आशीष मिश्र का हरीश चन्द्र पाण्डे पर आलेख 'शब्द जहाँ भिगोये चने की तरह अँखुआ रहे हैं'
कविता
लिखने के लिए जिस सूक्ष्म अन्वेषण दृष्टि की जरुरत होती है वह आजकल कम कवियों में
दिखायी पड़ती है। इसीलिए आजकल की कविताओं में उस धार की प्रायः कमी दिखायी पड़ती है जिसकी
अपेक्षा एक पाठक कविता को पढ़ते समय कवि से करता है। कविता कितनी परिश्रम की माँग
करती है इसे एक बेहतर कविता पढ़ कर जाना-समझा जा सकता है। एक जमाने में लोग ‘हंस’
को राजेन्द्र यादव का सम्पादकीय पढने के लिए खरीदते थे। उनका सम्पादकीय लम्बा-चौड़ा
होने के साथ-साथ धारा से बिल्कुल अलग कुछ विद्रोही किस्म का और विचारोत्तेजक होता
था। बहुत कम लोगों को यह बात पता होगी कि ‘हंस’ पत्रिका के उसी दौर में सम्पादक
राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के जनवरी 2004 अंक में अपनी सम्पादकीय ‘मेरी तेरी उसकी
बात’ की जगह कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की एक छोटी सी कविता ‘अखबार पढ़ते हुए’ प्रकाशित
की थी। हंस का सम्पादकीय पृष्ठ कुछ इस तरह था।
मेरी
तेरी उसकी बात
‘अखबार
पढ़ते हुए’
हरीश
चन्द्र पाण्डे
ट्रक
के नीचे आ गया एक आदमी
वह
अपने बाएँ चल रहा था
एक
लटका पाया गया कमरे के पंखे पर होटल में
वह कहीं
बाहर से आया था
एक
नहीं रहा बिजली का नंगा तार छू जाने से
एक
औरत नहीं रही अपने खेत में अपने को बचाते हुए
एक
नहीं रहा डकैतों से अपना घर बचाते हुए
ये कल
की तारीख़ में लोगों के मारे जाने के समाचार नहीं
कल की
तारीख़ में मेरे बच कर निकल जाने के समाचार है।
‘नए
वर्ष की इसी शुभकामना के साथ’
राजेन्द्र
यादव
1-1-2004
कविता को लगातार खारिज
करने वाले एक कहानीकार सम्पादक द्वारा अपनी सम्पादकीय की जगह इस कविता को प्रस्तुत
करना ही बता देता है कि हरीश जी की एक कवि के रूप में ख्याति क्या और कैसी रही है।
चुप रहना उनका स्वभाव ही नहीं वह प्रतिबद्धता है जो एक मनुष्य के रूप में हममें
होनी चाहिए। लेकिन जहाँ बोलना चाहिए वहाँ मैंने उन्हें मजबूती से बोलते और अपने कहे
पर दृढ़ और अटल रहते भी देखा है। हरीश जी पर इस दौर के प्रायः सभी छोटे-बड़े रचनाकारों
ने लिखा है। ‘पाखी’ के एक अंक में जब नामवर जी से अपनी पसंद के कवि का नाम बताने
के लिए कहा गया तो थोड़े ना-नुकुर के पश्चात उन्होंने चार कवियों देवी प्रसाद मिश्र,
अष्टभुजा शुक्ल, हरीश चन्द्र पाण्डे, गीत चतुर्वेदी का नाम मुख्य तौर पर लिया था।
मुझे अच्छी तरह याद है
कि मार्कंडेय जी ने एक बार ‘कथा’ के ‘समालोचन’ खण्ड के लिए कवि हरीश जी का चयन
किया था। हरीश जी पर केदार नाथ सिंह और मंगलेश डबराल से आलेख लिखवाना तय किया गया।
सम्पादकगण यह भलीभांति जानते हैं कि इन दोनों रचनाकारों से लिखवाना कितना कठिन और
दुष्कर होता है। लेकिन मैंने जब इस बावत दोनों रचनाकारों से आग्रह किया तो न केवल
उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया बल्कि निश्चित समय सीमा के अंतर्गत लिख कर भेजा
भी।
दो साल पहले हरीश जी ने
अपनी उम्र का साठवाँ पड़ाव चुपके से पार कर लिया। तभी मैंने अनहद में उन पर कुछ विशेष
देने की योजना बनायी थी। अनहद के छठें अंक में यह योजना क्रियान्वित भी हुई। इस
अंक में मैंने बिल्कुल युवा आलोचक आशीष मिश्र से हरीश जी पर एक आलेख लिखने के लिए
आग्रह किया। अनहद के अंक में यह आलेख छपा भी है। अभी कुछ दिन पहले ही आशीष को तीसरा
अनुनाद सम्मान दिया गया। संयोगवश आज आशीष का जन्मदिन भी है। आशीष को सम्मान और
जन्मदिन की बधाई देते हुए आज ‘पहली बार’ पर प्रस्तुत है उन्हीं का एक आलेख ‘शब्द
जहाँ भिगोये चने की तरह अँखुआ रहे हैं’।
शब्द जहाँ भिगोये चने की तरह अँखुआ रहे हैं
आशीष मिश्र
मनुष्य के लिए सबसे प्रिय व काम्य जीवन है। पर उपभोग की अनन्त
चाहतों और छिछले दैनंदिन जीवन के नीचे यह काम्यता दुर्लक्षित हो जाती है। आचार्य
शुक्ल सभ्यता के बढ़ने के साथ कविता की कठिनाई के बारे में लिखते हैं। इस प्रक्रिया
में वे कविता को जीवन की इस काम्यता से जोड़ते हुए यही व्यंजित कर रहे होते हैं। आज
परिस्थितियाँ आचार्य शुक्ल की कल्पना से भी ज़्यादा जटिल हैं। और ‘कविता क्या है’ में जिस संकट का हलका-सा आभास मिलता
है वह पूंजीवाद की प्राथमिक अवस्था का संकट है। पूंजीवाद की इस अवस्था में पूँजी
का प्रपंच और जीवन की काम्यता एक द्वन्द्वात्मकता में होती है। उत्तर-पूंजीवादी
दौर में यह द्वंद्वात्मकता नष्ट होने लगती है। अब जीवन की काम्यता से हमारा जीवन-बोध
प्रभावित नहीं होता बल्कि उत्पादन की शक्तियाँ निर्धारित करती हैं। माध्यम निर्मित
आभासी दुनिया वस्तु-सत्ता को ही निर्धारित, निर्देशित और
नियंत्रित करती है। आज सामूहिक अवचेतन को आच्छादित कर उसे एकायामी बनाते जाने की
अकल्पनीय क्षमता इन नियामक शक्तियों के पास है। और मुक्ति की धारणा किन्हीं सार्वभौमिक
मूल्य में नहीं वस्तुओं के उपभोग में है। इस संरचना से जल्दबाज़ प्रतिक्रिया इसी
संरचना के एक दूसरी अंधी गली तक ले जाती है। मनुष्य की सारी इच्छाएँ, पहचान और प्रतिक्रिया, अर्थात उसके चेतन-अवचेतन के गहनतम
हलके तक बाज़ार से जुड़ गये हैं। और उसके चारों तरफ़ दुनिया नहीं, उसकी निर्मितियाँ, उसकी सपाट छवियाँ ही फैली हुई
हैं। इस समय जो चीज़ हमें जीवन का स्मरण कराये वह सुन्दर है। जो उस अलक्षित से हमें
जोड़े वही सुन्दर है। शुक्ल जी के शब्दों में जो उस प्रच्छन्न को उद्घाटित करे वही
कविता है। शीर्षासन कर रहे इस भाव-बोध का प्रतिरोध ही आज सौन्दर्य और कविता का सार
है। बिना इस प्रतिरोध के कविता सम्भव ही नहीं। अगर कलाएँ हमारी निर्मित आत्मबद्धता
के दायरे का परिहार करती हुई जीवन तक नहीं ले जा सकतीं तो उनकी सार्थकता का क्या मानी
है! कलाओं की समाकृति, रंग, अनुपात और
अंगों का समलयत्व आदि अपने आप में मूल्य नहीं रखतीं। उनका मूल्य इस निर्मित
आत्मबद्धता के परिहार, जीवन को रचने और दुनिया को उसकी
वस्तुवत्ता उपलब्ध करा सकने की सक्षमता के कारण है। हरीश चन्द्र पाण्डे उन विरल
कवियों में हैं जो बिना किसी घोषणा के अपनी कविता में यही करते हैं। वे कविता को
माध्यम नहीं, सोचने और महसूसने की मौलिक भूमि की तरह लेते हैं। वे कविता में छुद्र
उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं हैं। न सतही नारेबाज़ी, न ओछी
स्वीकार्यता और न पल्लवग्राहियों को आश्वस्त करने की चाह है। हरीश चन्द्र पाण्डे
हमारे सामान्य अनुभव की अमानवीयता और उसमें दिपदिपाते मद्धम जीवन- दोनों को ही
उसकी द्वंद्वात्मकता में रचने और गहराई में उतरने के विश्वासी हैं।
यह आत्मविश्वास व तज्जनित धैर्य ही है जो हरीश चन्द्र पाण्डे को
‘रेडीमेड’ अवधारणाओं के बजाए संवेदनशीलता और सजग
ऐंद्रियबोध के जरिए जीवन में उतरने का पंथ प्रशस्त करता है। वे जानते हैं कि कविता
में विचार-तत्त्व अन्य अनुशासनों से अलग, सहजतः
भाव-सम्बन्धों के बीच से पैदा होता है। और जीवन-मूल्य की तरह सौंदर्य-बोध के स्तर
पर रचा जाता है। जो संवेदनात्मक दिशा से
व्यंजित होता है और वह उसी रास्ते उपलब्ध भी किया जा सकता है। एक अर्थ में सारी कलाएँ
जीवन-जहान सम्बन्धी अवधारणाओं को ढीला करती हैं, उससे ग्रहणशीलता
का आग्रह करती हैं। वे तर्क, विचार,
अवधारणा, रूढ और सर्वग्राह्य संकेत-व्यवस्था से बाहर एक सार्थक
अतर्क, एक वस्तुनिष्ठ ‘केऑस’ और अपरिचित-परिचित संवेद्य दुनिया रचती हैं। विचार अन्ततः एक बन्द
व्यवस्था में परिणत हो जाता है और कलाएँ निरन्तर बाहर की तरफ़ खुलती हैं। कविता के
भीतर की दुनिया अन्य कलाओं की अपेक्षा, जीवन्त हलचल से भरी
दुनिया होती है। दूसरी तरफ़, विचारधारा निर्धारक, सत्ताक-ठस्सपन से भरते जाते हैं। यह लगातार अपने भीतर के प्रतिपक्ष को
काटता हुआ ‘एब्सोल्यूट’ सच बनने की
प्रक्रिया में लगा रहता है।
“उसकी आराधना में
फूल चढ़े थे सबसे पहले
फिर जानवर
चढ़े
और फिर आदमी ही आदमी।‘’
हरीश चन्द्र
पाण्डे मनुष्य के नाम पर मनुष्य की कोई धारणा-अवधारणा रचने के बजाय एकदम खुले ढंग
से छोटे-छोटे भाव-सन्दर्भों को अनावृत करते हुए अपनी भाव-दृष्टि से समकालीन मनुष्य
के अस्तित्व के कोने-अंतरों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। यह मनुष्य, यह जीवन जो उनकी कविताओं में रचा गया है, समय के
स्पष्ट फ्रेम का जीवन है। पर यह समय किसी राज्य द्वारा उद्घोषित, किसी प्रधानमंत्री, किसी पूँजीपति, किसी पार्टी द्वारा घोषित और किसी अकादमी अध्यक्ष द्वारा अनुशंसित समय
नहीं है। यह मानवीय संवेदनाओं का संवेद्य और विशिष्ट रूपाकार है। मनुष्य की चाहतों, विश्वासों और उसकी कशमकश को अवधारणाओं से अलग, मौलिक
ढंग से पकड़ने की सफल कोशिश है। एक अर्थ में इस अमूर्त और अमानवीय सभ्यता में
मूर्तता और मानवीयता के पुनर्खोज की कविता है। इन कविताओं में छोटे-छोटे एकान्त और
पखेरुओं की ढेर सारी चहचहाहटें हैं। दुख और अवसाद को महसूसना, सुख में चहकना, प्रेम और घृणा में असामान्य होना इस
कवि-व्यक्तित्त्व की विशिष्टता है। झूठी स्थितिप्रज्ञता इस कवि-व्यक्तित्त्व का
काम्य नहीं है। गहरे अर्थों में कविता मात्र ही इस स्थितिप्रज्ञता का विरोध रचती
है।
“हमारी इच्छाएँ व्यक्त हों पेड़ों की तरह
बरसात में जैसे वल्कल हो जाते हैं भारी और मोटे
जैसे पतझड़ में झरने लगते हैं पत्ते
जैसे फूल टंग जाते हैं वसंत में
परिस्थितियाँ गुजरें हममें से ऋतुओं की तरह
हमें पौधों से पेड़ बनाते हुए
हरा हो हो के लौटे हमारा पीलापन
जड़ें हमारी महसूस करें अपनी एक पत्ती का गिरना
एक एक फूल का हँसना महसूस हो जाए
न तरस के जियेँ हम न मरें अघा-अघा कर
रूढ़ियों से न हों स्थापित
विस्थापित न हों अनबरसे मेघों से”
‘हमारी इच्छाएँ
व्यक्त हों पेड़ों की तरह!’ मनुष्य की इच्छाएँ पेड़ों की तरह
व्यक्त हों – इसकी क्या व्यंजना हो सकती है? मनुष्यों की तरह
व्यक्त होने के क्या मायने हैं? अगर इच्छाएँ मनुष्यों की तरह
व्यक्त हों तो कवि को क्या दिक़्क़त है? पूरी कविता से यह
व्यंजित हो रहा है कि मनुष्य की तरह होना श्रेणीकृत, सत्ताक
और आत्मदमनकारी संरचना है। ‘पेड़ों की तरह’ होना इस संरचना की आलोचना करते हुए भी संरचना मात्र से विश्रृंखलित नहीं
है। आख़िर ‘तरह’ यहाँ भी है और पूरी
कविता इसी ‘तरह’ का बखान है। यह कविता सभ्यता
की आलोचना करती हुई एक सार्थक जीवन-बोध अर्जित करती है। यह मनुष्य की प्रकृति से ‘इंटीमेसी’ की पुनर्खोज है। और मनुष्य की आन्तरिक दुनिया
की खोज के साथ प्रकृति का पुनर्स्थापन भी है। यह इंटीमेसी हमारे जीवन का सौंदर्य
है। नितान्त लौकिक सौन्दर्य। यहाँ मनुष्य को उसकी कालबद्धता के साथ सम्मान्य समझा
गया है। ‘हरा हो हो के उसके पीलेपन का लौटना’ उसकी प्रकृति है। यह असार का सार ही उसका सौंदर्य है।
हरीश चन्द्र
पाण्डे मनुष्य की तरह सोचते हैं। उनका संकट नागरिक होने का नहीं मनुष्य होने का
संकट है। हमारे समय में माध्यम निर्मित दुनिया हमारे अस्तित्व को ‘नागरिकता’ में ही रिड्यूस कर देना चाहती है। बल्कि
नागरिकता में भी नहीं; उपभोक्ता में। इस नागरिकता का सार
उपभोक्ता है। हरीश चन्द्र पाण्डे चीज़ों को मनुष्य की दृष्टि-बिन्दु से देखते हैं।
यह मनुष्य कोई निरपेक्ष तत्त्व नहीं है। जैसा की ऊपर स्पष्ट किया गया- देश-काल के
फ्रेम का मनुष्य है। रोज के संघर्षों से दो-चार होता मनुष्य है। यह कवि नागरिक भी
है पर नागरिकता के संकटों को बहुत गहराई से मनुष्यता की भूमि पर परखना और देखना
चाहता है। वह दैनन्दिन जीवन और घटमान को मानवीय सार और उसकी मूलभूत संवेदनाओं के
धरातल पर परखना चाहता है। इन कविताओं का कवि नागरिक संकट को नागरिकता के सामान्य-बोध
के धरातल पर समझ और राजनीतिक भर्त्सना कर कवि-दायित्व से निर्भार नहीं हो लेता। वह
इस दैनन्दिन सामान्य को मनुष्यता की अपनी अर्जित भूमि से देखता है। संभवतः यह
कविता मात्र का तरीक़ा है। यहीं कविता रोज के ‘प्रेस
कान्फ्रेंस’ और ‘पैनल डिस्कसन’ से अलग होती है। और इसी अर्थ में कविता दुनिया को ज़्यादा मूलगामी ढंग से
समझने का प्रयास हो सकती है। वे जानते हैं कि कविता का रास्ता राजनीति के कागज़ पर
कुएँ खोदने और वृक्ष लगाने से अलग है। हरीश चन्द्र पाण्डे कई बार अपने समय पर तीखी
प्रतिक्रिया भी करते हैं पर वह भी मनुष्यता की एक अर्जित भूमि से पैदा होती है।
हमारा सामान्य दैनन्दिन जीवन दमन और अमानवीयता के अलक्षित महीन सूत्रों से बुना
गया होता है। अधिकांशतः हमारा ध्यान उन सूत्रों पर नहीं होता। सूत्रों द्वारा
निर्मित दृश्य संस्थानों पर होता है। ये संस्थान दृश्य और गम्य लगते हैं पर इनका
कारण सर्वसामान्य लगते दैनन्दिन जीवन में ही छिपा है। यह हमारा रोज का
जीवन-व्यवहार, जिस पर हमारा ध्यान नहीं जाता, दमन और क्रूरता के रेशों से ही बुना है। अन्तःवृत्तियों और संस्थानों के
बीच द्वन्द्वात्मक संबंध होता है, दोनों एक-दूसरे के लिए
आधार बनते हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे को पढ़ते हुए ये अन्तःसूत्र दृश्य हो उठते हैं।
आदमी और झोले की स्थानापन्नता उद्घाटित हो जाती है।
“सुनो!
जो आदमी इस यात्रा में झोला नहीं बन सकता
इसी तरह खड़ा रहेगा यात्रा भर
झोला बन कर।”
यह झोले का यमक नहीं है। अलंकार और छविमयता हरीश चन्द्र पाण्डे
का काम्य नहीं। यह ऐसा समय है जब झोला मनुष्य के पद पर बैठा हुआ है और संवेदनशील
मनुष्य विस्थापित हो कर झोले की तरह लटका हुआ है! इस कविता का शीर्षक है- ‘आदमी और
झोला’। बहुत चाक्षुष विवरण में आगे बढ़ती है और इन अंतिम पंक्तियों में सघन
विडम्बना में बदल जाती है। यह हमारे रोज का इतना सामान्य अनुभव है कि हमारा इस
क्रूरता पर ध्यान ही नहीं जाता। हरीश चन्द्र पाण्डे इसे देख पाते हैं क्योंकि वे
इसे अपनी अर्जित मनुष्यता के धरातल से देखते हैं। इसी तरह पोखरण परमाणु परीक्षण पर
‘बुद्ध मुस्कराये हैं’ शीर्षक कविता सब-कुछ उलट देने
वाले समय की शिनाख़्त करती है-
“इतने निरपेक्ष विपर्यस्त और विद्रूप कभी नहीं थे हमारे
बिम्ब
कि
पृथ्वी पर हो सबसे संहारक पल का रिहर्सल
और
कहा जाय
बुद्ध
मुस्कराये हैं।”
यह कविता फ़ासिज़्म के सांस्कृतिक निहितार्थों को खोलती है। ‘लाफिंग बुद्धा’ के उदात्त बिम्ब को संहारक अस्त्र
में बदल दिया गया। यह एक सांस्कृतिक परंपरा से लड़ने का तरीक़ा था। फ़ासिज़्म सिर्फ
विचारधारा में नहीं बल्कि बहुत धूर्तता से निर्मित छवियों और उन्माद में छिपा होता
है। राजनीति इस घटना के वैश्विक और आर्थिक हित को विश्लेषित करती है। कविता इसे
सांस्कृतिक और मानवीय सन्दर्भ-बिन्दु से देखती है। वह इस त्रासद समय को दर्ज़ करती
है जहाँ हमें और हमारी भाषा को निर्मित किया जा सकता है। सांस्कृतिक धारा के
उदात्त बिन्दुओं को धुँधला किया जा सकता है, बदला जा सकता है, मिटाया जा सकता है। राजनीति घटमान के गहन निहितार्थ को समझने में सक्षम
नहीं होती पर जब इसे कविता में संस्कृति और मनुष्यता की भूमि से देखा जाता है तो
वह व्यंजित हो उठता है।
हरीश चन्द्र पाण्डे की संवेदना का भूगोल भी विस्तृत है- पहाड़ से
लेकर मैदान तक। पर वे इस विस्तृत अनुभव-संसार से विशिष्ट छविपूर्ण और चमकदार चीजें
नहीं चुनते। वे अधिकतर ऐसे विषयों को कविता में पकड़ने की कोशिश करते हैं जिनसे
हमारा दैनन्दिन जुड़ाव तो होता है, इसके बावजूद वह
हमारी पकड़ से बाहर रहता है! और वे विषय के आन्तरिक भाव-सम्बन्धों को जिस तरह खोलते
हैं, वह उनके करुणाक्षम भावदृष्टि का प्रमाण और वस्तु-स्थिति
को तटस्थ ढंग से खोल पाने की फ़ितरत- दोनों है। वे जानते हैं
कि सुन्दरता के अपने मायने हैं। वहाँ भी हित और हिंसा के तनाव काम करते हैं। सौन्दर्य
और संवेदनशीलता भी हिंसा, दमन और क्रूरता के महीन तारों से
बुनी इस संरचना का ही प्रभावोत्पाद है। चीजें एक निर्मित दायरे में ही अपना
रूपाकार ग्रहण करती हैं। ऐसा कोई भाव नहीं जो इस दायरे को छोड़ कर उन्मुक्त हो जाए।
उनकी पहली पुस्तिका में एक कविता है- ‘कसाई बाड़े की ओर’। जिसमें
‘कसाई बैठाता है रिक्शे पर
गोद में बिठाता है बकरी को प्यार से।’
जब ‘एकबार
बकरी के कान पर बैठ जाती है मक्खी
बकरी संवेदनशील है
कसाई उससे भी अधिक संवेदनशील
कसाई मक्खी भगाता है।’
कसाई हल्के से बकरी का कान मलता है और बकरी सोचती है दुनिया का
सबसे नेक आदमी मेरे पास है। इस कविता का अन्तिम बन्द सौंदर्य और संवेदन के प्रति, उसके निहितार्थों और प्रतिफलन के प्रति और सजग करता है-
“कसाई
अनजाने में भी सहलाता है कान
उसकी
आँखें बकरी के कान पर हैं
उसका
रिक्शा
कसाई
बाड़े की ओर जा रहा है.... ।“
वस्तु-स्थिति
के अन्तःसूत्रों को पूरी करुणा और सावधानी के साथ इस तरह खोल कर रख देने की क्षमता
हिन्दी कविता में बहुत विरल है। कविता से यह निष्कर्ष निकाल लेना कि कसाई का बकरी
से प्रेम निरर्थक है, जल्दबाज़ी होगी। यह तो है ही।
पर कविता में और गहराई में उतर सकने के खिड़की-दरवाज़े भी हैं। आख़िर यह गलत तो नहीं
है कि कसाई बकरी के कान से मक्खी उड़ाता है। और उसका कान प्यार से मलते हुए दिखाई
पड़ता है। पर साथ ही रिक्शा धीरे-धीरे कसाई बाड़े की तरफ़ चला जा रहा है। दरअसल चीजें
अपनी सीमाओं के साथ इसी तरह व्यवस्थित होती हैं। यहाँ हरीश चन्द्र पाण्डे कसाई को ‘विलेन’ नहीं बना रहे हैं बल्कि एक विडम्बना बोध पैदा
करना चाहते हैं। इसी जोड़ की एक दूसरी कविता है- ‘अधूरा मकान’।
हमारे चारों तरफ़ मौजूद दुनिया ही हमारे भावों, विचारों, स्वप्न और चाहतों का अधिष्ठान होती है। यह
परत दर परत, जो कई बार विवादी भी हो सकते हैं, हमारे मन में जमा होता है। कोई भी वस्तु हमारे भाव-सम्बन्धों से जुड़, हमारे सपनों और कल्पनाओं में घुलकर, अपनी एक
वस्तुसत्ता के बावजूद, बड़े थल-काल में फैलने लगती है। हरीश
चन्द्र पाण्डे इन वस्तु-सम्बन्धों को बहुत सूक्ष्म ढंग से पकड़ते हैं। और
काव्य-वस्तु बड़े मानवीय संदर्भों को खोलने लगती है। ‘अधूरा
मकान’ हमारे समकालीन सामाजिक यथार्थ में ढलने लगता है। यह जो
अधूरा मकान है ‘इसे दो कमरे का मक़ान बनना था’। ‘फ़िलहाल एक कमरे के बाद काम बन्द है / जो कमरा अभी बनना है वह नक़्शे के हिसाब से बड़ा कमरा है।’ यह एक ज़रूरी व सहज विवरण है पर पूरी कविता के सन्दर्भ में नई व्यंजना से
दीप्त हो उठता है। वे घट्य की कारणता और उसके नियोजनीय सन्दर्भों को जिस गहराई से
रचते हैं उसे कविता का ‘सत्कार्यवाद’
कहा जाना चाहिए।
“भविष्य
का कमरा अभी बिखरा है अपने चारों ओर
रेत
है एक कोने पर और उसे हवा से बचाया जाना है
एक
कोने पर सरिया है इसे पानी से बचाया जाना है
ईंटें
बिखरी हुईं और कुछ बने दरवाजे भी
ये
बरसों से जमा अपनी पहली तारीख़ें हैं
बहने
या जंग लगने से इन्हें बचाया जाना है।”
इन
पंक्तियों के पीछे की भाव-दृष्टि एक विस्तृत सन्दर्भ को उद्घाटित करती है। ज़रूरी
नहीं कि पाठक इस सामाजिक सन्दर्भ से पढ़ते ही परिचित हो जाए और हमारे समय की
व्यंजना को उपलब्ध कर ले। यह सब उसमें धीरे-धीरे खुलेंगी। यह मकान के अधूरेपन की
ख़ुशबू है!
“अधूरा मकान यह
आधा
सच है आधा सपना
आधा
हँसी है आधा रोना
यह
ताजा कटे बकरे की छटपटाती देह है
एक
कामना है जो मरते आदमी को मरने भी नहीं देती।”
अधूरा
मकान यह ताज़ा कटे बकरे की छटपटाती देह है! यह एक कामना है जो मरते आदमी को मरने भी
नहीं देती। अधूरे घर के पूरे होने की तड़प को, एक
छोटी-सी मानवीय चाहत को इतने मार्मिक ढंग से रच पाना हरीश चन्द्र पाण्डे को हिन्दी
कविता की उपलब्धि बनाता है।
रवीन्द्र कालिया, संतोष चतुर्वेदी और हरीश चन्द्र पाण्डे |
कविता
में हरीश चन्द्र पाण्डे अपनी छापें नहीं लादते। वे स्थितियों और घटनाओं को सजाते
नहीं, सिर्फ़ उसे दृश्य करते हैं। उसका पुनर्सैयोजन
करते हैं जिससे भाव-छवियाँ स्पष्ट हो जाएँ। जिससे मूल भावदृष्टि दीप्त हो उठे।
दुनिया की वस्तुवत्ता का इतना सम्मान करने वाला इस पीढ़ी में ऐसा दूसरा कोई कवि
नहीं है। वे जानते हैं कि ‘जीवन मक्का काशी में है। जीवन
दिल्ली मुम्बई में है। यहाँ इस जगह भी है जीवन, पिराई के बाद
गन्ने के सूखे छिलकों में भी। उस बच्चे में भी जो इसे गाते हुए बटोरे लिए जा रहा
है। बस इसे किसी घड़ीसाज़ की चिमटी से पकड़ लेने की ज़रूरत है। हरीश चन्द्र पाण्डे इसी
विस्थापित जीवन की वस्तुवत्ता को जगह दिलाना चाहते हैं। और उनकी कविता इसी प्रयास
की फलश्रुति है। कविताएं पढ़ते हुए, हरीश चन्द्र पाण्डे कई
अर्थों में केदार नाथ सिंह के सहगामी लगते हैं। पर कविता में वस्तु-सत्ता के प्रति
व्यवहार की ज़मीन पर दोनों अलग रास्ते जाते दिखाई देते हैं। केदार नाथ सिंह वस्तु-सत्ता
को पीस कर चूर्ण बना देते हैं और उसे अपने मनोवांक्षित ढंग से रचते हैं। हरीश
चन्द्र पाण्डे वस्तुवत्ता को रुखड़े और उसके विसंवादी स्वरों के साथ जगह दिलाने का
प्रयास करते हैं। चीज़ों के बारे में बोलने के बजाय चीज़ों को ही खड़ा कर देते हैं। सभी
कविताएं एक सहज विवरण से शुरू होती हैं। ‘महराजिन बुआ’ सारे
विश्वासों के बीच विधवा हुईं / अब मरघट की स्वामिनी हैं।’
बीच-बीच में वस्तु-स्थिति को तीक्ष्ण बनाने के लिए सहज-सामान्य बिम्बों का उपयोग
करते हैं-
“पंडों के शहर में
मर्दों
के पेशे को
मर्दों
से छीन कर
जबड़े
में शिकार दबाये-सी घूम रही है वह।”
सामन्तवाद
और पितृसत्ता के खिलाफ़ खुद को रच रही स्त्री का बहुत सशक्त बिम्ब है। हरीश चन्द्र
पाण्डे बहुत गहराई से सभ्यता द्वारा किए जा रहे अमूर्तिकरण का प्रति-दुनिया रचते
हैं। सभ्यता के क्रम में चीजें अमूर्त होतीं, प्रतीक और
संकेतों में बदलती जाती हैं। सभ्यता और प्रबंधन का काम इस प्रक्रिया से ही सम्भव
हो पाता है। शुरुआत में कैलेंडर सिर्फ़ एक संकेतक होता है- महीने और ऋतु-चक्र का।
कैलेंडर से बाहर दुनिया की वास्तविकता बहुत बड़ी होती है। कुछ समय तक दोनों बराबर
और साथ-साथ होते हैं। पर इससे आगे सिर्फ़ कैलेंडर बचता है। इससे बाहर ऋतु-चक्र खो
जाता है, वस्तुवत्ता खो जाती है। कभी चैत्र कहने से रवि की
फ़सल और उससे जुड़ा पूरा श्रम सामने होता था, तवे-सी जलती धरती
उपस्थित हो जाती थी। सावन कहते कजरी और झापस से तर हो जाते पर आज सिर्फ़ कैलेंडर पर
एक शब्द है, बारहों महीने जैसा ही एक महीना। जो सारहीन और
सपाट है। अब देश नहीं सिर्फ़ उसका नक़्शा बचता है। घड़ी से बाहर समय की संकल्पना ही
नहीं बचती। आदमी पहचान-संख्या में बदल जाता है। दुनिया नहीं बचती सिर्फ़ उसका ‘सिमुलक्रा’ बचता है। और कलाएँ ठस, सपाट और बड़बोली होकर रह जाती हैं। कविता नहीं ‘पेस्टीशे’ बचता है। पर संवेदनशील कविता अपनी प्रकृति में ही इसका विरोध रचती है।
कविता चीज़ों को फिर से लौटा लेना चाहती है। हरीश चन्द्र पाण्डे घड़ी की उपयोगिता
जानते हैं पर घड़ी द्वारा विस्थापित दुनिया को अनिवार्य मानते हैं।
‘इधर सबसे ऊँची पहाड़ी के माथे पर धूप का टीका लगा
कि पूरी घाटी में सात बज गये। जाड़ों के दिनों में
धूप नहीं
हल्द्वानी जाने वाली बस बजाती ये सात
कई विकल्प थे सात बजाने के
केवल घड़ी के पास नहीं थे सात बजाने के लिए
कोई घड़ी नहीं रच सकती समय को।
“तब
किसने रचा होगा ये समय?
चाँद
तारे सूर्य जंगलों ने
हरकारों
ने
औरतों
ने
या
फिर सबके श्रमदान से रचा गया होगा ये समय।”
कोई घड़ी नहीं रच सकती समय को। इसे घड़ी के बाहर विस्तृत दुनिया
ने रचा है। घड़ी तो उसे नक़ल कर, उसे संकेतित करने
और मापने के लिए बनाया गया यन्त्र है। पर यह घड़ी बहुत गुमनाम तरीक़े से इस दुनिया
को विस्थापित कर देती है। अपने कारण और संकेतित दोनों को विस्थापित कर देती है।
कविता इस दुनिया को पुनः स्थापित करती है। कविता इस प्रच्छन्नता को उद्घाटित करती
है। इसी तरह की दार्शनिक गहराई युक्त कविता है- ‘पर्दा’।
‘जिसे बच्चों की तालियों के बीच
एक स्थान को दो भागों में बाँटते हुए टांग दिया
गया था।’
हमारे अविभाज्य अखण्ड दृश्य-जगत को
दो लोकों में बँटता
आत्महत्या की परिणति सा
लटका हुआ है परदा।’
यह परदा संकेतों, बिम्बों, छवियों और प्रतीकों से बनी बेजान पर सक्रिय,
प्रभावी दुनिया का है।
“इस परदे की अपनी एक अलग सत्ता है
वर्षों
से लटक रहा है जो दरवाज़े पर
इसमें
कुलाचें भरते हिरनों के पाँव
जमीन
को छू नहीं पाये हैं अभी तक
बन्दरों
की वो लम्बी छलाँग
हवा
में ही है अभी भी
सूर्य
बादलों की गिरफ़्त से
बाहर
नहीं निकल पाया है।”
इस परदे पर दुनिया चटकपूर्ण तो है पर ठहरी हुई और असार है।
अन्तिम दो पंक्तियाँ इस सन्दर्भ में बहुत व्यंजक बन जाती हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे
सभ्यता के इस गहन संकट को समझते हैं। और यह कहने दीजिए कि कि इस तरह की समझ उनकी
पीढ़ी में बहुत विरल है। वे कविता में दो चीजें एक साथ करते हैं। एक तो वे दुनिया
के रूप-रस-गन्ध को फिर से रचने का प्रयास करते हैं। और दूसरे, पूँजी द्वारा अपने हित-सोधन में नष्ट होते जीवन-संदर्भों को कविता में
बचा लेना चाहते हैं। वे पूछते हैं कि ‘ये स्वाद कैसे आकार
लेता है? जो फल न डाल पर रह सका और न पक्षियों की चोंच में आ
सका इसलिए धरती पर गिर गया,
‘नीचे टपक पड़े उस अंश का स्वाद कैसा होगा ये जमीन ही
जाने।’
“क्या
पता ज़मीन ही हो वह अंश
जो
किसी अनअंटी चोंच से गिर पड़ा हो
पकते
हुए ललछोंहे सूर्य को कुतरते वक़्त।”
इसकी व्यंजना है कि धरती माटी-पाथर का ढूह नहीं, रूप-रस-गन्ध का आगार है। सौन्दर्य
और प्रेम का अधिष्ठान है। इन पंक्तियों पर इसलिए भी ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि
यह अतियथार्थवादी संरचना इनकी कविताओं में विरल है पर धीरे-धीरे सघन होता गया है। सम्भव
है कि दुनिया की विस्थापित वस्तुवत्ता को लौटाने के लिए यह संरचना अनिवार्य हो। आम
और पत्तियाँ, जंगल में बछड़े का पहला दिन, प्यास आदि इसी तरह की कविताएं हैं।
“परदेस में लड़कों
ससुराल
में लड़कियों के एकान्त में
बहता
रहा।”
हरीश चन्द्र पाण्डे एकान्त में बहते इस धारे के पानी को रचते
हैं। इस पर विश्वास करते हैं। कवि जानता है कि इसके सूख जाने का ख़बर ले कर आये
पोस्टकार्ड का सिर्फ़ एक कोना नहीं नष्ट हुआ है, यह जीवन का नष्ट हुआ हिस्सा है। फिर भी कवि जानता है कि एकान्त में बहता
यह धारे का पानी उच्छलित होगा और न हो तो कम अज कम उसका स्वप्न, स्मृति और उसे पाने की इच्छा तो ज़रूर बनी रहे। रेगिस्तान से आईं औरतें, जहाँ ‘थानों के दूध से होता हुआ आँख के पानी तक
पहुँच गया था अकाल’। यहाँ ‘पाणी’ से खेलती हुई भी अपनी जमीन पर लौटना चाहती हैं। वे ‘पहाड़ और रेत के रिश्ते’ को समझती हैं फिर भी रेत में
लौटना चाहती हैं-
“वे
भी लौटेंगी अपने घर .....ज़रूर लौटेंगी
जैसे
हर तेज झोंके से निपटने के बाद
डाल
लौटती है अपने मुख्य तने की ओर।”
जब वे लौटेंगी तब उनके लिए उसी रेत में देवदारु जैसे जंगल लहरा
रहे होंगे। हरीश चन्द्र पाण्डे कविता में बार-बार जीवन की तरफ़ लौटने का प्रयास
करते हैं। एक अर्थ में उनकी कविताएं हर बार नये तरीक़े से लौटने के प्रयास की सफ़ल
फलश्रुति हैं। वे चाकचिक्य के हिंसा और उसके मानवद्रोही सार को समझते हैं। किसी भी
तरह के चाकचिक्य में मानवीय सामान्य से दूर जाने या फिर उसे ढकने का प्रयास होता
है। सहजता हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का ख़ास गुण है। उनकी पीढ़ी की कविताएं देखते
हुए यह गुण और भी ख़ास लगता है। इस पीढ़ी के अधिकांश कवि भाषा में तरह-तरह का जादू
करने का प्रयास करते हैं। जो मूलतः दो तरीक़े से किया जा रहा है। पहला, चौंकाने का प्रयास। दूसरा, भाषा में लोक-बिम्बों की
तहें डालते हुए एक विशिष्ट छविमयता अर्जित करने का प्रयास। यह दोनों ही रतिज
प्रभावोत्पात हैं और पाठकों में एक ख़ास उत्तेजना में परिणत होते हैं। हरीश चन्द्र
पाण्डे इस रूप-विधि से बचते हैं। वे इसकी प्रतिपत्तियों से अवगत हैं। पाण्डे जी
बहुत हल्के बिम्बात्मक विवरण में आगे बढ़ते हैं। और दुनिया की वस्तुवत्ता का सम्मान
करते हुए व्याघाती तत्त्वों को भी नहीं बरजते। जिससे जीवन के प्रति सघन अनुराग के
बावजूद कविता प्रगीतात्मकता से बच जाती है। वे ‘देहात जाती
आख़िरी बस’ के साथ अपने परिवेश को पकड़ते हैं। उसकी गरीबी, उसका कर्दम भी देख सकते हैं-
“देखना
एक दिन
इसका
मालिक बड़े मालिक में बदल जाएगा
ये
देहात टाउन एरिया हो जाएगा,
और ये
बस ख़ून की उल्टियाँ करते-करते
बैठ
जाएगी एक जगह
दिहाड़ी
मज़दूर सी।”
मालिक बड़े मालिक में बदल जाएगा और देहात टाउन एरिया हो जाएगा तो
फ़िर बस ख़ून की उल्टियाँ करते-करते क्यों बैठ जाएगी? जहाँ हर वर्ष भारत के कई पूँजीपति वैश्विक पूँजीपतियों की पंक्ति में बैठ
जाते हैं, वहाँ मज़दूर ख़ून की उल्टियाँ करते करते क्यों मरते
हैं? यहाँ बिम्ब भी साध्य है। बिम्बों का सबसे सचेत प्रयोग
वह है जब वह माध्यम मात्र न रह कर अपनी सत्यता और सघनता से स्वयं साध्य बन जाए।
अपनी सहजता के बावजूद इस श्लिष्टता के कारण ये कविताएं पाठक से सजगता की माँग करती
हैं।
"बड़ी सावधानी से खोलो इन्हें
कोई
कोना कटे ना, फटे ना
ऐसे
खोलो चिट्ठी जैसे पोटली खोली जाती है
इसमें
के शब्द
हमारे
लिए भिगोये गये चने हैं।"
आशीष मिश्र |
सम्पर्क –
आशीष मिश्र –
मोबाईल - 08010343309
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