प्रेमनंदन
जन्म- 25
दिसम्बर 1980, फरीदपुर, हुसेनगंज, फतेहपुर (उ0प्र0)
शिक्षा- एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0।
व्यवसाय- अध्यापन।
लेखन-1995-96
से कविता,लघु कथा, कहानी, व्यंग्य, समसामायिक लेख आदि विद्याओं
में।
प्रकाशन- काव्य संग्रह- सपने जिंदा हैं अभी-2005, विभिन्न सहयोगी संकलनों में कवितायें प्रकाशित।
परिचय- लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से। लगभग
दो वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा कुछ वर्षों तक इधर-उधर ’भटकने‘ के पश्चात
सम्प्रति अध्यापन कार्य के साथ-साथ कवितायें, कहानियां, लघु कथायें एवं
समसामायिक लेखों आदि का लेखन एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन।
अपनी सारी खूबियों खामियों के साथ नवोदित कहानीकार
प्रेमनंदन की यह पहली कहानी है. इस नवागत का स्वागत करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं इनकी कहानी ‘तुम मेरी
जिन्दगी हो.’
तुम मेरी जिंदगी हो!
गर्मी की छुट्टियों में नमन अपने
दोस्तों के साथ उत्तरांचल की खूबसूरत वादियों में सैर-सपाटे के लिए आया है। हफ्ते
भर से ज्यादा का समय दोस्तों के साथ मटरगस्ती में कैसे बीत गया, उसे पता ही नहीं चला। उनकी टोली देहरादून,
ऋषिकेश, नैनीताल होते हुए यात्रा के अंतिम पड़ाव हरिद्वार आ पहुँची
है।
सुबह उठ कर सब लोगों ने सबसे पहले
हरि की पौड़ी में स्नान किया और अब वे सब पूजा अर्चना हेतु मनसा देवी के मन्दिर में
उपस्थित हैं। पूजापाठ के बाद वे सब पुजारी द्वारा दिया गया कलावा मन्दिर परिसर में
ही एक विशेष स्थान पर बॉध रहे हैं। उस स्थान के बारे में यह मान्यता है कि इस
स्थान पर कलावा बॉधतें समय मॉगी गयी मन्नतें हमेशा ही पूरी होती हैं और शायद इसी
कारण इस मन्दिर को मनसा देवी का मन्दिर कहते हैं -मन की आशा पूरी करने वाली देवी
का मन्दिर!
उसके सभी दोस्त उस स्थान पर कलावा
बॉध चुके हैं लेकिन नमन अभी तक कलावा हाथ में लिए चुपचाप खड़ा है क्योकि दोस्तों के
अनुसार यहॉ सभी को अपने-अपने चाहने वालों के नाम का कलावा बॉधना है। नमन की उलझन
का कारण दोस्तों की यही शर्त है।
नमन कलावा लिए सोच रहा है-किसके नाम
का कलावा बॉधू ? कोई नाम या चेहरा
उसे याद ही नहीं आ रहा है जिसके नाम का कलावा वह बॉधे जैसा कि दोस्तों का इशारा
था। सच तो यह था कि उसकी जिंदगी में ऐसा कोई था ही नहीं जिसे वह अपने करीब समझता
या जिसे वह प्यार करता हो।
उसने ऑखों को बंद करके अपने को
खॅंगालना शुरू कि तो एक अस्पष्ट सा चेहरा उसकी स्मृतियों में तैरता नजर आया । वह
चौंका । उसने दोबारा और गहराई में उतरते हुए अपने को खॅगालने की कोशिश की तो वह
चेहरा एकदम स्पष्ट होकर उसकी ऑखों में झॉकने लगा। वह एकदम से कॉप-सा गया-यह कैसे
हो सकता है ?
बात ही ऐसी थी! वह एक ऐसी लड़की का
चेहरा था जिसे वह जानता तो पिछले चार-पॉच सालों से था लेकिन कभी भी उसे ऐसी नजरों
से देखना तो दूर, कभी उसके बारे
में ‘उस तरह‘ से सोचा ही नहीं था और आज के पहले उसकी अनुपस्थिति
में नमन को उसकी स्मृति तक नहीं आयी थी।
वह चेहरा नमन के एक मित्र की बुआ
की लड़की नीलिशा का था जो कानपुर में रहती थी और वहीं एक महाविद्यालय से बी.एससी.
की पढ़ाई कर रही थी । नमन का उनके यहॉ अपने उसी दोस्त के साथ आना जाना शुरू हुआ था।
बाद में नमन, धीरे-धीरे उनके
घर का सदस्य जैसे ही हो गया था और नीलिशा के मम्मी-पापा उसके स्थानीय अभिवावक। वह
नीलिशा और उसके छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई वगैरह में थोड़ी बहुत मदद कर देता जिसके
कारण वे सब पढ़ाई में बहुत अच्छे हो गये। वह उनके अंदर सपने बोता, उन्हें कुछ बनने के लिए प्रेरित करता। नमन ने
ही नीलिशा के अंदर भी एम.एससी. करके रिसर्च करने और प्रोफेसर बनने के सपन बोये थे,
जिन्हें पूरा करने के लिए जितना प्रतिबद्ध
नीलिशा थी उतना ही नमन भी।
नमन पड़ोस के जनपद से कानपुर पढ़ाई
के लिए आया था और शहर में किराये का कमरा लेकर एम.ए. करने के बाद वहीं
विश्वविद्यालय से हिन्दी में रिसर्च कर रहा था और वहीं के अपने दोस्तों के साथ ही
वह यहॉ घूमने आया है।
इसीलिए नमन को जब अपनी ऑखों में जब
नीलिशा का चेहरा तैरता नजर आया तो एक क्षण के लिए कॉप-सा गया। वह कुछ समझ नहीं पा
रहा था इसलिए कलावा लिए चुपचाप खड़ा था कि एक दोस्त ने उसे टोंका-क्यों नमन,
क्या सोच रहे हो? चलना नहीं है क्या? कलावा बॉंधों जल्दी और चलो।
नमन ने हड़बड़ी में नीलिशा के नाम का
कलावा बॉध दिया और दोस्तों के साथ आगे बढ़ गया। कलावा बॉधने के बाद उसे न जाने क्यों
नीलिशा की एक बहुत ही तीव्र और गहरी याद आयी जिससे वह मंदिर परिसर में ही नीलिशा
से बात करने को बेचैन हो उठा। उसने अपने मोबाइल से नीलिशा के घर का नम्बर डायल
करना चाहा, लेकिन उसकी उॅगलिया पता
नहीं क्यों कॅापने लगी। आखिरकार कॅपकॅपाती उॅगलियों से उसने नीलिशा के घर का नम्बर
मिला दिया। संयोग से नीलिशा ने ही फोन उठाया। उसने हैलो, हैलो, कहा लेकिन नमन
कुछ बोल न सका। उसने फोन काट दिया। हिम्मत करके नमन ने दुबारा फोन मिलाया। उधर
नीलिशा ने ही फोन उठाया। मोबाइल पर बात करते समय नमन की आवाज जैसे किसी गहरी खोह
से आ रही थी । नीलिशा पहले तेा नमन की आवाज ही न पहचान पायी जब नमन ने अपना नाम
बताया तो नीलिशा ने पूछा- क्या बात है ? आपकी तबियत तो ठीक है ? आपकी आवाज बहुत
बदली हुई लग रहीं है। नमन बस हॉ-हॅू ही करता रहा ,इतना बोलने में ही उसकी जबान लड़खड़ा रहीं थी। उधर नीलिशा की
बातों का अंत न था। वह पूछ रहीं थी-आप हम लोगों के लिए क्या ला रहे हैं और कब तक
लौट रहे हैं आप। बहुत मौजमस्ती कर रहें होंगे आप वहॉ तो...।
जितनी देर नीलिशा बातें करती रही,
नमन बस उसकी बातें सुनता रहा । बीचबीच में
हॉ-ना करके चुप हो जाता। आज उसे नीलिशा की बातें सात सुरों के सरगम से भी ज्यादा
सुरीली लग रहीं थीं। नीलिशा ने यह कह कर कि -जब वापस आइये तो सीधे घर आइयेगा -फोन
काट दिया।
उस क्षण के बाद नमन को जैसे होश ही
न रहा। उसको एक मीठी मदहोशी ने अपने आगोश में ले लिया। उसने दोस्तों के साथ वहॉ पर
कुछ सामान खरीदा और एक खोयी-खोयी सी पुलक लिए वापस अपने शहर के लिए रवाना हो गया।
नमन दोस्तों के साथ जब सुबह संगम एक्सप्रेस से कानपुर पहुँचा तो वह न जाने
किस प्रेरणा से अपने कमरे न जाकर नीलिशा के घर पहुँच गया। उस समय नीलिशा घर में
अकेली थी क्योकि उसके भाई-बहन मम्मी-पापा के साथ परमट के मंदिर में हो रहे भोज में
शामिल होने के लिए गये हुए थे। नीलिशा ने ही गेट खोला आज उसे नीलिशा अजनबी सी लगी
वह उसके बगल से निकल कर बिना कुछ बोले ही घर के अंदर चला गया। नीलिशा के नमस्ते का
जवाब तक नहीं दिया। नीलिशा आश्चर्यचकित होकर नमन को देखते हुए चाय-नास्ता लायी
लेकिन नमन अब भी गुमसुम ही बना रहा। नीलिशा ने ही चुप्पी तोडते हुए बोली-क्या बात
है? लगता है, बहुत थक गये हैं? नास्ता कर के आप आराम करिये, तब तक सब लोग भी आ जायेंगे। आज मंदिर में भोज था वहीं सब
लोग गये हैं मैं भी जाने वाली थी लेकिन फिर मन नहीं हुआ।
नीलिशा की बात का नमन ने कोई जवाब नहीं
दिया लेकिन जब वह जाने लगी तब नमन ने उसका हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बैठा लिया।
नीलिशा चुपचाप बैठ गयी। कुछ कहने के लिए नमन के ओंठ कॅपकॅपाये लेकिन वह कुछ बोल न
सका, बस उसने तख्त पर टिकी
नीलिशा की हथेली पर अपनी हथेली पर रख दी। नीलिशा ने नमन की ऑखों में झॉक कर देखा
लेकिन अपनी हथेली नहीं हटायी। नमन को पता नहीं क्या हुआ- उसने नीलिशा की हथेली
उठाई और चूम लिया। दोनों की ऑखें एक दूसरे की ओर उठी और फिर अचानक झुक गयी। यह सब
कुछ इतना अचानक हुआ कि दोनों कुछ भी नहीं समझ पाये। कुछ क्षणोपरान्त नीलिशा अपनी
हथेली छुड़ा कर अन्दर चली गयी तब नमन को होश आया। उसके मुँह से बेसाख्ता निकल गया -अरे! यह मैने क्या किया?
उधर नीलिशा किचन में पहॅुच कर कुछ
देर तक अपलक उस हथेली को देखती रही जिसको अभी-अभी नमन ने चूमा था। फिर उसने अपनी
उसी हथेली को डरते-डरते धीरे से चूमा...एक बार... दो बार...फिर बार-बार...
हजारों-हजार बार...। उसका तन-मन एक अनोखी पुलक से इतना भर गया कि वह किचन में
झूमने-सी लगी। ये सब बातें नमन को बाद में नीलिशा ने ही बताई
थी।
तब तक नीलिशा के मम्मी-पापा, भाई-बहन सभी मंदिर से वापस आ गये। नीलिशा के
भाई बहन उससे लिपटे पड़ रहे थे लेकिन नमन इस डर से कि नीलिशा पता नहीं क्या
प्रतिक्रिया करे-वह खोया-खोया सा ही रहा। सब लोगों ने यही समझा कि नमन थका है,
इसलिए गुमसुम है। उसने अपना सूटकेस खोल कर वहॉ
से लायी कई चीजें -नीलिशा की मम्मी के लिए मनसा देवी का बड़ा सा चित्र, उसके पिताजी के लिए भजनों के कैसेट, भाई के लिए बाइस्कोप, और बहनों के लिए चाभी के छल्ले आदि उसने यंत्रवत उन सबके
बीच बॉट दीं।
लेकिन इस दौरान नमन बहुत डरा हुआ था।
वह सोच रहा था कि लगता है नीलिशा नाराज हो गयी है। मम्मी पापा के आने के बाद एक
बार भी नीलिशा उसके सामने नही आयी। कहीं यह सब उसने अपने मम्मी-पापा से बता दिया
तो क्या होगा? वह ऐसे ही
ख्यालों में खोया खोया एक अनजानी आशंका एवं डर में झूलता रहा। तब तक नीलिशा खाना
बना चुकी थी। नमन ने सब के साथ वहीं भोजन किया और हड़बड़ी में अपना सूटकेस वहीं छोड़ कर
अपने कमरे चला आया।
कमरे में आ कर भी उसे नीलिशा
का चेहरा परेशान किये रहा । वह सोचता रहा-अब तक तो शालिनी ने अपने मम्मी-पापा से
सुबह वाली हरकत बता दी होगी और वे गुस्से में उसके लौटने का इंतजार कर रहे होगें।
मैं भी अजीब पागल निकला जो अपना सूटकेस उसके घर छोड़ आया हूँ। यह सब सोच-सोच कर जब
उसका सिर चकराने लगा और कमरे के एकांत में उसका दम घुटने लगा तो वह दोस्तों से
मिलने के बहाने कमरे से निकल कर सड़कों पर बदहवास पागलों की तरह घूमता रहा। जब सड़को
पर उड़ती धूल और वाहनों का कानफोड़ू शोर भी उसके अन्दर उमड़-घुमड़ रहे शोर को कम न कर
सका तो वह अनचाहे ही एक टाकीज में अंतिम शो की टिकट ले कर घुस गया। हाल के अन्दर
भी वह इसी उधेड़बुन में खोया रहा और सोचता रहा कि उसने आज अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी
गलती करके एक बहुत ही भली लड़की और उसके परिवार का विश्वास हमेशा के लिए खो दिया
है।
वह दो-तीन दिन तक एक बदहवास बेचैनी
में झूलता रहा और इधर-उधर भटकता रहा। न खाना खाया न ही नहाया-धोया। आज भी वह
बिस्तर में मुँह छिपाये लेटा था कि उसके मोबाइल की घण्टी ने उसके दिमाग में चल
रहीं माथापच्ची को रोका। उसने मोबाइल में नीलिशा के घर का नम्बर देखा तो उसका
कलेजा मुँह को आ गया । पहली कॉल में उसने मोबाइल को को छुआ तक नहीं । इस समय उसे
यह लग रहा था कि धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये ताकि उसे मोबाइल की कॉल न
रिसीव करनी पड़े लेकिन वह इतना भाग्यशाली नहीं था कि धरती फट जाती । यह सब
सोचते-सोचते उसके मोबाइल पर दो-तीन मिस्ड काल आ चुकी थीं और अब शायद चौथी कॅाल
उसके कानों के पर्दे फाड़े डाल रही थी।
नमन ने डरते-डरते काल रिसीव की तो उधर से
नीलिशा के छोटे भाई राजन की मासूम आवाज से उसकी तन्द्रा वापस लौटी। राजन बोल रहा
था -आपकी तबियत तो ठीक है? कल मेरा अंग्रेजी
का टेस्ट है, आप ठीक हो तो शाम को एक घण्टे के लिए घर आ जायें और मेरी
तैयारी करा दें। नमन ने बस अच्छा ही कहा और फोन काट दिया।
उसने सोचा कि शायद नीलिशा ने अपने घर में
कुछ नहीं बताया है तभी तो राजन ने उसे घर आने के लिए कहा है । लेकिन वह पूरी तरह
से तनावमुक्त नहीं हो सका लेकिन राजन के फोन से उसे कुछ तसल्ली मिली और वह नहाने
के लिए बाथरूम में घुस गया।
शाम को वह डरते-डरते नीलिशा के घर पहुँचा,
वहॉ पर सब कुछ पहले जैसा ही था। राजन अपनी
कॉपी-किताबे लिए उसका इंतजार ही कर रहा
था। वहॉ पर सभी का सामान्य व्यवहार देख कर वह भी कुछ सामान्य होकर राजन को
अंग्रेजी पढाने में व्यस्त हो गया लेकिन उसके कान और ऑखें कहीं कुछ और ही खोज रहे
थे। हिम्मत कर के उसने राजन से नीलिशा के बारे में पूछा तो उसने बताया की दीदी की
तबियत परसों से खराब है, वह उपर अपने कमरे
में लेटी हुई है और पिता जी उसी की दवा लेने डॉक्टर साहब के पास गये हैं। यह सुन कर
उसके मन में एक अजीब सी हलचल मच गयी। उसकी इच्छा हुई कि वह नीलिशा के पास जाकर
उसका हाल-चाल पूछे लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई। जब कि यह घर उसका अपना जैसा था और
उसे किसी भी कमरे में आने-जाने की पूरी छूट थी। इसके बाद नमन का मन राजन पढ़ाने में
नहीं लगा, और नीलिशा की मम्मी और
बहनों से इधर -उधर की बातें करके उनके चेहरों पर कुछ ढूढ़ता रहा लेकिन उसे उनके
चेहरों में ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे उसे यह संकेत मिलता कि नीलिशा ने उन्हें उस
दिन की हरकत के बारे में कुछ भी बताया है।
नमन कुछ शुकून और कुछ नई उलझनें
मन में समेटे अपना सूटकेस ले कर अपने कमरे की ओर चल दिया। रास्ते भर तरह-तरह के
विचार शिकारी कुत्तों की तरह उसका पीछा करते रहे और वह एक मासूम खरगोश की तरह उनसे
बचने की कोशिश में एक रिक्शे से टकरा कर चोटिल हो गया। पैरों में लगी चोट उसके
दिमाग तक में चिनचिना रही थी लेकिन वहॉ कुछ और भी था कि चोट के दर्द की चिनचिनाहट
अपने आप कम होती जा रहीं थी।
कमरे पर पहुंच कर उसने जब अपना
सूटकेस खोला तो कपड़ों के बीच से उसे एक कढ़ा हुआ रूमाल झॉकता नजर आया। नमन ने
उत्सुकता से उस रूमाल को निकाला । वह बड़े करीने से तहा कर रखा हुआ था। उसने रूमाल
को खोला तो वह सीधे सात समुन्दर पार परियों के देश में पहुच गया क्योकि उस रूमाल
पर एक जानी-पहचानी हैण्डराईटिंग में चमकीले अक्षरों में लिखा था -'यू आर माई लाइफ!'
उस समय नमन को लगा जैसे पूरी दुनिया उससे
कह रहीं हो -'यू आर माई लाइफ.....!' तुम मेरी जिंदगी हो....! यू आर माई लाइफ...! और इस समय पूरी दुनिया में उसे एक ही चेहरा
तैरता नजर आ रहा था-नीलिशा का चेहरा ! हॅसती खिलखिलाती नीलिशा का चेहरा...!
धीरे-धीरे नीलिशा की बातें, खिलखिलाहटें, और रूमाल पर लिखे शब्द-यू आर माई लाइफ...! उसे अपनी आगोश में लिए आसमान की ओर उड़े जा रहे
थे।
दूसरे दिन सुबह नमन अपने कमरे की
साफ-सफाई कर रहा था कि उसे दरवाजे पर एक आहट सुनाई दी। उसने पलट कर देखा, सामने नीलिशा खड़ी थी। नमन का कलेजा मुँह को आ
गया और उसकी सॉसे थम-सी गयीं। दोनो के बीच पसरे सन्नाटे को नीलिशा ने ही तोड़ा।
वह बोली-कल शाम को पता चला कि आपको चोट लग
गयी है तो मैं रात भर सो नहीं सकी इसीलिए सुबह ही देखने चली आयी। कहॉ-कहॉ चोट लगी
है? बहुत ज्यादा चोट तो नहीं
लगी?
इतना कहकर नीलिशा उसके पैरों में लगी
चोट को देखने लगी, नीलिशा के छूते
ही नमन के अंदर का बॉध टूट गया और उसके ऑखों के रास्ते झरने सा बहने लगा। दोनों
गुम्फित-प्रतिगुम्फित होकर उस झरने में बहुत दूर तक बहते चले गये। होश आने के बाद
भी वे देर तक चुम्बित-प्रतिचुम्बित खडे़ रहे।
उसके बाद नमन जब भी नीलिशा के
घर जाता ,वह उसके सामने कम ही आती
पहले जैसी बेतकल्लूफी बंद हो गयी लेकिन नीलिशा कभी अकेले तो कभी अपने छोटे भाई
राजन को लेकर कभी कुछ पूछने के बहाने, कभी कुछ खरीदने के बहाने उसके कमरे आ धमकती, और दोनो घण्टो बतियाते हुए एक दूसरे में खोये रहते।
इसी दौरान नमन की
रिसर्च पूरी गयी और उसको शहर के एक महाविद्यालय में नौकरी भी मिल गयी जिसके कारण
नमन का उनके घर आना-जाना पहले से काफी कम हो गया। अब वे अक्सर कालेज की लाइब्रेरी
या किसी पार्क में मिलते और मिलते ही नमन जब नीलिशा से पढ़ाई की बारे में पूछता तो
वह खीझ कर कहती-मुझे नहीं पढ़ना-लिखना, नहीं बनना प्रोफेसर। जब देखो पढ़ाई की ही बातें, आपको कोई और बात ही नहीं करनी आती। खुद प्रोफेसर बन गये हैं
तो जनाब, दूसरे की पढ़ाई
करा-करा कर जान ही निकाल लेंगे?
नीलिशा की ये बातें सुन कर जब नमन
उदास हो जाता तब नीलिशा उसके पूरे चेहरे को चुम्बनों से भर देती और कहती- अच्छा
बाबा, हम बनेगें प्रोफेसर अपने
लिए तो नहीं लेकिन आपके लिए तो अवश्य ही तब नमन उसके सीने में किसी बच्चे सा छिप
जाता और नीलिशा की उॅगलियॉ देर तक उसके बालों से खेलती रहतीं। यद्यपि नमन को
नीलिशा के विषय की अधिक जानकारी नहीं थी क्योंकि वह साहित्य का छात्र था फिर भी वह
नीलिशा की पढ़ाई में हर संभव मदद करता।
उनका शहर छोटा था और सपने बड़े। उनके सपने एक
विशाल कैनवास की मॉग करने लगे थे और अब वे शादी करना चाहते थे। लेकिन मुश्किल यह
थी कि यह बात नीलिशा के मम्मी-पापा को कैसे बताई जाये! नमन ने अपने कई दोस्तो से
इस बारे मे चर्चा की, उन सबका यही कहना
था कि उसे इस बारे में खुद बात करनी चाहिए।
हिम्मत कर के नमन ने एक दिन नीलिशा
की उपस्थिति में ही उसके मम्मी-पापा से बात की तो नीलिशा के पापा यह सुनते ही आग
बबूला होकर नमन को भला-बुरा कहने लगे।
उन्होने नमन को धमकाते हुए कहा -हमने तुम
पर इतना विश्वास किया और तुमने हमारे साथ ऐसा विश्वासघात किया है , यदि तुम दोबारा हमारे घर के आस-पास भी दिखे तो
तुम्हारी खैर नहीं। फिर उन्होंने नमन के पूरे वर्ग को ही घटिया, बदचलन और कमीना घोषित करके, गाली-गलौज करते हुए
,धक्के मार कर घर से बाहर
निकाल दिया।
नीलिशा ने जब इसका विरोध किया तो
उन्होने उसको भी भला-बुरा कहा और घर से बाहर निकलने पर पाबन्दी लगा दी। जिससे उसका
कालेज आना-जाना भी बन्द हो गया। नीलिशा ने कई बार अपने मम्मी-पापा को मनाने की
कोशिश की और यह समझाने को प्रयास किया कि वह नमन को प्यार करती है और उसके बिना
नहीं जी सकती। लेकिन उसकी बातों से नाराज हो कर जब वे उसे प्रताड़ित करने लगे तो एक
दिन उसके सब्र का बॉंध टूट गया। उसने अपने मॉ-बाप को दोषी ठहराते हुए एक सुसाइड
नोट लिखा और ढेर सारी कीटनाशक दवा खा कर अपनी जीवन लीला समाप्त करने का फैसला कर
लिया!
नमन को जब नीलिशा के एक सरकारी अस्पताल
में जीवन और मौत के बीच संघर्ष करने की खबर मिली तो वह बदहवासी के आलम में अपने
कुछ दोस्तों के साथ अस्पताल पहुँचा । नीलिशा की हालत देख कर उसने उसके पापा को
धमकाते हुए कहा कि यदि नीलिशा को कुछ हुआ तो वह उन्हे भी जिंदा नहीं छोड़ेगा। इसके
बाद वह नीलिशा को एक प्राइवेट नर्सिंग होम में इलाज के लिए ले गया, जहॉ बड़ी मुश्किलों के बाद नीलिशा को बचाया जा
सका।
साथ में उसके मम्मी -पापा भी गये थे।
नीलिशा के ठीक होने पर उन्होने नमन को , नीलिशा को साथ लेकर घर चलने को कहा तो पहले नमन इसके लिए तैयार न हुआ लेकिन
ज्यादा जोर देने पर वह उनके साथ घर जाने को तैयार हो गया। बेटी को मौत के मुँह से
निकल कर अस्पताल से घर वापस आते समय उनकी ऑंखें खुशी से नम थीं और उनमें नमन के
लिए कृतज्ञता झलकी पड़ रहीं थी।
दूसरे दिन नीलिशा के पापा ने नमन को
फोन करके घर बुलाया। उन्होने नीलिशा और उसकी मम्मी के सामने ही नमन से कहना शुरू
किया -देखो नमन, तुम लोगों के
बारे में इधर उधर से कुछ उड़ती हुई बातें हमको मालूम हुईं थीं लेकिन हमें अपनी बेटी
पर विश्वास था कि हमारी बेटी ऐसा कुछ भी नहीं करेगी जिससे हम लोगों की बदनामी हो।
सच कहा जाये तो हमें नीलिशा से ज्यादा तुम पर विश्वास था। लेकिन अब जब इतना सब हो
ही गया है तो हम कुछ कहना चाहते हैं, पहले तुम दोनों हमारी बात को ध्यान से सुन लो फिर तुम लोगों की जो मरजी हो
करना।
उन्होंने फिर कहना शुरू किया
-देखो बेटा, अभी हमारा शहर
इतना आधुनिक नहीं हुआ है कि वह अपनी बिरादरी से इतर ऐसी किसी शादी को मान्यता दे।
और हमारी दूसरी चिन्ता यह भी है कि अगर
तुम दोनों को शादी की इजाजत दे भी दें तो अपनी दो और छोटी बेटियों की शादी हम कहॉ
करेंगे? इस रिश्ते के बाद बिरादरी
में तो हमारी नाक ही कट जायेगी! हम समाज में किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं
रहेंगे!
उन्होने लगभग रोते हुए नमन और नीलिशा
दोनों से पूछा कि क्या तुम लोग चाहते हो कि हम समाज में मुँह दिखाने लायक न रहें,
तो दोनो ने एक दूसरे की ऑखों में डूबकर, ऑसुओं से भीगे
स्वरों में एक साथ दृढ़तापूर्वक कहा -नही, हम कभी नहीं चाहेंगे कि हमारी वजह से आपकी बदनामी हो, हम कभी ऐसा कोई काम नहीं
करेगें जिससे आपकों शर्मिन्दा होना पड़े।
इतना कहकर नीलिशा, घर के अन्दर चली गयी थी और नमन अपने कमरे चला आया था।
दोनो वयस्क थे और नमन नौकरी भी करता
था। ऐसा नहीं था कि दोनो भाग कर कोर्ट मैरिज नहीं कर सकते थे जैसा कि दोस्तों की
सलाह थी लेकिन दोनो ने ऐसा कुछ भी नहीं किया । वे आदर्श और नैतिकता की बेड़ियों में
बुरी तरह बॅधे हुए थे और चाह कर भी उससे आजाद नहीं हो पा रहे थे! लेकिन वे किसी
मुगालते में नहीं थे और उनकी ऑखों की चमक बताती थी कि इस मामले में किसी निर्णय पर
पहॅुच चुके थे।
समय अपनी रफ्तार से भागा चला जा
रहा था और अब वे दोनो एक साझे सपने को पूरा करने में इतना खोये रहे कि पॉंच साल
कैसे बीत गये इसका पता ही न चला। नीलिशा की लगन और मेहनत तथा नमन के सहयेाग और
मार्गदर्शन से नीलिशा ने एम.एससी. करने के बाद रिसर्च भी पूरी कर ली और एक
महाविद्यालय में बॉटनी की प्राध्यापक हो गयी। यह नमन और नीलिशा , दोनो का साझा सपना था जिसके पूरा होते ही उन
दोनो का और कोई सपना ही नहीं रह गया था!
तमाम पारिवारिक और सामाजिक
दबावों के बावजूद दोनेा ने किसी और का होना मंजूर नहीं किया और नदी के दो पाटो की
तरह आजीवन साथ-साथ बहते रहे, न कभी पूरी तरह
से मिल पाये और न ही पूरी तरह से अलग हो पाये और सारी जिंदगी वे दोनो एक-दूसरे की
जिंदगी बने रहे............!
सम्पर्क:-
‘‘अन्तर्नाद’’
उत्तरी शकुन नगर,
वी0आई0पी0रोड,फतेहपुर,
उ0प्र0-212601।
दूरभाष:- 09336453835
ईमेल- premlodhi25@gmail.com
ब्लाग- आखरबाड़ी
बेहतरीन कहानी ... बधाई....
जवाब देंहटाएं