अष्टभुजा शुक्ल की कविता 'चैत के बादल' पर आशीष मिश्र की एक टिप्पणी
अष्टभुजा शुक्ल |
आसमान में उमड़ने घुमड़ने वाले बादल बचपन से ही हमारे मन में
अनेकानेक कल्पनाओं को जन्म देते हैं। आकाश में अनेक रुपाकृतियाँ निर्मित करते ये
बादल जैसे हमारे सामने एक विविध वर्णी रंग-मंच ही खड़ा कर देते हैं। यही बादल किसानों
के मन को कभी हुलसित कर देते हैं तो कभी घोर चिन्ता-फ़िक्र में डाल देते हैं। जीवन
से इतने गहरे रूप से जुड़े ये बादल साहित्य खासकर कविताओं में भी अपनी समृद्ध उपस्थिति दर्ज कराते
आए हैं। कालिदास के 'मेघदूत' को भला कौन भूल सकता है। इसी क्रम में हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि अष्टभुजा शुक्ल के ‘चैत के बादल’
कविता की याद आती है। हम इस को कविता को मूल रूप में प्रस्तुत करते हुए इस पर लिखी
एक सारगर्भित टिप्पणी भी दे रहे हैं जिसे पहली बार के लिए लिखा है युवा आलोचक आशीष
मिश्र ने। अष्टभुजा शुक्ल की यह कविता भी हमें आशीष के सौजन्य से ही प्राप्त हुई है।
चैत के बादल
अष्टभुजा शुक्ल
मुँह अन्हारे
सन्न मारे
गाँव में माया पसारे
कहाँ से उपरा गये
भड़ुए, अघी ये चैत के बादल!
बालियों से झुकी-झपकी-पकी
धरती सम्पदा का
गेहूँआई आंचल
इनकी कृपा पर छोड़ कर आश्वस्त होना
भूल होगी
इनका, कौन थाया, क्या
ठिकाना?
बिदबिदाएंगे
या पाथर छरछराएंगे
छिनगाएँगे पल्लव
बालियों से अन्न झारेंगे
या करेंगे कुदिन
पशु-परानी के लिए पितकोप
रोग फैलाएँगे
बौर लसियाएंगे
लगने नहीं देंगे टिकोरे
उखमजी व्यवहार से
माघ में
जब सींचना था
तब नहीं लौके
जब बयाना हो गई घर की मसूर
जब फ़सल पक कर हुई तैयार
तब फूँकने खलिहान
आये हैं
राशि की राशि सड़ाने, गड़गड़ाने
चौधराहट दिखाने
चैत के
इन गीदड़रोएँ बादलों को देख र
याद आते हैं
भाद्रपद के वे घने काले मतंगों की तरह
मेल्हते, एंडते, मुड़ियाए चले
जाते
सघन-घन, पनिगर और बतधर
खन-खन बदलते रंग
चैत के
इन नाटकी, मोघी, छछन्नी बादलों
को देख कर
याद आते हैं
वर्ष-वर्षों से तृषित
चातकों को
दो बूँद पानी
हाथ से अपने पिलाते
शरद के शुभ्राभ्र वे सितकेश
पितृव्य जैसे
स्नेह से भीगे नयन, करुनाअयन
भरे परसंताप से
ये मिटाने पर उतारू
गरल जैसा जल उगलने को विकल
चैत के
इन कामरूपी बादलों को देख कर
याद आते हैं
पौष के पीयूषवर्षी मेघ
जिनका एक लहरा ही
फ़सल की डीभियों को
फुन्न रखने के लिए
सींक में सद्भाव भरने के लिए
दूध से भी अधिक लगता है
वैसे, चैत के इन बादलों का
जन्म, इनका कर्म
बनना या बिगड़ना, घिरना या घराना
निर्भर हवा पर, हवा के रुख़ पर
हवा की प्रकृति पर
कभी पुरुवा चली
तो चढ़ गये दोखी
लगे बढ्ने, घुमड़ने, घेरने आकाश
क्षण में छा गये
थोबड़ा दिखाने आ गये
किन्तु उल्टे खींच कर पछुआ चली
तो लगे छँटने, छनमनाने
मुँह बनाने
इधर आने, उधर जाने
जैसे ओसाई जा रही हो राशि
और भूसा उड़ रहा हो दूर जा कर
कहीं पूरब के क्षितिज पर
द्वादशी का चाँद
चाँदी की नई सेई बना
रख उठा आकाश के खलिहान में
और तारे मटर के दानों सरीखे
छितरा गये खलिहान में
कट गये
ये चैत के बादल
हट गये
ये चैत के बादल
छँट गये
ये चैत के बादल!
आशीष मिश्र की टिप्पणी
हिन्दी में बादलों को विषय बनाने वाली कविताओं की एक लम्बी
परंपरा रही है। पर वे बादल मूलतः वर्षा ऋतु के बादल हैं और बहुत कुछ कवि-मन में
भावनाओं की उमड़न-घुमड़न के प्रतीक हैं। रूमानी कवि नीले आसमान में एकाएक झप से छा
जाने और झरझरा कर चू पड़ने को मन के शून्य से उठने वाले मनोभावों की तरह देखते हैं।
सम से उठने वाले आलाप की तरह देखते हैं। शून्य से सृष्टि की तरह देखते हैं। उनके
लिए शून्य, मन या सम किसी किसी ठोस सन्दर्भ की तरह नहीं होता। और अगर
होता भी है तो आदि सन्दर्भ की तरह। वे मन के सन्दर्भ के रूप में बहुवर्णी जीवन-व्यापार
उतना नहीं चाहते। दार्शनिक स्तर पर यह शून्य अकारण या आदि कारण। जिन कवियों के
यहाँ रूमान और रहस्य है वहाँ यही बोध केन्द्र में है। हिन्दी में चैत का बादल विरल
है। मेरी समझ यह है कि ‘चैत का बादल’
प्रकृति के प्रति रूमानी बोध को तोड़ देता है। यह प्रकृति के दुःखद पक्ष से जुड़ा है
जो जीवन को गैर रूमानी यथार्थ की भूमि पर पटक देता है। चैत के बारे में लोक संगीत
में चैता, चैती, घाटो रचा गया है। इसे
मधुमास कहा गया। बिरहिनों ने इसे ख़ूब कोसा है पर चैत में बादल का वर्णन नहीं है।
इस कविता को पढ़ते हुए आप शिवहम्भू के चिट्ठे पर रुकेंगे, बीच
में कोई ठौर न मिलेगा। दोनो ही अपने समय के विडंबनात्मक यथार्थ को पकड़ने की कोशिश
करते हैं।
अष्टभुजा गाँव
और प्रकृति के रूमान के बजाए, जो उनकी पीढ़ी का सामान्य मुहावरा है, पिछले दशकों में आए विडंबनात्मक परिवर्तन को लक्ष्य करते हैं। चैत में
बादल इसी तरह की विडम्बना है। इस कविता में, अगर आप ध्यान से
देखें तो अर्थ-छवियाँ सीमित देश-काल से हमारे समय तक फैलती और गहराती चली जाती
हैं।
कविता बहुत
गहराई से यह दिखती है कि सौंदर्य हमारे जीवन की ठोस ज़रूरतों से जुड़ा है। वह उपयोगी
होकर ही सुंदर हो सकता है। यह उपयोगिता सौंदर्य का सार है। अष्टभुजा समय सापेक्ष
बादलों के दोनों पक्षों को सामने रखते हैं और इस मुहा-मूही से दोनों स्थितियों को
अर्थक्षम बनाते हैं। दूसरे शब्दों में वे ‘फ़्लैश बैक’ में लौट कर हमारे समय की विडम्बना को और भी स्पष्ट-सघन करते चलते हैं।
कहन में किसान
का सहज उद्गार है। जीवन को दुःखद बनाने वाली परिस्थितियों के प्रति सहज प्रतिकृया
है और उसे सुखद और सौंदर्यपूर्ण बनाने वाली परिस्थितियों के प्रति भी। यहाँ सौंदर्य
जीवन से जुड़ाव की सहज प्रतिकृया है। पहला बंद-
“ मुँह अन्हारे
सन्न मारे
गाँव में माया
पसारे
कहाँ से उतरा गये
भड़ुए, अघी
ये चैत के बादल”
अष्टभुजा के
यहाँ कोई भी शब्द अपने पूरे संदर्भ के साथ आता है। इस कारण ठेठ से ठेठ देसज शब्द
या तत्सम शब्द भी आपको कहीं से असहज नहीं लगेंगे, बड़े
ही सहज ढंग से आपके अन्दर खुलते/घुलते चले जाएँगे। इस बंद में सिर्फ भिनसहरे का
बादल नहीं है, कहे जाने का पूरा संदर्भ है। जानकार जानते
होंगे कि कोठेबाज़ लोग चुप-चाप घर का रास्ता पकड़ते हैं। इनमें एक अपराध-बोध छिपा
होता है, वे किसी का सामना नहीं कर सकते। पातकी के मन में भी
अंततः एक नैतिक बोध होता ही है। जिसका उससे खुद सामना करना होता है या फिर उसे
सुला के रखना होता है। ये बादल भी किसानों को नुकसान पहुँचने आए पातकी हैं। इसलिए
दबे पाँव सन्न मारे आते हैं।
अष्टभुजा शुक्ल
में भाषा का इतिहास-भूगोल जितना विस्तृत है, इससे आगे बढ़ कर गाँव की बचन-भंगी
को पकड़ पाने की जो सघन क्षमता है, वह उनकी पीढ़ी में किसी और
के पास नहीं है। इस कविता में ठेठ देसज शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों
तक का प्रयोग हुआ है। गाली से लेकर इस्तक़बाल तक की मुद्रा है। किसान चैत के बादलों
पर बिफ़र पड़ता है, उन्हें गाली देता है तो वह शरद ऋतु के
बादलों को बहुत सम्मान के साथ याद भी करता है।
आशीष मिश्र |
संपर्क-
मोबाईल- 08010343309
अच्छी कविता और अच्छी टिप्पड़ी के लिए बधाई|निश्चित रूप से अष्टभुजा जैसे कवि हीं हिंदी कविता और उत्स को बचा सकते हैं|अष्टभुजा ने जो शिल्प अर्जित किया है उसमें कठिन से कठिन को सहज बना देने की छमता है|यहाँ देशज और तत्सम का भेद मिटता हुआ नजर आता है|यहाँ भारत को घोड़े की सवारी करा देने की क्षमता भी है और हत्था जैसे देशी उपकरण के सन्दर्भ खोलने की ताकत भी | और अब ये चैत के ऐयाश बादलों को महसूसने की समझ तो अद्दभुत ! कवि को भी बहुत-बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता पर एक अच्छी टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता पर एक अच्छी टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता पर सटीक टिप्पणी। सचमुच सब बादल एक तरह के तो नहीं ही होते हैं, और कभी तो बड़े कमियों का रुमान भी चौंका देता है। निराला ने भी चैत के बादल पर लिखा, लेकिन रुमानियत से ही- आज मन पावन हुआ है/ चैत में सावन हुआ है। लेकिन यह पंक्ति चाहे जितनी अच्छी लगे, एक बड़ी सीमा को प्रदर्शित कर देती है। अष्टभुजा जी की कविता इस मामले में सधी हुई है...
जवाब देंहटाएंरचनात्मक समीक्षा की गई है आपके द्वारा और कविता आज भी प्रासंगिक है।
जवाब देंहटाएंचैत के बादल पर हिंदी में इससे पहले कोई कविता नहीं पढ़ी। बेहतरीन किसान चेतना और किसान की किसानी वाला स्वर है कविता का।आशीष भाई को धन्यवाद टिप्पणी के साथ इस सुंदर कविता को प्रस्तुत करने के लिए।
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता, अच्छी टिप्पणी
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