शहंशाह आलम की कविताएँ
शहंशाह आलम |
कुछ कवियों के पास
कविता लिखने का हुनर होता है परन्तु उनमें साहस की कमी होती है। कुछ के पास साहस होता है परन्तु अपनी बात को कविता में कह पाने का हुनर नहीं
होता। बिरले कवि ऐसे होते हैं जिनके पास
साहस के साथ-साथ हुनर भी होता है। हम आज ‘पहली बार’ पर जिस कवि की कविताएँ
प्रस्तुत करने जा रहे हैं उनमें ये दोनों बातें सहज ही देखी जा सकती है। एक तरफ यह
कवि जहाँ दुनिया की सबसे कद्दावर शख्सियत अमरीकी राष्ट्रपति पर प्रहार करता दिखाई
पड़ता है दूसरी तरफ अपने ही शहर के वरिष्ठ कवियों द्वारा कनिष्ठ कवियों की उपेक्षा
को भी कविता के मार्फत उजागर करने का माद्दा रखता है। ऐसे में यह कवि जानता है कि
उसे अपना ‘बाघ’ तलाशने का काम ख़ुद ही करना है। वह ज़माना गया जब कोई वरिष्ठ आपको
संकट के समय उबारने के लिए बेहिचक आपके साथ आ खड़ा होता था। मत भूलिए कि यह समय
पूँजीवादी, बाजारवादी और आभासी समय है। बात न होते हुए भी लोगों के पास बहुत बातें
हैं। समय होते हुए भी लोगों के पास समय का अकाल है। इस जमाने में किसी के पास
मुट्ठी भर समय की भी गुंजाईश नहीं। अब सब अपने-अपने कोटरों में बंद रहना ही अधिक
पसन्द करते हैं। ऐसे में बदलते समय के साथ यह कवि इस बात को अच्छी तरह जानता है कि
उसे अपनी राह ख़ुद ही तलाशनी और बनानी है। यही नहीं उसे अपने दम-ख़म पर ही आगे बढ़ना
है। ऐसे ही दम-ख़म वाले कवि शहंशाह आलम की कविताएँ आज ‘पहली बार’ पर आप सब के लिए प्रस्तुत
है। तो आइए आज पढ़ते हैं युवा कवि शहंशाह आलम की नयी कविताएँ।
शहंशाह आलम की कविताएँ
जन्म : 15 जुलाई, 1966, मुंगेर, बिहार
शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी)
प्रकाशन : 'गर दादी की कोई ख़बर आए', 'अभी शेष है पृथ्वी-राग', 'अच्छे दिनों में ऊंटनियों का कोरस', 'वितान', 'इस समय की पटकथा' पांच कविता-संग्रह प्रकाशित। सभी संग्रह चर्चित। 'गर दादी की कोई ख़बर आए' कविता-संग्रह बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत। 'मैंने साधा बाघ को' कविता-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। 'बारिश मेरी खिड़की है' बारिश विषयक कविताओं का चयन-संपादन। 'स्वर-एकादश' कविता-संकलन में कविताएं संकलित। 'वितान' (कविता-संग्रह) पर पंजाबी विश्वविद्यालय की छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य।
हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। बातचीत, आलेख, अनुवाद, लघुकथा, चित्रांकन, समीक्षा भी प्रकाशित।
पुरस्कार/सम्मान : बिहार सरकार का राजभाषा विभाग, राष्ट्रभाषा परिषद पुरस्कार तथा बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का प्रतिष्ठित पुरस्कार 'कवि कन्हैया स्मृति सम्मान' के अलावे दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान मिले हैं।
संप्रति, बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में सहायक हिन्दी प्रकाशन।
शहंशाह आलम की कविताएँ
लट्टू
मैं सूत लपेट कर लट्टू को फेंकता हूँ पृथ्वी पर पूरी ताक़त लगा कर
लट्टू नाचता है और नाचता हुआ सात पाताल के नीचे पहुँच जाता है
मैं पुरातल जाकर कुछ अन्न
उन दिनों के लिए बचा कर रख लेना चाहता हूँ
जब मुझ पर एकदम लट्टू एकदम मोहित एकदम आसक्त वह लड़की
तलातल घूमा लाने की ज़िद इस हद तक करेगी कि अड़ जाएगी बिलकुल
यह कोई महान आश्चर्य नहीं होगा कि वह लड़की मुझसे ज़िद करेगी
महान आश्चर्य तो यह है कि मनुष्य अब भी ठगे जा रहे हैं जस का तस
लट्टू है कि नाच रहा है कच्छप की पीठ पर घोड़े की नाल पर
स्त्री की नाभि पर नए लिखे जा रहे मुहावरे पर पुराने खंडहर पर
हवा पर पानी पर पेड़ पर पहाड़ पर पगडंडी पर लट्टूदार पगड़ी पर
जैसे कि मुझ पर मर मिटी वह लड़की ख़ुशी से पागल नाचती है अकसर
लड़की नाचती है महज इस उम्मीद में
कि यह दुनिया रहने लायक़ बची हुई है
लेकिन मेरे लट्टू को और मुझ पर पगलाई हुई उस लड़की को
यह बिल्कुल पता नहीं है
कि कई-कई ठग लड्डू लेकर निकल पड़े हैं
इस शहर की भाषा में उच्चारण में मन के लड्डू खिलाने के लिए।
मारने की कला
उन्होंने
मारने की कितनी ही कलाएँ विकसित कर ली हैं
उन
सारी-सारी मारने की कलाओं को वे हम पर ही आजमाते हैं
और
यह कोई नया अचंभा कोई नया अजूबा नहीं है न कोई विस्मय
न
किसी नए आखर के जन्म लेने जैसा ही है उनके शब्द-भंडार में
इसलिए
कि वे हत्यारे होते हैं बस पागल हत्यारे
और
बरसों से हत्या करने का काम करते चले आ रहे होते हैं
जैसे
कि कोई जादूगर कोई मदारी वाला कोई नट कोई ठग
एक
ही काम से लगा-भीड़ा होता है पूरी तरह लगनशील निपुण
वैसे
ही एक हत्यारा किसी स्त्री से प्रेम करते समय तक में
इस-उस की हत्या
का नया तरीक़ा ढूँढ़ रहा होता है अवरोधरहित
कोई
कवि कोई शायर कोई लयताल करने वाला
अपनी
कविता में अपनी ग़ज़ल में अपने सुर-ताल में
चाँद
को कभी इस तरफ़ तारों को कभी उस तरफ़ रखता-बिठाता है
वैसे
ही एक हत्यारा अपने हथियार को रोज़ एक नया मुहावरा देता है
जैसे
कि आप-हम किसी हत्यारे से छिपने के लिए
कैसी-कैसी जगहें
रखते हैं
एक
हत्यारा मारना चाहता है
तो
मार ही डालता है आपको हमको खोज कर
एक
बात बिलकुल सच है हम अपने जीवन में बहुत कुछ नहीं चाहते हैं
बस
रोटी चाहते हैं,
भात चाहते हैं,
किताबें चाहते हैं,
चाकरी चाहते हैं
जीने
के लिए इस छोटे-से जीवन को इस कम दिनों की आयु को
जबकि
सच यही है
कि
एक हत्यारा अपना जीवन अपनी आयु बढ़ाने के लिए
किसी
न किसी को मारता-काटता ही जाता है दुर्व्यसनी रोज़-ब-रोज़।
कॉमरेड का घर
इन
दिनों रात-बिरात मेरे सपने में कॉमरेड का घर
लगभग
रोज़ ही आ रहा है लुभाता-बुलाता हुआ
एक
कॉमरेड होने के नाते आधी रात को देखे ऐसे सपने के बारे में
उन
घसियारिनों से पूछा,
जो बेचारियाँ घास काटने के लिए जाते-आते
कभी
मेरे बच्चों को आवाज़ें देकर या कभी दरवाज़े को खटखटा कर
गर्मी
के दिनों में अकसर पानी पीने के बहाने बरामदे के पास
घासों
के गट्ठर को या घास काटने के अपने औज़ार को रख कर
बच्चों
को घासों की दुनिया की परिकथाएँ सुनाते हुए
अपनी
थकान मिटातीं
और
बच्चों को यह भी बतलातीं
कि
घास काटने वाले
जैसे ही औज़ारों की ताक़त से
तुम्हारे
कॉमरेड पिता ने कितनी-कितनी लड़ाइयाँ जीती हैं
अकल्पनीय
अतुलनीय
उन
घसियारिनों ने मेरे सपने के बारे में जान कर कहा
जिन
कॉमरेड के घर आपके सपने आ कर आपको बुला रहे हैं
उन
घरों की तरफ़ आपको ज़रूर निकलना चाहिए किसी घुमन्तू की तरह
इधर
आप भी तो घर ही बैठ गए हैं
हमारे
पक्ष की सारी लड़ाइयों को भुला कर
घसियारिनों
से बातचीत करते हुए जैसे मेरे भीतर का मर रहा कॉमरेड
फिर
से जीवित हो उठा था डंके की चोट पर
हारे
हुए समय को जीतने के लिए
अपने
भीतर दूर तक फैली चुप्पी को तोड़ने के लिए
आधी
रात को सपने में देखे कॉमरेड के घर की तरफ़
निकल
पड़ा था अपने घर की सारी बत्तियों को बुझा कर
काफ़ी
दिनों के बाद किसी कॉमरेड के घर की ओर जाना हुआ था
सो
थोड़ा डरा-सहमा भी था भीतर से कि इतने दिनों बाद
अग्रज
कॉमरेड देखकर मालूम नहीं क्या गिला-शिकवा करेंगे
मुझ
वर्जित फल को देख कर
मुझ लौटाए हुए को पा कर
ख़ैर, कॉमरेड का
घर किया था आलीशान कोई बँगला था
मेरे
सपने से बिलकुल अलग बिलकुल विपरीत बिलकुल विलग
सबसे
पहले तो मैंने कॉमरेड के उस बंगले को चूम लिया
एकदम
अभिभूत एकदम विस्मित
जैसेकि
आप किसी बच्चे को
या
फिर किसी प्रेमिका को चूमते रहे हैं पूरी समझ के साथ
अग्रज
कॉमरेड मुझे इतने दिनों के बाद दरवाज़े पर पाकर
न
नाराज़ हुए न डाँटा न धिक्कारा
बोले- आइये कविवर,
कहाँ
रहे इतने दिनों इतने महीने इतने साल अपनी आदतों के विरुद्ध
मैं
नींद में चलने वाला
आदमी
अपने
प्यारे कॉमरेड के किस प्रश्न का कौन-सा उत्तर देता
अथवा
कौन-सा नया प्रश्न पूछता
किसी
सुनसान सड़क पर चलते हुए बेतरतीब बिलकुल
कॉमरेड
ने मुझे ख़ुद ही शांत किया
यह
कहते हुए कि आप कवि आदमी हैं
आप
चीज़ों को ख़ूब समझते हैं
सारे
अधूरे सपने को भी सारी इच्छाओं को भी
अग्रज
कॉमरेड ने मेरी पीठ को सहलाते हुए आगे ख़ुद ही कहा-
मैं
तो कॉमरेड हूँ
मैं
धरम-वरम को कहाँ मानता हूँ
किसी
देवी-देवता को भी नहीं मानता बस नास्तिक ठहरा
परन्तु
आप मेरे कमरे में स्थापित ईश्वरों को जो अचंभित देख रहे हैं
मेरी
पत्नी के ईश्वर हैं
आप
जो इस आलीशान मकान को देख रहे हैं
हमारे
बच्चों के द्वारा मल्टीनैशनल कंपनियों से
कमाकर
लगाए पैसों से बने हुए हैं...
इसमें
मेरा कुछ भी नहीं है...मेरा जीवन तो आप जैसों के लिए
अब
भी समर्पित है पूरी तरह...
अभी
आप कहेंगे मैं निकल पडूँगा कारख़ानों को बंद करवाने
निकल
पडूँगा ज़िंदाबाद मुर्दाबाद करने इंक़लाब का नारा लगाने
लेकिन
दिक़्क़त यह है कविवर,
मैं
पार्टी की गाड़ी पर रह कर ही आपका साथ दे पाऊँगा
अब
पैदल पार्टी का जन-आंदोलन का काम कहाँ हो पाता है मुझ से
और
फिर गाड़ी का जुगाड़ आप ही को करना है मुझे ले जाने के लिए
मेरे
लिए जो पार्टी की तरफ़ से गाड़ी आती है रोज़ाना विनीत एकदम
वह
मेरी बच्ची को ले कर
उसके कार्यालय जाने-लाने के काम आती है
फिर
दूसरे कॉमरेड भी तो यही कर रहे हैं आजकल पूरी शालीनता से
अपने
अग्रज कॉमरेड का हाल-समाचार जान-समझकर
उनका
कथावाचन सुनकर मैं रंगहीन-कांतिहीन अपने घर लौट आया था
अब
सपने में किसी कॉमरेड का घर नहीं आ रहा था
विमुग्ध
अथवा विभोर अथवा भ्रम में पड़ा हुआ
अब
सपने में उनके विचारों के छिद्र आ रहे थे
विवस्त्र
विवादग्रस्त मेरी ही विवशता पर हँसते हुए
अब
उन घरों के सपने देखने में भी डर रहा था मैं
जो कि उन कॉमरेडों के
थे
जो
अच्छे घर दूसरों के लिए चाहते हुए
अच्छे
सपने दूसरों के लिए देखते हुए मर-खप चुके थे
क्रान्ति
का परिवर्तन का जीत का इंक़लाब का नारा लगाते हुए धरती का अपार दुःख सह गए थे।
बाघ
बचपन
में बाघ झाँकता था
पेड़ों
की ओट से झुरमुटों की ओट से
हमारे
सपने में हमारी नींद में
कपास
वाले दिनों में वापस ले जाने के लिए
जीवन
वाले दिनों में घूमा-फिरा ले आने के लिए
लोहा
पानी आग आम्रवृक्ष पहाड़ जंगल
सब कुछ लौटाने के लिए
तत्पर
सब कुछ हस्तांतरित करने
के लिए उत्सुक
हमें
ही जैसे रहता था बाघ
मगर
बाघ से भयभीत हम छिपते फिरते थे कमरे में
नींद
का कमरा सुरक्षित-रक्षित होता था हमारे लिए
बाघ
से बचपन वाले दिनों में
जबकि
हत्यारे सदियों से झाँकते आ रहे थे हमारी नींद में
हमारे
सपने में शातिर बिलकुल बेकल-बेचैन हो कर
हमारे
पास कोई कमरा नहीं होता था बचने के लिए
हत्यारे
से हत्यारे के हथियार से
न
बचपन के दिनों में न अब के दिवसों में
बाघ
तो बस गुर्राता था शोर मचाता था नींद में हमारी
जंगली
हवाओं के साथ अपनी उपस्तिथि दर्ज कराता
ज़्यादा
से ज़्यादा चेतावनी दे कर चला जाता था नींद से
नींद
से उठने पर सारा कुछ यथावत् मिलता था
जो
कुछ जैसा नींद में जाते वक़्त छोड़ते थे हम
हम
अपने डर के कारण डर जाते थे बाघ से
नींद
में और नींद से बाहर बुरी तरह
बाघ
के विरुद्ध कई अर्थ-अनर्थ निकाल कर
जब
ठठ्ठा मार हँसता था हत्यारा अँधेरे में
रोटियों
के टुकड़े उछाल हमारी तरफ़
बाघ
उस समय अपनी बाघिन से
प्रेम-क्रीड़ा कर रहा
होता था
या
अपने शावकों को दौड़ना-भागना सिखा रहा होता था
अब
आप पूछेंगे प्रश्न करेंगे कि
बाघ
से भी बड़ा बर्बर शिकारी हुआ है भला
आप
पूछेंगे पूछते ही जाएँगे एकदम कुशल प्रश्नकर्ता बन
मेरा
उत्तर होगा मेरा आग्रह होगा कि
बाघ
ने कितनी दफ़ा शिकार किया आपका
आप
ज़रूर कहेंगे
: एक बार भी नहीं
मैं
फिर कहूँगा आपको याद दिलाऊँगा
आप
तो रोज़ शिकार किए जा रहे होते हैं
किसी
अमात्य के द्वारा किसी महामात्य के द्वारा
किसी
पुलिस वाले
किसी दुकानदार के द्वारा
किसी
बैंक मैनेजर किसी सूदख़ोर के द्वारा
किसी
स्त्री किसी पुरुष के द्वारा
किसी
आतंकी झंडे किसी पार्टी के प्रवक्ता द्वारा
एकदम
अभ्यस्त एकदम शिकार कर लिए जाने को तैयार
सच
यही था अब भी अंतर्राष्ट्रीय
बाघ
का संरक्षण-संवर्द्धन हम करें न करें
उनका
संरक्षण-संवर्द्धन ज़रूर करते आ रहे हैं
जो
हमारे असल हत्यारे थे जो हमारे असल शिकारी थे
जोकि
असल में बर्बर थे दमघोंटू थे
उन्हीं
हत्यारे की शैली उन्हीं के विचार
उन्हीं
की भोगवृत्ति उन्हीं के भाव उन्हीं के उच्चारण
उन्हीं
के अन्तर्विरोध को अपनाते हुए
हम
पार करना चाहते थे ध्वनि और प्रकाश और अन्तरिक्ष
अपने-अपने जीवन का
सारा कुछ भूल-भुला कर
इसलिए
कि हर हत्यारा भुखमरा होता है आदिकालीन
आप
भी तो भुखमरी के शिकार हुए जा रहे हैं इन दिनों
जबकि
आपके जीवन में किसी हत्यारे की नहीं
एक
बाघ की ज़रूरत थी जो आपकी रक्षा कर सके
आपके
जीवन में पत्थर की लकड़ी की लोहे की तांबे-पीतल की ज़रूरत थी
जिनसे
आप अपने हत्यारे को अपने बलात्कारी को
अपने
शोषक को मार भगा सकें
उनके
विरुद्ध पूरी व्याघ्रता से
आपके
अन्तःकरण के भय का निवारण वहाँ कहाँ है बंधु
जहाँ
आप ढूँढ़ते रहे हैं शताब्दियों से सच में
और
मारते रहे हैं बेचारे बाघ को सपने तक में
आप
इतने समझदार इतने नेक होने के बाद भी
अपने
अन्दर भरे भय का अन्वेषण कहाँ कर पा रहे हैं
उन
पुलिसवालों उन सूदख़ोरों उन हत्यारों उन चोरों
उन
अमात्य-महामात्य उन जटिल परिस्थितियों
उन
दरिद्रताओं उन क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को
मार
भगाने के लिए आज भी अब भी।
(मुंगेर / 21 जुलाई 2015)
तानाशाह का क़िला यानी एक अदद क़िस्सा-ए-अमेरिका
तानाशाह
के घर की आज सबसे बड़ी ख़बर थी ध्वनित
कि
मारा गया लादेन किसी अकेले मकान के एकांत हिस्से में
जिसे
जन्म दिया था इसी तानाशाह ने और मारा भी था ख़ुद से
ख़बर
पक्की थी इसलिए तानाशाह ख़ुश था अपने क़िले में
तन्मय
था यश बटोरने में अपने अपयश को छिपाते हुए
तानाशाह
का क़िला बड़ा था हमारे सपनों से भी बड़ा और भव्य
अनगिन
तानाशाह समा सकते थे इस दुर्ग में अर्द्धनग्न पूर्णनग्न
तानाशाह
का क़िला जादूकथाओं परिकथाओं से भरा होता था
जहाँ
इच्छा ज़ाहिर करते ही चीज़ें हाज़िर हो जाती थीं ख़ून से सनीं
लेकिन
तानाशाह तानाशाह होते हुए भी डरा रहता था अपनी मृत्यु से
इसी
भय में वह रोता रहता था
अपनी
रातों के अँधरे में सबसे मुँह छिपाए
इसी
भय से इस तानाशाह ने अपने क़िले के बाहर और भीतर भी
परमाणुशक्ति
युद्धशक्ति कामशक्ति बढ़ाने के
विज्ञापन
लगा रखे थे चकाचक
पूरी
दुनिया से भूख मिटाने का नुस्खा भी टंगवा रखा था अपने हरम में
किसी
देश ने इस तानाशाह के बारे में इबारत-आराई कभी नहीं की
न
इस तानाशाह के प्रेम के बारे में, जो इसे करना कभी नहीं आया
न
इस तानाशाह द्वारा कराए गए मुखमैथुन के बारे में
न
इस तानाशाह पर जूते फैंके जाने के बारे में
न
इस तानाशाह के भोजन कपड़े-लत्ते पर ख़र्चे के बारे में
न
इस तानाशाह के क़िले में दफ़्न लोगों के बारे में
यह
तानाशाह किसी आदमख़ोर पशु की मानिंद था दुनिया के नक़्शे में
जो
खाता रहता था अपने से कमज़ोर मुल्कों कमज़ोर शहरियों को
लादेन
के मारे जाने के बाद तानाशाह के क़िले में हस्बे-मामूल
एक
बड़ी सभा रखी गई थी जोकि क़तई विचित्र नहीं थी
इस
सभा में विश्व भर के तानाशाह राष्ट्र आमंत्रित थे आनंदित
मगर
इस भारी आयोजन में
किसी
मुल्क की कोई जनता नहीं बुलाई गई थी
न
कोई कथाकार न कोई कवि न कोई आलोचक बुलाया गया था
हर
तानाशाह ऐसा ही करता आया था सदियों-सदियों से
इन
सब बातों को लेकर लेखक बिरादरी का और जनता का
रोना
भी सकारण रोना था अलंकृत लच्छेदार शैली में
लेकिन
लेखक बिरादरी अमूमन और अकसर यह भूल जाती थी
कि
उनके रोने की योजना कभी सफल नहीं हुई किसी सरकार में
जनता
तो जनता ही ठहरी किसी भी देश की
जनता
अकसर दिन का धागा पकड़ना चाहती थी
अपने-अपने तानाशाह
बादशाहों के भयों को भुला कर
तब
तक कुछ वेश्याएँ भिजवा दी जाती थीं
जनता
का जी बहलाने और ललचाने और सिहराने
ख़ैर, भाई लोग!
इस तानाशाही निरंतरता में इस तानाशाही ऋतुचक्र में
जनता
अपने मुल्क की भी ऐसी ही हो गई है पूरी तरह
महँगाई
की लात महँगाई का ख़ुशी-ख़ुशी जूता खाने वाली चुपचाप
इस
महासभा में अपने मुल्क के भी नेता पहुँचे थे
मगर
औरों की तरह वे भी सबसे बड़े तानाशाह का फोता ही सहलाते दिखे
एकदम
अभ्यस्त एकदम रोमाँचित एकदम मँजे हुए इस कार्य में
ताकि
उनका भी नाम विश्व पटल पर गूँजता रहे शब्दवत
फिर
असलियत यह भी थी कि तानाशाह का फोता नहीं सहलाने वाले
तानाशाह
के अंडकोश का मसाज नहीं करने वाले मारे जा रहे थे
अमेरिकी
एफ़ बी आई अमेरिकी सी आई ए के हाथों निर्ममता से
आज
की तारीख़ में अमेरिकी ज्ञान अमेरिकी विज्ञान के अलावे
भारतीय
ज्योतिष की लंपटई की कई-कई शाखाएँ
अपने
अमेरिकापरस्त नेताओं की नाभि से निकलने लगी हैं
उनके
द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग पर सुबह की दौड़ लगाते हुए
आपको
आपके नेताओं के बारे यह सब सुन-जान कर बुरा लगा हो
तो
चार झापड़ मार लें हत्या करवा दें फाँसी पर चढ़वा दें मेरी
मैं
अपना पुराना स्कूटर रोके खड़ा हूँ इन्हीं राजमार्गों पर
या
दादरी टाइप घटना के बहाने मेरे अब्बू को मरवा डालें
इसलिए
कि चुनाव फिर नज़दीक है यानी हत्यारों का उत्सव क़रीब है
बॉस, मैं अकसर ग़लत
नहीं कहता
और
आप अकसर मुझसे नाराज़ हो जाते हैं
बॉस, मैं तो अमेरिका
और अमेरिकी नीतियों का विरोध तब भी करूँगा
जब
यहाँ की मीडिया उसकी कुनीतियों का समर्थन करेगी पुरज़ोर
इसलिए
कि बॉस, यहाँ की मीडिया अमेरिका और अमेरिकी नीतियों का
विरोध
करने वालों
को ही तानाशाह घोषित करती आई है लगातार
अपनी
एक्सक्लूसिव ख़बरों को दिखाते हुए उत्साहित एकदम
ताकि
जिस सरकार के ये चमचे हैं,
वह सरकार ख़ुश रहे इनसे
तभी
तो ज़्यादातर न्यूज़ चैनल
सरकारी
प्रवक्ता बने दिखाई देते हैं इन दिनों
जबकि
बॉस, आपको तो दुनिया भर में बने और बसे
अमेरिकी
सैनिक अड्डों के पैरोकारों की मुख़ालफ़त करनी चाहिए थी
मेरे
भाई, सद्दाम हुसैन ने कर्नल गद्दाफ़ी ने अमेरिकी तानाशाही के ख़िलाफ़
अपना
सिर ही तो उठाया था अपनी आँखें ही तो दिखाई थीं
बदले
में अमेरिका ने उन्हें शहीद किया अपनी राक्षसी प्रवृति दिखाते हुए
बदले
में एकदम खबरिया हमने भी तो उन्हें ही आतंकवादी घोषित किया
आप
बहुत तेज़ हैं बॉस,
आपकी इसी तेज़ी के कारण
हम
भी तो मारे जाते रहे हैं अकसर
सफ़दर
हाशमी की तरह पाश की तरह
तो
कभी रोहित वेमुला कभी नरेंद्र दाभोलकर की तरह
तो
कभी किसी एनकाउंटर के बहाने
आप
बहुत तेज़ हैं बॉस,
आप तानाशाह के क़िले में नतमस्तक
बस
मल्टीनैशनल की बिकाऊ ज़बान बोलते हैं अपने दिन-रात में
हमारी
सचबयानी पर परमाणु हथियार तानते हुए
यही
विडंबना है हमारे बीत रहे गुज़र रहे समय की
हमने
हमारी स्मृतियाँ तक बेच डाली हैं तानाशाह के हाथों
और
हर तानाशाह देश औरत का सीना दाब कर
निकल
ले रहा है अपने से बड़े तानाशाह के क़िले की बग़ल से।
दादरी*
दादरी
में मैं रोना चाहता था
जिससे
कि पूरी पृथ्वी सुन सके
मेरा
रुदन मेरा विलाप
लेकिन
मेरे भीतर की अथाह जलराशि
सूख
चुकी थी वहाँ की नदी के साथ-साथ
जैसे कि दादरी का जीवंत
संगीत
हत्यारे
की मृत आत्मा में छटपटा रहा था
किसी
जीवंत झरने की खोज में
दादरी
जैसे बेसुध था इन दिनों
बेकार-सा महसूस रहा
था
वहाँ
की गई हत्या का कारण जान कर
लेकिन
हत्यारा जो कोई था
उसे
दादरी के वर्षों पुराने आपसी रिश्ते को
बचाने
से अधिक ख़त्म करने में मज़ा आया
उसे
मज़ा आया कवि लोगों की बनाई हुई
इस
दुनिया को नष्ट करने में
जिसमें
कि रोज़ मुस्कराते हुए चेहरे थे
न
त्रासदी थी न शोक था न कुरूपता थी
मगर
तय यह भी था उसी दादरी में
कल
बिलकुल नया सूरज निकलेगा
एक
बिलकुल नई नदी बहेगी झिलमिल
एक
बिलकुल नया रिश्ता बनेगा मुहब्बत का
तय
यह भी था हत्यारे ही मारे जाएँगे एक दिन
और
पृथ्वी पर मेरी हँसी सुनाई देगी
जो
मेरे घर के दरवाज़े खिड़कियों से निकल रही होगी
और
वह लड़की अपना प्रेम पा लेगी फिर से।
(*दादरी उत्तरप्रदेश के उस गाँव का नाम
है, जहाँ कि एक मुस्लिम परिवार के घर पर दंगाईयों ने यह अफ़वाह
फैला कर हमला कर दिया था कि उस घर में गोमाँस खाया गया है और दंगाइयों ने उस घर के मुखिया की हत्या भी कर दी थी।
यह कविता सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने
के लिए यहाँ जारी की जा रही है।)
मेरे पायताने बैठा बाघ
(अग्रज कवियों से क्षमा सहित)
एक
सुबह मैं उठा तो पाया
मेरे
पायताने बैठा बाघ ग़ायब है
पूरा
घर छान मारा आदरपूर्वक
पूरा
द्वीप खँगाल डाला
परन्तु
बाघ कहीं दिखाई नहीं दे रहा था
घने
जंगल में जा कर
ढूँढ़ा
सारे
दृश्य और बिंब में देख डाला
न
उसकी गुर्राहट सुनाई दे रही थी
न
उसकी तेज़ साँसें सुनाई दे रही थीं
न
उसके चलने के पदचिह्न दिखाई दे रहे थे
फिर
याद आया सिर खुजाते हुए
कि
पाताल गंगा चलकर देख लिया जाए
भूगर्भ
में बहने वाली
नदी में नहाने की
बाघ
की आदत बेहद पुरातन थी पुरानी थी
पाताल
जाकर देखना भी व्यर्थ गया
मैंने
चुनमुन चिड़ियों से
तेज़
आँखों वाले
चीलों से
चतुर
कौओं से
बाघ
के बारे में पूछा
पर
मेरी व्यग्रता बेकार गई
मेरे
बाघ को तो नींद में चलने की बीमारी तक नहीं थी
फिर
कहाँ चला गया इस तरह बिना कुछ कहे-सुने
मनुष्यों
के साथ रह कर
वह वैसे भी
पंखकटा
रह गया था
इसलिए
बाघ को
आकाश
में जा कर
ढूँढ़ने का कोई लाभ
मुझे
समझ में नहीं रहा था
मैंने
अपने बच्चों के पास जा कर देखा
शायद
खेल रहा हो उन्हीं के साथ
खिलौनेवाला
बाघ बन कर
मुझसे अकारण घबरा कर
लेकिन
यह प्रयास भी निरर्थक सिद्ध हुआ
याद
आए कवि
केदारनाथ सिंह
माहिर
हैं बाघ पर कविता लिखने में
बाघ
के बारे में उन्हीं से चल कर पूछें
फिर
तुरंत ख़्याल आया
उनका
बाघ एक रोज़ भाग गया था तो
उन्होंने
ख़ुद कवि त्रिलोचन जी
से मदद ली थी
फिर
यह विचार भी मन में उभर आया
कि
अब अग्रज कवि
अपने
से अनुज कवि की मदद
कहाँ
कर पाते हैं
कविता
के किसी प्रदेश में
यहाँ
पटना में तो
कवि
आलोक धन्वा
कवि
अरुण कमल की हालत
इन
दिनों ऐसी है
कि
वे अपने अनुज कवियों को
किसी
फुटबॉल से अधिक कुछ नहीं समझते
ऐसे
में मामला साफ़ था इस तप रहे घर में
कि
दिल्ली के अग्रज कवियों की आदत और हालत
पटना
के अग्रज कवियों से कुछ अधिक बुरी हो चुकी होगी
भोपाल, लखनऊ, उज्जैन, बनारस आदि जगहों के
अग्रज
कवियों का यही हाल होगा निःसंदेह
तभी
तो मौक़े-बेमौक़े सारे पुरस्कार
सारे
मंच झटक ले जाते थे वे ही
उनकी
छीन-झपट से कुछ बच जाता तो
उनके
चम्मच कवियों के हिस्से आ जाता था बस
ऐसे
में मेरे बाघ को मुझे ही तलाशना था
लेकिन
बाघ था कि दिखाई नहीं दे रहा था
न
जंगल में,
न भाषा में,
न पंचतंत्र में
फिर
ख़्याल आया जैसे मारते हैं अग्रज कवि
अपने
से छोटे कवियों को बेहद शातिर
वैसे
ही मेरे बाघ को किसी चोर शिकारी ने
मार
तो नहीं डाला जीवन के किसी उजाड़ हिस्से में
बाघ
से ख़ाली इस समय से मैं आहत था
इसलिए
भी कि हत्यारे जिस बेशर्मी से
मनुष्यों
से जीवन झपट्टा मार कर ले भाग रहे थे
वैसे
ही बाघ को भी मार रहे थे इन दिनों
मैं
जो खोलता था दिनों को
रातों
को अपनी व्याघ्र-शक्ति से
आज
अपने ही बाघ को खोज पाने में
पगलाया-घबराया था बुरी
तरह
तभी
घोर आश्चर्य हुआ
बाघ
तो मेरे ही भीतर से
अचानक
छलाँग मार कर
उभर
आया था मेरी कविता में
अपनी
दीर्घकथा को विस्तारता हुआ
बाघ
ने मुझे कई-कई बार की तरह
फिर
से विस्मित-चकित करते हुए
बाघ
ने मेरे पायताने को
एक
नया कालखंड सौंपते हुए कहा
आप
जितना प्यार करते हैं मुझसे
मेरे
शिकारी भी करें
तो
मेरी पूरी नस्ल बच जाएगी समाप्त हो जाने से।
प्राइम मिनिस्टर साहब के लिए एक शोक-प्रस्ताव
बहुत कुछ अप्रकट रह गया है इस दिन-रात में
इस बहुत कुछ अप्रकट रह गए की जो आहटें हैं
इन आहटों की जो हलचलें हैं बची हुईं किसी छल के माफ़िक़
वे बेहद बदरंग हैं वे बेहद ठूँठ हैं आपकी बत्तीसी की तरह
वे यातनामय हैं वे धूल हैं वे राख हैं आपके विचारों की तरह
जबकि आप तो देश की सबसे ऊँची कुर्सी पर बैठे-खड़े
न हलकान न परेशान न हड़बड़ी में न दुःख में न अफ़सोस में
बस अपनी बर्बर मुस्कान का मुखौटा लगाए हुए सजाए हुए
सवा सौ करोड़ जनता को लेकर चिंता व्यक्त करते दिखाई देते हैं
किसी ढोंगी बाबा की तरह किसी छलिए की तरह किसी मदारी की तरह
हमारे देश की जनता तो लोहा पिघलाने वाली जनता है
और लोहा ही उगलती है लोहा ही खाती-चबाती है ज़िन्दगी भर
मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, क्या आपके दुभाषिए आपको नहीं बतलाते
देश के बहुत सारे परास्त-हारे हुए मर्द बहुत सारी औरतें
देश के बहुत सारे परास्त-हारे हुए बच्चे बहुत सारी बच्चियाँ
सूखे से नहीं न अकाल से न महामारी से मारे गए
वे तो मारे गए बस इस वास्ते इस चोंधरई इस बुड़बकई में
कि इससे आपके चेहरे की ताज़गी बची रहे मुद्दतों तक
इससे आपको नींद अच्छी आए आपको सपने सुन्दर दिखाई दें
इससे आपके राजमहल के पर्दे चमकीले रक्तरहित दिखते रहें
आप हत्या कराके एनकाउंटर कराके
किस क़दर भोला बनने का नाटक करते रहे हैं
इस रंगमंच पर इस नेपथ्य में इस इंद्रजाल में
इस बाज़ीगरी में इस चुहलबाज़ी में
लेकिन मिस्टर प्राइम मिनिस्टर,
जब आप देश की जनता का हिसाब-किताब लगा रहे होते हैं
कभी पूँजीवाद कभी शोषणतंत्र
कभी हिटलरमंत्र के झूले पर झुलते हुए कभी चूना लगाते
कभी झाड़ू लगाते कभी बाबाओं के शिविरों का उद्घाटन करते
कभी पतंगबाज़ी करते-कराते
कभी इस सूट तो कभी उस सूट में लकदक
बिलकुल अबूझ को और अबूझ बनाते
कभी गाँधी तो कभी नेहरू
कभी अमेरिका तो कभी इज़राइल बनने की एक्टिंग करते
तो आपके चेहरे का हर्ष देखते ही बनता है
हमारा मीडिया ट्रायल कराते हुए पूरे विजयोल्लास से
मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, आपकी हिसाब-किताब में आपके उतार-चढ़ाव में
हमारे ख़ानदान के लोग, हमारे बच्चे शामिल तो क़तई नहीं रहते होंगे
अनगिन जो मार डाले गए अनगिन जो मार डाले जाएँगे
आपके पार्टी अध्यक्ष आपके पार्टी कार्यकर्ताओं के विनम्र हाथों से
क्या वे सब अपने देश की जनता की गिनती में शामिल रहेंगे
आपके कर्तव्यज्ञान में आपकी कर्तव्यनिष्ठा में
आपके कर्तव्यपालन में आपकी कुटिलता में
मैं जो अपने देश का साधारण नागरिक हूँ
पूरे विश्वास से आत्मविश्वास से कह सकता हूँ
कि आप जिस सवा सौ करोड़ जनता का राग-विराग अलापते हैं
झूम-झूमकर नाच-नाचकर
आपकी इस गिनती में मुझ जैसी ढेरों जनता शामिल नहीं होगी
आपकी विरति-विरक्ति के कारण
इसलिए कि आपके लिए ऐसा करना बेहद आसान है
इन दिनों आपकी प्रखरता को देखते हुए
आसान तो यह भी है मिस्टर प्राइम मिनिस्टर कि
आप जनता को गिनते जाएँ अपना कमाल दिखाते हुए
मुँह में महँगे खाने को चुभलाते हुए
असँख्य-असँख्य बार इस रहस्य तकनीक का इस्तेमाल करते हुए
इसलिए कि आपके अनुसार जनता
बस आपके वोटतंत्र का हिस्सा-क़िस्सा भर ही तो है इस राजतंत्र में
आपके लिए जारी इस शोक-प्रस्ताव में
इतना ही कहना चाहूँगा मिस्टर प्राइम मिनिस्टर
अपने देश की जनता मानव संसाधन मंत्रालय की
किसी चिट्ठी की प्रतीक्षा नहीं करती
बल्कि लोहा गलाने लोहा चबाने वाली यह जनता
किसी की भी टेढ़ी पूँछ को
सीधी करने का नायाब हुनर बख़ूबी जानती है
परिस्थिति कैसी भी समय कैसा भी कठिन हो।
सत्ताधीश ने कहा
(एक)
सत्ताधीश ने कहा
और पीटा गया कइयों को
गालियाँ दी गईं भद्दी-भद्दी
हत्या भी की गई कइयों की
अब इसी की गूँज है बाक़ी
इसी की चीख़ दर्द से भरी हुई
इसी का असहज संगीत
इस साकार-आकार में।
(दो)
सत्ताधीश ने कहा
इन दिनों इस संस्था की चर्चा
चहुँओर है फैली हुई
एकदम सघन
उन्हीं के न्याय से
आलोकित-प्रकाशित
हालाँकि सत्ताधीश को पता है
उनके न्याय के इस तरीक़े से
संविधान की कई-कई मज़बूत दीवारें
ढह गई हैं भरभरा कर।
(तीन)
सत्ताधीश ने जो भी कहा
जब-जहाँ कहा
लगा कि इस संस्था में
दीमकें कुछ अधिक बढ़ गए हैं
चूहे कुछ ज़्यादा उत्पात मचाने लगे हैं
इसलिए कि सत्ताधीश ने जो भी कहा
जब-जहाँ कहा
ज़हरीला कहा
विपरीत कहा ख़ालिस
संविधान द्वारा दी गई
ऊँची कुर्सी पर बैठ कर।
वीराने में खड़ी सायकिल को लेकर
(बढ़ रहीं अपहरण की घटनाओं के विरुद्ध)
सुबह अपने दरवाज़े की साँकल चढ़ा कर
सन्नाटे में घूम आने की ख़्वाहिश लिए
निकला था मैं घर से मुद्दत बाद
यह सच था बिलकुल और जैसे सहोदर भी
जीवन में जो कुछ हो रहा था अच्छा
मुद्दत बाद ही हो रहा था कोमलचित्त
परन्तु इस सुबह के वीराने में सहसा जो चीज़ दिखी
सायकिल दिखी एक घर से टिक कर खड़ी की गई
आज जब उनकी तरफ़ से दोषरहित रोगरहित होने की घोषणा
उन्हीं की सांकेतिक भाषा में बोली में आरोह-अवरोह में की गई थी
इसका अर्थ तो यही निकाला था मैंने कि
आज सही-सलामत घूम आया जा सकता था
इस एकांत में मनुष्यता की चहल-पहल तलाशते हुए
मैं जिस कोमल आलोक की इच्छा लिए निकला था घर से
वीराने में खड़ी पड़ी सायकिल को देख
उस लापता लड़के की याद आ गई
जो कई-कई दिनों से घर नहीं लौटा था
उस लड़की का चेहरा सामने आ-सा गया
जो मीठे पानी वाले कुएँ की तरफ़ गई
तो आज तक वापस नहीं लौटी थी अपने घर
उस पिता की याद ताज़ा हो आई
जो हमेशा की तरह मुँहअँधरे काम पर निकले थे
दूसरे या तीसरे दिन उनके भी खो जाने की ख़बर मिली
वह लड़का वह लड़की और वह पिता
किन संकीर्णताओं किन विडंबनाओं के शिकार हुए
यह किसी को मालूम नहीं था
सच यह भी था कि वे सभी अपनी-अपनी सायकिल सहित
ग़ायब हुए थे अथवा ग़ायब कर दिए गए थे
सब ओर व्याप्त सर्वार्थ की घोषणाओं के पूर्ण प्रभुत्व में
यही प्रश्न था मेरे में जो भारी था इस भारी समय की तरह
ऐसे में इस वीराने में पड़ी हुई यह सायकिल
उस लड़के उस लड़की अथवा उस पिता की थी
या किसी ऐसे व्यक्ति की जिनके ग़ायब हो जाने की ख़बर
मुझ तक अभी नहीं पहुँची थी
या पहुँचने ही वाली थी किसी भी क्षण मुझ तक
यही शब्द गूँज रहा था लोहे की तरह भारी
वीराने में पड़ी हुई सायकिल को देख कर।
संपर्क :
हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड,
पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक,
फुलवारीशरीफ़, पटना-801505, बिहार।
मोबाइल :
09835417537
ई-मेल : shahanshahalam01@gmail.com
परिदृश्य में जब कविता अपनी रूपाभा, प्रभावान्विति, ध्वन्यात्मकता, प्रगीतात्मकता, लय और जनपदीय चेतना को खोकर कलावाद, बिंबवाद, गद्यात्मकता, अखबारीपन और स्मृतिहीनता की जद में आने को मजबूर की जा रही हो, एक ऐसे दुर्निवार और असह्य समय में शहंशाह आलम की कविताएं फिर से उन धरोहरों को वापस लौटा पाने की एक अविकल उम्मीद, एक आदिम उत्कंठा, एक ठहरी हुई जिद, एक अप्रतिहत प्रयत्न, एक नि:शब्द अनुगूँज और लगातार चलने वाली एक प्रार्थना की मानिंद हमारे जेहन में उतरती है और उसके रीतापन को दूर करने का छोटा ही सही, पर भरसक प्रयास करती है | समय और शब्द पर कवि का यह हस्तक्षेप उनकी सभी कविताओं में समान रूप से मौजूद है जिसे अभिव्यक्ति की अपनी अनूठी शैली, स्पष्टवादिता, लय और शब्दों की पुनरुक्ति से उन्होंने हासिल किया है और पाठक के कविताई मिजाज को काफी हद तक परखने करने का प्रयास भी किया है | अभिव्यक्ति की इस कला में उनकी भाषिक संरचना का योग कम नहीं है | वैसे तो भाषा के प्रति वे आरंभ से ही सजग रहे हैं | उनकी भाषा सबसे अलग, वाक्यों की बुनावट से पहचानी जाने वाली, अनूठी और उनके रेखाचित्र की ही तरह सरल है | भाषा की साफ़गोई और सादगी और उनमें आंचलिक शब्दों का प्राचुर्य उनकी विशेषता है और विरलता भी | भाव भाषा के साथ यहाँ इतने रच-बस गए हैं कि इसका संश्लेषण इतनी व्यापकता से अन्य समकालीन कवियों में आसानी से नहीं दृष्टिगत नहीं होता | छोटे-छोटे वाक्यों का यह भाषिक रचाव बड़े विस्मयपूर्ण और कलात्मक ढंग से उनकी कविता में खुरदुरे और क्लासिक, पुरातन और अधुनातन, अमूर्तन और मूर्त, तद्भव और तत्सम वस्तुओं का मेल कराती है जो कविता में चमत्कार और वाकपटुता की जगह लोच और आकर्षण का सृजन करता है |
जवाब देंहटाएंशहंशाह आलम की कविताई का फलक बड़ा है।वे लट्टू जैसी गझिन भावबोध की कविताएँ लिखते हैं वहीं दादरी जैसी घटनाओं पर भी हमारे वक्त की कुरूपता पर से पर्दा उठाते है।मारने की कला,कामरेड का घर हो या बाघ ये कविताएँ हमारे समय की पटकथा हैं। बाघ वैसे भी मेरी प्रिय कविताओं में से है। दुनिया के देश अमरीका नामक तानाशाह के सामने किस प्रकार अपने इतिहास और वर्तमान तक को बेंच डालते हैं उसकी कथा कहती है तानाशाह का किला नामक यह कविता। इस कवि का भाषा पर कमाल का अधिकार है और इसीलिए जब किसी विषय पर शहंशाह लिखते हैं तो कविता अपने को रचती है।समकालीन कविता में यह उपलब्धि मानी जायेगी।
जवाब देंहटाएंशहंशाह आलम की कविताई का फलक बड़ा है।वे लट्टू जैसी गझिन भावबोध की कविताएँ लिखते हैं वहीं दादरी जैसी घटनाओं पर भी हमारे वक्त की कुरूपता पर से पर्दा उठाते है।मारने की कला,कामरेड का घर हो या बाघ ये कविताएँ हमारे समय की पटकथा हैं। बाघ वैसे भी मेरी प्रिय कविताओं में से है। दुनिया के देश अमरीका नामक तानाशाह के सामने किस प्रकार अपने इतिहास और वर्तमान तक को बेंच डालते हैं उसकी कथा कहती है तानाशाह का किला नामक यह कविता। इस कवि का भाषा पर कमाल का अधिकार है और इसीलिए जब किसी विषय पर शहंशाह लिखते हैं तो कविता अपने को रचती है।समकालीन कविता में यह उपलब्धि मानी जायेगी।
जवाब देंहटाएंपहली बार का, भाई सुशील कुमार का, भाई राजकिशोर राजन का कविता की आत्मा तक पहुँचने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत ही ईमानदार और सटीक टिप्पणी के साथ शहंशाह आलम की ये कविताएं पहली बार पर साया हुई हैं। निस्संदेह ये कविताएं कवि के हुनर और साहस का परिचय देती हुई हमारे पूरे समय को सृजनात्मक जीवटता के साथ उद्घाटित करती हैं। कवि को बधाई और आभार संतोष जी का अच्छी कविताएं पढ़वाने के लिए।
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