सुशील कुमार का यह समालोचनात्मक आलेख 'जनवाद का एक धूमिल युवा चेहरा'
कवि सुशील कुमार ने इधर कई समालोचनात्मक आलेख लिख कर गद्य के क्षेत्र में भी ध्यान आकृष्ट किया है। अपने ही एक समकालीन कवि अरविन्द श्रीवास्तव की कविता पर सुशील कुमार का समालोचनात्मक लेख गद्य पर उनके पकड की बानगी प्रस्तुत करता है। अपने इस आलेख में सुशील कुमार ने आलोच्य कवि की खूबियों के साथ-साथ उसकी सीमाओं पर भी बात किया है, जो आजकल चलन से बाहर होता जा रहा है। तो आइए आज पढ़ते हैं सुशील कुमार का यह समालोचनात्मक आलेख।
जनवाद का एक
धूमिल युवा चेहरा
सुशील कुमार
अरविन्द श्रीवास्तव की
कविताओं में कवि का बेबाकीपन भाषा के
बाँकपन की उस हद से गुजरता है जो उनकी अभिव्यक्ति को न केवल बेलौस और उनके कथ्य को रोचक बनाता है, बल्कि कविता की अंतर्वस्तु में निहित आंतरिक
यथार्थ को भी व्यक्त करने की मरीचिका का भास कराता है। इन कविताओं में तेवर कितना
जनवादी है और कितना रूप का मुलम्मा, कितना इनमें साहस
और ईमानदारी का असली पुट है और कितना इसका उद्योग, कितना इनमें
भाषाई सच है और कितना तिकड़म, इन जायज सवालों
से रु-ब-रु होने पहले इतना जरूर जानना जरूरी है कि बड़े कवि के हाथों उनके ‘कवि की हत्या’ होना हमारे कविता-समय के
दुद्धर्ष होने का केवल अन्यमनस्क बयान नहीं है, अपितु बड़े कहाने वाले कवियों की संभावनशील युवा कवियों के प्रति आजकल चल रहे दुर्नीति
और दुराग्रह की एक बानगी है –
"नहीं थी धमाके की कोई आवाज
उठा-पटक के निशान भी नहीं थे
क्योंकि हत्या बड़ी साफ़गोई से हुई थी
एक कवि की ...
मारा गया कवि चुपचाप
बड़ी बारीकी से
किसी बड़े कवि के हाथों"
(काव्य-संग्रह ‘राजधानी में एक उज़बेक लड़की / ‘कवि की
हत्या’ / पृ. सं. 25)।
इस दुराशा को कविता के नवोन्मेषी कवि आज शिद्दत
से महसूस करते हैं। तभी तो बद से बदतर होती दुनिया की शिकारी नजरों से और डरावनी खबरों से ‘प्रेम के शावक’ को बचाने की उम्मीद और हौसले को कवि हारता नहीं।
अरविन्द श्रीवास्तव कविता में लगातार हमारी संवेदना और अनुभव को नवीकृत करते चलते हैं और भरसक उन तारों को छूकर झनझनाने का उपक्रम भी करते दिखते हैं –
“प्रेम में
कईयों ने खून से खत लिखे
कइयों ने लिखी कविताएँ
मैंने मैदान में दौड़ाई साईकिल
लगाया चक्कर
कई-कई बार
हैंडिल छोड़ के!
(‘प्रेम में’/ पृ. सं.- 38)।
देखा जाए तो एक अलक्षित भाव-बोध से
विस्मित करना अरविन्द की कविताओं की खास पहचान है। महसूस किया जा सकता है कि कवि का यह कर्म उनके प्रेम के
आख्यान में और मस्ताना, और दीवाना, और कबीराना हो जाता है जो मानवीय मूल्यों के बरअक्स एक अचूक, बेध्य और संवेदी भाषा के साथ अपने कथ्य को बिलकुल नई भंगिमा में उद्भासित
करता है –“
दुनिया की सबसे निश्छल लड़की
यदि करती है मुझसे प्रेम
और कहती है ‘आई लव यू’
तो इसे मैं मानूँगा नहीं
और इसे मानता भी हूँ तो
उसे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है
और यदि एक झूठा
फरेब और मक्कार राजनेता
कहता है यही
तो कम से कम उसे देने के लिए
मेरे पास
एक ‘मत’ है!”
(लोकतन्त्र / पृ. सं. 72)।
इन सदृश इनकी अनेक कविताओं का
अंदाज-ए-बयां और काव्य-फल चौंकाने वाले होते हैं, जैसे कि ‘घटनाएँ बगैर कौतूहल’
कविता का यह अंश देखा जा सकता है -
“जब अचंभित होंगे हम
और समाप्त हो जाएंगे
दुनिया के तमाम कौतूहल
तब मेरे हथेली पर काँच गड़ा कर तुम पूछोगे
बताओ यंत्रणा कितनी है पीड़ादायक
और कहूँगा मैं-मौसम आज सुहावना है बहुत”।
इस तरह की अलक्षित और नव्य-संवेदनाओं से
उनकी बहुत सारी कविताएँ अटी पड़ी हैं, मानों उनके
काव्याकाश से गुजरते हुए हम एक नई कौंध, एक नए चमक के पास से
होकर गुजरते हों, जो कुछ और संदर्भों व उदाहरणों को देखने से अधिक
स्पष्ट होगा। एक कविता है रोटी’- केवल दो पंक्तियों की कविता है यह –
"रोटी जली तो क्या हुआ
खुशबू तो बिखर गई !"
यहाँ कवि की चिंता रोटी के जलने की नहीं, उसकी खुशबू से ही कवि तृप्त और आह्लादित दिखता है, या फिर कविता ‘मुखौटा’ ही –
"मैंने मारा अपने हृदय
पर
पश्चात्ताप का कोड़ा
और लगाई दौड़ सरपट
उस जगह की
जहाँ मैं
छोड़ आया था
अपना मुखौटा।"
हालाकि उन्हें अहसास है कि मनुष्य का ’हृदय’ बर्फ हो रहा है और उसकी संवेदना-शक्ति
क्षीण। इसमें बाजार का खतरा भी शामिल है जो हमें बाहर ही नहीं, अंदर से भी बेपर्द करता है बेरुखी से। पर गंभीर कहन में भी वे
हमारी संवेदना को झकझोरने में कोई-कसर नहीं रखते, इनकी कविता ‘बाजार’ देखिए –
“(1)
पहले दबोचा
फिर नोचा कुछ इस तरह
कि
मजा आ गया
(2)
उड़ा ले गई
छप्पर का पुआल
देह की मिरजई
बाजार बेपर्द करती है
बेरुखी से
(3)
पहले खरीदता हूँ
चमकीले
काँच के टुकड़े
बिखेरता हूँ जिन्हें
फर्श पर
बीनता हूँ फिर
बारीकी से
किसी खतरे के अंदेशे में।“
(‘बाज़ार’/ पृ.सं. -29)
पहले काव्य-संग्रह ‘एक और दुनिया के बारे में’ (2005) से हिन्दी कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज करने वाले कवि
अरविंद श्रीवास्तव की दो और कविता की किताबें आ चुकी हैं – ‘अफ़सोस के लिए कुछ शब्द’ (2009) और ‘राजधानी में एक उज़बेक लड़की’ (2012)। इन वर्षों में कवि की भाषा-शैली का जो विकास हुआ है उसका
संकेत हमें आरंभिक काल की कविताओं में ही मिल जाती है –
“एक बुढ़िया सड़क किनारे
बुदबुदा रही है
'यह दुनिया नहीं
रह गई हैं
रहने के काबिल'
ठीक ऐसे ही समय में
एक बच्चा अस्पताल में
गर्भाशय के तमाम बंधनों को तोड़ते हुए
पुरज़ोर ताक़त से
आना चाहता है
पृथ्वी पर !”
(‘एक ही वक़्त में’ / संग्रह ‘एक और
दुनिया के बारे में’ से)।
दूसरे संग्रह तक आते-आते कवि की भाषा और तीक्ष्ण, और मार्मिक हो जाती है –
“ये औरतें
बित्ते-बित्ते में
साग-पात रोप
अपनी तैयारी रखती थी
मुश्किल वक़्त के लिए
...
ये महिलाएँ बीज बन कर आई थीं
यहाँ की मिट्टी से सन कर
की थीं गर्भधारण
मुहल्ले के रूप में इन्होंने एक दुनिया
विकसित की थीं”/
(‘इस तरह बनी थी
एक दुनिया’ कविता का अंश)।
अद्यतन संग्रह ‘राजधानी में एक उज़बेक लड़की’ (2012) में यह
काव्य-भाषा और धारदार मिलती है :
“पत्ते कभी पीले नहीं होते
नहीं छिपाना पड़ता
नारियल को अपनी सफ़ेदी
नाटक के सारे पात्र
पत्थरों में आत्मा का संचार करते
नदियाँ रोतीं नहीं
और समुद्र हुँकार नहीं भरते
शब्द बासी नहीं पड़ते
और संदेह के दायरे से प्रेम
हमेशा मुक्त होता”
('एक डरी और सहमी दुनिया में' /पृ. सं. - 9)।
लेकिन कहन के स्तर पर कवि संवेदना की नव्यता
और आधुनिकी पर जितना श्रम करते दिखते हैं उतना जन-जीवन के भीतर मौजूद
द्वन्द्वात्मक वर्ग-संघर्ष को व्यक्त करने में नहीं। जन की बदहाली और समय की मार कई
कविताओं में एक वक्तव्य बनकर रह गई है जो केवल संवेदन-नवता के कारण ही पाठक के
अंतस्थल को छूने का प्रयास करती है पर यह जनवादी कविताओं का शुभ लक्षण नहीं, उनके सेंसर्स हैं। हालाकि इसे कवि का रूपवादी झुकाव तो नहीं कहेंगे, पर यहाँ कवि को सचेत होने की जरूरत है। अरविन्द श्रीवास्तव का कवि भाषा
और कथ्य में नागार्जुन और ब्रेख्त को जरूर अपना साध्य बनाते हैं, उनसे प्रेरणा लेते हैं पर जन-सरोकार के परिधि में ही भ्रमण करते दिखते
हैं, कभी उसके केंद्र तक नहीं पहुँच पाते। व्यवहार में वे कवि
केदार नाथ सिंह की वाग्मिता और चमत्कृति जैसे कविता के गुणधर्म को अपनाते ही दिखते
हैं।
अगर कोई मुझसे यह पूछे कि कविता के ‘रूप’ और ‘कथ्य’ में आप किसे
ज्यादा अंक देंगे तो मैं कथ्य को दूंगा। रूप कथ्य का अनुगामी है। कथ्य से ही कवि के उद्देश्य और कविता के सौंदर्य
का निर्धारण होता है। जब गीत चतुर्वेदी और बाबुषा कोहली जैसे युवा कवि कथ्य की जगह रूप को
तरज़ीह दे रहे हों तो उनकी कविताएँ चाहे महफिल में जितनी तालियाँ बटोर लें, अंतोगत्वा कहीँ जा कर ठहरेगी नहीं क्यों कि कविता में कथ्य ही जीवन और मनुष्यता को रचता है, रूप तो उसका आवरण मात्र है, मन-रंजन है, साज–श्रृंगार भर है। कविता में आज लोकधर्मिता और
जनवाद की वकालत भी उसके कथ्य के कारण ही की जाती है। साहित्य में केवल सौंदर्य–उत्सर्जन और जन
के सतही पक्ष से काम नहीं चलता, लेखक की प्रतिबद्धता
और उसमें मौलिकता ही मुख्य चीज होती है जो किसी कवि या लेखक की रचना को पठनीय और
दीर्घजीवी बनाती है। उधार का तर्क और तथ्य तो एक न एक दिन सूद समेत लौटाना होता
है। इसलिए रचना में ईमानदारी का बहुत महत्व है। दूसरी ओर, यह भी सही है कि कविता का सौंदर्य और रूप, उसकी कहन और भंगिमा उसका रूपवाद नहीं होता। जीवन को पीछे करके प्रत्यक्षतः या
परोक्षतः केवल रूप की वकालत करना रूपवाद है। जरूरी नहीं कि हर कविता में संघर्ष और
द्वन्द्व हो ही, जीवन की हर गति में सौंदर्य निहित होता है। किसी एक ही ढर्रे और ढंग में ढली कविता अगर लगातार लिखी जाए तो पाठक को
उससे ऊब होने लगती है। अपने ढंग और ढर्रे को बदलते रहना कविता की सम्प्रेषणीयता से
जुड़ा एक बड़ा सवाल है जिस पर कवि का ध्यान जाना चाहिए। इससे उसकी जड़ता ही भंग नहीं
होती, पाठकों की अरुचि का शिकार
होने से भी कवि बच जाता है।
उपर्युक्त संदर्भ में अगर अरविन्द श्रीवास्तव
की ऊपर उद्धृत कविताओं का परीक्षण करें तो पाएंगे कि कवि की भाषा परिवेश के यथार्थ
को व्यक्त करने में जितनी प्रगल्भ और अचुक दिखती है, कवि उस भाषा-सामर्थ्य का उपयोग जन-प्रतिबद्धता के अवगाहन में शायद ही कर
पाया हो! देखिए, कवि का एक कविता-वक्तव्य
–
‘बेहद खूबसूरत था वह परदा
जिसके पीछे
चलती थी साजिश
हत्या की..।‘
यहाँ बेशक कवि का ध्यान पर्दे की खूबसूरती
पर अधिक है। शब्दों की चकमेबाजी में कवि की प्रतिबद्धता कितना व्यंग्य है, कितना हकीकत, यहाँ उनकी एक छोटी कविता
में दृष्टिगत है:
‘बल्ब-बत्ती
सीएफएल–नियोन
और कितना दंडित होगा अंधेरा!’ –
('अंधेरा'/पृ.78)।
कवि को अंधेरे के दंडित होने का विस्मय
क्यों है, वह कथन का विस्तार कर
अपने कथ्य को स्पष्ट क्यों नहीं करना चाहता, यह गौरतलब है।
इसी प्रकार, बदहाल धरती पर बारिश की बूंदों में कवि का
सौंदर्य-चेतस मन जिस अनुभूति का आकांक्षी है, वह जनवादी
कविता में एक ‘अरण्य-संलाप’ से अधिक
क्या कहा जाएगा ?–
"काव्यवाचक सुनाता है पृथ्वी प्रेम
के गीत
और तभी गर्भित बादल करते हैं प्रसव
बूंदें, फूस की छप्परों पर
अंधेरी रातों में
उठती है जुगलबंदी बूंदों की
किसी खाली बर्तन में
संगीत की स्वर-लहरियाँ
टप टपाटप टप टपाटप..... ।"
('बूंद’' /पृ.49)।
बारिश के बूंदों की जुगलबंदी से अरविन्द
का कवि किसी खाली बर्तन में टप-टप आवाज की स्वर-लहरियों से जो गुणने का प्रयत्न
करता है उसे अगर उनकी बुर्जूआ सौंदर्य-दृष्टि न माने तो भी कवि की जनपक्षधरता पाठक
के मन में संशय का एक घेरा बनाती है जो निरापद न होकर कवि को यशकामिता और भटकाव के
दायरे में ले जाती देखती है, कवि के पूरे काव्य
संसार में कहीं भी आपको वर्ग-संघर्ष और श्रमशील जन-सौंदर्य और लड़ते-भिड़ते जन का
रूप नहीं मिलेगा, मरते-खपते और समय की विद्रूपता में घुटने
टिकाते लोग ही मिलेंगे जो इनकी कविताओं के जनवादी लोक को कमजोर बनाती है। फिर भी अरविन्द
श्रीवास्तव की कविताएँ जो काव्याकाश रच रही है वह उनको आगे ले जाने का मार्ग तो
तलाश ही रही पर गंतव्य तक पहुंचा नहीं रही। इस बिन्दु पर कवि को बहुत सचेत और सावधान
होने की जरूरत है।
सुशील कुमार |
संपर्क :
सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची
झारखण्ड – 834004
मोबाईल (0 90067 40311 और 0 94313
10216)
(आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
अतीव सुंदर विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने ,एक महत्वपूर्ण और आवश्यक लेख | हालांकि मेरी कविताओं में रूपवादी प्रवृति बहुत कम मुझे लगती है फिर मेरे लिये ये आलेख मार्ग दर्शन का कार्य करेगा आदरणीय |
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