प्रमोद धिताल की कविताएँ
आज हमारी भौतिक जरूरतें इस कदर बढ़ गयी हैं कि हम मानवता की आधारभूत संकल्पनाएँ तक भुलाते जा रहे हैं। ऐसे समय में नेपाल के कवि प्रमोद धिताल एक चेतस कवि हैं जो अपनी कविताओं में इसकी खुली अभिव्यक्ति करते हैं। इसी को व्यक्त करते हुए प्रमोद कहते हैं - 'अब तो दोस्ती का अर्थ यहाँ धोखा है/ रिश्ते का अर्थ है स्वार्थ/ इस समय मै नही बनूँगा पागल/ बिल्कुल एक सचेत आदमी का जिऊँगा जीवन।' पहली बार पर प्रस्तुत है प्रमोद की ऐसी ही भावभूमि वाली कुछ नयी कविताएँ।
प्रमोद
धिताल की कविताएँ
1. एक सचेत आदमी की आत्मस्वीकृति
जब तक था पागल मैं
कुछ बची थी संवेदना
कुछ थी मासूमियत
बेचैन होता था कुछ सवालों पर
बह जाते थे आँसू
कुछ दुर्घटनाओं पर
समाज के कुछ मुद्दे
अपने मुद्दे बन जाते थे
आम लोगों के दुःख का हिस्सा
अपना हिस्सा बन जाता था
जब तक बचा हुआ था कुछ
पागलपन
तब तक कुछ चीजें भी
बचे हुई थीं मेरे अन्दर।
अब सचेत हो गया हूँ मैं
रिश्ते के नाम पर धोखा
दोस्ती के नाम पर इस्तेमाल
अगर ये दो बातें नहीं हैं आपके पास
तो आप नही बन सकते सचेत
भाग दौड की इस दुनिया में
अब न बची हैं संवेदनाएँ
न बची है किसी तरह की बैचैनी
शायद होता है बेचैनियों का भी रंग
सोचता तो हूँ अभी भी
लेकिन पैसे की परिधि से
बाहर नहीं
सक्रिय तो हूँ आज भी
लेकिन स्वार्थ के दायरे से बाहर नहीं
चल भी रहा हुँ
उछल–कूद भी तेज है
लेकिन पैसा ही चलाता है प्रतिपल मुझे।
इस भाग-दौड के समय में
जब सोच शब्द में ढलते ही अमीबा जैसे
कुछ दूसरे आकार में चले जाते हैं
जब शब्द जुबान से बाहर निकलते ही
नए आकार में ढल जाते हैं
जैसे कि वाष्प बदलता है ओस मे
अगर इस कला में निपुण नहीं
तो आप बन नहीं सकते आधुनिक सचेत मानव।
अब तो दोस्ती का अर्थ यहाँ धोखा है
रिश्ते का अर्थ है स्वार्थ
इस समय मै नही बनूँगा पागल
बिल्कुल एक सचेत आदमी का जिऊँगा जीवन।
स्वार्थ के होड की
इस चकाचौंध में
जब से मैं बना
सचेत
मेरे पास वह वक्त भी नहीं किसी से पूछने का
भाई, क्या
चल रहा है तुम्हारे जीवन में
बहन क्यों बहती तुम्हारी आँखों से आँसू
पैसे के साम्राज्य की इस महफिल में
न खबर लेने का भाव बचा है मुझमे किसी का
न मन खोल कर रोने की फुरसत हैं पल भर को भी
इसलिए भाई
बहुत सचेत हूँ मैं
नही फसूँगा समाज और लोकसेवा की दुनियादारी में
मुझे डिस्टर्ब मत करना
कुछ अलग तरह का आदमी बन गया हूँ मैं
जब अनाड़ी से एक सचेत आदमी में
परिणित हुआ मैं।
2. माँ और गृहस्थी
माँ और गृहस्थी का रिश्ता
बहुत पुराना है
माँ गृहस्थी चलाती है या
गृहस्थी माँ को चलाती है
इसका जवाब नहीं माँ
के पास
हरेक सुबह
पूरब क्षितिज में लाल
सूर्य उगने से पूर्व
माँ आग सुलगाती है या
आग माँ को सुलगाती है
इसका जवाब भी नहीं माँ के पास।
माँ चलाती रहती है गृहस्थी यूँ ही
साथ साथ पिघलती जाती है
जैसे पिघलती हैं ग्रीष्म काल में
हिम चोटियाँ
हिम चोटी आकारविहीन हो कर अस्तित्व खो कर
बह चलती है खेत की मिट्टी की तरफ
हरेक सुबह से चलता जीवन
चलता रहता है कुँए से रसोई घर तक
बाहर भीतर
भीतर बाहर
कोसी की गति जैसी बहती रहती है माँ
अपने आप को सुखा कर उर्वर बनाती
है गृहस्थी
फिर भी उसके जीवन का खेत बन्जर
क्यो है
इसका जवाब नहीं माँ के पास।
कर्तव्य के तप्त मरुभूमि में
चलता हुआ मशीन जैसा जीवन
सबेरे सूर्य उगने से पहले उगता है हर
दिन क्षितिज में
और सूर्य
अस्त होने के बाद अस्त होता है
बेहिसाब जन्मे फिर सूखते पसीने के सागर में
माँ ने कितना पसीना बहाया
या माँ को पसीने ने बहाया
उनका अस्तित्वविहीन जीवन देख कर
सोच मग्न हूँ मैं इस
समय
माँ ने जन्म से ही कितना कर्तव्य निभाया
या माँ को कर्तव्य ने निभाया
इसका हिसाब नही है माँ के पास।
3. उम्मीद और जीवन
जीवन यात्रा में
चलते–चलते रास्ते में
खाईं असंख्य चोटें
नहीं मिला अभी तक कोई गन्तव्य
थकान से भरा है दिल
चाँद का शीतल प्रकाश
और शरद का स्निग्ध आकाश
बासन्ती फूलों की महक
और भोर के सूर्य की चहक
देखा नहीं अभी तक मैंने।
ऐ मेरे भाई
इन सब के बीच भी
है मेरा एक दोस्त
उम्मीद
जो चलते रहने के लिए कहता है मुझ को
स्वप्न सँजोये रहने के लिए कहता है मुझ को।
4. फैसला
अंधेरी गुफा से
बरामद करनी है लुटी हुई भोर
बचाना है सपनों को
मुर्दों के जुलूस से
आदत में ढालना है मुक्ति के हठ को
बुद्धि विलास के कैद से
बेनकाब करना है मुखौटों को
आदमी के भेष से
विजय को सुनिश्चित करने वाले
पराजयों से हाथ से हाथ मिलाए चलना है
फिर से खुद के साथ युद्ध की
घोषणा के साथ
खोया हुआ साहस जुटाना है।
प्रमोद धिताल प्रगतिशील लेखक संघ नेपाल से जुड़े हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी फुटकर
कविताएँ आलेख तथा समीक्षाएँ प्रकाशित होती रही हैं।
सम्पर्क –
मोबाईल- 9847826417
ई-मेल-
uttam bhavabhivyakti
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