रविशंकर उपाध्याय के कविता संग्रह 'उम्मीद अब भी बाकी है' की समीक्षा
आज का हमारा समय भयावह द्वैधाताओं का समय है। राजनीति को रौशनी दिखाने वाले साहित्य की स्थिति भी कुछ ठीक नहीं। ग़ालिब के शब्दों में कहें तो 'आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।' आज की सबसे बड़ी दिक्कत आदमी बनने की ही है। ऐसे समय में एक युवा कवि 'था' जो सबसे पहले आदमी था और फिर उसकी आदमियत में भीगीं हुई कविताएँ थीं। 'था' इसलिए कि रविशंकर उपाध्याय जो हमारा अनुज था, दुर्भाग्यवश इस दुनिया में नहीं है। बेहद संकोची रवि अपनी तारीफ़ सुन कर हमेशा सकुचा जाता था, शायद इसीलिए अपने संग्रह पर कुछ सुनने से पहले ही हम सबसे रुखसत कर गया। रवि को श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से कुछ मित्रों ने उसकी कविताओं का एक संकलन 'उम्मीद अब भी बाकी है' नाम से प्रकाशित कराया है जो राधाकृष्ण प्रकाशन से छपा है। हाल ही में उसके जन्मदिन (12 जनवरी के अवसर) पर इस संग्रह का विमोचन उसकी कर्मभूमि बी एच यू में हुआ। भाई रामजी तिवारी इस अवसर के गवाह थे। रामजी तिवारी ने रवि के कविता संग्रह पर एक समीक्षा पहली बार के लिए लिख भेजी है। रविशंकर की स्मृति को याद करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं रामजी तिवारी की यह समीक्षा।
'जो लिखा, वही जिया’
रामजी तिवारी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
के राधाकृष्णन सभागार में गत 12 जनवरी को रविशंकर उपाध्याय के कविता-संग्रह ‘उम्मीद
अब भी बाकी है’ का लोकार्पण हुआ। उसी
रविशंकर उपाध्याय के कविता संग्रह का, जो पिछले साल 19 मई
को इस दुनिया को सदा-सदा के लिए अलविदा कह गए थे।
सनद रहे कि 12 जनवरी को उनका जन्मदिन था, इसलिए उनके शुभेच्छुओं ने उन्हें
श्रद्धांजलि देने के लिए इस कविता-संग्रह को प्रकाशित करने का तरीका चुना। इस मौके पर दूर-दराज से आये उनके दोस्त-मित्रों ने
उनकी याद को साझा करने के साथ-साथ उनकी कविताओं पर भी बातचीत की, जिसका लब्बोलुआब यह था कि उनसे मिलने वाले लोग तो उनके जीवन को हमेशा याद रखेंगे ही, यह कविता-संग्रह उन्हें बहुत सारे
अनजाने-अदेखे-अपरिचित लोगों तक भी पहुंचाएगा।
बनारस से बलिया लौटते
समय ट्रेन में मैं उनका कविता संग्रह पढ़ गया। और
एक-दो दिन ठहर कर एक बार फिर से। कह सकता हूँ, कि जब से
यह कविता-संग्रह सामने से गुजरा है, मन में उसी दिन से इस पर लिखने की इच्छा भी
कुलांचे मार रही है। लेकिन दिक्कत यह है कि
जब भी लिखने के लिए कुछ सोचता हूँ, तो उनका जीवन सामने आ कर खड़ा हो जाता है। वह जीवन, जो बेशक महान और बड़ा जीवन नहीं था, लेकिन आदमियत
से इतना ओत-प्रोत था, कि साधारण होते हुए भी प्रत्येक दौर के लिए अनुकरणीय बन गया। यह इसलिए भी कह रहा हूँ, क्योंकि इस दौर में साधारण आदमी
बनना भी कोई साधारण काम नहीं रह गया है।
हुआ तो यह है कि लोग-बाग़ आदमी होने तक की आवश्यक शर्तों को भी भूलने लगे हैं। यदि ‘रविशंकर’ के जीवन में ईर्ष्या, द्वेष, लोभ और
लालच का हिस्सा रहा होगा, तो उतना ही गौड़ रूप से रहा होगा, जितना रहने में एक आदमी
को आदमी कहा जा सके। बाकि उनके जीवन में मुख्य
जगह प्रेम, दया, क्षमा, बंधुत्व और कर्तव्यनिष्ठा जैसे भावों की ही अधिक थी।
इसलिए यह अनायास नहीं
है, कि हम जब भी उनकी कविताओं पर लिखने के लिए बैठते हैं, तो उनका जीवन उन्हें
छेंक कर खड़ा हो जाता है। और यह इसलिए नहीं है
कि उनकी कविताएँ मानीखेज नहीं हैं, या कि उनमें गहराई नहीं है। वरन इसलिए कि उन कविताओं से बनने वाला जीवन इतना बड़ा
और मानीखेज है, कि उसके आगे सब कुछ धुंधला दिखाई देता है।
जिस दौर में चर्चित और नामी-गिरामी रचनाकारों पर लिखते समय उनके जीवन को परे
धकेलना पड़ता हो, उनके जीवन के भीतर प्रवेश करते समय उनकी कविताओं का रंग उड़ने लगता
हो, वे हलकी और हास्यास्पद दिखाई देनें लगती हों, उस दौर में ‘रविशंकर’ उस पूरी
प्रक्रिया को सकारात्मक तरीके से पलटते हैं।
जिस दौर में पाठकों को आमतौर पर समकालीन कविता से यह शिकायत होती हो, कि उसमें
लेखन और जीवन के बीच का अंतर काफी बड़ा होता चला गया है, कि अपनी कविताओं में बड़ी-बड़ी
बाते करने वाले कवि लोग, अपने जीवन में अत्यंत बौने होते चले गए हैं, उस दौर में
‘रविशंकर’ अपनी कविताई को अपने जीवन से जोड़ कर पाठकों का भरोसा भी जोड़ने का काम
करते हैं।
इस संग्रह को पढ़ते समय
सबसे पहले तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह संग्रह ‘रविशंकर’ की योजना के हिसाब
से नहीं आया है। बल्कि कहें तो उनके
पहले और अधूरे ड्राफ्ट की कविताओं के सहारे आया है। उन्होंने
जो लगभग चालीस कवितायें लिखी थीं, उन कविताओं से वे खुद कितना संतुष्ट थे,
और यदि संग्रह के रूप में उन्हें लाना होता, तो
इनमें से किसे रखते, किसे छाँटते, किसे
काटते और किसे संशोधित-परिवर्धित करते, कहना कठिन है। उनके मित्र बता रहे थे कि अभी उनके मन में
कविता-संग्रह लाने की कोई योजना नहीं थी। तो
जाहिर है, यह उनके मन का संग्रह नहीं है। लेकिन उनके असमय चले जाने के बाद अब जो भी हो सकता है, यही हो सकता है। यह सोच कर कि इन
कविताओं के सहारे ‘रवि’ हमें साहित्य की किस उर्वर जमीन पर लेकर जाना चाहते होंगे,
इस संग्रह को देखा और पढ़ा जाना चाहिए।
इस संग्रह में कुल मिला
कर चालीस कवितायें हैं, जो 90 से जरा कम पृष्ठों में ही सिमटी हुई हैं। जैसे कि उनके जीवन ने इस दुनिया में, मात्रा के हिसाब
से बहुत कम जगह छेंका, और अन्यों के लिए बाकी ढेर सारा छोड़ दिया, उसी तरह उनकी
कविताओं ने भी मात्रा के हिसाब से, समकालीन कविता में बहुत अधिक जगह छेंकने को
कोशिश नहीं की है। लेकिन मुझे यह कहने की
इजाजत दीजिए कि जैसे उनका यह अधूरा और संक्षिप्त जीवन हमें इतनी सारी प्रेरणाएं
देता है, हमारे सामने मानवीय संबंधों के इतने सारे दरवाजे
खोलता है, वह गुणात्मक रूप से इतना बड़ा दिखाई देता है, वैसे
ही उनका यह अधूरा और संक्षिप्त संग्रह भी ‘युवा-कविता’
के बहुत सारे आयाम निर्धारित करता है, बहुत सारी राहें खोलता है। यह संग्रह उनके जीवन से पूरी तरह से मेल खाता है,
क्योंकि इसमें भी हर तरह की कुलीनता और महानता से दूर रहते हुए, ‘आदमी’
बनने की सक्रिय तलाश है। इन
चालीस कविताओं में ईमानदारी और प्रतिबद्धता एक करेंट की तरह से बहती है, जहाँ से
उनका लोक, प्रेम की उद्दात्त भावना, समय-समाज की नब्ज और मृत्यु से दो-दो हाथ करने
वाली कविताएँ मुखरित होती हैं।
प्रत्येक महत्वपूर्ण
रचनाकार की तरह ‘रविशंकर’ की कवितायें भी अपने परिवेश से जुड़ कर ही आकार लेती हैं,
और उसी के सहारे देश-दुनिया से तादात्म्य स्थापित करती हैं। ध्यान रहे कि यहाँ बरगद, कछार, गोलंबर, स्टेशन और गाँव
की मिट्टी, किसी अतीतजीविता के कारण नहीं आती, वरन वे इसे अपने परिवेश से गहरे
जुड़े होने के कारण परखने और आलोचित करने के लिए ले आते हैं। उस फैशन से दूर, जो कि आज के दौर में अपने देश-जवार से
कट गए अधिकाँश कवियों की कविताओं में दिखाई देता है। कि
जो अपनी जड़ों से उखड़ कर किसी महानगरीय हवा में तैर रहे होते हैं, और अपनी जमीन की
बात आते ही विभोर होते दिखने की कोशिश करने लगते हैं। इन
कविताओं में गाँव के बरगद में कई ‘बरोहों’ को झूलते देखने की उम्मीद है, तो उसी
गाँव से पागल हुई निकली वह औरत भी है, जो आज किसी नगर में भटक रही होती है। जिसे गाँव ने यह पागलपन रसीद किया है, कि वह नौजवान
शराबी लफंगों के लिए ‘अपने जिस्म की दान-दात्री’ बन जाए।
इस देखने के प्रयास में गाँव की ओर ले जाने वाला मुगलसराय रेलवे स्टेशन भी आता है,
और उस मिट्टी की सोंधी सुगंध भी, जिसके बारे में वे कहते हैं कि
“हे ईश्वर ....!
मेरी इन पथराई आँखों
में इतना पानी भर दो
कि मैं इस मिट्टी को
भिगो सकूं
और उससे उठती सोंधी
सुगंध को
अपने रोम-रोम में सहेज लूं।”
रविशंकर
गाँव से निकल कर शहर के गोलंबर तक पहुँच गयी उन कतारों को भी देखते हैं, जिनकी
आँखों में साफ़ कपड़े वालो को देख कर एक चमक सी उठ जाती है। जो
अपने जांगर के पसीने को बेचने के लिए रोज-रोज उस शहराती और कस्बाई गोलंबर पर बिकने
के लिए खड़े होते हैं।
रविशंकर अपनी कविता में कहते हैं ....
“हर आने वाले बाबुओं पर होती हैं
उनकी कातर निगाहें
जो लिए-लिए फिरते हैं
उनकी आकांक्षाओं की पोटली
जिनमें बंधी होती है
नन्हीं-नन्हीं पुतलियों की चमक
कहते
हैं, किसी भी व्यक्ति को परखने का एक तरीका यह भी होता है कि उसके प्रेम को परखा
जाए। कि वह उसमें कितना डूब सकता
है और कितनी गहराई तक जा सकता है। ‘रविशंकर’
की कविताओं में इसकी खूब आहट सुनाई देती है।
‘तुम्हारा आना’, ‘सुनना’, ‘कविता में तुम’, ‘उदास ही चला गया बसंत’, ‘अँखुआने लगे
नए अर्थ’ और ‘समुद्र मैं और तुम’ जैसी कविताओं से यह पता चलता है, जो वह किन
संवेदनाओं से संपृक्त आदमी थे। कुछ
बानगी देखिए ...
“तुम्हारा आना ठीक उसी तरह है
जैसे रेंड़ा के बाद फूटते हैं धान
और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर।” .....(तुम्हारा आना)
और यह
भी
“समुद्र का मन भर जाता है
जब मिलती हैं नदियाँ
नदियों की भी मिट जाती है प्यास
जब वे समा जाती हैं समुद्र में।” .............. (समुद्र मैं और तुम)
और फिर
रविशंकर की कवितायें उस मुकाम पर पहुंचती हैं, जहाँ से उनके भीतर का सामाजिक आदमी
आकार लेता है। संग्रह की पहली कविता ’21 वीं सदी का महाकाव्य’ में उनका तेवर और
इरादा स्पष्ट हो जाता है, जिसमें वे कूड़ा बीनने वाले 12 साल के बच्चे को देख कर
कहते हैं कि
“क़स्बे की नालियाँ और कूड़ाघर ही
बन चुके हैं उसके कर्मक्षेत्र
जहाँ वह दिन भर तलाशता है
अपनी खोई हुयी रोटी
और नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से
सड़क की पटरियों पर लिखता है
21 वीं सदी का महाकाव्य।”
इन
कविताओं में रविशंकर की सोच ही नहीं, वरन उनका जीवन भी साफ़ तौर पर उभर कर सामने
आता है। “मुक्ति’, “आदमी और
मच्छर’, ‘रोटी’, ‘उम्मीद अब भी बाकी है’, ‘यह समय’, ‘मूर्तियाँ’, ‘शान्ति रथ’ और
‘विकास रथ के घोड़े’ जैसी कविताएँ यह बताती हैं कि बाहर से ऐसा दिखने वाला वह आदमी,
भीतर से किन विचारों से बना हुआ था, या कि बन रहा था। अपने
समय और समाज पर पक्ष चुनने का उनका विवेक तो साफ़ है ही, उन्हें जांचने और परखने की
दृष्टि भी साफ़ और पैनी है। वे, जो
इतना साधारण जीवन जीने का हुनर रखते हैं, तो इसलिए कि वे हर तरह की भव्यता को ठोकर
मारने की हिम्मत भी रखते हैं।
“भव्यता ने मुझे हर बार आशंकित किया
है
इतना कि मैं अब आशंकाओं से प्यार करने लगा हूँ
.................................................................
हर क्षण जिलाए रखना चाहता हूँ
अपने प्रेम को
जहाँ सदैव खड़ी हों आशंकाएँ
हर भव्यता के विरुद्ध।”
और जैसे कि हर बड़े रचनाकार
की तरह रविशंकर के पास प्रेम की उदात्त भावनाएं हैं, अपने परिवेश को समझने की ताकत
है, अपने समय-समाज को व्याख्यायित कर पक्ष चुनने का विवेक भी, तो उसी तरह मृत्यु से
दो-दो हाथ करने का हौसला भी उनकी कविताओं में साफ़-साफ़ दिखाई देता है।
“ठीक इसी वक्त
ऊपर से एक तारा टूट कर
गिर रहा था
इसी समय गिर रही थी
चाँदनी, ओस की बूँदें
और पेड़ से पत्ते
इन सबको गिरते हुए देख कर
मैं उस मिट्टी के गिरने
को
देखना चाह रहा था
जो अब भी अँटकी थी मेरे
भीतर।”
रविशंकर उपाध्याय के इस
कविता संग्रह “उम्मीद अब भी बाकी है” का
महत्व इसी बात में है, वह ऐसे कवि द्वारा लिखी गयी कविताओं
से बनता है, जिसके जीवन और लेखन में, नहीं के बराबर का अंतर
है। जिस दौर में जीवन और
लेखन दो विपरीत दिशा में जाने वाले रास्ते बनते जा रहे हैं, उस दौर
में यह बात अत्यंत प्रासंगिक और प्रेरणास्पद है। जीवन
से जुडी इन बेहद महत्वपूर्ण कविताओं को पढने के बाद जैसे तुरत इच्छा होती है कि
रविशंकर को फोन मिलाएं और बधाई दें। मगर
अफ़सोस ......! कि जो अपनी प्रशंसा सुनने से जीवन भर बचता रहा, जो दस
कार्य करने के बाद एक शाबासी लेने से भी कतराता रहा, वह इन
शानदार कविताओं के लिए बधाई लेने से भी अपने आपको बचा ले गया। कि उसने हमारी बात को दिल में ही जज्ब करने के लिए
मजबूर कर दिया। इस कविता-संग्रह को
पढने के बाद लगता है कि उसके साथ इस दुनिया से सिर्फ बेटा, भाई,
मित्र और शिष्य ही नहीं गया, वरन युवा कविता
का एक अर्थवान और महत्वपूर्ण संसार भी चला गया।
अलविदा रविशंकर .....
तुम हम सबके दिलों में बसते हो ...।
‘उम्मीद अब भी बाकी है’
(कविता-संग्रह)
लेखक – रविशंकर उपाध्याय
प्रकाशक – राधाकृष्ण
प्रकाशन
नयी दिल्ली
मूल्य – 200 रुपये
समीक्षक –
रामजी
तिवारी
बलिया,
उत्तर-प्रदेश
मो.न.
09450546312
कविताओं की बानगी देख लग रहा है सच कहा उम्मीद अभी बाकि है ......... बहुत उम्दा और सटीक विश्लेषण करते हुए लिखी है समीक्षा .
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