चैतन्य नागर का लेख ‘मौत के बाद का कारोबार’।
इस
सृष्टि में जहाँ भी जीवन है वहाँ मौत है। प्राचीन काल से ही मनुष्य अपने मृतकों की
अंत्येष्टि के लिए तरह-तरह के तौर तरीके अपनाता रहा है। किसी को अपने सम्बन्धी के
शव की अंत्येष्टि के लिए ‘दो गज जमीन’ चाहिए तो किसी को ‘पाँच मन लकड़ी।’ हिन्दू
परम्परा में तो यह अन्येष्टि संस्कार भी एक सम्पूर्ण कारोबार की तरह से ही है।
अंत्येष्टि के लिए लकड़ी के इंतजाम से ले कर क्रिया कर्म कराने वाले पण्डित की
दान-दक्षिणा और फिर उसके बाद तेरह या सोलह दिनों तक चलने वाला लम्बा और दुखद उद्यम।
फिर सामूहिक मृत्यु-भोज। जागरूकता बढ़ने के बाद इधर लोगों में देह-दान की परम्परा
भी चल निकली है। ‘देह-दान’ के अन्तर्गत दान किए गए मृतक का शव
चिकित्सा-महाविद्यालयों के शोधार्थी चिकित्सकों के प्रयोग के काम आता है। कवि चैतन्य
नागर ने इस मौत के कारोबार पर एक दिलचस्प आलेख लिखा है। तो आइए आज पढ़ते हैं चैतन्य
नागर का लेख ‘मौत के बाद का कारोबार’।
मौत के बाद का कारोबार
चैतन्य नागर
मौत के ज़िक्र से ही रीढ़ में दहशत रेंगती है। इसके
बारे में किसी तरह की चर्चा को भी अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से बहुत दूर रखने की
व्यवस्था कर रखी है। हाल ही में ‘डिस्कवरी’ पर एक कार्यक्रम आ रहा था पारसी
समुदाय के बारे में। उनके यहाँ शव को ‘टावर ऑफ़ पीस’ पर रखने का रिवाज़ है। उनका धर्म कहता है कि मृत देह को अकेले में छोड़ दिया
जाना चाहिए जहाँ गिद्ध और कौवे उसे खा लें। गिद्ध और कौवों को सृष्टि ने इसीलिए
बनाया है। ‘डिस्कवरी’ का यह
कार्यक्रम इसी रिवाज़ के बारे में और गिद्धों के गायब होने पर पारसी समुदाय की
चिंताओं से सम्बंधित था। एक शव खुले में पडा था और उसके परिजन सूनी आँखों से आसमान
की ओर ताक रहे थे, परिंदों के इंतज़ार में। तिब्बत में
भी शव को परिंदों को खिला देने का रिवाज़ रहा है पर वहां की प्रथा और विचित्र है।
वहां शव के छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते हैं और फिर चील, गिद्ध और कौवों को खिला दिया
जाता है।
आप ज़रा सोचें तो यह एक बड़ी समस्या है। धर्म के
सामने और समाज के सामने भी। जीते जी तो हम धरती का शोषण करते ही हैं, मरने
के बाद भी किसी न किसी तरह धरती के लिए संकट बन जाते हैं! कितने लोग हैं, कितने जीव धरती पर! कहाँ जाएंगे हम सभी मौत के मुंह में समा कर! क्या होगा
हमारी मृत देहों का! कहाँ से आएगी इतनी ज़मीन, इतनी
लकड़ियाँ, कौन से परिंदे आयेंगे शवभोज के लिए! आम तौर पर
शव या तो जलाया जाता है, या ज़मींदोज़ किया जाता है। हर
मृत व्यक्ति के साथ या तो लकड़ियाँ जलती हैं, या थोड़ी
जमीन कुर्बान होती है। पर्यावरण भी थोडा मरता है, और
ज़मीन के अभाव से पहले से ही त्रस्त धरती के वाशिंदे खुद बेघर रह कर अपने हिस्से की
ज़मीन मौत के हवाले करते हैं। यही रिवाज़ है, यही संस्कार, यही धर्म। पशुओं के अंतिम संस्कार का भी बड़ा प्रश्न है, खासकर शहरों में। अपने पालतू जानवरों को भी लोग कहाँ ले जाएँ उनके मरने के
बाद, यह एक बड़ा सवाल बना रहता है उनके सामने।
इतिहासकार गोपाल कृष्ण गाँधी ने महात्मा गाँधी
की शव यात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडम्बना थी कि
गाँधी जी के शव को तोप ढोने वाले वाहन में रखा गया था। जीवन भर अहिंसा की पूजा
करने वाले गाँधी जी के शव को एक विध्वंसक शस्त्र ढोने वाले वाहन में रखा गया था! गाँधी
जी के सचिव प्यारे लाल ने लिखा है कि गाँधी जी अपने शव को रसायन में लपेट कर
सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहाँ उनकी मृत्यु हो, वहीँ उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। पर प्यारे लाल के दस्तावेजों
में यह उल्लेख भी मिलता है कि उनके दाह संस्कार में “पंद्रह
मन चन्दन की लकड़ियाँ, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल के छिलके और पंद्रह
सेर कपूर का उपयोग हुआ”। जो इंसान एक फ़कीर की तरह रहा, और अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बिताया, उसके
दाह संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया! यदि गाँधी पहले ही इस बारे में स्पष्टता
से निर्देश देते तो शायद यह सब थोड़े संयम के साथ होता, जैसा
वे शायद खुद भी चाहते। इस मामले में दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति बड़े स्पष्ट थे। उनके
साथ तो समस्या यह भी थी कि उनका कोई परिवार नहीं था, कोई
नाते-रिश्तेदार नहीं थे; न ही वह धार्मिक थे, न हिन्दू रिवाजों को मानते थे, न ही किसी और।
कृष्णमूर्ति से उनके निकट सहयोगियों ने स्पष्ट तौर पर पूछा था कि उनके शव के साथ
क्या किया जाना चाहिए । उन्होंने बड़े विस्तार से बताया था कि शव को स्नान करवाने
के बाद एक साफ़ कपडे में लपेटा जाए, जो महंगा न हो और
फिर जितनी जल्दी हो सके, उसका दाह संस्कार कर दिया जाए।
शव को कम से कम लोग देखें, कोई कर्मकांड न हो, और उसे बस लकड़ी का एक कुंदा भर समझा जाए। लोगों ने अस्थियों के बारे में
पुछा तो उन्होंने कहा कि आप जो चाहे करें, बस उसके ऊपर
कोई स्मारक, मंदिर वगैरह बिलकुल भी न बनाया जाए। सुकरात
से भी उनके मित्रों ने पूछा था उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। सुकरात ने
कहा: “पहले मुझे पकड़ तो लेना, और सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा है वह मैं ही हूँ; फिर जो चाहे कर लेना!” एंड्रू रोबिनसन ने
सत्यजित रे की जीवनी ‘द इनर ऑय” में एक दिलचस्प बात लिखी है। कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद
सत्यजित रे टैगोर के घर पहुँच गए थे और वहां नन्द लाल बोस को सफ़ेद फूलों से
गुरुदेव के शव को सजाते हुए देखा। यहाँ तक तो ठीक था, पर
जब शव-यात्रा शुरू हुई, तो जिसके लिए मुमकिन हुआ उन लोगों
ने कविगुरु की दाढ़ी का कम से कम एक बाल नोचने की कोशिश की, अपनी स्मृति के लिए!
इस देश में आम तौर पर शव के अंतिम क्रियाकर्म दो तरीके से किए जाते हैं। एक तो जला कर और दूसरा दफ़न कर। जलाने में लकड़ी का उपयोग कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगता है। उनका कहना है कि मृत देह से ज्यादा कीमती है वृक्ष और उसकी लकड़ियाँ। जितनी लकड़ियाँ किसी मृत देह को जलाने के काम आती हैं, उनसे किसी गरीब घर का ईंधन निकल आएगा। बिजली से चलने वाले शवदाह गृह में अभी भी परंपरागत हिन्दू जाना नहीं चाहते। जब तक शव पूरी तरह भस्म न हो जाए, परिवार के लोग वहीँ आस पास रहना चाहते हैं और उनकी भावनाओं को समझा भी जा सकता है। फिर प्रश्न उठता है अस्थियों का और उनके विसर्जन के लिए आस पास किसी नदी की उपस्थिति का। पर्यावरण की फिक्र करने वालों के लिए नदियों का प्रदूषण एक बड़ा प्रश्न है। हिन्दू रीतियों में साधु-सन्यासियों, छोटे बच्चों और विधवाओं के शव को अग्नि के सुपुर्द करने का रिवाज़ नहीं। उन्हें जल समाधि दी जाती है। सही तकनीक न अपनाई जाए तो शव सतह पर आ जाता है और यह दृश्य काशी की गंगा में या और किसी नदी में भी अक्सर देखा जाता है। पशु पक्षी शव का बहुत ही बुरा हाल करते हैं और यह सब कुछ एक निराधार धार्मिक परंपरा के नाम पर किया जाता है। काशी में तो महाश्मशान है, मणिकर्णिका घाट पर। मणिकर्णिका पर लगातार धुंआ और राख उडती दिखाई देती है। और घाट की सीढ़ियों से लगे हुए मकान हैं लोगों। लोग कैसे रहते हैं वहां जहाँ हर पल हवाओं में मौत की गंध तैरती रहती हो, मौत का स्वाद रोटी के हर कौर से लिपटा हो, विलाप करते लोगों का रुदन दिन रात सुनाई पड़े जहाँ? ताज्जुब होता है देख कर।
ज़मीन के अभाव, तरह
तरह के प्रदूषण और शव की दुर्दशा को देखते हुए बेहतर होगा कि सही सोच वाले लोग
जीते जी अपने सगे-सम्बन्धियों को निर्देश दे दें कि उनके शव के साथ क्या किया जाए।
मौत के बाद चलने वाला कारोबार धरती का, कीमती संसाधनों
का और परिजनों के धन और ऊर्जा का कम से कम नुकसान करें तो बेहतर होगा। समस्या यह
है कि मृत्यु को इतना बड़ा एक टैबू या वर्जित विषय माना गया है कि हम कभी घर परिवार
में इस बारे में बात ही नहीं करते। परिणामस्वरूप इस मामले में सदियों से चली आ रही
परम्पराएँ ही अपना काम करती हैं, और नये सिरे से सोचने
की संभावना बहुत कम रह जाती है। इसमें समाज के राजनैतिक और धार्मिक नेताओं की भी
बड़ी भूमिका है। वे मरने के बाद भी वी. आई. पी. बने रहना चाहते हैं। हजारों लोगों
की मौजूदगी, सैकड़ों गाड़ियां और लाव लश्कर न हो तो जैसे
वे मरने को तैयार ही नहीं होंगे! देर सवेर इन सभी बातों के बारे में सोचना होगा।
जीते जी लोगों का जीना मुश्किल करने वाला इंसान मृत्यु के बाद भी कैसे परिजनों का, धरती, जल, वायु, अग्नि और आकाश के लिए भी त्रास का कारण बनता है,यह
काबिले गौर है। ज़िन्दगी तो लड़खड़ा कर थम जाती है, पर मौत
का कारोबार ऐसे नहीं थमता। बेतहाशा चलता है मौत का तमाशा।
संपर्क –
ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com
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