प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख ‘भारतीय नवजागरण की अद्भुत मिसाल : सर सी. वाई. चिन्तामणि।‘
पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति सर
सी. वाई चिंतामणि के नाम से अनभिज्ञ न होगा। तब वह दौर था जब पत्रकारिता एक
व्यवसाय न हो कर विशुद्ध रूप से एक मिशन हुआ करती थी। सी. वाई. चिंतामणि ने अपनी
प्रतिबद्धता से इस मिशन को आगे बढाया और भारतीय नवजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई। प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने सर सी. वाई. चिंतामणि के जीवन एवं सम्पादक-पत्रकार
के रूप में उनकी भूमिका पर एक नजर डाली है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रोफ़ेसर हेरम्ब
चतुर्वेदी का आलेख ‘भारतीय नवजागरण की अद्भुत मिसाल : सर सी. वाई. चिन्तामणि।‘
भारतीय नवजागरण की अद्भुत मिसाल: सर सी. वाई.
चिंतामणि!
प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी
सर सी. वाई. चिंतामणि का पूरा नाम था, चिर्रावूरी यज्ञेश्वर चिंतामणि।
चिर्रावूरी, कृष्णा जिले के उनके पैतृक ग्राम का नाम था। उनका जन्म तेलुगु नव-वर्ष
के अवसर पर अप्रैल 10, 1880 को विजयनगरम
(आंध्र-प्रदेश) में हुआ था। उस समय यह मद्रास प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आता था। अपने
पिता चिर्रावूरी रामसोमायाजुलु गारू की वे तीसरी संतान थे। उनके पिता सनातनधर्मी
विद्वान् एवं विजयनगरम के शासक, महाराजा सर विजयराम गजपति राजू के ‘धार्मिक अनुष्ठानों’ के परामर्शदाता
थे! उनके पूर्वज 19वीं सदी के
प्रारम्भ में ही इसी कारण से अपने ग्राम एवं जनपद से विजयनगरम आ गए थे। किन्तु,
चिंतामणि ने पारिवारिक, परंपरागत धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने से इंकार कर दिया।
उन्हें महाराजा विजयनगरम के परामर्श पर पाश्चात्य शिक्षा दिलाई गयी। उन्होनें 1890 में महराजा कॉलेज में प्रवेश लेकर वहीं से 1895 में मद्रास विश्वविद्यालय की ‘मैट्रिकुलेशन’ की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की।
इसी बीच उनके पिता का 1892 में ही स्वर्गवास
हो गया था।
मैट्रिकुलेशन के अध्ययन के दौरान ही वे राजनीति में रस लेने लगे थे और समाचार-पत्रों
एवं पत्रिकाओं में नियमित लिखने भी लगे थे। तदुपरांत उन्होनें एफ.ए. में प्रवेश लिया तथा, नियमतः “हिन्दू” एवं “मद्रास स्टैण्डर्ड” में लिखने लगे।
इसी के साथ वे स्थानीय पत्र “तेलुगु हार्प” में भी लिखने लगे। उनकी स्मरण-शक्ति, वाक्पटुता, शैली, शब्दावली और अंग्रेजी
भाषा पर पकड़ अद्भुत थी अतः वे सभी का ध्यानाकर्षण करते थे! किन्तु अधिक काम और
स्वाध्याय के इस दौर में उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अंततः उन्हें 1896 में इलाज के लिए विशाखापतनम जाना पड़ा। और, वे “विज़ाग स्पेक्टेटर” में पत्रकारिता
करने लगे। इसके प्रकाशक थे, जगन्नाथ शास्त्री। उन्होंने युवा चिंतामणि की एक
लेख-माला प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, “लार्ड एल्गिन की असफलता” (लार्ड एल्गिन
द्वितीय, वाइसराय, 1894-1898)। इस लेखमाला के
चलते ही, अगस्त 24, 1898 को चिंतामणि 18 वर्ष की अल्पायु
में “विज़ाग स्पेक्टेटर” के संपादक एवं प्रबंधक नियुक्त हुए!
अंततः अनेकानेक कारणों से वे पुनः विजयनगरम लौटे। किन्तु तब तक वे “विज़ाग स्पेक्टेटर” तथा “गुडविल” 300 रुपये में खरीद चुके थे! विजयनगरम पहुँच कर उन्होनें इसका नया नामकरण, “इंडियन हेराल्ड” (साप्ताहिक) कर
दिया। यह पत्र दो वर्ष ही चल पाया और आर्थिक कठिनाईयों के चलते बंद हुआ। किन्तु तब
तक चिंतामणि एवं उनका यह साप्ताहिक पत्रकारिता के इतिहास में अपना नाम उल्लेखनीय
करवा चुके थे! इसी बीच, 1899 में उनकी पत्नी
एक पुत्र को जन्म देने के 30वें दिन ही चल
बसीं। अब वे विजयनगरम छोड़ने को विवश थे। वे “हिन्दू” के संपादक, जी. सुब्रमण्यम ऐय्यर से प्रभावित थे अतः मद्रास चले आये और “हिन्दू” में कार्यरत हुए। इसी बीच उन्होनें, “इंडियन सोशल रिफार्म” नामक पुस्तक लिख कर, शास्त्रों के साक्ष्यों के आधार पर समाज-सुधार के एक
पूर्ण कार्यक्रम की रूपरेखा ही प्रस्तुत करके, सबका ध्यानाकर्षण किया! इसमें
आधुनिक भारतीय चिंतकों के विचारों से भी लोगों को अवगत कराया गया। इन विचारकों में
एम. जी. रानाडे, आर. जी. भंडारकर, पी. आनंदचार्लू, जी. सुब्रमण्यम
ऐय्यर, राय बहादुर लाला बैजनाथ, आर. एन. मधोलकर, पं. बिशन नारायण दर, आर. वेंकटरमण नायडू
आदि सम्मिलित हैं। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता वही है जो भारतीय संस्कृति की
प्रमुख विशेषता है – ‘सातत्य के साथ परिवर्तन’! किन्तु, वे
सिर्फ समाज-सुधार के प्रचारक ही नहीं थे अपितु उन्होनें स्वयं इसका उदाहरण पेश
करते हुए, अपनी पहली पत्नी के मृत्योपरांत भागवतुल कृष्णा राव की विधवा बेटी
कृष्णा वेणी से विवाह किया!
1902 में चिंतामणि और सच्चिदानंद सिंहा के मध्य पत्र-व्यवहार शुरू हो गया था।
सच्चिदानंद सिंहा उन दिनों रामानंद चटर्जी के कलकत्ता चले जाने के बाद से इलाहाबाद
से “कायस्थ समाचार” निकाल रहे थे। चिंतामणि भी इस साप्ताहिक के नियमित पाठक थे। चिंतामणि बनारस
से लौटते हुए इलाहाबाद में सिंहा जी से मिलने आये। और दोनों के मध्य प्रगाढ़
मित्रता स्थापित हो गयी। इसी मित्रता के परिणामस्वरूप, सच्चिदानानद सिंहा ने जनवरी
1903 में “इंडियन पीपुल” नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया और चिंतामणि 40 रुपये के शानदार (सोना उन दिनों, 12-14 रुपये प्रति तोला था!) वेतन पर उसके सहायक संपादक होकर इलाहाबाद आ गए।
चिंतामणि के कठोर परिश्रम का ही प्रतिफल था कि “इंडियन पीपुल” कुछ ही दिनों में पहले सप्ताह में दो
बार फिर तीन बार प्रकाशित होने लगा। अंततः 1909 में अंग्रेजी दैनिक “लीडर” की शुरुआत होते ही उसमें ही विलय कर दिया गया!
दैनिक “लीडर” का पहला अंक सी. वाई. चिंतामणि तथा नगेन्द्रनाथ गुप्ता के संयुक्त सम्पादकत्व में अक्टूबर 24, 1909 को विजय दशमी के
अवसर पर प्रकाशित हुआ था। चूंकि, चिंतामणि का प्रशिक्षण दादाभाई नौरोजी, महादेव
गोविन्द रानाडे, फिरोज़शाह मेहता, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जैसे प्रारम्भिक राष्टवादी नेताओं के मध्य हुआ था अतः उसका पूरा
प्रभाव उनके “उदारवादी” चिंतन में परिलक्षित होता है! फिरोज़शाह मेहता ने “बॉम्बे क्रॉनिकल” में उन्हें
प्रशिक्षित किया था। और, इलाहाबाद आने से पूर्व वे कुछ दिनों लाहौर में “ट्रिब्यून” समाचारपत्र के संपादन का भी दायित्व
निभा चुके थे। 1918 के पश्चात “लीडर” स्पष्टतः ‘नरमपंथियों’ के दृष्टिकोण एवं नीति का प्रबल समर्थक
हो गया, जिसका प्रतिनिधित्व ‘लिबरल’ करते थे। महात्मा गाँधी के ‘सत्याग्रह’ और ‘असहयोग’ आन्दोलनों से लिबरल सहमत नहीं थे, किन्तु सरकार की दमन नीति के वे भी प्रबल
विरोधी थे। अतः, जब गांधी जी को ‘रौलेट एक्ट’ के तहत बंदी बनाया गया तब चिंतामणि ने “लीडर” में इसे सरकार की “बहुत बड़ी गलती” शीर्षक से
सम्पादकीय का विषय बनाया था! उन्होनें लिखा था: “इस घटना कर्म पर हमें गहरा दुःख है। गांधी जी की गिरफ़्तारी को हम बहुत बड़ी और गंभीर गलती मानते हैं। जिससे देश भर में
तीव्र प्रतिक्रिया होगी” (“लीडर”, अप्रैल 12, 1919)
चिंतामणि ने “लीडर” के माध्यम से न केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति और औपनिवेशिक़ साम्राज्यवाद की ही
भर्त्सना की, अपितु साम्प्रदायिकता का भी पुरजोर विरोध किया। वे अपने जीवन के
अंतिम क्षणों तक देश की एकता और अखंड़ता के लिए संघर्षरत रहे। अपने विचारों,
सिद्धांतों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर थी। उन्होनें “लीडर” के ‘बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स’ के चेयरमैन, पं
मोतीलाल नेहरु ने 1910 के कांग्रेस के
वार्षिक अधिवेशन में गौहरबाई के गायन के आयोजन के विचार की निंदा करने से भी परहेज़
नहीं किया था। और, मोतीलाल जी अपने ही समाचारपत्र की इस भर्त्सना से उस कार्यक्रम को निरस्त करने को
बाध्य भी हुए थे। इसी प्रकार उन्होनें ‘संयुक्त प्रांत म्युनिसिपैलिटी बिल’ के 1915-16 के उस ‘जहांगीराबाद संशोधन’ का भी अपने
समाचार पत्र में विरोध किया जिसको मोतीलाल जी
एवं सर तेज बहादुर सप्रू का समर्थन प्राप्त था। दोनों मौकों पर दोनों आमने-सामने
आये और दोनों ही अवसरों पर निदेशक मंडल ने संपादक की निर्भीकता और विचारों की
स्वतंत्रता का समर्थन किया न कि अपने निदेशक मंडल के अध्यक्ष का! अंततः 1918 में लीडर के स्वामित्व वाली संस्था, ‘इंडियन न्यूज़पेपर्स लिमिटेड’ के ‘शेयर-होल्डरों’ की मीटिंग में
चिंतामणि को हटाने का प्रस्ताव रखा और अपने प्रस्ताव के अभूतपूर्व विरोध के चलते
पं मोतीलाल नेहरु ने ही लीडर छोड़ना श्रेयस्कर समझा!
इसी प्रकार, जब महामना मदन मोहनजी
मालवीय अल्प-काल के लिए लीडर के अध्यक्ष हुए तब वे मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड के विरोधी
थे और चिंतामणि समर्थक अतः चिंतामणि ने अपने सिद्धांतों से समझौता न करते हुए लीडर
के संपादक पड़ से त्यागपत्र देना ही श्र्येस्कर समझा। किन्तु मालवीय जी ने यह कहते
हुए उनके इस्तीफ़े को अस्वीकार कर दिया, कि हम दोनों को ही “लीडर” से प्यार है, किन्तु, ‘मेरे चेयरमैन बने रहने की अपेक्षा आपका संपादक बने रहना “लीडर” के भाग्य और भविष्य के लिए अपरिहार्य है।
और “लीडर” के इस संस्थापक
सदस्य ने स्वयं इस्तीफ़ा देकर चिंतामणि और “लीडर” की वैचारिक स्वतंत्रता और उसकी निर्भीक
पक्षधरता के प्रति सम्मान प्रकट किया!
मौन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के
तहत सी।वाई। चिंतामणि झाँसी से ‘नेशनल लिबरल
फेडरेशन’ के प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर
प्रदेश के शिक्षा-मंत्री बने। तब “लीडर” के संपादक का दायित्व निभा रहे कृष्ण
राम मेहता आपके ही परामर्श और दिश-निर्देश पर चलते रहे। 1923 में शिक्षा-मंत्री के पद से त्याग पत्र सौंप कर वे कुछ समय के
लिए सर फ़िरोज़शाह मेहता तथा सर चिमन लाल सीतलवाद के विशेष आग्रह पर सांध्य-कालीन पत्र, “इंडियन डेली मेल” के संपादक के रूप
में बम्बई चले गए। किन्तु एक माह में ही वे वापस इलाहाबाद आकर पुनः “लीडर” के संपादन के दायित्व का निर्वहन करने
लगे। उनकी प्रतिबद्धता की ही यह मिसाल है कि जिस जुलाई 1,
1941 को उनकी मृत्यु हुई
थी, उस सुबह भी “लीडर” में उनका अग्रलेख प्रकाशित हुआ था!
एक परिश्रमी पत्रकार होने की सारी
विशेषताएं उनमें विद्यमान थीं। उन्होनें कभी भी उच्च मानकों और गुणवत्ता के साथ न
स्वयम समझौता किया और न ही अपने अधीनास्तों को ही ऐसा करने दिया। ‘रिपोर्टिंग’ में गलत सूचना या मात्र सनसनी पैदा करने
वाली ‘रिपोर्टिंग’, संपादन या प्रूफ़ रीडिंग में त्रुटि या लापरवाही, लेख/रिपोर्टिंग में
उद्देश्य या निष्ठां का अभाव को वे इस व्यवसाय का सबसे घातक शत्रु मानते थे।
विरामादी चिन्हों की गलतियां भी उनकी नज़र से नहीं बच सकतीं थीं।
युवावस्था से ही चिंतामणि पत्रकारिता के अलावा राजनीति में भी रूचि लेते थे और
सक्रिय भाग भी। 1894 में अपने मित्रों
के साथ उन्होनें विजयनगरम में ‘यंग मैंस एसोसिएशन’ की स्थापना की थी। वे इसके बाद में सचीव भी थे तथा इस रूप में उनके भाषण भी
होते रहते थे। चिंतामणि ने सर्वप्रथम 1898 में कांग्रेस के मद्रास वार्षिक अधिवेशन में भाग लिया था। 1899 के लखनऊ अधिवेशन में प्रथम बार कांग्रेस मंच से भाषण किया। यहीं से वे गोपाल
कृष्ण गोखले के संपर्क में आये और उनके प्रगाढ़ सम्बन्ध हुए तथा वे गोखले जी के
प्रभाव में ही रहे।
चिंतामणि के 28 माह के कार्यकाल
में ही उनके अथक परिश्रम और प्रयासों के फलस्वरूप ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय की रिपोर्ट’ के आधार पर माध्यमिक शिक्षा को विश्वविद्यालय की शिक्षा से पृथक किया गया।
जुलाई 26, 1921 को संयुक्त
प्रांत माध्यमिक शिक्षा परिषद् का गठन हुआ। उन्हीं के प्रयासों से से शिक्षकों की
दशा में भी अनेक सुधार प्रस्तावित हुए। इन परिवर्तनों के तहत ही जुलाई 28,
1921 को ‘इलाहाबाद
यूनिवर्सिटी बिल’ के माध्यम से विश्वविद्यालय को अपने
शिक्षक (‘प्रोफ़ेसर’) चयनित करने के साथ ही, वाईस-चांसलर तथा कोषाध्यक्ष के चुनाव का भी प्रावधान
करके, विश्वविद्यालय को स्वायत्ताशासी बनाने में बड़ा योगदान दिया गया। शिक्षा
मंत्री के रूप में उन्होनें प्रदेश में तकनीकी एवं कृषि-शिक्षा के विकास की नींव रखी।
इतना ही नहीं, चिंतामणि ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए, उद्योग एवं म्युनिसिपल
बोर्ड को भी अधिक आत्म-निर्भर बनाने का प्रयास किया ताकि वह आंग्ल-सरकारी नियंत्रण
से अधिक स्वावलंबन का स्वरुप अख्तियार करे। वे 1926 से 1937 तक संयुक्त
प्रांत के विरोधी दल के नेता के रूप में विधायी परंपराओं के विकास में महत्वपूर्ण
योगदान देते रहे। इसी प्रकार, ‘आगरा काश्तकारी और
भू-राजस्व बिल’ (1926) के विभिन्न जनकल्याण के प्रावधानों को सम्मिलित करवाने में उनका योगदान भी
अविस्मरणीय है। इसी प्रकार, इलाहाबाद को प्रांतीय राजधानी बनाये रखने और हिंदी
भाषा के विकास के लिए भी वे सदैव संघर्षरत रहे।
जब प्रथम गोलमेज़ सम्मलेन लन्दन में
नवम्बर 1930 को प्रारम्भ हुआ,
तब उदारवादियों के 13 सम्मिलित सदस्यों
में सी।वाई।चिंतामणि भी थे। अन्य प्रमुख थे, सर तेज बहादुर सप्रू, श्री निवास
शास्त्री, सर चिमनलाल सीतलवाद। ओनी अस्वस्थता के चलते वे द्वितीय गोलमेज़ सम्मलेन
में भाग नहीं ले पाए तथा तृतीय में संभवतः उन्हें इसी लिए आमंत्रित नहीं किया गया।
उन्होनें ‘देशी रियासतों’ की जनता के कल्याण के लिए भी बहुत काम किया। इनके संगठन, ‘देशी राज्य प्रजा परिषद’ के द्वितीय
सम्मलेन (बम्बई, मई 25-26, 1929) की अध्यक्षता भी
की। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होनें ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों के मध्य
पारस्परिक सम्बन्ध तथा ‘ब्रिटिश क्राउन’ की सर्वोच्चता पर तीक्ष्ण प्रहार करते हुए बटलर समिति की कटु आलोचना की थी।
उनके अनुसार इसमें न तो देशी रियासतों के राजाओं की और न ही वहाँ की प्रजा की
व्यथा सुनी या सम्मिलित की गयी है। वे जिन माँगों के पक्षधर थे वे प्रजन्तान्त्रिक
थीं, जैसे देशी रियासतों में मौलिक अधिकारों की घोषणा; अभिव्यक्ति (अभिभाषण, लेखन
के साथ संस्था स्थापित करने) की स्वतंत्रता; न्यायलय द्वारा वादों के जाँच के
अधिकार; बेगार प्रथा की समाप्ति के साथ वहां ‘स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं’, ‘ग्राम-पंचायतों’ तथा, ‘म्युनिसिपल समितियों’ की स्थापना।
जहाँ तक उनके दीर्घकालीन विधायी जीवन की उपलब्द्धियों का प्रश्न है, हम
संक्षेप में कह सकते हैं कि, उनके तथ्यों एवं आंकड़ों को प्रस्तुत करने की अद्भुत
क्षमता थी जिससे सत्ता पक्ष से लेकर सरकारी अधिकारी तक के मुँह पर ताले जड़ जाते
थे! वे सभी तथ्यों का मूल्यांकन करने के पश्चात सदैव निष्पक्षता और स्व-विवेक से
ही अपने निर्णय लेते थे। वे अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व – कलम एवं वाणी दोनों के माध्यम से सभी को प्रभावित करते थे!
(प्रोफ़ेसर
हेरम्ब चतुर्वेदी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष हैं।)
संपर्क:
8/5ए,
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मोबाइल:
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ई मेल : heramb।chaturvedi@gmail।com
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