शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएँ
जन्म- 01 जुलाई 1986 (उत्तर प्रदेश के जनपद सीतापुर में
गाँव साहब नगर)।
शिक्षा- प्राथमिक शिक्षा गाँव के सरकारी स्कूल से तथा उच्च
शिक्षा लखनऊ, बनारस, हैदराबाद, और
वर्धा विश्वविद्यालयों से।
प्रकाशन- ‘बया’, ‘वागर्थ’, ‘संवेद’, ‘जनपथ’और ‘परिचय’ आदि पत्रिकाओं में कुछ कवितायें प्रकाशित।
कविता और कला का एक अन्तर्सम्बन्ध होता है। इस सम्बन्ध के बावजूद इधर की कविता ने अपने को अधिकाधिक स्वायत्त किया है। कला से अपने को यथासंभव मुक्त कर यथार्थवाद की जमीन पर उतर कर कविता लोगों के अधिकाधिक नजदीक आई है। यह सुखद है कि हमारे युवा कवि इस निकटता को और संघनित करने के प्रयास में शिद्दत से जुटे हुए हैं। युवतर कवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएँ इस मायने में आश्वस्तिकारी हैं कि वे साहस के साथ यह कहने का दम-ख़म रखते हैं कि 'कला आना चाहती है/ तो आये/ मेरी कविता में/ चिर परिचित सी/ मैं कला को न्योता नहीं दूंगा।' ऐसी ही तेवर वाली कविताओं के साथ आज आपके सामने हैं कवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल।
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएँ
लखनऊ
जब भी मिलता है अकेले में
लखनऊ
जी भर कर गरियाता हूँ
एक बार सर तक नहीं उठाता
पान-मसाला और ज़र्दे को
गुटखे मे तब्दील कर कानून का मज़ाक उड़ाता
एक अदना सा आदमी
गोबराए मुह से थूक देता है
शहर के वक्ष पर
और लखनऊ उफ़ तक तक नहीं करता
कि अचानक याद आ जाता है
मिर्ज़ा हादी रुस्वा और
उसकी उसकी उमराव जान ‘अदा’
चौदहवीं के चाँद सी सूरत वाले लखनऊ
तुझे कौन सी गाली दूँ
उमराव जान की सिसकती हुई आवाज
आज भी मेरा कलेजा सालती है
सड़क के मुहाने पर खड़ी मुस्कुराती हुई कोठियों को देख कर
दर्द और हरा हो जाता है
कि दरकने लगती है आत्मा
कि सालने लगता है कलेजा
दीवार से कान लगा कर सुनता हूँ जब
यह तहज़ीब का शहर है
यहाँ हत्याएं तहज़ीब से होती हैं
तहज़ीब से मारी जाती हैं यहाँ औरतें
तहज़ीब से मारे जाते हैं यहाँ मासूम भूखे बच्चे
दिल्ली की रातें
दिल्ली की रातें
रात नहीं
दिन भी नहीं हो सकती दिल्ली की रातें
भोर जैसा इन रातों में कुछ भी नहीं
इन रातों का अंधेरा
यमुना पार खड़ा है
बरसों से एक नाव के इंतजार में
और नदी काली होती जाती है
ऐसी ही एक रात के दायरे में
कोठारी हॉस्टल के गेट पर
इंतजार में खड़ा है दिल्ली का पहला दोस्त
कुँवर नारायण की कविता ‘प्रेम रोग’ के साथ
यह जानते हुये कि यह कविता का पुराना नाम है
दिल्ली कि रातें
कविता का पुराना नाम
शहर का पहला दोस्त
जैसे पीछे बहुत कुछ भूल आया हूँ
इस शहर मे भूल जाने के लिए
दिल्ली की दो रातों के बीच।
बयान
कला आना चाहती है
तो आये
मेरी कविता में
चिर परिचित सी
मैं कला को
न्योता नहीं दूंगा।
नए शहर में
उस मौसम की याद
भूलने के बाद
बची है जो खाली जगह
सोचता हूँ
हैदराबाद के पहाड़ का
एक फटा हुआ
काला पत्थर
जो पहले लाल था
रख लूँ उसी जगह
और डुबो दूँ
लाल, काले, और सफ़ेद
पानी में
ताकि यह कोई न कह सके
तुम देखना
तुम कहते हो तो
पहाड़ पर सर जरूर पटकूँगा
मगर मेरी शर्त के मुताबिक
सर नहीं पहाड़ ही फटेगा
हर बार
और तुम देखना
जिस दिन
फटेगा सर
उसी दिन इस भूमंडल से
पहाड़ गायब हो जाएंगे।
बसंत
(आदरणीय कवि केदारनाथ सिंह को समर्पित)
७० के दशक में रोपे गए थे
जो पौधे
एक बौखलाहट में
केदार में
और तो और निगरानी मे भी ....
दूज के चाँद की तरह उनकी पत्तियाँ
ओस की एक-एक बूंद में डूबी हैं
नन्ही-नन्ही और पतली-पतली
और छोटी-छोटी
जैसे दिवाली में
एक शाम
होली के रंग में
एक सवेरा
माटी की देरी मे जलती
तेल में भीगी एक बाती
जैसे एक नहीं
हजारों दीपशिखाएं
तुम्हारी आँखों में
पलकों की एक धार
मुस्कान की एक खुशबू
और खुशबू का एक रंग
और रंग में भी
जैसे एक नहीं
सात-सात गहरे हल्के रंग
और और हर रंग में रंगा
एक रंगरेज कवि
उन्हीं पौधों पर ४० साल बाद
कुछ
करना
कहते हैं मेरे हमउम्र सलाहकार
कि जिनकी सलाह से
चलती है सारी दुनिया
कि जिनके मशविरे पर
कुदरत लाज-शरम के मारे मर रही है
घुट-घुट कर
सांस तक नहीं ले पाती बेचारी
ये अवैतनिक सलाहकार
गद्दरमुस्की के सिपहसालार
इनके दिमाग में कुछ नहीं होता
होता तो बस
गोलोबाकार उदर में है
जिसके बाहर हमें तलाशनी है
अपने देश की जमीन
जमीन नहीं अपने देश का नक्शा!
इनकी सलाह है और
सलाह का अंतिम निष्कर्ष
जब आदमी ‘कुछ’ नहीं कर पता
तो दो काम करता है
एक तो बच्चा पैदा करता है
और दूसरे कविता लिखता है
एक आलोचक की मानूँ
तो ‘कुछ’ करना बहुत कुछ
जानवर होना है।
कौवा
और आचार्य
नीम के एक पुराने दरख्त
की डाल पर
बैठा है एक कौवे का जोड़ा
कर रहा है हास परिहास और लास्य भी
हालांकि इनकी जींस में हैं तांडव के गुण
गाँव कि बूढ़ी आँखों से देखूँ
तो कह सकता हूँ कि ये नर-मादा हैं
यानी दुलहिन-दुलहा
विश्वविद्यालय के धुरंधर आचार्य
इन्हे देख कर खड़ा करते हैं यक्ष प्रश्न
दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का
और सेमिनार मे करते हैं डिबेट
स्वानुभूति और सहानुभूति के बारे में
बहरहाल मैं तो
गंवार हूँ!
सम्पर्क-
कमरा नं. ३२, गोरख पाण्डेय छात्रावास,
म.गाँ.अं.हिं.वि.वि. वर्धा (महाराष्ट्र) 442005
मोबाईल- 07057467780
ई-मेल- shailendrashuklahcu@gmail.com
achchi kavitayen hain! badhaee aapko aur santosh jee ko bhee!!
जवाब देंहटाएंयुवा कविता को ऐसे ही रास्ते तलाशने होंगे। बयान, कौवा...,, लखनऊ, तुम देखना कविता विशेष रूप से पसंद आई।
जवाब देंहटाएंachchee lagi kavitayen.
जवाब देंहटाएंवाह भैया वाह ! अब आपकी कविताओं को साहित्य के संसार में अपना आशियाना बनाने से कोई नहीं रोक सकता है। आपकी कवितायें आपकी अनुभूतियों से होकर गुजरी प्रतीत होती हैं जो पाठकों के मस्तिष्क में विचारों की गंगा प्रवाहित करने में सक्षम है। आशा करता हूँ कि भविष्य में भी आपकी अनुभूतियों से रूबरु होने का अवसर मिलता रहेगा । इन्हीं आशाओं के साथ बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंअच्छी कवितायें हैं। बधाई
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ अच्छी लगी . कवि महोदय से हैदराबाद प्रवास के दौरान मिलने का भी सुअवसर प्राप्त हुआ था , इन्हें खूब सारी शुभकामनाएं एवं बधाई .
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन
शानदार कवितायें....शैलेन्द्र शुक्ल की कवितायें........'लखनऊ'कविता उस शहर की समृद्ध विरासत के प्रति एक कसक ,एक पीड़ा से भर देती है.कवि अपना ध्यान वहाँ के यथार्थ पर केन्द्रित करता है.यह प्रशंसनीय है..'बसंत'कविता में जहां लिखा है केदार वहाँ हम लिख दें कोई भी नाम,मसलन मस्तराम ,फर्क नहीं पड़ता.कविताओं में कवि की यायावरी प्रवृत्ति दिखाई देती है.कवि अपने भीतर एक बेचैनी लिए शहर दर शहर भटकता है,लखनऊ,दिल्ली,हैदराबाद.पर इस यात्रा में भी उसके पैर कभी भी जमीन से खिसकते नहीं.हमेशा वह आमजन के लिए बेचैन रहता है.कवितायें आत्मविश्वास से भरी हैं.पहाड़ कई बार उसकी कविताओं में आता है..पर हार हमेशा पहाड़ की होती है.यह कवि की प्रतिबद्धता और आत्मविश्वास की जीत है..बुद्धिजीवी भी शैलेन्द्र के व्यंग्य से नही बच पाते.'कौवा और आचार्य 'इसका श्रेष्ठ निदर्शन है..यह कविता लोकगंधी है.यहाँ एक गाँव का आदमी शहरी व्यवस्था या विमर्श को अपने सिर्फ एक मासूम कथन से ध्वस्त कर देता है और वह कथन है-बहरहाल मैं तो गंवार हूँ.शैलेन्द्र की कविताओं का सारा सौन्दर्य उसके 'कहन' में निहित है...बधाई
जवाब देंहटाएं-शशि कुमार सिंह
badhai...
जवाब देंहटाएंगहरी अनुभूति.........बेहतरीन संवेदनात्मक प्रस्तुति|
जवाब देंहटाएंआप सब का बहुत बहुत आभार और धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंशैलेंद्र कुमार शुक्ल की कविताएँ समय से मुठभेड़ करती कविताएँ हैं। इनमें सबसे पहली कविता अदब के शहर लखनऊ के बदलते चरित्र का आख्यान है। पान मसाले के शिकार अपने ही समय और अर्थ को चूना लगाते युवा वर्ग को कवि बड़ी बेबाक शैली मे चेताता हुआ अपने प्रखर तेवर के साथ मिलता है- "एक अदना सा आदमी
जवाब देंहटाएंगोबराए मुह से थूक देता है
शहर के वक्ष पर
और लखनऊ उफ़ तक तक नहीं करता।"
और शहरों की तरह तहज़ीब के शहर लखनऊ ने भी अपना ही लिया है वह सब छल-छद्म जो निगलता है असमय बचपन,स्त्रियों का विश्वास । यह सब उसे कुरूप बना रहा है। लेकिन लखनऊ के बदलते चरित्र में सबसे वीभत्स है उसका हत्यारा हो जाना । कला और संस्कृति को समर्पित शहर में भी उगती बहुमंज़िली इमारतें लखनऊको कला-संस्कृति की नगरी से अर्थ नगरी बना रही है । उसे एक माया नगरी में बदल रही हैं । वह माया नगरी जो व्यर्थ के अर्थ में डूबी हैऔर उन्हें बिना छूए ,"सड़क के मुहाने पर खड़ी मुस्कुराती हुई कोठियों को देख कर।"बगल से निकल जाती है। उसकी 'उमराव जान से दूर ले जा रही है,उसकी यह वृत्ति। यह उसे क्रूर भी बनाती है ,जो उसकी पहचान को ही निगले जा रही है-"यह यह तहज़ीब का शहर है/यहाँ हत्याएं तहज़ीब से होती हैं।"(शब्द सीमा के कारण अभी बस एक कविता पर टिप्पणी ।) -डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
शुक्रिया सर !
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