अशोक तिवारी का आलेख 'नासिरा शर्मा : इलाहाबाद से पश्चिम एशिया तक'
साहित्य भंडार एवं मीरा फ़ाउंडेशन इलाहाबाद के तत्त्वावधान में
विगत तीस नवम्बर 2014 को इलाहाबाद संग्रहालय के सभागार में नासिरा शर्मा के लेखन पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में दिल्ली से पधारे हुए कवि एवं नाट्यकर्मी अशोक तिवारी ने एक सारगर्भित व्याख्यान दिया। मैंने अशोक जी से आग्रह किया कि वे अपना यह आलेख पहली बार के पाठकों के लिए हमें उपलब्ध कराएँ। आज प्रस्तुत है अशोक तिवारी का आलेख 'नासिरा शर्मा : इलाहाबाद से पश्चिम एशिया तक'
नासिरा शर्मा : इलाहाबाद से पश्चिमी
एशिया तक
अशोक तिवारी
नासिरा शर्मा के साहित्य के विपुल आयाम रहे हैं। कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज एवं लेखों
के ज़रिए नासिराजी ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। आपके समग्र साहित्य में
इलाहाबाद शहर का जो योगदान रहा है, उसे हम आसानी से देख सकते हैं। ये योगदान सिर्फ़
भाषा और संस्कृति के लिए ही नहीं बल्कि यहां की यादों ने ऐसे ऐसे किरदार दिए हैं, जो लगता है हमारे
अपने हैं। आपका कहना भी है इलाहाबाद की हवा, मिट्टी और पानी ने उन्हें रिच किया है।
कालखंड के हिसाब से अगर थोड़ा सा देखें तो नासिराजी का जन्म जिस साल हुआ था, हिंदुस्तान को
अंग्रेज़ों से आज़ादी मिल चुकी थी। और ये आज़ादी जिस क़ीमत पर मिली थी - ये हम सब
अच्छी तरह जानते हैं। बँटवारे जैसा घाव हमें हमेशा-हमेशा के लिए मिल चुका था।
धर्मनिरपेक्षीय मूल्यों पर हमला बरक़रार था। बँटवारे की टीस न तो भरने में आ रही थी
और न ही इस हेतु होने वाले प्रयास पर्याप्त थे।
आपके जन्म के ही साल में महात्मा गांधी को मारा जाना धर्मनिरपेक्षीय मूल्यों
पर एक बड़ा ख़तरा था। और ऐसे में नासिराजी का बचपन जिस दौर से गुज़रा - जिन
किस्से-कहानियों,
अफ़सानों,
वारदातों,
अफ़वाहों एवं हक़ीक़त के जिन मंज़रों को देखा - उन सबकी पड़ताल हम उनके साहित्य में
आसानी से कर सकते हैं।
बचपन में नासिराजी के घर का माहौल बहुत ही अदब और आदाब का रहा। आपके वालिद
प्रो. जामिन अली बेहद सादगी पसंद रहे। आपने हमेशा सादगी और ईमानदारी से रहना
सिखाया। आपने इलाहाबाद के पुराने लेखकों ओर कवियों पर शोध किया था। और चूंकि आप
गवर्नर के कल्चरल एडवाइज़र थे, आपकी सोच और विचारधारा खुलेपन की थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उर्दू विभाग
शुरू करने का पूरा श्रेय प्रो. जामिन अली को ही जाता है, जिसके बाद हिंदी
विभाग का खुलना भी संभव हो पाया। शहर की सांस्कृतिक फ़िजा बनाने में उनके द्वारा
आयोजित मुशायरे निःसंदेह ख़ास मुकाम रखते हैं। आज भी यूनिवर्सिटी में लगे बरगद के
घने पेड़ उनकी याद दिलाते हैं। नासिरा शर्मा को निःसंदेह उनकी विरासत मिली, साथ ही आपको परिवार
में एक खुलापन,
एक रचा-बसा हिंदुस्तान मिला। और ये परिवार कहीं और नहीं सांस्कृतिक नगरी
इलाहाबाद का हिस्सा था। इलाहाबाद का ज़िक्र आते ही नासिराजी के अंदर की जज़्बाती
दुनिया को हम महसूस कर सकते हैं। नासिराजी के ही शब्दों को देखें:
‘‘मैं अब दशहरा नहीं देख सकती हूं अपने घर का।
क्योंकि घर छिन गया जिसमें हमारा बहुत बड़ा छज्जा था, जिसमें ढेरों मेहमान
और मुहल्लेवाले, सब आते थे। तब हम लोग झांकियां देखते थे। वो झांकी
हिंदू-मुसलमान नहीं थीं, वह तो मेरे बचपन का बहुत बड़ा हिस्सा था। बदहवास होके हम लोग
उठते थे और देखते थे कि रामजी और लक्ष्मणजी अयोध्या औट आए हैं, और भागकर आंगन से
जाते। जब तक दरवाज़ा खुलता देर हो जाती और हम वहां जो एक मोखा था, उसमें से झांककर उन
झांकियों को देखते थे।’’
इलाहाबाद के मशहूर दशहरे का पूरा ज़िक्र वसुधा के 88 वें अंक में, जिसमें आपका
साक्षात्कार छपा है, विस्तार से देख सकते हैं। जिसमें आप इलाहाबाद की तमाम मीठी यादों के अलावा कुछ
खट्टे और तकलीफ़देह अनुभवों को भी महसूस कर सकते हैं।
घर का सांस्कृतिक माहौल और खुलापन नासिराजी के अंदर मूल्यों को सँजोकर गया।
ज़िंदगी को अपने ही ढर्रे से जीने की ज़िद भी थी। 1967 में आपने डा0. आर.सी शर्मा से शादी की। 1971 में जे.एन.यू
दिल्ली में जाने के बाद आपके अंदर तमाम तरह के बदलाव आए। पढ़ाई की। लेखन के प्रति
अपने को पूरी तरह तैयार किया।
समाज के अंदर बँटवारे की पीड़ा को नासिरा शर्मा के अंदर उनके उपन्यास ज़िंदा
मुहावरे में देखा जा सकता है। ज़िंदा
मुहावरे निज़ाम और इमाम उन दो भाइयों की दास्तान है जो इसी बँटवारे के चलते
अलग-अलग हो गए। निज़ाम पाकिस्तान में बस जाता है। और इमाम अपने भाई का इंतज़ार करता
रहता है। एक वतन के टूटने की कहानी, एक परिवार के बँटने की कहानी, दो भाइयों के अलग
होने की कहानी के साथ जो पीड़ा, संत्रास,
दर्द, घुटन उभरकर आती है -
वो इतनी सहज और वास्तविक है कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि ये किरदार हमारे
अपने हैं, हमारे आसपास के हैं
जो हमारे साथ लगातार बात कर रहे हैं। कई बार ये उपन्यास झूठा सच और तमस
के आगे के सच को संप्रेषित करता प्रतीत होता है।
रिश्तों के बनने-बिगड़ने की पूरी एक दास्तान है ये उपन्यास।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान में होने वाले विकास और बढ़ती तिजारत को बेबाकी के साथ इसमें
उकेरा गया है। रिश्ते ख़ून के ही नहीं होते। रिश्ते वो होते हैं जो दिल से बनते हैं, जो मानवीय सरोकारों
और भावनाओं से बनते हैं। निज़ाम और इमाम - दो सगे भाइयों के बीच ख़ून का रिश्ता होने
के बावजूद दूरियां बढ़ जाती हैं, वहीं इमाम और ब्रजलाल का रिश्ता देखें तो क्या था? ब्रजलाल और उसका
परिवार एक तरह से इमाम के घर में काम करता था। ब्रज बहू, उसका बेटा लच्छू उसी
परिवार के अंग के तौर पर थे। और इस रिश्ते को सार्थकता देने के लिए इमाम खेत का
बँटवारा करते वक़्त खेत, कुँआ और बाग़ लच्छू के नाम करता है। मां-बेटे, पिता-बेटे, भाई-भाई, भाई-बहिन आदि रिश्तों में बँटवारे की पीड़ा नासिरा
शर्मा के तमाम और उपन्यासों व कहानियों में भी देखने को मिलती है।
नासिरा शर्मा के अंदर का लेखक कौन सा है? और इस लेखक का विकास किस तरह से परवान चढ़ता है? कहानी कहते वक़्त नासिराजी के अंदर का एक आलोचक भी बराबर सजग रहता है जो न सिर्फ़ अपनी आलोचना करता चलता है, बल्कि आसपास के माहौल में उसकी प्रासंगिकता को भी निर्धारित करता है। मुझे लगता है नासिरा का लेखन प्रायः अपने समकालीन लेखकों से जुदा है और ख़ास है। क्यों? क्योंकि नासिरा शर्मा के लेखन का काफ़ी बड़ा हिस्सा विदेशी ज़मीन से उठाए गए पात्रों के साथ रहा है। विदेशी भी कौन से? पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक़, सीरिया, फ़िलिस्तीन वगै़रा वग़ैरा।
हम जानते हैं कि नासिरा शर्मा जैसी लेखिका के लिए भी भारतीय परिवेश से
किरदारों को उठाकर कहानी लिखना कहीं ज़्यादा आसान होता मगर उन्होंने सिर्फ़ वैसा
नहीं किया। मुझे लगता है सवाल प्रतिबद्धता का है। आप अपना रास्ता आसान पगडंडियों
से होते हुए बना सकते हैं जिसमें न कोई जोखिम हो और न ही कोई चुनौती और रोमांच।
ऐसे में आपके काम का क्या मक़सद? मक़सद का सवाल एक महत्त्वपूर्ण सवाल है। और मक़सद के लिए पैदा होती है
प्रतिबद्धता,
जो आपके काम में दिखती है। मुझे याद है पुनश्च के संपादक महेश द्विवेदी के साथ
हुए साक्षात्कार में नासिरा शर्मा कहती हैं कि ‘‘बिना मक़सद उस लेखन
से क्या फ़ायदा जो गिनती में हो..’’
नासिरा शर्मा उसी ज़मीन में पैदा हुई लेखिका हैं जहां का बहुसंख्य लेखक अपनी
महत्त्वाकांक्षा और लोकप्रियता हासिल करने के लिए शॉर्टकट अपनाने के लिए आतुर है
और उसके लिए वो तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है, तरह-तरह की धडे़बाजी करता है, गिराने-उठाने की
तरह-तरह की जुगलबंदी करता है। ऐसे में नासिरा शर्मा का लेखक इस सबसे हटकर उन लोगों
की बात करता है जो भयंकर त्रासदी के शिकार हैं। वो बार-बार उन लोगों के पास जाकर, उनके दुःख-दर्द की
दास्तान को क़लमबद्ध करती हैं। सियासती हल्क़ों में जाकर उन खूंखार बबर शेरों के
हल्क़ में हाथ डालकर वह सब उगलवाने की कोशिश करती हैं जो समय का सच है। यह सब भी वह
अपने शहर, प्रांत या देश में
नहीं दूसरे मुल्क में जाकर करती हैं। ऐसे मुल्क में जहां शाह जैसे ज़ालिमों को
हटाकर एक और ज़ुल्मी और अत्याचारी ने सत्ता हथिया ली हो। जहां क्रांति के नाम पर
मज़हबी घुट्टी पीने को मजबूर किया जा रहा हो। जहां की प्रगतिशीलता को पतनोन्मुख
मानकर मज़हब के नाम पर कट्टरता और रूढ़िवादिता को लागू करने की बेचैनी हो, जहां
विश्वविद्यालयों को बंदकर मस्जिदों को आबाद किए जाने की जुगत की जाती हो, जहां न्यायालयों के
सर्वोच्च पदों पर उन मौलवियों की नियुक्ति की जाती हो जो ज़ोर-ज़बरदस्ती के बल पर
वैज्ञानिक शिक्षा-दीक्षा से लोगों को अलग रख सकें, जो मज़हबी अफीम लोगों को चटा सकें, जो तर्क और विज्ञान
की बातें करने वालों को मौत के घाट उतार सकें। इमाम खुमैनी के चंद शब्द नासिरा
शर्मा की ज़ुबानीः
“इमाम खुमैनी का बार-बार यही कहना था कि हमें दक्षता
की आवश्यकता नहीं है। हम दक्ष डॉक्टर, इंजीनियर लेकर क्या करेंगे, जितना पैसा उनकी
शिक्षा पर खर्च करेंगे, उस पैसे को लगाकर एक विद्यार्थी व्यापार करेगा जिसमें
शिक्षा व दक्षता की आवश्यकता नहीं होती है और उससे कम पैसों में विद्यार्थीगण कृषि
से कमा लेंगे” (जहां फव्वारे लहू
रोते हैं,
पृ.90)
अब देखें कि नासिरा शर्मा की प्रतिबद्धता किसके प्रति है। समाज के कौन से
हिस्से के साथ आपकी ज़्यादा वाक़फ़ियत है। ये वाक़फ़ियत समाज के अन्य वर्गों के अलावा
उन सबके प्रति भी है जो कामकाजी है। जो इलाहाबाद के चूड़ी वाले, पल्ले वाले, दर्जी, मोची से लेकर दूसरे
मुल्कों के टैक्सी ड्राइवर एवं घरों में काम करने वाले या छोटी-मोटी स्टाल लगाने
वाले, सुबह से शाम तक
मज़दूरी करने वाले हैं। कामकाजी, वंचितों,
पीड़ितों एवं ज़रूरतमंदों के साथ-साथ आपकी रचनाओं में ज़्यादातर वो किरदार होते
हैं जो हमारे और आपके साथ अमूमन घूमते-फिरते हैं। जिन्हें पढ़ते हुए आपको लगता है,
अरे वाह! ये तो फलां है!!
नासिरा शर्मा द्वारा उठाए गए पात्रों के साथ कभी ये नहीं लगता कि ये विदेशी
ज़मीन से उठाए गए किरदार हैं। कारण क्या है? मुझे उसके दो प्रमुख कारण नज़र आते हैं। पहला कि जिस
समस्या को उठाकर चरित्रों को दिखाया गया है वो हर जगह एक सी है। जैसे .....कोई भी
मिट्टी हो, पानी हो - पितृसत्ता
दुनियाभर में हावी है। औरतों पर होने वाले ज़ुल्मों की दास्तान में स्थान, काल और परिस्थितियों
के चलते तीव्रता में थोड़ा फ़र्क़ हो सकता है, किंतु उसकी मौजूदगी होती है। और
नासिरा शर्मा ने ऐसे किरदारों को उठाकर ऐसे नायाब चरित्र दिए हैं जो भूले नहीं जा
सकते।
मैं हाल ही में जन नाट्य मंच के साथ दक्षिण अफ़्रीका गया। नाटक के शोज़ थे। नाटक
का नाम था - ये भी हिंसा है... नाटक की शुरूआत ही होती है मिथकों के ज़रिए।
मिथक भरे पड़े हैं हिंसाओं से - अहिल्या, द्रोपदी, सूर्पणखां, सीता, जमदग्नि की पत्नी....कितने ही किरदार हैं। एक
सेमीनार में नाटक के प्रदर्शन के बाद बातचीत की गई। इस सेमीनार में दस-बारह देशों
की महिलाएं हिस्सा ले रही थीं। पुर्तगाल के अलावा बाक़ी सभी देश अफ़्रीका महाद्वीप
से थे। एक बात जो साफ़तौर पर निकलकर आई कि औरतों पर होने वाली हिंसा में ज़्यादा
फ़र्क़ नहीं है। कहीं थोड़ा ज़्यादा, कहीं थोड़ा कम। कहीं हिंसा के रूप में थोड़ा फ़र्क़
है। हर देश के मिथकों में ऐसे किरदारों की कोई कमी नहीं है। इसे मैं इस संदर्भ में
कह रहा हूं कि नासिरा शर्मा की कहानियां पढ़ते वक़्त अगर हम भूमिकाएं, दो शब्द या
प्राक्कथन न पढें तो कई बार यह पता लगाना मुश्किल होता है कि इसका परिवेश
हिंदुस्तान से बाहर का है या हिंदुस्तान का। अब संगसार या संगसार कहानी
संग्रह में छपी अन्य कहानियों का परिवेश कहां का है इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, जबकि
इन कहानियों के सामाजिक परिवेश में छाई जकड़बंदी हिंदुस्तानी परिवेश से ज़्यादा
फ़र्क़ नहीं है। ख़ासकर आज के माहौल में जब खाप पंचायतें अपनी राजनीतिक छत्रछाया के
चलते फलफूल रही हैं।
1975-76 में लिखी पहली कहानी 'बुतखाना' से शुरू होने वाला नासिरा शर्मा का रचनात्मक सफ़र अपने 40 साल पूरे करने जा रहा है। भाषा के स्तर पर आपकी कहानियों की रवानगी और प्रवाहमयता न केवल बांधती है बल्कि अपनी-सी लगती है। उनमें व्यक्त दुख-दर्द पाठक को अपना लगता है। उनकी भाषा में कोई लाग-लपेट नहीं, जो कहना है वो कहना है। बिंबों के ऐसे विशाल महल भी नहीं जिनमें से निकलने के लिए आपको पसीने-पसीने होना पड़े।
2012 में अजनबी जज़ीरा
उपन्यास आया। इराक़ की भयंकर स्थितियों में पल्लवित होता एक अद्भुत मानवीय रिश्ता।
घृणा और प्रेम का सघन अंतर्द्वंद्व। बारूद, विध्वंस, और विनाश के बीच ज़िंदगी की रोशनी और ख़ुशबू को बचाने
के लिए जूझती एक औरत की कहानी जो पति की मौत के बाद युवा होती अपनी बेटियों के
वर्तमान और भविष्य को लेकर फ़िक्रमंद है। विरासत, धरोहर व यादों को बाज़ार में बेचने को मजबूर लोगों
की कहानी। इसकी शैली आपके अन्य कहानियों और उपन्यासों से फ़र्क़़ रही है। वाक्य एवं
संवाद छोटे एवं सारगर्भित। इसे पढ़ते हुए कई बार कृष्णा सोबती की याद आई। इस्मत
चुगताई की भी,
जो सारगर्भित वाक्यों के लिए जानी जाती रही हैं। मगर मुझे नासिराजी की शैली
में वही नज़र आया जो उन्होंने कहा। जबकि कृष्णाजी के वाक्यों के अर्थों के लिए कई
बार हमें चीज़ों को इमेजिन करना पड़ता है। यहां मेरे लिए राही मासूम रज़ा का स्मरण हो
आना स्वाभाविक है जो कहते थे कि ‘मेरे पात्र किस भाषा का इस्तेमाल करेंगे - ये मैं तय करूंगा। अगर मेरे पात्र
गाली देते हैं तो वो गाली मैं लिखूंगा न कि डॉट डॉट डॉट लिखूं और लोग उसमें अपनी
समझ के अनुसार गालियां भर लें। मैं अपने पात्रों के संवादों के साथ इस तरह की कोई
लिबर्टी पाठक को नहीं दे सकता।’ कुर्रुतुल ऐन हैदर की कहानियों का फलक यक़ीनन व्यापक और मल्टी लेयर्ड हैं। मगर
कई बार भाषा के स्तर पर वो कहानी एक ही पाठ में ग्राह्य नहीं हो पाती हैं। मुझे
लगता है - नासिरा के यहां ऐसा नहीं है। जो कहा गया है - वो सीधे-सीधे संप्रेषित
होता है।
नासिरा शर्मा के लेखन की एक ख़ूबी ये है कि उसे जितना पढ़ते हैं, वह उतना ही अपना
लगता है। संवाद के रूप में शब्द आपके मुँह से झरते प्रतीत होते हैं। उस दृश्य को
आप अपनी आँखों के सामने साकार होते देख रहे होते हैं। मरज़ीना एक मिथकीय पात्र है
जो अलीबाबा चालीस चोर कहानी में बुराई को सबक़ सिखाने वाले एक पात्र के रूप में
स्थापित होता है। इसमें जेंडर का सवाल भी ख़ूबसूरती के साथ अंतर्गुथित है। इराक़़ की
शुरू से ही एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत रही है जिसे सद्दाम हुसैन ने काफ़ी हद तक
आगे बढ़ाया। उसी विरासत को हड़पने की प्रतिस्पर्द्धा के चलते इमाम खुमैनी अपनी
युद्धप्रियता और विध्वंसक अतिवादिता को प्रदर्शित करते रहे हैं। जहां फव्वारे
लहू रोते हैं के एक अध्याय ‘बारूद की छांव में पनपती कला और मरज़ीना का देश’ में नासिरा मरज़ीना के साथ साक्षात्कार करती हैं।
ऐसे बात करती हैं कि वो कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक पात्र की तरह न होकर आज की
स्थितियों पर सही,
सटीक एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण रखने वाला एक साहित्यकार हो, समाजसेवी हो, चिंतक हो या बग़दाद
की गलियों और दहानों को याद करता एक आम व्यक्ति हो। मरज़ीना के साथ हुए नासिरा के
संवाद बेहद सारगर्भित हैं जो ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ-साथ मौजूदा दौर को भी
प्रकटतौर सामने रखते हैं।
एक मिथकीय पात्र के साथ बात करना, सवाल-जवाब के ज़रिए बहुत से तात्कालिक एवं समसामयिक
मुद्दों पर टिप्पणी करना अपने आपमें अद्भुत है। यह साक्षात्कार निःसंदेह मरज़ीना के
ही नहीं नासिरा के अंदर बैठी मरज़ीना के रुख़ और राजनीति को प्रकटतौर पर सामने लाता
है। मेरा ख़याल है कि इसके सभी संवाद दरअसल नासिरा के अंदर चल रही मंथन प्रक्रिया
को तो दर्शाते ही हैं बल्कि मरज़ीना के काम के साथ अपने को जोड़े रखने की प्यास को
भी शिद्दत के साथ दिखाते हैं -
“तुम जो इल्म की प्यास लिए घूम रही हो, इसका कहीं अंत है?”
“इल्म की प्यास जिस दिन बुझ गई, समझो मेरा चिराग़ भी
ख़ामोश हो जाएगा, इस प्यास के सहारे ही तो जी रही हूं, आज तुम ये सवाल कैसे
कर बैठीं?”
“कारण है, जानती हो उन चालीस चोरों को जिन्हें मैंने गर्म तेल
से मारा था, आज पूरे संसार में बिखर गए हैं....उन्हें ढूढ़ने के चक्कर
में कहां-कहां ठोकर खाओगी तुम?”
“सारे संसार की मरज़ीना पहाड़, मैदान, हर कोने, हर गोषे की, वह तुम्हारे चालीस
चोर अब इंसानों का घर नहीं, उनकी ‘ज़िंदगी’ लूटने लगे हैं। उन्हें ढूंढ़ना और पकड़ना बहुत ज़रूरी है।”
“तुम भी कमाल की हो, अकेली निकल पड़ीं
जोख़िम भरे सफ़र पर बिना हथियार के।”
(जहां फव्वारे लहू
रोते हैं,
पृ.221)
यह सच है कि जिस दिन इल्म की प्यास बुझी, उस दिन न तो एक लेखक लेखक रह जाएगा और न हीं एक
पत्रकार पत्रकार। इल्म की प्यास किसी भी प्रगतिशील व्यक्ति के लिए सबसे ज़रूरी चीज़
है। यह साहित्य सृजन की मौलिकता को न केवल बरक़रार रखती है बल्कि भूत और भविष्य के
साथ अपने सरोकारों को जोड़ककर देखने की ज़रूरत पर भी ज़ोर देती है। मरज़ीना को रूपक के
तौर पर इस्तेमाल करते हुए नासिरा शर्मा यहां अपनी बात ज़्यादा ख़ूबसूरत और प्रभावी
ढंग से कह पाई हैं।
मुझे लगता है नासिरा शर्मा के लेखन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू उनका एक्टिविज़्म है। आपकी कहानियों के प्लॉट और किरदार कहां से आते हैं? ये समझना भी ज़रूरी है। नासिरा बंद कमरे में बैठकर कहानी बुनते चले जाने में क़तई यक़ीन नहीं करतीं, ऐसा मेरा मानना है। जबकि लोगों के बीच में जाकर, उनकी समस्याओं से रूबरू होते हुए, उनकी संवेदनाओं को महसूस करते हुए कहानियों के प्लॉट निर्धारित करती हैं। यही एक्टिविज़्म है जो नासिराजी को चैन से नहीं बैठने देता और रचनात्मकता के नए-नए पहलुओं से अपने को समृद्ध करता हुआ आगे बढ़ता है।
नासिरा शर्मा के लेखन में पत्रकारिता का समावेश अलग से नहीं है बल्कि अन्य
लेखन के साथ ही है। ईरान रिवोल्यूशन के साथ आपकी पत्रकारिता शुरू होती है। आप ईरान, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, फ़िलिस्तीन और
पाकिस्तान जैसे तमाम देशों में जाकर लोगों से तजुर्बे इकट्ठे करती हैं। इन देशों
में एक पत्रकार के तौर पर जाना महज़ पत्रकारिताभर नहीं था, बल्कि समाज के उस हिस्से
के बारे में लेखन करने का हिस्सा था जो दुनिया के नक्शे पर निकलकर सामने नहीं आ
रहे थे। ये लेखन निःसंदेह इस प्रतिबद्धता से परिपूर्ण था जिसका ज़िक्र नासिरा कई
बार अपनी बातचीत में करती हैं: ‘‘जो दिल ग़म से आशना न हो, वो दूसरों का दर्द
क्या जाने?’’
ग़रीबी, जहालत, बीमारी, बेकारी, ज़ुल्म, राष्ट्रीय अंकुश आदि
झेल रहे संस्कृति एवं तहजीब के देश अफ़ग़ानिस्तान पर नासिरा शर्मा की दो पुस्तकें 'अफ़ग़ानिस्तान:
बुज़कशी का मैदान' नाम से आईं। बुज़कशी का ये मैदान अंतर्राष्ट्रीय फलक पर जहां
दो महाशक्तियों के बीच ठन रहे ‘शीत युद्ध’
का शिकार हो गया, वहीं कठमुल्लापन और संकीर्णता के दायरे में आतंक का गढ़ बनता चला गया जो नफ़रत
और युद्ध की विभीषिकाओं का शिकार हुआ। अफ़ग़ानिस्तान पर ये पुस्तकें हिंदी में दरअसल
अपनी तरह की पहली पुस्तकें हैं जो पूरी तरह शोध एवं मौलिक सामग्री पर आधारित हैं।
देखा जाय तो बाहर के मुल्कों पर लिखना निर्मल वर्मा और ऊषा प्रियंवदा ने भी
किया है लेकिन बाहर के मुल्कों पर वो जब भी लिखते हैं तो अपने तक सीमित रखते हैं, वो अपनी सीमा को तोड़
नहीं पाते हैं। उस ज़मीन से उनका अपना आदमी, उनका देशवासी क्या सोचता है, क्या कर रहा है -
उसको वो दिखाते हैं जबकि नासिरा शर्मा वहां की ज़मीन पर उसी ज़मीन के किरदारों को
लेती हैं, उनकी पीड़ा को उठाते
हुए अफ़साना लिखती हैं। आपके लिए राइटिंग में सरहद की बाउंड्री का कोई मतलब नहीं
है। नासिरा के लेखन से यह बात पुख़्ता तौर से निकलकर आती है कि इंसान की पीड़ा सरहद
के किसी भी ओर भी क्यों न हो, एक सी है।
नासिरा शर्मा का पहला उपन्यास 'सात नदियां: एक समुंदर' ईरान की क्रांति
की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, जो दुर्लभ कृति है। हिंदी साहित्य में ईरान क्रांति पर कोई अन्य उपन्यास नहीं
आया है। तैयबा का किरदार इस कृति का ही नहीं, हिंदी साहित्य का एक जीवंत चरित्र है। श्रीलाल
शुक्ल के शब्दों में देखें: 'सात नदियां: एक समुंदर' उन भयावह राजनीतिक उपन्यासों की कोटि का है जो आपको
साल्ज़नेत्सीन,
जॉर्ज आर्वेल,
आर्थर कोएस्टलर जैसे लेखकों की याद दिलाते हैं। (नासिरा शर्मा: शब्दों और
संवेदना की मनोभमि, पृ. 22-23)
सबीना के चालीस चोर कहानी संग्रह तब
प्रकाशित हुआ जब हिंदुस्तान अपनी आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मना रहा था। इन कहानियों
के बारे में नासिरा शर्मा ‘दो शब्द’
में कहती हैं कि ये कहानियां उन इंसानों की हैं जो बचपन से मेरे साथ हैं, जिन्होंने मुझे कहीं
न कहीं प्रभावित किया है। अपनी ज़िंदगी से मेरा रिश्ता जोड़ा और मुझे ताज़ा
अनुभूतियों से भरी दुनिया का अलग संसार दिया। इसी संग्रह को पढ़ने के बाद भीष्म
साहनी ने नासिरा शर्मा को ख़त लिखते हुए कहा था कि मैं नासिरा शर्मा के सामाजिक
सरोकारों को देखकर दंग हूं।
जहां फ़व्वारे लहू रोते हैं को पढ़ते वक़्त नोबल
शांति पुरस्कार विजेता शिरीन एबादी की एक किताब आज का ईरान याद आती है।
शिरीन एबादी ने ईरान की तत्कालीन स्थितियों का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। ईरान
की सामाजिक स्थितियों के साथ-साथ कट्टरपंथियों एवं कठमुल्लाओं के साथ उनकी सीधी
मुठभेड़ और उनके साथ हुआ व्यापक अनुभव उनके अपने लेखन का हिस्सा रहे हैं। उनके लेखन
में मौजूद स्वर बेहद संयत और सधे हुए हैं। ठीक वैसे ही जैसे नासिरा शर्मा के
रिपोर्ताजों में देखने को मिलते हैं। मगर एक बात जो स्पष्ट तौर पर सामने आती है, और वह है कि नासिरा
ईरान में हुए अपने अनुभव को जिस तरीके़ से व्यक्त करती हैं, उसमें एक प्रबलता है
जो शिरीन एबादी के लेखन में उतनी नज़र नहीं आती। इसका कारण ये भी हो सकता है कि
नासिरा भारतीय लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षीय ढांचे को ध्यान में रखते हुए ईरान के
तात्कालिक हालातों का मूल्यांकन करती हैं, वहीं शिरीन एबादी ईरान की सामाजिक संरचना का ही एक
हिस्सा रही हैं जो उन्होंने पिछली शताब्दी के पांचवें-छठवें दशक से ही देखा और
भुगता है। कुल मिला कर मुझे 'जहां फव्वारे लहू रोते हैं' और 'आज का ईरान'
किताबें एक-दूसरे की पूरक नज़र आती हैं जो ईरान की तात्कालिक एवं फौरी स्थितियों को
समझने के लिए बेहद ज़रूरी हैं।
मैं जिस प्रबलता की बात कर रहा हूं, वो कई बार स्थितियों से जूझने के लिए बेहद ज़रूरी
होती हैं। और यह संघर्ष एक बड़ी लड़ाई के लिए माहौल तैयार करता है। अगर हम ध्यान से
देखें तो वर्तमान भारत के परिदृष्य में जिस तरह का कठमुल्लापन और रूढ़िवादिता हावी
हो रही है, उसका इशारा नासिरा
अपने लेखों में कर जाती हैं। पीड़ितों के पक्ष में खड़े हो कर वो अपनी बात कहती हैं।
ये पीड़ित ईरान के हों, इराक़़ के हों,
अफ़ग़ानिस्तान या पाकिस्तान के या भारत अथवा किसी और देश के, युद्ध के ख़िलाफ़ लड़ाई
और संघर्ष को तेज़ करने की बात नासिरा अपने लेखन में करती हैं। ये लेखन निःसंदेह
तब-तब मील का पत्थर साबित होगा जब-जब मध्य-पूर्व के संघर्ष ओर संबंधों की चर्चा
होगी।
देश-विदेश के तमाम अनुभवों को कहानियों में पिरोती हुई नासिराजी ने इंसानी
छटपटाहट को तमाम कहानियों एवं उपन्यासों में उकेरा है। इब्ने मरियम कहानी
संग्रह उनके व्यापक रचनात्मक कैनवास को दिखाता है। अकेले इसी संग्रह में कई देशों
एवं स्थानों की समस्याओं के ज़रिए इंसानी जिजीविषा और मानवीय संवेदना एवं छटपटाहट
को बखूबी दिखाया गया है। मसलन इसी संग्रह की कहानियों की पृष्ठभूमि देखें: आमोख्ता
पंजाब, जड़ें युगांडा, जैतून के साये फ़िलिस्तीन, काला सूरज इथोपिया, काग़ज़ी बादाम अफ़ग़ानिस्तान, तीसरा मोर्चा कश्मीर, मोमजामा सीरिया, मिस्टर ब्राउनी स्कॉटलेंड, कशीदाकारी बांग्लादेश, जुलजुता कनाडा, पुल-ए-सरात इराक़, जहांनुमा टर्की, इब्ने मरियम भोपाल।
भारतीय हिंदुस्तानी समाज के ऊपर नासिरा शर्मा की चिंता शुरू से ही रही है।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके ढेरों लेख कालांतर में छपे हैं। लेखों की एक
विचारणीय पुस्तक राष्ट्र और मुसलमान हिंदी पाठकों के सामने आई। इस पुस्तक
में न सिर्फ़ भारतीय समाज के अभिन्न अंग मुसलमानों की तस्वीर को साफ़गोई के साथ
सामने रखा गया है बल्कि दुनियाभर में फैली तमाम भ्रांतियों और अफ़वाहों पर बेबाकी
के साथ अपनी बात ज़ोरदार तरीक़े से रखी है।
इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर लिखा 'अक्षयवट' एक सशक्त उपन्यास अगर हमने नहीं
पढ़ा है तो यक़ीन करिए हमने बहुत कुछ मिस किया है। इस उपन्यास में जीवन की गहन जकड़न
एवं समय की विसंगतियों को पहचानने और उनसे मुठभेड़ करने की पुरज़ार कोशिश नज़र आती
है।
2008 में आया आपका
उपन्यास 'ज़ीरो रोड'। यह उपन्यास इलाहाबाद शहर के एक मुहल्ले से शुरू होकर
दुबई जैसे अत्याधुनिक शहर की ओर हमें ले जाता है जहां सौ से ज़्यादा देशों के लोग
रोज़ी-रोटी के लिए जाते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग ऐसे हैं जो अपने हालात से उखड़े
हुए हैं और अपनी ज़िंदगी को पटरी पर लाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं।
अभी हाल में आया आपका उपन्यास 'काग़ज़ की नाव' बिहार में रहने वाले
उन परिवारों की कहानी है जिनके घर को कोई न कोई सदस्य खाड़ी मुल्कों में नौकरी करने
गया है। भाषा के स्तर पर इस उपन्यास की ख़ूबसूरती ये है कि भोजपुरी भाषा में
पात्रों की स्वाभाविकता निखरकर सामने आई है, जो मन को लुभाती है
पारिजात उपन्यास आपका एक बड़ा उपन्यास है। काफ़ी चीज़ें को
समेटे हुए। रोहन के अन्दर खोज करने की छटपटाहट और अपनी जड़ों को तलाशने की भूख निःसंदेह
कई बार लेखक की भूख लगती है। निश्चय ही इसका मूल्यांकन अभी नहीं हो पाया है। कई
बार किसी भी रचना के मूल्यांकन में वक़्त लगता है। ख़ासकर उस रचना के बारे में जो
बहुआयामी हो। और इसका कारण मुझे लगता है उस रचना के परिवेश एवं अंतर्गुथित
कहानियों एवं पात्रों का अपने अंदर रचना-पचना। उन किरदारों का आत्मसात होना। यक़ीनन
यह उपन्यास अपने आपमें एक शोधपरक उपन्यास है।
नासिरा शर्मा ने यक़ीनन कई यादगार चरित्र दिए हैं जो समाज को न केवल एक दिशा
दिखाने के लिए सामने आते हैं बल्कि विषम से विषम परिस्थितियों का मुक़ाबला करते हुए
समाज में एक मिसाल पेश करते हैं। 'सात नदियां: एक समुंदर' की तैयबा, शाल्मली उपन्यास की शाल्मली, ठीकरे की मंगनी की महरुख़, 'शामी काग़ज़' की पाशा, 'अक्षयवट' का ज़हीर, 'ज़ीरो रोड' का सिद्धार्थ, पारिजात का रोहन, अजनबी जज़ीरा की समीरा, काग़ज़ की नाव का अमज़द जैसे
ढेरों-ढेरों किरदार नासिराजी के साहित्य ने दिए हैं। सभी का ज़िक्र करना यहां संभव
भी नहीं है। ये किरदार सालों साल हमारे ज़हन में इस क़दर घर कर जाते हैं कि मन करता
है दोबारा फिर से पढू़ं। एक बार श्रीपतजी ने शामी काग़ज़ की कहानियों पर
टिप्पणी करते हुए कहा था कि मुझे जब भी मौक़ा मिलता है शामी काग़ज़ की कहानियां
उठाके पढ़ता हूं।
नासिरा शर्मा के लेखकीय जीवन में कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ये हम सब
जानते हैं। उन्होंने कितने जोखिम उठाए हैं, ईरान-इराक़ की बमबारी के बीच अपनी जान जोखिम में
डालकर पत्रकारिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को न जाने कितनी बार दुहराया है।
लोगों से धमकियां सुनी हैं। आरोप-प्रत्यारोप हुए, मगर नासिरा शर्मा का लेखन न थमा, न रुका, और न ही किसी तरह
बाधित हुआ बल्कि इन प्रतिरोधों से उनके लेखन को ताक़त मिली, बल मिला, नई दिशा मिली है-ऐसा
मुझे लगता है। हमें फ़ख़्र है कि धर्म निरपेक्ष मूल्यों को समर्पित नासिरा शर्मा की
क़लम लगातार उन शक्तियों पर चोट कर रही है जो धर्मनिरपेक्षता के लिए ख़तरा हैं,
लोकतंत्र के लिए खतरा हैं। ये धर्मनिरपेक्षता सिर्फ़ कहने या दिखावेभर के लिए नहीं
है, बल्कि उन्होंने अपनी
ज़िंदगी में ढालने के लिए अपनाई है। और यक़ीनन ऐसी धर्मनिरपेक्षता हमारे देश और वतन
के लिए आज न केवल ज़रूरी है बल्कि ये हमारी ताक़त भी है। और यही ताक़त बेहतर दुनिया
के सपनों को साकार करने के लिए ज़रूरी है।
अंत में मैं साहित्य भंडार व मीरा फाउंडेशन के साथ साथ सतीश अग्रवाल का आभार
प्रकट करना चाहूँगा जिन्होंने मुझे नासिरा शर्मा की उस ज़मीन, उस शहर में बोलने का
मौक़ा मुहैया कराया जिसने उन्हें इतनी ताक़त दी कि ज़माने से जूझ सकें। उनकी ज़िंदादिली,
उनकी प्रतिबद्धता को मेरा सलाम! शुक्रिया।
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सम्पर्क-
अशोक तिवारी
17 डी, डी.डी.ए. फ़्लैट्स
मानसरोवर पार्क, शाहदरा
दिल्ली-110032
फ़ोनः 09312061821
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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