श्यामबिहारी श्यामल के कहानी संग्रह ‘चना चबेना गंग जल’ पर नारायण सिंह की समीक्षा ‘मुक्ति की राह अकेले नहीं मिलती।’
श्यामबिहारी श्यामल |
श्यामबिहारी श्यामल एक
सजग पत्रकार होने के अलावा एक बेहतर उपन्यासकार भी हैं। ‘धपेल’ और ‘अग्निपुरुष’
इनके चर्चित उपन्यास रहे हैं। कुछ वर्ष पहले महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन पर
आधारित उपन्यास ‘कंथा’ इन्होने पूरा किया है, जो ‘नवनीत’ में छप कर चर्चित हो चुका
है। हाल ही में श्यामल का एक कहानी संग्रह आया है ‘चना चबेना गंग जल’। इस संग्रह
की एक बेबाक समीक्षा लिखी है नारायण सिंह ने जो खुद भी एक उपन्यासकार हैं। तो आइए
पढ़ते हैं नारायण सिंह की यह समीक्षा ‘मुक्ति की राह अकेले नहीं मिलती।’
मुक्ति की राह अकेले में
नहीं मिलती
नारायण सिंह
एक पत्रकार की कहानियों की समीक्षा वैसा ही
जोखिम भरा कार्य हो सकता है, जैसा
एक कथाकार की पत्रकारिता की समीक्षा। दोनों ही अवस्थाओं में एक का व्यक्तित्व
दूसरे पर कब ओवरलैप या हावी हो जाय, कहना
मुश्किल होता है। एक पेशेवर पत्रकार होते हुए भी श्याम बिहारी श्यामल ने अपने दो
उपन्यासों- धपेल और अग्निपुरुष - के माध्यम से कथा-साहित्य में अपनी पहचान बनाई
है। अब अपने प्रथम कहानी-संग्रह ‘चना
चबेना गंगजल’ में वे अपने इस विभाजित व्यक्तित्व; स्प्लिट पर्सनालिटीद्ध को साधने का प्रयास करते नजर आते हैं।
कथा-संग्रह में संकलित एक दर्जन कहानियों से
गुजरने के बाद यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि कथाकार समाज में भयंकर रूप से
व्याप्त भ्रष्टाचार और अनैतिकता के विरोध में खड़ा है। यह अलग बात है कि संघर्ष के
सवाल पर उसकी दृष्टि स्पष्ट नहीं बन पाती। इसके अलावा, ‘प्रेतपाठ’, ‘पत्तों में रात’, ‘निद्रानदी, ‘बहुत कुछ’, ‘स्वाद’, ‘गीली मिठास’
आदि कई कहानियों में तो लेखक का
पत्रकार व्यक्तित्व परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से कथा की गति को प्रभावित करता नजर
आता है।
इस संग्रह में संकलित श्यामल की कहानियाँ, मूलतः, ऐसे साधारण (Ordinary) लोगों
की कहानियाँ हैं, जो असाधारण बनने के प्रयास में
असामान्य (abnormal) बन कर रह जाती हैं। यह असामान्यता
त्रिआयामी है। ‘कागज पर चिपका समय’ और ‘अट्टहास काल’
में जहाँ यह असामान्यता नकारात्मक है, ‘सीधांत’ एवं ‘गीली मिठास’ में सकारात्मक। दोनों हालात अतिवाद से
इस सीमा तक प्रभावित हैं कि पाठकों को इन कहानियों के पात्रों के मनोरोगी होने का
आभास हो सकता है। ‘बहुत कुछ’, ‘पत्तों में रात’, और ‘चना चबेना गंगजल’ जैसी
कुछ कहानियों को इन दोनों अतियों के बीच का माना जा सकता है।
‘कागज
पर चिपका समय’ में दूरदर्शन के एक डिप्टी डायरेक्टर
हैं, जो अपने अधीनस्थ महिलाकर्मियों में
जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं, पर
कहानी में उनकी यह दिलचस्पी अपने चैम्बर में अपने सामने उन्हें बैठा कर
समोसा-मिठाई खिलाते हुए बतियाने भर तक सीमित रहती है। कुछ लोग ऐसे जरूर होते होंगे, जो इसी में अपना चरम सुख पा लेते हैं।
पर राम शंकर मिश्र जैसे लोगों को क्या कहा जाय, जिनकी
छाती पर इतना भर देखते ही साँप लोटने लगता हो और वे भीतर का दृश्य देख-जान लेने की
बेताबी में दरवाजे का पर्दा उठा-उठा कर ताक-झांक करने लगें और आसिफ जैसे एक
अच्छे-भले आदमी के स्वस्थ दिमाग को भी बीमार बना दें! ‘अट्टहास काल’ मनोरोगी किस्म के रामनिहाल और जीतन नाम
के ऐसे व्यक्तियों की कहानी है, जो
अपने ही गांव के एक आदमी और उसके अर्धपागल बेटे की ऐक्सिडेन्टल मृत्यु को भी
धनार्जन का जरिया बना लेते हैं और दाह-संस्कार जैसे मौके पर भी मौजमस्ती के बीच छक
कर पूड़ी-मिठाई उड़ा सकते हैं।
‘पत्तों
में रात’ एक भटके हुए नवजवान की कहानी है, जो एक भूल से अपनी नौकरी गवां बैठा है
और बेरोजगार हो अपने कुछ साथियों के साथ हथियारबंद रहजनी करने लगा है। संयोग से एक
रात कथावाचक; जो पत्रकार तो है ही, अपनी पत्रकारिता के रसूख से जिसने
नवजवान की नौकरी भी लगवाई थी; उसका
शिकार बनते-बनते रह जाता है। उस कठिन समय में कथावाचक की फौरी बुद्धि विलक्षण ढंग
से काम करती है और वह न केवल अपनी जान बचाने में कामयाब होता है, बल्कि उसके उद्बोधन से प्रभावित हो कर
वह नवजवान तत्क्षण अंगुलिमाल से कायांतरण कर एक अनुशासित नागरिक होने का वादा कर
लेता है। ‘बहुत कुछ’ में भी कुछ ऐसे ही भटके हुए बेरोजगार
नवजवान हैं, जिनके सामने क्रांतिकारी भगत सिंह के
साथी रहे राम नारायण बाबू हैं, जो
अब छियासी साल के हो चुके हैं। भगत सिंह ने शादी नहीं की थी। इन्होंने शादी तो की
है, पर जय प्रकाश नारायण की भांति
निर्वंसिया रहने का निर्णय लिया और निभाया है। वे देश और समाज की परिस्थियों से, खासकर गणतंत्र दिवस के दिन; नाखुश रहा करते हैं। पर सबसे ज्यादा
नाखुश हैं लल्लन पर, जिसने उसके पिता के जमाने से चली आ रही
परंपरा को तोड़ते हुए, अपने स्कूल में, इस गणतंत्र दिवस पर, मुख्य अतिथि के रूप में रामनारायण बाबू
की जगह एक शराब-व्यवसायी को आमंत्रित कर रखा है। जलते-भुनते दिन बीत जाता है और
रात को अचानक हवाई फायर के साथ कुछ नकाबपोश लुटेरे उनके आवास में घुस कर, ‘माल निकालो’ का आदेश देते हैं। ये डाकू वही
पढ़े-लिखे, पर बेरोजगारी की वजह से भटके हुए
नवजवान हैं; एक आलमारी से बरामद हुई तस्वीर में भगत
सिंह के साथ खड़े हुए रामनारायण बाबू को पहचानते ही जिनका तत्क्षण कायांतरण हो जाता
है। पर, इस बार वे नवजवान डाकू ‘लाचार खड़े इतिहास के महानायक’ हमारे राम नारायण बाबू को ही उद्बोधित
करते हुए उन्हें कुँवर सिंह की तरह फिर से खड़े होने और नेतृत्व करने का आह्वान
करते हैं।
ऐसे बेरोजगार नवजवानों की एक और कहानी इस
संग्रह में शामिल है- ‘आना पलामू’। इस कहानी के नवजवान को कंपीटीशन में
अच्छे रैंक पाने के बावजूद घूस नहीं देने की वजह से नौकरी नहीं मिलती और उससे नीचे
का लड़का घूस दे कर नौकरी हथिया लेता है। इसके खिलाफ जब वह केस करता है तो उसे झूठे
केस में फंसा कर जेल भेज दिया जाता है। जेल से छूटने के बाद, वह एक हार्डकोर नक्सली बन जाता है।
कालांतर में एक दिन उसकी भेंट कथावाचक से होती है, जो उसका सहपाठी रहा है और अब बनारस के एक अखबार में पत्रकार है।
नवजवान पहले तो अपना निजी दुखड़ा रोता है, पर
जैसे ही कथावाचक उसकी लानत-मलानत करते हुए कहता है कि ‘क्या मिला तुम लोगों को इतने वर्ष खाक
छानने व कत्लेआम मचाने के बाद’, वैसे
ही वह गुब्बारे की तरह फट पड़ता है और पलामू में अपने दल की उपलब्धियाँ गिनाने लगता
है। यहाँ उसके व्यष्टि की परिधि से बाहर निकलते ही, ‘उसकी आवाज में गजब तेज उष्मा का जैसे अजस्र स्रोत फूट पड़ा’ महसूस होने लगता है। इस संदर्भ में
मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की एक पंक्ति कौंधती है- मुक्ति की राह
अकेले में नहीं मिलती। नक्सलवाद से जुड़ी एक और कहानी इस संग्रह में शामिल है- ‘छंद में हाहाकार’, जो ‘आना पलामू’ का विस्तार और उन उपलब्धियों के पीछे
की दास्तान है, जो उस कहानी के हार्डकोर नक्सली ने
गिनाई थीं। ‘छंद में हाहाकार’ नक्सल माओवादियों की जन-अदालत का
आाँखों देखा हाल है, जिसका विवरण चित्रात्मकता और
निर्वैयक्तिकता के साथ दिया गया है।
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चना चबेना गंगजल’ का प्रतिरोध अलग किस्म का है। इस लंबी
कहानी का नायक केवट जाति का एतवारू है। एतवारू पुराणों में वर्णित इस जाति की
उत्पत्ति की पूरी कथा बयान करता हुआ कहता है, ‘‘तो
केवट वंश का काम ही है सबको पार लगाना। डूबते को बचाना और जो डूब गया हो उसे
भवसागर पार लगाना। लेकिन क्या करें बेटा! पेट है! पैसा न कमाएँ तो खाएँ क्या?’’ गौरतलब है कि एतवारू संस्कृत में
शास्त्री है। इसके बावजूद;
हालांकि कहानी भारतीय समाज की इस
विडंबना पर बिलकुल खामोश है; उसे
जीविका के लिए अपने जातिगत व्यवसाय पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यहाँ ऐसा लग सकता
है कि एतवारू; युगों-युगों से, विष्णु के चरणों का स्पर्श करने के
उद्देश्य से आगे बढ़ने, पर लक्ष्मी के इशारे पर शेषनाग की
फुंफकार से करोड़ों कोस दूर जा गिरने, और
अंततः लाखों साल बाद त्रेता में अपने अपराजेय प्रयत्नों और आस्था के बल पर विष्णु
के अवतार राम के श्रीचरणों की महास्पर्श-सिद्धि पाने वाली केवट जाति की इस
मिथक-कथा का आश्रय पा कर ही संतुष्ट है। पर क्या वह वास्तव में संतुष्ट है? क्या वह यूँ ही कभी ‘अचरजवा’ तो कभी ‘महंतवा’ कहते हुए, दारू पी कर रोज शाम को बिना नागा, उस ‘मिसिरवा’ को ‘गंदी-घिनौनी व दुर्गंधपूर्ण गालियाँ’ देता है; जो उसे गंगा घाट की सीढ़ियों पर अनाथ के
रूप में मिला था और उसने अपनी पढ़ाई स्थगित करके जिसकी आचार्य तक की पढ़ाई पूरी कराई
थी, पर कालांतर में जिसने पहले तो अपनी
चालाकी और बाद में महंथई के बाहुबल से अखिल भारतीय स्तर पर धनवान, प्रसिद्ध और सम्मानित बन गया था? कहानी में पैठते ही यह जान लेना कठिन
नहीं कि वह असंतुष्ट ही नहीं पूरी तरह विद्रोही हो चुका है और विकल्पहीनता की
स्थिति में केवल इतना ही कह पाता है, ‘‘...ऐसे व्यक्ति को रोज गाली न दूँ तो क्या करूँ?’’
‘गीली
मिठास’ और ‘सीधांत’ (अति) ईमानदार लोगों का वृतांत हैं। ‘सीधांत’ में विश्वविद्यालय में लगभग छह माह
पहले आए दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर जायसवाल अपने घर हिंदी के प्रोफेसर डा. पांडे
को खाने पर निमंत्रित करते हैं। बहुत ना-नुकुर और जायसवाल से यह कहलवा लेने के बाद
कि इस निमंत्रण के पीछे उनका कोई स्वार्थ नहीं है; डा. पांडे उनके घर भोजन करने जाते हैं। डा. जायसवाल की पत्नी कविता
के हाथ के बनाए गए लजीज व्यंजन खाने के बाद जब पांडे साहब मुदितावस्था में होते
हैं तो सही मौका ताड़ जायसवाल साहब धीरे से अनुरोध करते हैं, ‘‘कविता प्राइवेट से हिंदी में एम.ए. कर
रही हैं, परीक्षा हो चुकी है। कापी आपके ही
पास...।’’
डा. पांडे उस वक्त बाहर बरामदे की कोर पर बैठे
हाथ-मुंह धो रहे होते हैं। डा. जायसवाल की बात सुनते ही उनका ‘पूरा मुखमंडल आग का गोला’ और ‘छाती धौंकनी,
सांसें तूफान’ हो जाती हैं। वे तत्क्षण अपने मुँह में
उंगलियाँ’ डाल कर सारा भोजन उबकाई करके बाहर
निकाल डालते हैं और हतप्रभ जायसवाल से बोल डालते हैं, ‘‘भाई जायसवाल, आ कर नीचे देख-मिला लो, मैंने तुम्हारा जो कुछ खाया-पिया था, सब निकाल दिया है!’’
‘गीली
मिठास’ में एक नया-नया आया एस.पी. है, जिसने समाज विरोधी तत्त्वों से भी
ज्यादा अपने ही विभाग और ऑफिस के कर्मचारियों की नाक में दम कर रखा है, जिनमें से लगभग सब के सब भ्रष्ट हैं।
उनमें से अपने को ईमानदार और संवेदनशील लेखक मानने वाले अभी-अभी काशी-हरिद्वार की
यात्रा करके लौटे लाल बाबू का यह कथन ही सब कुछ बयान कर देता है, ‘‘बताइए साहब! हम लोग का चाय-नाश्ता भी
रोक दिया है। गजब पगलेटे लग रहा है!’’ लाल
बाबू को तब भी उसकी ईमानदारी पर संदेह है, सो
वे साहब के बंगले के चपरासी राजन से पूछते हैं।
‘‘अरे
बाबू! यह साहब अलग ढंग के हैं। एक बार नहाने-धोने के बाद चार रोटी और रात में फिर
वही चार रोटी। दोपहर में कुछ नहीं खाते। हाँ, लाल
चाय खूब पीते हैं।.......साहब ऑफिस के लिए निकलने से पहले रोज अपना बेड, किताबों की कार्टूनें और बाल्टी-मग सब
पैक कर देते हैं। कहते हैं कि तबादला कभी भी हो सकता है इसलिए तैयारी ऐसी हो कि एक
मिनट में उठूँ और अगले पड़ाव के लिए कूच कर लूँ ...।’’
राजन के जवाब से लाल बाबू को आखिरकार मन मार कर
स्वीकार करना पड़ता है कि ‘यह एस.पी. नौकरी नहीं कर रहा बल्कि जंग
लड़ रहा है’। वे आगे कहते हैं, ‘‘...रही बात महीने भर में बिल वगैरह के एवज
में हजार-डेढ़ हजार की ऊपरी कमाई खत्म होने की तो इससे कुछ आर्थिक सांसत तो बढ़ेगी, लेकिन आत्मा का बोझ कितना कम हो जाएगा।’’ लेकिन उस एक-डेढ़ हजार की निश्चित ऊपरी
कमाई बंद होने के साथ-साथ एस.पी. द्वारा उनके लेखन के उपहास उड़ाए जाने की कसक
अवचेतन में बनी रहती है और मौका मिलते ही कहर बन कर टूट पड़ती है। हर साल लाल बाबू
छठ व्रत का उपवास रखते हैं और अब तक उन्हें इसके लिए छुट्टी लेने की कभी जरूरत
महसूस नहीं हुई, पर अब इस ‘पगलेट’ एस.पी. की कड़ाई को देखते हुए उन्हें छुट्टी मांगने एस.पी. के चैम्बर
में जाना पड़ता है। छठ के अगले दिन डी.जी.पी. का कार्यक्रम होने की वजह से एस.पी.
उनकी छुट्टी का आवेदन अस्वीकार कर देता है। यह बहुत छोटी सी बात थी। उनके मन में
ईमानदारी के प्रति थोड़ी सी भी जगह होती या भ्रष्टाचार के विरोध में खड़े एस.पी. को
समर्थन देने की भावना रही होती तो वे दोनों स्थियों को मैनेज कर सकते थे। लेकिन
भारतीय भ्रष्ट मन को धर्म और आस्था से बड़ा और बेहतर दूसरा हथियार नहीं मिल सकता!
जाहिर है धर्म के आगे ईमानदारी को साष्टांग पराजित होना ही था।
भ्रष्टाचार के स्वाद की चर्चा से इस संग्रह में
शामिल कहानी ‘स्वाद’ का स्मरण हो आना स्वाभाविक है, जिसका
निचोड़ यही है कि किसी स्वाद की अगर आपको लत लग जाय तो वह पूरी तरह कभी खत्म नहीं होती।
कहानी-संग्रह में नायिका-चरित्र का अभाव खटकता है। ‘प्रेतपाठ‘ और ‘कागज पर चिपका समय’ में
वह है भी तो लगभग नकारात्मक है और ‘निद्रानदी’ में तो स्टेशन पर बेघरबार बच्चों
द्वारा भीख मंगवाने वाले गैंग की सरदार ही एक स्त्री है।
प्रूफ की बेशुमार अशुद्धियों और कहीं-कहीं
तथ्यात्मक भूलों के बावजूद श्याम बिहारी श्यामल के इस प्रथम कथा-संग्रह की
कहानियों में निहित एक ऐसी सुगठित दृष्टि को चिह्नित करना मुश्किल नहीं, जो व्यक्ति, समाज और सत्ता में व्यापक स्तर पर
व्याप्त विचलन एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ चुनौती बन कर खड़ी है और जो व्यष्टि की
परिधि से बाहर निकल कर समष्टि की ओर उन्मुख होने को आकुल दिखाई पड़ती है।
कहानी-संगह : ‘चना चबेना गंगजल’
लेखक : श्याम बिहारी श्यामल
प्रकाशक: ज्योतिपर्व प्रकाशन, इंदिरापुरम,
गाजियाबाद- 201 012
मूल्य (हार्डबाउंड) रु. 249/-
(पाखी के जून 2016 अंक से साभार)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-07-2016) को "ख़ुशी से झूमो-गाओ" (चर्चा अंक-2419) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार बंधुवर संतोष जी..
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