर-जोर से बोलने लगी, ‘‘मेरे नाम से तो
एक टका नहीं होगा। इस घर में मेरी गिनती ही क्या है? लेकिन पिछले बरस जो बीस हजार बेटी को दिये थे, दुलरका नाती को
पढ़ाने के बहाने। उसका तो कोई हिसाब होगा या नहीं? वह पैसा लौटेगा भी या...? लौटेगा क्यों? हम लोगों को
समझाने के लिए कर्ज का बहाना था।’’
बदरी बाबू ने मंगला को चुप कराने की कोशिश की, ‘‘चुप रहो शाहपुर वाली
बहुरिया! सब का हिसाब हो रहा है। गौतम को मालूम होता है सब हिसाब।’’
‘‘उनको मालूम होने से
क्या? हमको भी होना
चाहिए।’’ मंगला का गुस्सा
शांत नहीं हुआ था, ‘‘वो तो गोबर गनेस
हैं। कोई भी ठग लेगा उनको। हिसाब हमको चाहिए। आखिर हमरो बाल बच्चा का भविष्य है न।’’
बाप-बेटी की समझ में बात आ गई। सुनैना को दिया गया बीस हजार
का कर्ज बिसा गया घर को।
रात हो आई थी। सुनैना कई बार दरवाजे पर आकर लौट जाती। अभी
तक बाबूजी खाने नहीं आए। बहुत देर हो रही हे। सोची, जा कर बुला ही लूँ। पर, नहीं... शायद आते
ही होंगे। नहीं, चली जी जाती हूँ।
नहीं...नहीं... कहीं भौजी ऐसा न सोच ले कि उनका कान भरने ता नहीं चली गई। इसी
उधेड़बुन में वह खाली खटिये पर जा कर लेट गई। दोपहर में भी ठीक से खाना नहीं खाये
थे। अभी दो कौर खा लेते। पर वह भी जानती है- आज बाबू जी से खाया नहीं जाएगा शायद।
बदरी बाबू बड़ी
देर से खाने आए। आळट पाते ही सुनैना जल्दी से उठ कर उनके सामने जाने लगी। पर कुछ
सोच कर उसके कदम धीमे हो गए। वे आ कर ओसारे पर बैठ गए। शाहपुर वाली अपनी कोठरी
बाहर नहीं निकली। सुनैना पीढ़ा और पानी रख रसोई से थाली में ठंडी रोटी, तरकारी और कटोरे
में दूध लाकर सामने रख दिया।
मन ही मन भगवान
का नाम लेकर जैसे ही उन्होंने खाना शुरु किया कि घर की लक्ष्मी रौद्र रूप लेने
लगी। अक्सर जब घर में मर्द खाने आते हैं, औरतों को अपना क्रोध दिखाने का ही उपयुक्त समय मिलता है।
कोइरी से ही जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ‘‘आज तक तो घर का मालिक-मुख्तार बने रहे। जो मन आया किया। हमने तो कुछ नहीं कहा।
लकिन अब कितना चुप रहेंगे?
पर, जब ब्याही बेटी
को ही ब्याहने का शौक चर्राया है तो हमें कुछ-न-कुछ तो कहना ही पड़ेगा।’’
वह बोली जा रही
थी। ओसारे पर खड़ी सुनैना चुपचाप सुन रही थी। बदरी बाबू की छाती छलनी हो रही थी।
मंगला के एक-एक शब्द ओले की तरह बरस रहे थे, ‘‘ऐसी कहीं ब्याही बेटी हुई है? अपनी घर-गृहस्थी छोड़-छाड़ कर चली आती है नैहर।’’ बोलते हुए बाहर
आई और तमकती हुई अपनी कोठरी में जाते हुए बोली, ‘‘हाँ...हाँ...यहाँ कुबेर का खजाना जो गड़ा है। दो-चार लोर
गिराएगी, कुछ-न-कुछ तो मिल
ही जाएगा।’’
इधर बाप-बेटी चुप
थे। दोनों के अन्दर युद्ध चल रहा था। मंगला दहाड़ रही थी, ‘‘न जाने हमारी
छाती पर कब तक दाल दरेरेगी?
हमें क्या पता कि
हमारी हिस्सेदार यहीं बैठी है।’’
बदरी बाबू का
पारा गरम हो गया। उन्होंने थाली उठा कर जोर से फेंक दिया- झन्। तेजी से बाहर चले
गए। लक्ष्मी गरजती रही।
सारी समस्याओं की
जड़ सुनैना बाबू जी की फेंकी हुई थाली को जड़वत देखती रही और भाभी की आवाज सुनती
रही। मन हुआ कल ही लौट जाए ससुराल। पर माँ ने अपने आने तक रुकने को कहा था। उसकी
चुप्पी बहुत से प्रश्नों को साथ लिए थे। ये प्रश्न आँसू में ही बह जाते और कलेजे
में घुट जाते।
घर से थोड़ी दूर पर बगीचा है। आठ-दस आम के पेड़ हैं। आम के
समय में जोगवारी करने के लिए बदरी बाबू यहीं सोते हैं। आम जब पक कर ढब्ब-ढब्ब की
आवाज के साथ गिरता तो वे उठ कर जाते और टार्च जला कर गिरे हुए आमों को जमा करते।
करीब रात के दस-ग्यारह बजे घर आते। पानी से भरी बाल्टी मे आम रख देते और पीने का
पानी ले कर फिर बगीचा चले जाते। बगीचे में उन्होंने एक छोटा-सा खटोला भी रखा है और
एक मचान भी बना रखा है।
बदरी बाबू का मन
खिन्न था। गुस्सा शांत हो गया। किस पर गुस्सा करते? पत्नी भी नहीं थी, जिस पर बेवजह
बोलकर मन को ठण्डा करते। अपने निर्णय का विवेचन करने लगे-
उस समय किसान और उसका
जीवन कितना आसान दिख रहा था, पर ऐसा कहाँ हो पाया। खाद, सिंचाई, मजदूरी ने बदरी बाबू को इस तरह तोड़ कि मेहनत के बल पर जीवन
गुजारना मुश्किल हो गया। इतनी मेहनत से जो अनाज उपजाया, उसका सही दाम
कहाँ मिल पाया। किसान का सच उनके सामने है। घर संभालते-संभालते चार बीघे जमीन बिक
गए। छह बीघे जमीन, एक गाय ओर एक
छोटा-सा बगीचा। बस, अब यही है उनकी
पूंजी। उसमें भी कभी बाढ़ तो कभी सुखा...।
पिता की सफलता
बेटी के ब्याह से देखी जाती है। बेटी ब्याही भी ऐसे घर में, जहाँ उसके कोमल
सपने कुम्हला गए। सोचा था,
पाँच बीघे जमीन है, सुन्दर रूप् और
सज्जन परिवार है। लड़का प्राइवेट कालेज में किरानी है। आज नहीं तो कल, सरकारी हो ही
जाएगा। बाँध दिया बेटी का भाग्य वहाँ, जहाँ भविष्य अधर में था। आज तक वह टकटकी लगाए नौकरी कर, सरकारी होने की
राह तकती है। उन्होंने सुनैना के बारे में सोचा। उसकी शादी सम्बन्धी अपना निर्णय
भी उन्हें असफलता बोध करा रहा था। वह सारा दुख पी जाती है, पर मैं भी तो बाप
हूँ। कब, कहाँ मेरी बेटी
घुटी होगी, मेरी साँसें बता
देती हैं। जीवन के थपेड़ों में आस लगाए मेरी ओर देखती है, पर बोलती कुछ
नहीं।
ओह! मैं किसान ही क्यों हुआ? मजदूरी ही करता तो अच्छा होता। दिल्ली, सूरत जाता।
फल-सब्जी ही बेचता, गाड़ी ही पोछता, मोटिया का काम ही
करता, कुछ भी करता, कुछ पैसे तो
कमाता।
बदरी बाबू रात के
अंधेरे में सोचते रहे...सोचते रहे। रात भी उनके दर्द के साथ भंगती रही। इधर सुनैना
पूरी रात बाबू जी की राह देखती रही। आज रात वे पीने का पानी लेने भी नहीं आए।
भोर का सन्नाटा बता रहा था कि वहां कई दिनों से दिनों से
महाभारत पसरा है। पूरा रात की जगी आंखों ने देखा, ‘‘आज बाबू जी दो-चार ही आम ला कर ओसारे पर रख
दिया और दूध दुहने की बाल्टी उठाने लगे। पिता को देखते ही उसके आंखों में आंसू उमड़
पड़े। अपनी स्थिति, बाबू जी की यह दशा
या फिर ये सब देख कर सुनैना घुटनों के बीच अपना मुंह दबा कर रोने लगी। पिछवाड़े से
आती मंगला की देह में फिर से आग लग गई। जलती हुई जीभ से गरजना शुरु कर दिया, ‘‘भोरे भोर ये लोर
किसे दिखा रही है राजकुमारी?’’ माथा ठोकते हुए बोली, ‘‘हे दैव! किसका मुंह देख कर उठी थी आज कि उठते ही नाटक पसर
गया। पता नहीं, कौन सा सोग पड़
गया? इस घर को तो चबा
ही गई। अभी भी संतोष नहीं हो राह। जाती भी नहीं करमजली।’’ बिना रुके जो मन
में आया, बोलती रही।
बदरी बाबू का
धीरज टूट गया। क्रोध ओर बेबसी ने तपते शब्द का रूप ले लिया। जोर-जोर से बोलने लगे, ‘‘शाहपुर वाली!
हिसाब लेना है तो मुझसे लो। उसे क्या सुना रही हो?’’ बोलते-बोलते बदरी बाबू ओसारे से आंगन में उतर
आये। उनके मन का गुब्बारा फट गया, ‘‘जिसने कान भरा है, उससे जा कर पूछो। खेती ऐसे ही होती है? हां, पिछले साल सत्तर
हजार का मकई बेचा था। तुम भी तो पढी-लिखी हो। तुम्हीं जोड़ कर बताओ। खाद, पानी, मजदूरी, टैक्टर, सबका खर्चा काट कर
कितना बचता है? और खर्चा
कहां-कहां हुआ? यह भी देखो कि
गौतम को दिल्ली कितना भेजा?
क्या लगता है, केवल खेती से ही
घर चल जाता है? साल भर खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता, न्यौता-पेहानी, दवा-दारू, और भी तो कई
खर्चे हैं। मेरी हड्डी बूढी हो गई, फिर भी गाय रखता हूं। सानी-पानी करता हूं। बचत होती, तो नौकर नहीं रख
लेता। बुढापे में कुछ आराम तो करता।’’
मंगला सब सुन रही
थी। आज बदरी बाबू भी सब कुछ कह देना चाहते थे, जो कई दिनों से उनके मन को मथ रहा था, ‘‘गाय पर भी तो
खर्चा है। खल्ली, चुन्नी, दाना, दवा, कैल्शियम। उपर से
मेरा खून जलता है, तब आते हैं दो
पैसे। वे भी डाक्टर-बैद में खर्च हो जाते हैं।’’ गमछे से पसीना पोछते हुए बदरी बाबू बोले जा रहे थे, ‘‘बेटे ने तो आज तक
हिसाब नहीं मांगा, तुम्हीं ले लो।
अच्छी तरह समझ लो। संतुष्ट हो जाओ। पर घर में कलह मत मचाओ। गांव-घर में मत घिनाओ।’’
सुनैना घर की चौखट
पर खड़ी हो कर आंखों में आंसू लिए सब कुछ सुन रही थी। उसकी ओर देखते हुए बदरी बाबू
ने कहा, ‘‘अगर उसी समय कुछ
जमीन बेच दिया होता तो नौकरिहा लड़का मिल जाता। लेकिन बेटे के मोह ने नहीं छोड़ा।
भाग्य भरोसे विदा कर दिया इसे।’’ बोलते-बोलते लगा कि सुनैना के प्रति अपराधबोध की ये भावना
और कुछ कहलवा देगी। पर बीच में ही रसोई से तमक कर मंगला निकली और जवाब देते हुए
जोर से बोली, ‘‘तो उस समय बुद्धि
क्या घास चरने चली गई थी। अच्छा होता जो उसी समय बेच कर दे दिया होता, तो रोज की खिचखिच
तो नहीं होती।’’
ननद की ओर निगल
जाने वाली नजर से प्रहार करती हुई मंगला बोली, ‘‘छन-छन काने गावे गीत, ई तिरिया के नय परतीत। हुंह...बेटे को शहर के प्राइवेट
स्कूल में पढाएगी...डाक्टर बनाएगी...कलक्टर बनाएगी और हम कटोरा लेकर भीख मांगेंगे।’’ फिर ससुर की ओर
देखते हुए बोली, ‘‘बुद्धि ही रहती
तो पंकज के बाबू जी की तरह बड़ा बाबू तो रहते। कितना अच्छा घर बना लिया। अभी पेंशन
तो आता। मैं भी अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में पढाउंगी।’’
बदरी बाबू भी आज
जवाब देने को ठान बैठे थे,
‘‘अभी मैं जिन्दा हूं। तुम्हारे बेटे को भी पढाउंगा। किसने के कहा कि उसे नहीं
पढाउंगा? एक गाय और बढा
लूंगा। लेकिन तुम धीरज तो धरो। पर ये तुमसे नहीं होता है। आखिर....।’’
‘‘आखिर क्या?’’ मुंह चमकाती हुई
मंगला बोली।
‘‘आखिर...’’ बदरी बाबू को पता
नहीं लग रहा था कि गुस्से में वह क्या बोल रहे हैं। बोले, ‘‘आखिर उसी बाप की
बेटी हो न, जिसने पूरे गांव
को लड़ा दिया। बुद्धि तो सच में नहीं है मुझे। बुद्धि रहती तो कचहरिया की बेटी को
घर ले आता।’’
यह ऐसा तीर था, जिसे लगते ही
मंगला आपे से बाहर हो गई। अब तो जो भी बोल रही थी, वह प्रायः होश-हवास में। पर अब होश कहां? इसका भी पता नहीं
कि आंचल कहां है? गुस्से से
थरथराने लगे। लगता मानो रणचंडी बन गई हो। पिता का अपमान बर्दास्त नहीं हुआ। बोली, ‘‘मेरे बाप का
बराबरी करने का दम है? वो रोज मुंशी-पेशकार
के साथ उठते-बैठते हैं। बुद्धि हैं तब तो कचहरिया हैं।’’ कुछ रुक कर बोली, ‘‘और मैं...कहां
जाती हूं बाप का घर ओगरने?
आपकी बेटी की तरह
नहीं हूं। पता नहीं, कितने भतार बना
रखा है, जो रोज-रोज दौड़ कर
आ जाती है। आक्थू....राम-राम...छिः...छिः-छिः।’’
मंगला का सब्र
टूट गया। बोली, ‘‘खबरदार भौजी! आगे
कुछ बोली तो...। चरित्र लगा के गाली नहीं दो। जो न सो हो जाएगा। यह मेरे बाप का घर
है। जिस दिन तुम्हारा हो जाएगा, थूकने भी नहीं आउंगी। बाबू के लिहाज कर चुप हूं, इसका माने...।’’
उधर बदरी बाबू को
सांप सूंघ गया। किस बात का क्या जवाब देते। लगा खुद मर जाएं या उसे ही मार दें। पर, दूसरे मन ने
रोका। सोचा, विष्ठा पर पत्थर
फेंकने से...।
बदरी बाबू कुछ
नहीं बोले। एक क्षण रुककर सुनैना की ओर तेजी से जाकर कहा, ‘‘अपना सारा सामान
समेटो। मैं टैम्पू ले कर आता हूं।’’
सुनैना भौंचक रह
गई। ये क्या हुआ बाबू को?
कुछ ही देर में घरो काका का बेटा टेम्पू लेकर आया। बदरी
बाबू सुनैना का हाथ पकड़ कर तेजी से ले जाते हुए बोले, ‘‘चल, आज तुम्हें इस घर
से हमेशा के लिए विदा कर देते हैं। तभी सबको चैन मिलेगा।
मंगला को ससुर के
इस रूप का अंदाजा नहीं था। सुनैना पिता का यह रूप देख कर अकबका गई। वह बस इतना ही
कह पाई, ‘‘बाबू जी, मां...।’’
पर वे सुनने वाले
नहीं थे। तैश में आकर बोले,
‘‘आज से हम लोग मर गए तुम्हारे लिए। यही समझना। सास-ससुर के रहते जब पतोहू घर का
हिसाब लेने लगे, घर का मालकिन
बनने लगे, तो ऐसे घर से
बेटी को विदा ही कर देना चाहिए।’’
एक हाथ में झोला
और दूसरे हाथ से सुनैना को खींचते हुए चले जा रहे थे। पीछे-पीछे वह यंत्रवत चल रही
थी...चली जा रही थी।
इस निर्मम दृश्य
को देखने अगल-बगल से दो-चार महिलाएं भी पहुंच गई। उसमें झंडापुर वाली भी थी।
पत्थर की तरह
बेटी को उन्होंने टेम्पू के सीट पर बैठा दिया। पथराई आंखों से सुनैना बस बाबू जी
को देख रही थी।
अब तक पिता ने
बेटी का हाथ पकड़ रखा था, लेकिन अब विदा
होती बेटी ने पिता का हाथ पकड़ लिया। पर कुछ बोल नहीं पाई। किसी तरह हाथ छुड़ा कर
गमछे से अपनी आंखें पोछते हुए टेम्पू वाले को कहा, ‘‘सुल्तानगंज घाट पर उतार देना।’’
मन ही मन जैसे कह
रहे हों, ‘‘छोड़ देना इसे।
तुम भी, मेरी ही तरह।’’
बदरी बाबू वहीं
गमछे से मुंह ढंक कर जमीन पर बैठ गए।
टेम्पू बढता गया।
पिता छूटते गए। मां स्वप्नवत होती गई। घर, भाई,
परिवार, गांव, समाज, पेड़-पौधे...सब
पराये होने लगे। दूर तक जाती सुनैना बाबू जी को देखती रही और बहुत दिनों के बाद
फूट-फूट कर रोने लगी।
बदरी बाबू भी
अपने कलेजे का टुकड़ा-टुकड़ा होते अपनी आंखों के सामने देखते रहे। दूरी बढती गई। सब
धुआं-धुआं होता गया। बदरी बाबू बहुत देर तक सड़क किनारे कटहल के पेड़ के नीचे सिर पर
हाथ रखकर बैठे रहे।
मायके की विदाई
पांव में महावर, मांग में सिन्दूर
और हाथ में चूड़ियां भरी होती हैं। मां-बाप कितना भी गरीब क्यों न हो, चूड़ियां तो पहना
कर ही भेजती है। मां खोंइछा देकर विदा करती है। मां-बाप आंसू भरी आंखों से बेटी को
इसलिए विदा करते हैं कि वह फिर आएगी। पर आज मायके से यह कैसी विदाई हुई?
सुनैना के आंसू
गंगा में गिर रहे थे। उसने सोचा, ‘‘इस गंगा को दुखहरणी कैसे कहते हैं लोग? इस गंगा के
किनारे उससे दुखी शायद कोई और नहीं था।
वहीं थोड़ी दूर पर
एक लाश जल रही थी। सुनैना तय नहीं कर पा रही थी कि वह यहां है या उस चिता में लेटी
है।
ठीक उसी समय उसे
बेटे की याद आई। शरीर में एक कम्पन-सा महसूस हुआ। वह उठ कर खड़ी हो गई। उस पार जाने
वाला नाव नजदीक आते हुए लगा उसे।
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हिंदी साहित्य का अनवरत पाठक हूँ। इसलिए ये दावे के साथ कह सकता हूँ पहली संग्रह के बावजूद परिपक्वता की कोई कमी नहीं दिखती आपके लेखनी में। जहाँ तक बात है कहानी की पृष्ठभूमि की तो शायद ही कोई किस्मत वाला इंसान हो जो इन लम्हों से दो चार नहीं हुआ हो। आज ये घर घर की कहानी है। मंगला आज हर दुशरे छत के नीचे मौजूद है। कहानी में छिपी गौतम की विवशता एक आम बात है। शायद ये महिला शसक्तीकरण का ऋणात्मक रूप है। मेरे अंतिम पंक्ति को अन्यथा ना ली जाये। अगर मंगला को गौतम बोलने ना दे तो लोग इसे पितृसत्तात्मकता का रूप देंगे।
जवाब देंहटाएंधन्यबाद